महेश चन्द्र पुनेठा की कविताएं

 

महेश चन्द्र पुनेठा 




रोटी, कपड़ा और मकान किसी भी व्यक्ति की आधारभूत जरूरत होती है। मकान इसमें सबसे जटिल संरचना होती है। इसे बना पाना मुश्किल भरा होता है। अपनी जरूरतों में कटौती काट कर एक व्यक्ति जैसे तैसे घर बनाता है। मकान बनाने से पहले व्यक्ति स्थितियों परिस्थियों को देख समझ कर निर्णय लेता है। लेकिन आज की परिस्थितियां कुछ इस तरह की हैं कि घर में धूप और हवा तक मिल पाना सपना हो जाता है। इस तरह आम आदमी का सपना कभी पूरा हो ही नहीं पाता। महेश पुनेठा गझिन संवेदनाओं के कवि हैं। आस पास की सामान्य सी दिखने वाली घटनाओं को जिस सहज तरीके वे अपने कविताओं के विषय रूप में ढालते हैं, वह उतना आसान होता नहीं है। आज महेश का जन्मदिन है। पहली बार की तरफ से प्रिय कवि को बधाई। आइए इस अवसर पर आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं महेश चन्द्र पुनेठा की कविताएं।



महेश चन्द्र पुनेठा की कविताएं


एक टुकड़ा धूप


सालों तक 

सीलन भरे मकानों में रहते-रहते 

एक धूप भरा मकान उसका सपना बन गया।

 

न खा, न लगा कर 

उसने अपना एक मकान खड़ा किया 

उसने कुछ नहीं देखा 

उस जगह पर मकान बनाने से पहले 

सिर्फ धूप देखी 

उसे धूप नहीं जैसे कोई खजाना मिल गया हो।


कुछ ही सालों बाद 

सामने एक बहुमंजिला मकान खड़ा हो गया


एक टुकडा धूप 

फिर उसके लिये एक सपना बन गयी।



नफरत


जहाँ लैन्टेना 

और गाजर घास पैदा हो जाती है 

वहां अन्य वनस्पतियां नहीं पनप पाती हैं कभी 

भूमि बंजर हो जाती है

 

यही हाल नफरत का भी है।



कवि होने का मतलब


किचन में कभी तलुओं से भात चिपक जाता है तो 

वीरेन डंगवाल याद हो आते हैं 

बाजार जाते रास्ते में सूअर के बच्चों को खेलते देखता हूँ तो 

वीरेन डंगवाल याद हो आते हैं 

झाझन में रख छन्न से समोसों को निथारते  देखता हूँ तो 

वीरेन डंगवाल याद हो आते हैं 

हलवाई को जलेबी तलते हुए देखता हूं तो

वीरेन डंगवाल याद हो आते हैं 

वसंत में प्यूली के फूलों से भरे खेतों के बीच खड़ा होता हूं तो

वीरेन डंगवाल याद हो आते हैं 

अपनी सरलता के चलते किसी के शोषित होने के प्रसंग सुनता हूँ तो 

वीरेन डंगवाल याद हो आते हैं 

कविता क्या? कोई पूछता है तो 

वीरेन डंगवाल याद हो आते हैं।






सांचा


सांचे में रहते-रहते 

हर चीज को 

सांचे में देखने की 

आदत-सी हो जाती है 

सांचे में ढला ही 

तन-मन को जंचने लगता है

सांचे से बाहर दिखे जो कुछ भी  

उसके होने पर ही 

अविश्वास होने लगता है।

यह अविश्वास सत्ता को शक्ति देता है

साँचा हर सत्ता का आधार होता है।



काम की आवाज


'काम बोलता है'

