राजेश्वर वशिष्ठ की कविताएं

 

राजेश्वर वशिष्ठ 



परिचय 


राजेश्वर वशिष्ठ

जन्म: 30 मार्च, 1958, भिवानी (हरियाणा)

संप्रति : स्वतंत्र लेखन


प्रकाशित पुस्तकें  : 

मुट्ठी भर लड़ाई, उपन्यास 1983, पुनः प्रकाशित 2024, सुनो वाल्मीकि, कविता संग्रह, 2015, गुजराती भाषा में भी अनूदित एवं प्रकाशित। सोनागाछी की मुस्कान, कविता संग्रह, 2016, अगस्त्य के महानायक श्रीराम, खंड काव्य, 2017, पुनः प्रकाशित 2023, प्रेम का पंचतंत्र, प्रेम टिप्पणियाँ, 2018, याज्ञसेनी, उपन्यास, 2018, पुनः प्रकाशित 2021, देवता नहीं कर सकते प्रेम, कविता संग्रह, 2019, कवि का बयान, स्व चयनित कविताओं का संग्रह 2021, कुछ तो कहो कबीर, कविता संग्रह, 2022, युद्ध सिर्फ सरहदों पर नहीं होते, कविता संग्रह, 2022, प्रजातंत्र में कबूतर, कविता संग्रह, 2024, सूरज की बाट, चयनित कविताओं का सुनीता करोथवाल द्वारा हरियाणवी भाषांतरण, 2022, बाबा साहेब के बुद्ध,चरित्र कथा, 2022, मिथिला की भूमि सुता, उपन्यास, 2022, समकाल की आवाज राजेश्वर वशिष्ठ चयनित कविताएँ, 2023, कविता देशांतर कनाडा, कनाडा की कविताओं का हिंदी अनुवाद, 2004, पेंग्विन और रॉयल कॉलिंस के लिए अनेक पुस्तकों का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद।


सम्मान:

'सुनो वाल्मीकि'कविता संग्रह को हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा 2015 का श्रेष्ठ काव्य कृति सम्मान।' अगस्त्य के महानायक श्रीराम पुस्तक पर अखिल हिन्दी साहित्य सभा नासिक द्वारा 2018 का साहित्य आराधना सम्मान, कविता के क्षेत्र में श्रेष्ठ लेखन के लिए ओम शांति साहित्य सम्मान, 2024 तथा कला ग्राम (एमसीजी, हरियाणा सरकार) द्वारा 2024 का कला निधि सम्मान। हरियाणा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी का वर्ष 2022 का हिंदी साहित्य में उत्कृष्ट योगदान हेतु 2.5 लाख रुपये का बाबू बालमुकुंद गुप्त सम्मान।



जीवन वस्तुतः संघर्ष का ही दूसरा नाम है। हर जमाने में यह संघर्ष अपने अलग आकार प्रकार में उपस्थित होता है। जीवन उससे जूझता हुआ एक एक कदम आगे बढ़ता है। समग्र जीवन अपने आप में एक महाकाव्य होता है और इसका वितान प्रेम के इर्द गिर्द कुछ इस तरह फैला होता है कि उससे अलग कर के इसे देखा ही नहीं जा सकता। यह प्रेम जीने का साधन देता है। इस साधन के लिए हम रोज ही तरीके खोजते रहते हैं। हर का अपना प्रतिपक्ष होता है। हालांकि जीवन हमेशा प्रेम के पक्ष में खड़ा होता है लेकिन युद्ध और अशान्ति इसके लिए दिक्कतें खड़ी करते रहते हैं। ये दिक्कतें कुछ इस तरह की होती हैं कि हम खुद उस मृत्यु पर अधिक यकीन करने लगते हैं जो जीवन का ही प्रतिपक्ष है। राजेश्वर वशिष्ठ इसे रेखांकित करते हुए अपनी कविता में कहते हैं 'युद्ध और अशांति के काल-खंड में हमारा विश्वास/ जीवन से अधिक मृत्यु पर होता है।' राजेश्वर जी हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उनकी कविताएं पढ़ते हुए जीवन का एक फलसफा सामने आता है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं राजेश्वर वशिष्ठ की कुछ बिल्कुल नई कविताएं।



राजेश्वर वशिष्ठ की कविताएं



जाड़े का मर्सिया 


क्या नया साल है! 


बादलों और ठंड ने गुंडों की तरह 

अगवा कर लिया हमारा सूरज 

गुमशुदा सूरज की रपट;

जा के कहाँ लिखवाएँ?


पास चौराहे के संकरी-सी सड़क के बाजू

वे जो बैठे हैं हाथ में छेनी हथौड़ा ले कर,

बाज़ार में उनकी मेहनत को;

बोलो तो कैसे बिकवाएँ? 


ठिठुरते पेड़ों के घरों में नहीं जल रहा चूल्हा

वे हार कर शीत-निद्रा में जा के अटके हैं 

डेढ़ महीने की बात है सारी;

यह भरोसा भी कैसे दिलवाएँ? 


किसी रईस की हवेली में कैद है गरमी

ओढ़े है सपनों के रेशमी कंबल,

हर एक शख़्स का हक है उस पर;

हुक्मरां को कैसे समझाएँ?  


आओ, सूरज की ग़ैर हाज़िरी में 

जाड़े का मर्सिया गाएँ। 



अघोरी समय 


सुबह के सपनों में 

तुम्हारी असंख्य छवियाँ हैं;

खट्टी इमली-सी मीठी भंगिमाएँ,

चँवर से शिरीष पुष्प की मादक गंध,

काया का दहकता सीला स्पर्श,

शिकायतें और सिसकियाँ हैं। 


हमारा प्रेम हरिद्वार से वाराणसी तक 

गंगा का प्रौढ़ प्रवाह नहीं है,

उसमें भागीरथी और अलकनंदा का 

अथक कल-कल निनाद है,

पहाड़ों की गहरी घाटियों में गुनगुनाते

और मोतियों की लड़ी की तरह टूटते हुए जल का  

देव-प्रयाग पहुँचने का उन्माद है। 


सुनेत्रा,

इस विकट अघोरी समय में 

तुम्हारी स्मृति 

जीवन के पक्ष में 

जिजीविषा का चरमोत्कर्ष है!







अभी घर है मेरे पास - 1


एक फ्लैट है देश की राजधानी के निकट, 

महंगे इलाके की सोसायटी के एक टॉवर में; 

ग्यारहवीं मंज़िल पर। 

यहाँ किसी जेल जैसी सुरक्षा और मध्यवर्गीय होटल जैसी सुविधाएं हैं।

हाई स्पीड़ एस्केलेटर्स लगे हैं; 

कुछ ही क्षणों में, मैं अपने फ्लैट के दरवाज़े से हो कर ड्रॉइंगरूम तक पहुँच जाता हूँ।


पत्नी नज़र रखती है कि मैं घर में घुसते ही जूते उतारूँ 

और सेनेटाइज़र से हाथ साफ करूँ!


यहाँ उपयोगी फर्नीचर है, पीतल और मिट्टी की कुछ कलात्मक मूर्तियाँ हैं, 

एक असली-सा दिखने वाला नकली कुत्ता है 

और कुछ पेड़ों की आत्मा का दमन कर - उन्हें बोंसाई बना कर सजाया गया है।


टॉवर्स के बीच से जब तेज़ हवा गुज़रती है, 

हवा की वही साँय-साँय सुनाई देती है; 

जिसे सुनने के लिए हम, 

गर्मियों की छुट्टियों में शिमला वाली बुआ जी के घर, पहाड़ों पर जाते थे।


इस इलाके को गिलहरियों और चिड़ियों ने वर्षों पहले, 

उन किसानों से नाराज़ हो कर छोड़ दिया था; 

जिन्होंने बहुत सारे रुपयों के लालच में 

अपने खेत बिल्डर्स के हाथों बेच दिए थे। 

यहाँ की मिट्टी को सिर्फ दीमकों ने नहीं छोड़ा 

चूँकि उन्हें अपनी जीवट पर आज भी भरोसा है।


जिन पेड़ों को लोग कभी खूब ऊँचा और छायादार समझते थे; 

अब वे सारे पेड़ नियमित प्रूनिंग के कारण बहुत नीचे और एकाकी रह गए हैं। 

अब उनकी शाखाओं पर झूले नहीं डाले जाते।

बच्चों को बीमारियों से बचाने के लिए, 

मच्छरों और झींगुरों को नियमित पेस्टीसाइड्स डाल कर मार दिया जाता है।


अब गंधहीन रंग बिरंगे फूलों से सजे लॉन्स में तितलियाँ नहीं हैं। 

टॉवर्स के प्रवेश-द्वारों और पार्किंग्स के आस-पास 

वर्दीधारी सुरक्षा-गार्ड़ों की मुस्तैदी दिखाई देती है 

जो शीशे की प्रशस्त खिड़कियों के नीचे बहुत बौने नज़र आते हैं।

वे लोग दिन भर साहबों की खुशी के लिए सैल्यूट बजाते हैं; 

भाग कर कार का दरवाज़ा खोलते हैं।

उनके घर का चूल्हा लकड़ियों से नहीं उनके श्रम से जलता है।


इसी फ्लैट के एक छोटे कमरे में बहुत सारी किताबें हैं।

एक छोटा-सा मंदिर, एक कुर्सी और एक लम्बी सी मेज़ है।

एक दीवान है, जिस पर पॉलिश करवाने के बाद 

सख्त ऑर्थो-मैट्रेस बिछा दिया गया है। मैं यहीं सोता हूँ।

यहीं, नींद से हो कर एक रास्ता पहुँचता है मेरे अपने घर तक;

जिसका दरवाज़ा कभी बंद नहीं होता।


माँ हर वक़्त रसोई में बने मिट्टी के चूल्हे के पास बैठी होती है;

चने के आटे की फूली हुई गोल रोटी, सफेद-मक्खन, देशी घी, 

गुड़ और दही वहाँ कभी खत्म नहीं होते।

ठिठुरन भरी सर्दियों की शाम में, घर के चौक में अक़सर अलाव जलता है;

जिसकी गर्म रोशनी में 

पूरे मुहल्ले के घरों के किस्से और देश की सियासत पर चर्चा होती है।


उस घर की बैठक में लकड़ी का तख्त आज तक बिछा है।

स्कूल के दिनों में मैंने उस तख़्त पर बैठ कर – 

देवकी नंदन खत्री, प्रेमचंद, वृन्दावन लाल वर्मा 

और सुभद्रा कुमारी चौहान को पढ़ा था।

तुलसी बाबा का रामचरितमानस सुनने के लिए 

दादी सदा लालायित रहती थी; 

और मैं गर्मी की दोपहरियों में मानस के रस-समुद्र में खो जाता था।

फिर मेरे उस कस्बाई घर में 

निराला, अज्ञेय और मुक्तिबोध के साथ-साथ 

बहुत सारे कवि और लेखक चले आए, जो वहीं बस गए।


वह घर अनार, केले और नींबू के पेड़ों के बगैर पूरा नहीं होता था। 

माँ, गिलहरियों को जानबूझ कर चुराने देती थी 

पुराने स्वेटरों की ऊन और मूंगफलियों के दाने।

तुलसी के बड़े से झाड़ के पास आज तक सुनाई देती है कृष्ण की बाँसुरी।


उस घर में अब कोई नहीं रहता।

माँ-पिता जी स्वर्ग सिधार चुके हैं। 

बहनें दूर के शहरों में अपने परिवारों के साथ सुखी और प्रसन्न हैं।

छोटा भाई अमेरिका में स्थाई रूप से बस चुका है।

मैं भी कई-कई दिनों के बाद जा पाता हूँ, 

कुछ बिलों या टैक्सों की अदायगी के लिए।


कल उधर से चचेरे भाई ने टेलिफोन पर कहा था –

‘भैया, खंडहर हो रहा है आपका घर, उसे बेच क्यों नहीं देते?’

मैंने कुछ नहीं कहा, कुछ देर रोता रहा।


मैं कैसे कहता : बस दिन ही तो गुज़ारता हूँ इस फ्लैट में; 

अपना घर बेच दूँगा तो रात में कहाँ जा कर सोऊँगा? 



घर लौटना ज़रूरी था - 2


धूल मिट्टी से सना था घर का अलीगढ़ी ताला।

मैं उसकी गर्दन को पकड़ कर, मोटे पेट में घुमाता ही जा रहा था चाबी; 

पर वह खुल ही नहीं रहा था।

खटर-पटर की आवाज़ सुन कर अपने घर से बाहर निकल आई बूढ़ी मिश्राइन। 

पोपले मुँह को साड़ी के पल्लू से छिपा कर बोली – 

‘अपना घर देखने, बहुत बहुत दिनों बाद आते हो देवर जी। 

घर ने ताले को सिखा दिया है – 

बाबू को कुछ देर, खड़ा रखो धूप में, प्रेम दोनों ओर से होना चाहिए।’

मैंने शर्म से सिर झुका कर, फिर से चाबी को घुमाया तो ताला खुल गया।


बहुत बड़े चौक में केवल पुराने पेड़ ही बचे थे 

जिनकी जड़े अवश्य ही पाताल तक जा कर, अपनी प्यास बुझाती होंगी। 

सबसे हरा नीम का पेड़ था 

जिसे जीवित रहने के लिए मिठास बिखेरने की ज़रूरत नहीं थी।

मेरे कमरे में बिछे तख्त पर सुरमई धूल की चादर बिछी थी 

जिस पर गिलहरियों के पंजों के निशान थे और कुछ बीज रखे हुए थे; 

मेरे लिए यह सुखद आश्वस्ति थी कि मेरी अनुपस्थिति में 

गिलहरियाँ मेरे तख्त पर आ-जा रही हैं। 

वे मुझसे नाराज़ नहीं हैं।


मैं बैठने के लिए डस्टर से कुर्सी साफ कर ही रहा था 

कि बिजली चली गई। 

आसमान में बिजली कड़की और बूंदा-बांदी शुरु हो गई।

मैंने खुद से कहा – ‘यह ठीक हुआ, बारिश होगी तो पता चल जाएगा, 

किस-किस कमरे की छत चू रही है। मरम्मत करवा कर ही जाऊँगा। 

जब तक मैं हूँ, मुझे इस घर को बचाना होगा।’


अचानक पूरा घर किसी जादुई प्रकाश से भर गया।

(बिजली नहीं आई थी। 

हमारे देश के कस्बों में बिजली के तारों की खराब हालत के कारण 

बरसात शुरु होते ही बिजली बंद कर दी जाती है 

और इसे बारिश खत्म होने के कुछ देर बाद ही चालू किया जाता है।)

‘मैं तुम्हारा घर हूँ! 

कवि तुम फूलों से बात कर लेते हो, 

तितलियों से बात कर लेते हो, 

आज अपने घर से बात करो न!’


मैंने कहा –‘ज़रूर। घर कभी भूत नहीं हो सकते, घर वर्तमान में ही रहते हैं। 

हाँ, दुनिया में भटकते-भटकते, मनुष्य ज़रूर एक दिन भूत हो जाते हैं। 

तुम्हारा मुझसे बात करना, 

तुम्हारी गोद में बिखरे मेरे जीवन का फिर से सृजन करना होगा।’


घर ने कहा – ‘जिस चिड़िया के बच्चे को 

कभी तुमने ड्रॉपर से भोजन दे कर बचाया था, 

उसकी असंख्य संततियाँ आज भी निष्ठापूर्वक मेरे साथ रह रही हैं। 

देखो पीछे के बरामदे में हर रोशनदान के भीतर कई-कई घोंसले बने हैं। 

प्रभाती से ले कर संध्या-वंदन तक होता आ रहा है इस घर में।’

मेरी आँखों में आँसू थे।


घर ने कहा – ‘सामने की अलमारी में रखी हैं बहुत सारी पुस्तकें, 

जिन्हें तुम रख कर भूल गए हो। 

तुम्हारी अनुपस्थिति में वे मुझसे वार्तालाप करती हैं। 

मत भूलो, किताबों में बंद दुनिया; 

किसी एक आदमी की दुनिया से बहुत बड़ी होती है। 

इस बार उन्हें अपने साथ ले जाना।’

मेरी आँखों में और आँसू थे।


घर ने कहा – ‘मेरी चेतना में तुम्हारे कुल-पिताओं का स्पर्श है। 

जब कभी संकट में धैर्य छूटने लगे, मुझे याद कर लेना। 

घर समस्त सुखों और दुःखों के साक्षी रह चुके होते हैं; 

वे तुम्हारी समस्याओं का निदान जानते हैं। 

तुम्हें अंतर्दृष्टि दे सकते हैं।’

मैं कृतज्ञ था।


उस रात बारिश होती ही रही।

मोमबत्ती की रोशनी में,

मैं माँ के कमरे में गया और उस बिस्तर पर सो गया 

जिस पर वर्षों से कोई नहीं सोया था। 

उस रात की नींद इतनी गहरी थी कि कोई स्वप्न नहीं आया।


खिली-खिली सुबह में चिड़ियों की चहचहाहट थी। 

नीम के पेड़ पर बैठी कोयल, राग भैरवी गाते-गाते ध्यानस्थ हो गई थी। 

कई गिलहरियाँ और सूर्य की असंख्य किरणें 

घर में चहलकदमी कर रही थीं। 

मुरझाए पेड़ फिर से जीवित होने के लिए उमग रहे थे।


मैंने पुस्तकों की अलमारी को खोला 

और जयदेव का ‘गीत-गोविंद’ पढ़ने लगा।

मैं अपनी दुनिया में लौट आया था।

इस बार मैं घर से लौट जाने के लिए नहीं आया था।



ईश्वर! एक पत्थर के टुकड़े से अधिक नहीं हो तुम 


हम सब ने तुम्हारे सामने झुक कर माँगा था उसे।


नौ महीनों तक भीड़ भरे मेले में 

स्वयं को गैस भरे गुब्बारे की तरह बचाते हुए 

उसे पल-पल संभाला था उस सौम्य लड़की ने 

जो पहली बार माँ बनना चाहती थी।


खुद को गुज़ारा था कितने ही निरीक्षणों-परीक्षणों से,

खाई थीं कितनी ही पसंद और नापसंद की चीज़ें,

कि दुनिया में आए एक स्वस्थ और सुंदर शिशु। 


सदा औंधे सोने वाली लड़की ने

आदत डाल ली थी रात भर सीधे सोने की

कि ज़रा भी न दबे वह जीवन 

जो पल-पल पल रहा है उसके पेट के भीतर।


नन्हे पावों के निशान जब उभरते थे पेट की त्वचा पर 

अंधेरी रात में बादलों के बीच से 

झाँकते चाँद को देखने के लिए

उमग जाते थे उत्सुक माता-पिता।


उसके हिलने-डुलने से पहाड़ की घाटियों में 

बज उठती थीं असंख्य घंटिया

जिन्हें सुनने के लिए बूढ़ी पृथ्वी 

ज़रा टेढ़ी हो कर ठहर जाती थी अपने अक्ष पर। 


अपने नाज़ुक-से दोनों हाथ ऊपर उठाए 

दुनिया के प्रवेश द्वार पर 

खड़ी थी एक सुकोमल सुंदर बालिका;

जिसकी प्रतीक्षा में बेचैन थे हम-सब। 


डॉक्टर ने कहा – 

बस चार दिन और प्रतीक्षा करो,

फिर हम सौंप देंगे यह शिशु

माँ की गोद में अमृत-पान के लिए। 


गर्भ के अंधकार में गोल-गोल घूमती 

वह नहीं जानती थी इस दुनिया की भाषा

कि कह पाती - मुझे अभी निकाल लो इस अंधेरे गह्वर से

मुझ पर मंडरा रही है मृत्यु किसी भूखे बाज़ की तरह।


उस रात दर्द में कराहती एक रोती माँ ने

भोगा उस त्रासद प्रसव पीड़ा को 

जिससे जन्म होना था एक ऐसे मृतक शिशु का 

जिसका स्पंदन जीवन की बाजी हार गया था कुछ घंटों पूर्व। 


थकी हारी माँ ने अपने पेट पर देखी 

एक नाराज़ हमशक्ल गुड़िया

जिसे डॉक्टर ने एक बार भी नहीं थपका 

कि वह रो कर सूचना दे अपने आगमन की। 


पिता ने आँसू बहाते हुए देखा उस बेटी को

जिसे सफेद कपड़े के लपेट कर

सूर्य की पहली किरण के साथ

दबाया जाना था मिट्टी के ढेर में। 


सभी खरीदी जा सकने वाली 

आधुनिक सुविधाओं से भरे अस्पताल में

अपने ग़लत निर्णय पर ज़रा भी शर्मसार नहीं थे डॉक्टर;

उन्होंने कहा – बैड लक हज़ारों में कोई एक केस होता है ऐसा। 


वे भी ईश्वर की तरह पत्थर से ही बने थे! 





एक हत्यारे का एकालाप 


किसी सवाल के पूछे जाने से पहले ही उसने कहा – 

हत्यारे जन्मजात होते हैं। 

हो सकता है यह प्रवृत्ति 

उनके पिछले जन्मों के किसी गम्भीर अपकृत्य का परिणाम हो।


पाँच वर्ष की वय रही होगी उसकी – 

गाय के छप्पर के पास एक चिड़िया का घोंसला था,

खिड़की के ऊपर रोशनदान में। 

वह अकसर वहीं बैठा रहता था। 

चोंच में दाना-दुनका ले कर आती चिड़िया को देखता, 

उसके बच्चों के लाल-लाल मुँह खुलते 

और चिड़िया उन्हें बड़े स्नेह से चुग्गा खिलाती। 

चिड़िया उड़ जाती और नन्हे-नन्हे बच्चे 

समवेत स्वरों में ‘चूँ-चूँ-चूँ’ का गीत गाते रहते। 

चिड़िया कई बार घंटों तक नहीं लौटती थी। 

पता नहीं वह बादलों की बीच हरकारे का काम करती थी 

या इंद्रधनुष पर झूला झूलने लगती थी। 


चिड़िया के बच्चों का ‘क्षुधा-राग’ सुन कर, 

एक दिन उसने कटोरी में आटे का घोल बनाया, 

पास रखे बड़े स्टूल पर चढ़ा 

और दिन भर ड्रॉपर से उन विहग-शिशुओं को पिलाता रहा। 

चिड़िया बार-बार उसके आस-पास मंडराती रही 

पर एक अधीर शैतान से लड़ना उसके लिए संभव नहीं था। 


फिर चिड़िया उन बच्चों के पास कभी नहीं लौटी। 

अगले दिन उन विहगों का कलरव भी शांत हो गया।  


यह उसके सिर पर हत्या का पहला मामला था। 

उसकी माँ ने कहा – तुम्हें समझना चाहिए 

कि तुम से यह जीव हत्या क्यों हुई? 


अनार के पेड़ के नीचे बैठ कर रोते हुए वह सोच रहा था – 

मेरी दुनिया में चिड़िया का होना एक सघन मित्र-भाव की उपस्थिति के समान था। 

मैं तो उसका काम आसान करना चाहता था। 

उसके स्वस्थ बच्चों को नीले आसमान में उड़ते हुए देखना चाहता था, वे क्यों मरे?


चिड़िया ने अनार के पेड़ पर आना नहीं छोड़ा। 

वह उसे देखती तो ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगती। 


वह आज समझ पाया है – चिड़िया ने कहा होगा – 

‘तुम्हारी यह वृत्ति तुम्हें बार-बार रुलाएगी सभी प्रेम संबंधों में। 

तुम कभी नहीं समझ पाओगे उस अपराध को, 

जिसे तुम नहीं, तुम्हारी प्रवृत्ति करवाएगी।’ 


दम्भ और अहंकार के अंधेरे में विचरते हुए उसने कल एक बार फिर, 

एक सुनहरी चिड़िया का गला दबा दिया। 

वह नहीं चाहता था कि चिड़िया किसी चिड़िया की तरह उड़े। 

किसी चिड़िया की तरह गाए। 


सुनेत्रा, 

आखिरी बार पूछ रहा हूँ – ‘प्रेम के अंत में क्यों हर बार,

कोई न कोई अदृश्य अपराध ही निहित रहता है?’ 



जन्म-दिन 


हवा के झोंकों की तरह एक दूसरे को बाहों में समेटे 

हम परिक्रमा कर रहे हैं उस उत्तुंग पर्वत माला की 

जिस पर कभी नहीं पिघली बर्फ। 

पृथ्वी के इस विराट वक्षस्थल पर 

भुवन-भास्कर की भंगिमाओं और नख-क्षतों का 

नहीं होता किंचित भी प्रभाव।


मेरे और तुम्हारे होठों के स्पर्श से निकलती है बाँसुरी की अलौकिक धुन; 

जो धीरे-धीरे प्रतिध्वनित होती जाती है, चोटियों से घाटियों तक। 

उसमें घुल गई हैं सूर्य को समर्पित वेदों की वे सभी पवित्र ऋचाएँ, 

जिन्हें तुम वर्षों से गुनगुना रही हो। 


तुम्हारी ही रजत, धवल और सुनहरी पोशाकें पहने 

दिन भर थिरकती हैं अप्सराएँ, 

जिनकी सुडौल जंघाओं से परावर्तित हो कर 

गोल-गोल वर्तुल बनाता है सूर्य का प्रकाश। 

इन वर्तुलों को निहारते हुए तपस्वी करते हैं 

आत्मा और शरीर के बीच की अनथक यात्रा।


सुनेत्रा, ये परिक्रमाएँ 

समय की रोशनाई से लिख रही हैं हमारे जीवन और प्रेम का इतिहास; 

जिसके हर अध्याय के समापन पर

कभी तुम हवा हो और मैं तुम्हारा लरजता आँचल। 

कभी तुम चिड़िया हो और मैं एक घना पेड़। 

पल भर ठहर कर हम धन्यवाद करते हैं ईश्वर और नियति का।  


तुम्हारे जन्म-दिन पर हमने 

मृत्यु को जीत लिया है प्रकृति में विलीन हो कर।                           जीवन का इससे अधिक मुखर, 

अभय और भास्वित अर्थ संभव नहीं। 





जीवन का प्रेम-शास्त्र 


रोज़ हवा की तरह आता हूँ तुम्हारे दरवाज़े तक 

सांस रोक कर ठहरता हूँ क्षण भर 

पर दरवाज़ा थपथपाता नहीं।

हवा के पास भाव होते हैं  

शब्दों में गुथी भाषा नहीं। 


अधजगी सुबह में तुम्हें देखता हूँ चैन से सोते हुए 

माथे को चूमता हूँ बहुत धीरे से;

डरता हूँ टूट न जाए भोर का स्वप्न। 

सूर्योदय से पहले ही मेरी आंखों में उतर आती है 

प्राची में बिखरी लालिमा। 


खिड़कियों की दरारों से डरते हुए नागरिक की तरह 

झांकता हूँ सड़क की ओर;

पता नहीं शहर में कब तक गश्त लगाएगी सेना।

युद्ध और अशांति के काल-खंड में हमारा विश्वास  

जीवन से अधिक मृत्यु पर होता है। 


आओ चलें उस सुदूर टापू पर 

जहाँ चिड़ियों की भाषा जानती हो हवा,

पेड़ की शाखाओं के बीच से  झुक कर 

सूरज चूम ले तुम्हारा भाल

और युद्ध का नाम न भी न जानते हों लोग।


सुनेत्रा,

हर युग के समापन के बाद 

हमें ही लिखना होगा 

जीवन का प्रेम-शास्त्र! 




शाश्वत हैं बहुत सारे द्वंद्व 


शाश्वत हैं बहुत सारे द्वंद्व – 


स्वर्ण-रजत ग्लेशियरों और पहाड़ों की कंचन-जंघाओं से 

निर्बाध स्खलित होती है एक वेगवती नदी। 

मैदानों में विचरते हुए किसी सद्य-यौवना तरुणी की तरह 

वह प्रेम-पत्र लिखती है सुदूर दहाड़ते समुद्र को। 

कांपते सांसों के आरोह-अवरोह के साथ 

छूती है किनारों पर झुक आए विशाल वृक्षों के बाहु-जाल को

हवा की रुन-झुन के साथ गुनगुनाती है कोई प्रेम-गीत,

फिर आगे बढ़ते हुए गहन सकुचाहट के साथ 

लजाते हुए प्रवेश करती है उस समुद्र के खारे जल में

जो प्रतिदिन उसकी प्रतीक्षा करता है सांस रोक कर;

उन क्षणों में नदी भूल जाती है वह गीत 

जो उसने इस मिलन की चाह में गाया था। 


सौर मंडल में अगणित वर्षों से 

अपने अक्ष पर निरंतर  घूमती पृथ्वी 

उषा-काल में जागती है सूर्य के चुंबन से;

स्वर्णाभ हो उठती है उसकी कमनीय देहयष्टि।

अचानक किसी दिन मानिनी स्त्री की तरह प्रश्नाकुल हो कर – 

पूछती है सूर्य से - तुम्हारे प्रकाश से ही क्यों दमकते हैं अनेक ग्रह?

यह कैसा संबंध है मेरे और तुम्हारे बीच? 

हर भोर में बादलों का अंशुक लपेट 

कई दिनों तक सूर्य को वंचित करती है अपने पूर्ण आभा-मंडल से। 


सूर्य एक दिन आगे बढ़ कर आचमन में ग्रहण करता है उस मेघ-राशि को,

कुछ नहीं कहता कोप-भवन में बैठी अनावृत्त पृथ्वी से;

याद नहीं करता उषा के चुंबन का मीठा स्वाद

सूर्य नहीं भूलता सूर्य होने का अर्थ। 


विचलित होता हूँ उपेक्षा और अवमानना से,

याद आते हैं वे सभी निर्बंध 

जो कभी हस्ताक्षरित हुए थे 

प्रेम ऋचाओं के समवेत के बीच।


सुनेत्रा,

आज छलकते आंसुओं में

सूर्य और समुद्र दोनों समाहित हैं;

पता नहीं नदी और पृथ्वी का प्रेम कहाँ है? 



राजनीति 


वक़्त का एक छोटा-सा टुकड़ा 

मैंने संभाल कर रखा है 

अपनी कमीज़ की जेब में।


हवा चलती है तो वह टुकड़ा झांकना चाहता है बाहर 

जहाँ धूल, धुआँ, हताशा, हिंसा और आतंक 

साथ-साथ चल रहा है छाया की तरह।


विरुदावलियों को सुनते-सुनते थक गए हैं लोग।  

नए जोश के साथ उभरने लगी हैं 

सत्ता की भूख से बिलबिलाती रुदालियों की तीखी आवाज़ें;

यही होता है हर पाँचवें साल। 


आज सुबह मेरी फ़ाकामस्ती से चिढ़ कर 

एक दोस्त ने पूछा वही घिसा-पिटा सवाल;

तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर?


मैंने उसे चिढ़ाते हुए,

अपनी जेब से निकाल कर दिखाया वक्त का वह टुकड़ा;

जहाँ तुम थी – बरसात में नहाए पहाड़ों 

और घास को चूमते बादलों के बीच 

सुशांत और चित्र लिखित।


सुनेत्रा, 

इस विस्फोटक समय में 

मेरी राजनीति बस इतनी ही है; 

मैं, प्रेम के साथ 

क्षत-विक्षत होना चाहता हूँ!



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क : 

1101, टॉवर – 4, सुशांत एस्टेट, 

सेक्टर – 52 गुरुग्राम - 122003 

(हरियाणा)                          


मोबाइल - 9674386400, 

8840081836


ई मेल : rajeshwar58@gmail.com

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