यश मालवीय का आलेख 'हिन्दुस्तानी ग़ज़ल का आज का चेहरा'
![]() |
यश मालवीय |
ग़ज़ल मूल रूप से अरबी साहित्य की काव्य विधा है जो आगे चल कर विभिन्न भाषाओं जैसे फ़ारसी, उर्दू, नेपाली और हिंदी साहित्य में भी बेहद लोकप्रिय हुई। इस विधा में महबूबा से बातें या उसके बारे में बातें की जाती थी। लेकिन हिन्दी ग़ज़ल ने अपना एक नया रास्ता अख़्तियार किया। दुष्यन्त कुमार का गजल संग्रह ‘साये में धूप’ का प्रकाशन एक युगान्तरकारी घटना साबित हुई। अपनी गजलों में दुष्यंत ने वस्तुत: समकालीन सवालों और चुनौतियों से जम कर मुठभेड़ की। इसने भविष्य के लिए वह रास्ता तैयार किया जो उसकी मजबूती बने। आज के मुद्दे गजल की रचनात्मकता का सच बने हैं। हिन्दी गजल की यात्रा पर यश मालवीय ने विस्तार से रोशनी डाली है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यश मालवीय का आलेख 'हिन्दुस्तानी ग़ज़ल का आज का चेहरा'।
'हिन्दुस्तानी ग़ज़ल का आज का चेहरा'
यश मालवीय
जो ग़ज़ल माशूक़ के जलवों से वाकि़फ हो गई
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो
सुपरिचित ग़ज़लकार अदम गोंडवी का यह शेर सचमुच अब चरितार्थ हो चुकी है। हिन्दी कविता में ग़ज़ल ने वस्तुत: समकालीन प्रश्नों और चुनौतियों से जम कर मुठभेड़ की है। आज के मसायल उसकी रचनात्मकता का सच बने हैं। गीत छायावाद की विशाल छाया से मुक्त हुआ है तो ग़ज़ल भी महबूबा से बातचीत तक ही महदूद नहीं रही है वरन उसने सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों को पैनी और धारदार अभिव्यक्ति दी है। आज की ग़ज़ल समकालीन कविता का ही तेवर ग़ज़ल के छंद में जी रही है। दुष्यंत कुमार के बाद लगभग तीन दशक का रास्ता तय कर चुकी आज की ग़ज़ल संक्रमण के दौर से काफ़ी कुछ बाहर निकल आई है। ग़ज़ल के कथ्य में बदलाव दुष्यंत से पहले ही समझ आने लगा लगा था। रामावतार त्यागी, बलबीर सिंह रंग, शम्भुनाथ शेष आदि रचनाकार ग़ज़ल के पैरहन में नयी कविता और नवगीत के समानान्तर ही युगबोध का स्तर दे रहे थे। ‘साये में धूप’ का प्रकाशन एक युगान्तरकारी घटना थी। दुष्यंत और ग़ज़ल की आंधी का आवेग सारिका के पृष्ठों से ही मिलना शुरू हो गया था।
ग़ज़ल की समकालीन चेतना एक पुष्ट काव्य-बोध के साथ कविता के परिदृश्य पर करवटें ले रही थी। कविता के जनवादी मूल्य, मानवीय चेतना की अभिव्यक्ति, आम आदमी की पक्षधरता, प्रगतिशील चिंतन, यह सारे तत्व हिन्दी कविता में ग़ज़ल के लिए आक्सीजन सिद्ध हो रहे थे। ग़ज़ल के कथ्य में तो प्रारंभ से ही कोई भ्रम या कन्फ्यूजन की स्थिति नहीं थी, उसका शिल्प ही ग़ज़लकारों तक के लिए एक यक्ष प्रश्न बना हुआ था। हिन्दी में ग़ज़ल मात्रिक छंदों के सहारे अपना स्वरूप निर्धारित नहीं कर सकती थी, जबकि हिन्दी में ग़ज़ल के अधिकांश रचनाकारों के पास हिन्दी के ही संस्कार थे। फ़ैशन में