यह बात 

जितनी सच पहले थी

उतनी ही आज भी 

लेकिन 

यह भी सच है कि 

विज्ञापन की कान-फोडू आवाज ने 

काम की आवाज को

 दबा दिया है 

बहुत बार तो 

सुनाई ही नहीं देती है 

काम की आवाज 

बिडम्बना देखिये 

काम को भी अब 

बोलने के लिए 

विज्ञापन के भोंपू की 

जरूरत पड़ने लगी है 

अब काम पर  नहीं 

विज्ञापन पर जोर है 

ख़बरें भी 

काम पर नहीं 

विज्ञापन पर लिखी जा रही हैं

और तो और चुनाव भी 

काम के नहीं 

विज्ञापन के बल पर जीते जा रहे हैं।



धैर्य

(प्राथमिक शिक्षकों के लिए)


देखता हूं जब भी 

खड़िया पत्थर से बनी कोई मूर्ति 

जिसमें केवल आकृति ही नहीं 

भाव-भंगिमाएं भी अंकित होती हैं


मुझे बेडौल पत्थर के सामने बैठा 

एक मूर्तिशिल्पी नजर आता है

एक हाथ में हथौड़ा और दूसरे में छेनी लिये 

उसकी छोटी-छोटी लयबद्ध चोटों का 

संगीत सुनाई देता है 

कभी देर तक अधबनी मूर्ति को 

अलग अलग कोणों से निहारती 

उसकी आंखें याद आती हैं 


मैं महसूस करता हूं उसके धैर्य को

जो मूर्ति में नहीं हो रहा दृष्टिगोचर कहीं 


सोचता हूं 

यदि कभी क्रोध में 

तिलमिला कर

मार दी गयी होती अगर एक बड़ी चोट 

क्या आज इतनी सुन्दर मूर्ति मेरे सामने होती?





चुपटोल


उन्हें नसीब नहीं होते हैं कभी घर जैसे ढांचे

जिन्हें कुमाऊं में नौले कहा जाता है

वे चुपचाप पड़े रहते हैं किसी एकांत में 

झुरमुट के बीच 

किसी गधेरे में 

या पगडंडी के किनारे

दूर से एकाएक दिखाई भी नहीं देते

पतझड़ के दिनों ढक लेती हैं पत्तियां उन्हे


बकरी या अन्य मवेशियों के ग्वालों की

घास लकड़ी के लिए जंगल जाती महिलाओं की

या किसी पैदल चलते बटोही की

 प्यास बुझाते हैं भरपूर

जंगली जानवर भी दिख जाते  हैं यहां अक्सर


बचपन के दिनों स्कूल जाते मेरे रास्ते में भी था एक ऐसा ही चुपटोला 

उतार चढ़ाव भरे रास्ते में


सूख जाता था जब गला

अंजुली में भर भर कर पीते थे पानी

फिर पास में खड़े बांज के पेड़ के नीचे कुछ देर सुस्ताते


पिछले दिनों यूं ही 

पुराने पैदल रास्ते से गुजरते हुए 

मैंने देखा

खाली बोतलों, डिस्पोजलों आदि के कूड़े का ढेर बढ़ता ही आ रहा है उसकी ओर

जो कुछ दिनों बाद 

ड्रैगन की तरह कर लेगा उसे उदरस्थ


क्या चुपचाप देखते रहेंगे इसे

ग्वाले

जंगल जाती महिलाएं

आते जाते बटोही

और स्कूल जाते बच्चे।



अहंकार की नदी


नदी के किनारे

स्वाभिमान से खड़ी थी निंगाल की गांछ 

अपने में ही मस्त

आजाद हवा में झूमती 


एक दिन उफनती नदी के रास्ते में आ गई

नदी के अहंकार ने

धराशाई कर दिया उसे

तब निंगाल को भू लुंठित देख

ठहाके मार कर हंसने लगी नदी।


उफान कम होते ही

निंगाल की गांछ ने

जैसे धीरे धीरे सर उठा कर कहा

ऐ! अहंकारी नदी सुन जरा

मैं दबी जरूर थी

मगर अभी मरी नहीं हूं

फिर उसी तरह से खड़ी हो उठूंगी

हरी भरी हो कर

फिर उसी तरह गाऊंगी

तराने आजादी के

तेरा चार दिन का यह अहंकार धरा का धरा रह जाएगा।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


मोबाइल : 09411707470


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं