अंचित की कविताएँ
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अंचित |
दुनिया की हर वस्तु, हर घटना, हर संवेदना दरअसल कवित्व के भाव से भरी हुई होती है। अब यह कवि के हुनर पर निर्भर करता है कि वह उसे अपनी कविता में कितना और किस तरह ढाल पाता है। यही कवि की सफलता होती है ठीक वैसे ही जैसे यहीं पर कवि के असफल होने का खतरा भी होता है। आत्म कथ्य को ही ले लिया जाए तो प्रायः सभी कवि कभी न कभी इसे ले कर खुद से जूझते हैं और कविता में ढालने की कोशिश करते हैं। अंचित हमारे समय के ऐसे कवि हैं जो कवियों की भीड़ में खुद ब खुद अलग दिखाई पड़ते हैं। इसके पीछे उनकी ईमानदारी है उनका यह आत्म स्वीकार है जिसमें वे कहते हैं 'हर ज़ाया शब्द मेरे भीतर/ एक ऊँची इमारत जितनी जगह छोड़ता है/ हर निरस्त यात्रा मुझे भीतर तक खंगालती है।' यही तो कवित्व है कि जिसे दुनिया 'जाया' मान लेती है, वह हुनरमंद यानी कवि के लिए उत्प्रेरक साबित होती है। अंचित उनको अपनी कविता में मान सम्मान देते हैं जिनके प्रति आम जन जीवन में प्रायः निरर्थकता का भाव भरा होता है। यह हुनर ऐसे ही नहीं आता बल्कि इसे जीवन में ढालना ही नहीं बल्कि शिद्दत से अपनाना भी होता है। दुनिया को बरतने का एक नया हुनर खुद के अन्दर विकसित करना होता है। आज हम पहली बार पर अंचित की कुछ नई कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अंचित की कविताएँ।
अंचित की कविताएँ
आत्म कथ्य
बिसर जाती हैं कई कविताएँ आते जाते
काम धाम का बोझ सरके कि मैं पहुँचूँ उनके पास
हर ज़ाया शब्द मेरे भीतर
एक ऊँची इमारत जितनी जगह छोड़ता है
हर निरस्त यात्रा मुझे भीतर तक खंगालती है
कौन मानेगा इस बिछोह भरे अँधेरे में
एक सफ़ेद उल्लू की तरह उड़ रहा हूँ
कौन मानेगा मैं इसी से बना हूँ।
बस इतना ही
मैंने जितनी कविताएँ लिखीं
बस इसलिए कि तुम तरस खाओ
मैंने जितने आँसू रोए
बस इसलिए कि तुम मेरे दुख से रो पड़ो
ईमानदारी से स्वीकार यही है
कि इसमें एक छल था
उतना तो ज़रूर
जितना एक नाटककार अपने नाटक से करता है।
मैं मंच पर नहीं आना चाहता था
इसमें नेपथ्य की सहूलियत से कोई वास्ता नहीं था।
यह मेरी तबीयत का रोग भी नहीं है
मैं भी अपने समय का आदमी हूँ, इसकी खामियों से बना।
मैं जायज़ स्वीकार चाहता हूँ तुम्हारा, औपचारिक मुस्कुराहट नहीं
जैसे तुम चाहती हो अनछुए पहाड़ और एक झाड़ी में छिपी फूलों की डली।
मैं बना हूँ नैतिकता के अस्वीकार से, जिससे छूट गया है स्वर्ग
यह सब जो कुछ है, खुद को बचाने की कवायद है।
ओह, थिंकेस्ट दाउ, वी शैल एवर मीट अगेन?
मैं उनके बारे में बुरा लिखना नहीं चाहता।
इसलिए भी कि फिर मेरा सामना मेरी अपनी गिरावट से होगा।
तुमसे खो कर मैं खराब प्रहसनों में मिल गया और अच्छे नाटकों से दूर हो गया।
मैं जीवन चाहता था और बदले में अभिनय मिले।
मैं चाहता था आत्म का संरक्षण और बदले में मुझे अंतहीन ग्लानि मिली।
तुमने एक कविता जैसी छोटी चीज़ के लिए मुझे सब दिया
और पहला एक्ट पूरा होते होते अपने प्रेमी के पास चली गई।
अब आगे ये सारे पात्र क्या करेंगे?