ग़ज़ल लिख रहे रचनाकार उसके शिल्प के साथ समझौता करने में नहीं चूक रहे थे। परिणाम यह हुआ कि हिन्दी ग़ज़ल का कारवां अराजकता के दौर से गुजरता हुआ सा दिखने लगा। हड़बड़ी में रचनाकार बनने की जल्दी में कुछ महानुभावों को ग़ज़ल का रास्ता शार्टकट लगा, जबकि यह रास्ता अधिक जोख़िम भरा एवं संजीदगी की अपेक्षा रखने वाला था। ग़ज़ल के शिल्प के लिए तो उसकी जड़ों की ओर जाना ज़रूरी ही था। स्वयं दुष्यंत ने पहले इसका व्याकरण सिद्ध किया, फिर हिन्दी कविता के कथ्य के साथ इससे जुड़े। दुष्यंत के पीछे आ रही पीढ़ी ने ग़ज़ल की पेचीदगी को सहजता से समझा। यह विधा वस्तुत: जटिल अनुभूतियों की सरल अभिव्यक्ति से जुड़ती है। जब इसे हिन्दी कविता पूरे मन-प्राण से अपना रही थी, तो यह भी ज़रूरी था कि उर्दू-फ़ारसी की प्रचलित बहरों पर भी अपेक्षित अभ्यास किया जाता, ताकि एक संपूर्णता के साथ हिन्दी कविता में ग़ज़ल की प्रतिष्ठा होती। यह अभ्यास एक हद तक हुआ भी, तभी तो ग़ज़ल के शेरों में वज़्न का सम्यक निर्वाह होते देखा गया। वह वज़्न लय गति यति के संयोजन का दूसरा नाम है। यह शिल्प जिन रचनाकारों ने नहीं समझा ज़ाहिर है कि उन्होंने बहर से ख़ारिज लूली लंगड़ी बहरी ग़ज़लें कहीं। पर वक़्त बहुत बड़ा निर्णायक होता है। उसने बहुत कुछ कूड़ा-करकट चाल कर रख दिया। संतोष का विषय यह है कि कुहासा छंटा है, स्थितियाँ बदली हैं। ग़ज़ल कोई पंचायत की ज़मीन नहीं थी कि हर कोई उस पर मनमाना आधिपत्य जमाता। बकौल कैलाश गौतम ‘ग़ज़ल ग़रीब की जोरू नहीं है।’ उसने स्पष्ट रूप से बंदर का उस्तरा बनने से इंकार किया। अब ग़ज़ल की जो पीढ़ी आ रही है वह निश्चित रूप से पहले से अधिक सतर्क, सजग एवं जागरुक है। यह चैतन्यता कथ्य के साथ-साथ शिल्प के स्तर पर भी उतने ही घनीभूत रूप में उजागर हो रही है।
ग़ज़ल को भाषा की साम्प्रदायिकता से भी जूझना पड़ा है। आज की ग़ज़ल फ़ारसीनिष्ठ उर्दू का बोझ वहन नहीं कर सकती है और न ही संस्कृतिनिष्ठ हिन्दी का। उसकी पहचान हिन्दुस्तानी लबो-लहजे में ही बनती दिख रही है। कृत्रिमता के दौर को वह पार कर आई है। भाषा के आग्रहियों ने उसका रूप अनजाने ही बहुत अधिक क्षतिग्रस्त किया, मगर अब वह संभल गई है। वह हिन्दी और उर्दू के रचनाकारों के बीच एक पुल का भी काम कर रही है, यद्यपि भाषा की चेतनागत जड़ता अभी पूरी तरह से टूटी नहीं है। अच्छे-अच्छे समझदार लोग भी भाषा के सवाल पर खामोश हो जाते हैं।
ग़ज़ल आज एक अत्यंत लोकप्रिय काव्य विधा है। उसे भाषा के स्तर पर कट्टरपंथियों से बचाए जाने की ज़रूरत है। उन लोगों से बचाना भी ज़रूरी है जो इसका चेहरा विकृत कर रहे हैं। भाषा का सवाल अर्ध और म़जहब के सवाल की तरह जब-तब फन काढ़ लेता है। बहुत से लोग आज भी उर्दू को परायी ज़बान और ग़ज़ल को परायी काव्य विधा मानते हैं जबकि हिन्दी कविता में हस्तक्षेप करने के बाद से ग़ज़ल का पूरी तरह से भारतीयकरण हो चुका है। यहाँ यह ध्यान रखा जाए कि भारतीयकरण का मतलब भगवाकरण नहीं है। हिन्दी को केवल हिन्दुओं की और उर्दू को केवल मुसलमानों की भाषा मानने वालों के दिलों में वास्तव में गहरा खोट है। ग़ज़ल गंगा-जमुनी तह़जीब की हिमायती है, यह कतई संभव नहीं होगा कि आप ग़ज़ल के शेर भी कहें और मंदिर-मस्जिद के प्रकरण पर साम्प्रदायिक भी बने रहें। यहाँ फिर मुझे जनाब अदम गोंडवी का एक शेर याद आता है-
अपना घर नहीं है, राम का घर हम बनाते हैं,
इसे जादूगरी कहिए या कहिए लन्तरानी है।
![]() |
अदम गोंडवी |
हाँ! एक बात अवश्य है। कभी एहतराम इस्लाम की ग़ज़लों पर बोलते हुए उमाकांत मालवीय ने कहा था- ‘‘यदि उर्दू, हिन्दी की ही एक शैली होती तो आज हिन्दी के पाठ्यक्रम में निराला और प्रसाद के साथ मीर और ग़ालिब भी शामिल होते।’’
अध्ययन की सुविधा और प्रवृत्ति को अलग से समझने के लिए एक क्षण को हिन्दी और उर्दू को अलग कर के देखा जा सकता है, अन्यथा दोनों की भाव-भंगिमा कथन लगभग एक से हैं। हिन्दी शब्दों के इस्तेमाल से ग़ज़ल हिन्दी की और उर्दू शब्दों के इस्तेमाल से ग़ज़ल उर्दू की नहीं हो जाती, वरन उसमें अपनी एक परंपरा बोलती है। फ़िराक़ गोरखपुरी हों या लोकप्रिय शायर कृष्ण बिहारी नूर, वे हिन्दी के गाढ़े शब्दों का इस्तेमाल करते रहे हैं, मगर उनकी गणना उर्दू के दिग्गज शायरों में की जाती है। यह बात सही है कि हिन्दी में उर्दू और उर्दू में हिन्दी एकमेक हुई सी लगती है। भाषा की राजनीति करने वाले भाषा के बीच खाई खोद रहे हैं, अन्यथा दोनों भाषाओं को निकट लाने में ग़ज़ल विधा के ऐतिहासिक अवदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता।
इन दिनों छंद की वापसी का नारा बुलंद किया जा रहा है। छंद कहीं काले कोस नहीं गया था, हमीं ने इसकी ओर से आँखें मूंद ली थीं। बदले हुए डिक्शन और भाव-भंगिमा के साथ जब ग़ज़ल परिदृश्य पर आईं तो इसे ग़ज़ल के पुराने पंडितों यानी पुरातनपंथियों के विरोध का गहरा सामना करना पड़ा। धीरे-धीरे अपनी मुखर रचना-शक्ति के बल पर यह अस्वीकृति की राह पर बढ़ी पर आज भी वह आलोचकीय षड्यंत्र का ही शिकार है। पत्र-पत्रिकाओं में इसे ‘फ़िलर’ के तौर पर ही जगह मिलती रही। ‘पहल’ सम्पादक अपनी पत्रिका में लगातार बहुत दिनों तक यह लिखते रहे कि उन्हें ग़ज़लें और लघुकथाएं प्रकाशनार्थ न भेजी जायं। किसी विधा के लिए इससे अधिक अपमानजनक बात और क्या हो सकती थी, पर कुछ समय बीता और उनका हृदय परिवर्तन हुआ उन्होंने देहरादून के प्रतिभा संपन्न ग़ज़लकार हरजीत सिंह की कई ग़ज़लें एक साथ प्रकाशित कीं। ज्ञान प्रकाश विवेक, हरि मौर्य, कमलेश भट्ट कमल, राजेश रेड्डी जैसे ग़ज़ल के कवि भी ‘पहल’ के पृष्ठों पर दिखे। यह सारे ग़ज़लकार निरंतर ग़ज़ल विधा का प्रचलित ढांचा और खांचा तोड़ रहे थे। ग़ज़ल वेगवान धारा की तरह अपने पथ पर बढ़ती रही। कई बार अरुण कमल जो बात अपनी छंदमुक्त कविता में कह रहे होते हैं, वही बात राजेश रेड्डी ग़ज़ल के शेरों में कहते दिखाई देते हैं। यानी ग़ज़ल ने पूरी तरह से अपने आप को समकालीन ही नहीं बनाया वरन कथ्य के स्तर पर एकदम नयी और चुभती हुई व्यंजनाएं दीं। रमेश यादव ने कहा-
टंगे फ्रेम में जड़े हुए हैं ब्रह्मचर्य के कड़े नियम
उसी फ्रेम के पीछे चिड़िया गर्भवती हो जाती है।
![]() |
शकील जमाली |
यह एक ऐसा समय है जब उर्दू और हिन्दी ग़ज़ल के बीच की विभाजन रेखा भी लगभग समाप्त हो चली है। कृष्ण बिहारी नूर, मुनव्वर राना, निदा फ़ाज़ली, शकील जमाली, राहत इंदौरी आदि चर्चित एवं सुपरिचित शायर आम बोलचाल की ज़बान में शेर कह रहे हैं, उन पर हिन्दी या उर्दू किसी भी भाषा का अस्वाभाविक दबाव नहीं है, बल्कि एक जनभाषा का इस्तेमाल है। शकील जमाली कहते हैं-
स़फर से लौट जाना चाहता है
परिंदा आशियाना चाहता है
कोई स्कूल की घंटी बजा दे
ये बच्चा मुस्कुराना चाहता है।
जनाब बशीर बद्र को दिया गया साहित्य अकादमी सम्मान ग़ज़ल विधा का ही सम्मान है। काव्य मंचों पर बुद्धिसेन शर्मा और मुनव्वर राना एक साथ आते-जाते रहे हैं। दरअसल कहन हिन्दी या उर्दू की होती है। हिन्दी कविता के मिजा़ज का बुद्धिसेन शर्मा का यह शेर देखें-
सफ़ाई किसकी करनी चाहिए क्या सा़फ करता है,
कचरा आँख में है और चश्मा सा़फ करता है।
सूर्यभानु गुप्त, शेरजंग गर्ग, रामकुमार कृषक, शिवओम अम्बर, विजय किशोर मानव, अमरनाथ श्रीवास्तव, चंद्रसेन विराट, विनोद तिवारी, एहतराम इस्लाम, ज्ञानप्रकाश विवेक, अदम गोडंवी, कमलेश भट्ट कमल, राजेन्द्र चतुर्वेदी, उर्मिलेश, सुल्तान अहमद, सलीम तनहा, वर्षा सिंह, हनुमंत नायडू, शरद सिंह, अशोक अंजुम, सलीम खां फ़रीद, सुरेश कुमार शेष, विज्ञान व्रत, अंसार कम्बरी, विजय वाते, शिव कुमार पराग, महेश अश्क, आलोक श्रीवास्तव, राजेश रेड्डी, कुंअर बेचैन, राजगोपाल सिंह, ज़हीर कुरैशी, नईम, उद्भ्रांत, डॉ ओम प्रभाकर, माहेश्वर तिवारी, संजय मासूम, विनय मिश्र, प्रताप सोमवंशी, सत्यप्रकाश वर्मा, दिनेश रघुवंशी, देवमणि पांडेय आदि नाम हिन्दी कविता में ग़ज़ल की विलक्षण उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। शलभ श्रीराम सिंह और हरजीत सिंह का असमय न रहना मन को गहरे तक सालता है। इन दोनों रचनाकारों ने ग़ज़ल लेखन को एक मूल्य की तरह स्वीकार किया था। जिन दिनों अनुज वसु मालवीय का निधन हुआ, वे भी एक सर्वथा नये भावबोध के साथ ग़ज़लों पर काम कर रहे थे, बानगी देखें-
वो तो कठपुतली है बाबू
ख़ुद अपनी चुगली है बाबू
उसने अपना जिस्म दिखाया
तब सिलवर जुबली है बाबू
![]() |
कुंअर बेचैन |
ग़ज़ल के कारण हिन्दी कविता का भी कल्याण हुआ और ग़ज़ल का भी। एक ओर जहां हिन्दी कविता बेसुरे कविता समय से गुज़र रही थी, ग़ज़ल महबूब की ज़ुल्फ़ों के बाहर नहीं आ रही थी। निश्चित रूप से हिन्दी कविता का आसमान अधिक विस्तृत एवं भासमान था। ग़जल की तरफ़ हिन्दी नवगीत के भी तमाम रचनाकार खिंचे चले आ रहे थे। डॉ. कुंअर बेचैन पर तो ग़जल का रंग कुछ इस तरह चढ़ा कि उन्होंने अपने गीतकार को ही प्रछन्न कर लिया, लेकिन ग़जल विधा में यक़ीनन बहुत कुछ नया जोड़ कर उसे समृद्ध ही किया, अपनी नींद तक इस बेजोड़ विधा को दे डाली और कहा-
जागा रहा तो मैंने कई काम कर लिए
ऐ नींद तेरे आज न आने का शुक्रिया
जयकृष्ण राय तुषार कहते हैं-
किचन में माँ बहुत रोती है पकवानों की ख़ुशबू में,
किसी त्यौहार पर जब उसका बेटा घर नहीं होता।
![]() |
जयकृष्ण राय तुषार |
सामान्य आदमी का रो़जमर्रा का संघर्ष, उसकी जय-पराजय, मध्यवर्गीय भागमभाग, जिजीविषा और टूटन यह सारे तत्व ग़जल के आइने में झिलमिलाने लगे हैं। बहुत सारे ग़जलकारों ने काव्य मंचों से ले कर काग़ज़ तक पर समान रूप से अपना हस्तक्षेप बनाए रखा। एक ऐसे समय में जब समर्थ कवि भी मंच से पलायन कर रहे हैं, कवि सम्मेलन भांड़-विदूषकों और गलेबा़जों के हवाले हो गए हैं, कुछ जेनुइन रचनाकारों ने मंच से रिश्ता बनाए रखा क्योंकि मंच को एकदम से खाली छोड़ देना पूरी तरह से अनर्थकारी होता, और फेक-चेहरे मंच पर आ जाते। ऐसे जुझारू रचनाकारों में उदय प्रताप सिंह, अदम गोंडवी, ज़हीर क़ुरैशी, कैलाश गौतम जैसे रचनाकारों का उल्लेख अलग से आवश्यक है। कवि सम्मेलन और मुशायरे हम मध्यवर्गीय रचनाकारों के लिए एक विवशता है तो यह भी सही है कि वह सीधे जन से जुड़ने का माध्यम भी हैं। ढेर सारे जनवादी मूल्यों के पक्षधर रचनाकारों ने जनविरोधी हरकत की, उन्होंने मंच छोड़ दिया। मंच के कुछ स्वस्थ मानसिकता के रचनाकारों ने आत्मविश्लेषण भी किया। कैलाश गौतम ने कहा-
घर की देहरी छोड़ कर जाने को जी करता नहीं
क्या कहूं घर की ज़रूरत ले गई बाहर मुझे
![]() |
कैलाश गौतम |
इस रचना भूमि से थोड़ा हट कर घर को दूसरी तरह से अनुभव किया, ज़फ़र गोरखपुरी ने उन्होंने कहा-
घर में पहुंचूंगा तो सब गठरी टटोलेंगे मेरी,
आंख में चुभती हुई गर्दे सफ़र देखेगा कौन।
ग़ज़ल में रदीफ़ क़ाफ़िए ने भी हर बार कुछ अलग तरह के कथ्य और सोच को एक सकारात्मक दिशा दी। मैं तुक्कड़ या तुकाराम शैली के ग़ज़लकारों की बात नहीं करता। एहतराम इस्लाम की ‘है तो है’ रदी़फ ज़बरदस्त रूप से लोकप्रिय हुई-
हैं तो हैं दुनिया से बेपरवाह परिंदे शाख़ पर
घात में उनके कहीं कोई शिकारी है तो है
![]() |
एहतराम इस्लाम |
देवमणि पांडेय भी हिन्दुस्तानी ग़ज़ल का एक ज़रूरी चेहरा हैं। वह कई बार हिन्दी और उर्दू ज़बानों के बीच एक पुल से नज़र आते हैं। राग और रूमान से ले कर सामाजिक सरोकारों तक उनकी अभिव्यक्ति की धार देखी जा सकती है, मसलन-
आपके बर्ताव में थी सादगी पहले बहुत,
जब ज़रा शोहरत मिली तेवर नुकीले हो गए।
सुलगती है कहीं कैसे कोई भीगी हुई लकड़ी,
दिखाई देगा ये मंज़र किसी विरहन की आंखों में।
सुरेन्द्र सिंहल ग़ज़ल की प्रचलित बिरादरी के बाहर शब्द और बिल्कुल नए क़ाफ़िए लेकर आए-
रेस्तरा में हूूं उसके साथ मगर
खौ़फ मुझको है चाय के बिल का
उससे मिलने का वक़्त आया है
गूंज जाए न सायरन मिल का
ज़हरी क़ुरैशी ने जम कर खांटी हिन्दी के शब्दों का इस्तेमाल किया, पर अपने सघन कथ्य को कृत्रिमता की आंच नहीं आने दी। अपवादस्वरूप जहां कहीं उनके कथ्य को अस्वाभाविकता की आंच आई है, उनके शेर ख़राब हो गए है। चन्द्रसेन विराट के साथ भी यही बात लागू होती है। ज़हीर पूरी ठसक के साथ कहते हैं-
कमी़ज उनकी है लेकिन बदन हमारा है
ये रूप रंग ये यौवन का धन हमारा है
जो नफ़रतों को बढ़ाते हैं, अपने पास रखें,
कहीं भी गाए ये मेहंदी हसन हमारा है।
ग़ज़ल में राजनैतिक चेतना अपने प्रखर रूप में मौजूद रहती है, यह वास्तव में दुष्यंत कुमार का सच्चा उत्तराधिकार है। महेश अश्क फ़रमाते हैं-
रंग-बिरंगे हो जाते हैं
चेहरे नंगे हो जाते हैं
जब सिंगार करती हैं ऋतुएं
पेड़ लफंगे हो जाते हैं
जब कोई ख़तरा होता है
आप तिरंगे हो जाते हैं।
राजनेताओं का तिरंगा होने अपने आप में व्यंग्य की गहरी मार को दर्शाता है। व्यंग्य आज की ग़ज़ल क्या सपूर्ण कविता का रीढ़ तत्व है। इमरजेंसी के काले दिनों में दुष्यंत ने इसी व्यंग्य भाषा का सहारा लिया था। उनके शेरों में हिन्दी के प्रांजल शब्द भी सम्पूर्ण नुकीलेपन के साथ व्यंजित हुए हैं-
मत कहो आकाश में कुहरा घना है,
ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
![]() |
दुष्यन्त कुमार |
दुष्यंत का यह शेर सिद्ध करता है कि यदि पूरी सलाहियत के साथ ठेठ हिन्दी का ठाठ देखा जाय तो इस सन्दर्भ में मुझे जबलपुर शहर के ताकतवर रचनाकार भवानी शंकर की शब्द योजना याद आती है। भवानी शंकर के शेरों में अद्वितीय सामाजिक-राजनैतिक चेतना रही है, व्यंग्य तो उनका हथियार है ही-
ऊंची बातें ऊंचा पद है
नैतिकता का छोटा क़द है
चुन-चुन कर आंखें भेजी थीं
अंधी की अंधी संसद है
अथवा
कहीं रेशम कहीं खादी है प्यारे
इसी का नाम आ़जादी है प्यारे
सुबह से शाम पत्थर तोड़ती है
निराला की ये शह़जादी है प्यारे
अथवा
फिर वही ढोलक वही कूल्हे शहर में हैं
और तारीखें सभी पेशाबघर में हैं।
दांत आपके असली हों तो
लोहे का हर चना नरम है।
व्यंग्य का एक और तेवर दृष्टव्य है-
वो स़फर के साथ है पर है अदाकारी के साथ,
जैसे है मासूम क़ातिल पूरी तैयारी के साथ।
इस प्रकार हिन्दुस्तानी ग़ज़ल का यह कारवां मुसलसल हिंदुस्तानियत का परचम लहराता आगे बढ़ रहा है।
सम्पर्क
यश मालवीय
ए-111, मेहंदौरी कालोनी,
प्रयागराज -211004
मोबाइल : 6307 557 229
शानदार आलेख के लिए भाई यश मालवीय जी को बधाई. और भाई संतोष चतुर्वेदी को हार्दिक शुभकामनायें
जवाब देंहटाएं