ओ जूलियेट
मैंने कविताओं को दूसरों पर जाया किया
मुझे क्षमा करो।
ओ प्रेयसी,
मैंने दूसरों को नायिका माना
मुझे क्षमा करो।
याद करूँगा
इस अजनबी शहर में
जहाँ मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी गुज़ार दी
एक रात अन्य समस्त दुखों से उधार ले कर
सिर्फ़ तुम्हें याद करूँगा।
इस याद करने में
यह मोहल्ला अपनी असंगतियों के साथ आयेगा,
इसकी गहरी गलियाँ जहाँ मैंने सूंघना छूना देखना सीखा है,
उनमें तुम्हारी छाया के बीज खोजूँगा।
इस शहर ने मुझे सब कुछ दिया है,
हिंसा और उसे न करने की सलाहियत
जोड़ना और फिर टूट सकने की काबिलियत
उर्वरता और बंजर जमीन भी एक साथ।
मैं पीछे लौटूंगा सिर्फ़ एक रात के लिए
क्योंकि तुमने मुझे खुदाओं के रुतबे से दूर किया
क्योंकि मैंने सीखा कुफ्त तुम्हारे साथ रह रह कर।
तुमने मुझे तारों भरी रात दी इस बियाबान में
मेरी असुरक्षाओं को अपने सीने से चिपटाए रखा
एक क्षण के लिए ही सही मुझे आदमी होना दिखाया
मैं खो गया हूँ इस भीड़ में
जहाँ खुद को रखा था वह जगह भी भूल गया हूँ
इस सदी का श्राप अब जा कर खुला है मुझ पर।
तुम्हें याद करूँगा इस रात में
मेरे साथ बीत गए मेरे जैसे कई लोग इस एक रात
इसी शहर के बाशिंदे होंगे।
इस शहर के अजाने में हम एक साथ होंगे
जो बन कर टूटेगा, वही रहेगा इस अधबने में।
फिर यह रात ढल जाएगी।
दिसंबर
सर्दी तीर की तरह चुभती है। एक क्षण के लिये मन रुक जाता है और सिर्फ़ देह रह जाती है।
दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य। एक क्षण के लिये कोई किसी को भूल गया।
क्या मैं भूलना चाहता हूँ?
मैं भूलना सीखना चाहता हूँ।
मैं चाहना भूलना चाहता हूँ।
वही शहर जो भरा हुआ था, बिना एक वस्तु की जगह बदले भी अब उदास हो गया है। अनुभव से सीखता हूँ कि आँखें दाँतों के कहने से रुक जाती हैं। झीलों से पानी बाहर छलकता नहीं। एक दृश्य की तलाश वहाँ ले जाती है पर याद दिलाती है। सुबह भी रात है।
मैं चाहता हूँ उम्र में बीस साल घटा दूँ और फिर तुमसे मिलूँ।
तुम मुझ पर खूब हँसो।
फिर मेरे लिये चाँद देखो।
किसी याद में कोई इच्छा दबाई जा सकती है।
कोई ख्वाहिश किसी याद की तरह लिखी जा सकती है।
कोई याद किसी रोज़ किसी की जान बचा सकती है।
लाकाँ से प्यार
यह कहानी यहीं शुरू होती है
कि मैं चाहता था (यह कोई नहीं जानता)
और दूसरा कोई नहीं था इसलिए तुम थी।
मैंने जो भी तुमसे कहना चाहा
कभी उस तरह नहीं पहुँचा तुम तक।
जो था असंभव था क्योंकि भाषा में था।
तुम्हारे अस्वीकार का ऋणी
जो अव्यक्त हैं मैं उधर जाता हूँ
वही गूढ़ छिपी तार्किकता -
जो अब मेरा सत्य रहेगी हमेशा।
मेरी तुम्हारी युति से यही पैदा हुआ था
जो मुझे झकझोरता है।
अब
सूरज जला दे पूरा सौरमंडल (कुछ हासिल नहीं।)
एक रेगिस्तान बारिश का इंतज़ार करे (कुछ हासिल नहीं।)
यंग वर्थर से थोड़ी बहुत कुछ बातचीत
अतिभावुकता से भरी कोई कविता नहीं है यह
न कोई स्त्री तुम पर रीझी इधर चली आई है दया भाव लिए।
मेरे पास भी एक खंजर था जैसे तुम्हारे पास वह पिस्तौल।
मैं भी किसी आधी रात, चला गया था नदी के किनारे
उसी दंश से पीड़ित जिसकी प्रसिद्धि तुम अभी तक भुना रहे हो।
चालूराम, एक बार मर जाना बहुत आसान है
जैसे जाहिर कर देने से छिपा लेना बहुत आसान है।
मुझे भी एक गुम गई आवाज़ उठाती है
जब मैं लगभग डूब गया होता हूँ।
बच जाने का संताप क्या होता है
एक रात में खून के बहते हुए नहीं समझा जा सकता
देह का घर एक देह भी हो जाती है, तुम नहीं जानते
वापस न लौट पाने की बेचैनी क्या होती है, तुम नहीं जानते।
कोई पिशाच मेरे भीतर बैठा खून पी रहा है मेरा
वह हो गया है मेरा सबसे अच्छा दोस्त।
चालूराम, एक पल में या एक रात में यह खेला खत्म नहीं होता अब
वह चला गया बहुत दूर जो मेरे लिए था।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 07091674623
Mesmerizing.
जवाब देंहटाएंआज के समय के एक बेहतरीन कवि हैं अंचित।नये कलेवर और फ्लेवर की कविताएं ! अच्छी लगीं!
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारे कवि। ग़ज़ब की कहन शैली। एकदम से दिल के पास की कविताएँ।
जवाब देंहटाएं--गौरीनाथ