सौरभ तिवारी द्वारा प्रस्तुत राष्ट्रीय संगोष्ठी की रपट
हिन्दी और आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय अपनी स्थापना के सौ वर्ष पूरे कर चुका है। इविवि हिन्दी विभाग और आन्तरिक गुणवत्ता आश्वासन प्रकोष्ठ के संयुक्त तत्वावधान में, शताब्दी वर्षों के आयोजन की श्रृंखला में 'स्त्री साहित्य: विविध आयाम' विषय पर दिनांक 5 और 6 मार्च 2025 को दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में देश भर के महनीय विद्धानों, नारीवादी चिंतकों और विभिन्न विश्वविद्यालयों के शोधार्थियों ने भाग लिया। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी की एक विस्तृत रिपोर्ट हिन्दी विभाग के शोधार्थी सौरभ तिवारी ने हमें उपलब्ध कराई है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं राष्ट्रीय संगोष्ठी की रपट 'स्त्री साहित्य: विविध आयाम'।
'स्त्री साहित्य: विविध आयाम'
प्रस्तुति : सौरभ तिवारी
प्रथम दिवस
उद्धाटन सत्र में संचालन कर रहीं डॉ. सुधा त्रिपाठी ने कहा कि 'रचना की कोख का कोई लिंग नहीं होता और स्त्री लेखन के मूल्यांकन का अभी समय नहीं, अभी स्त्री को पढ़ने और सुननें का समय है।' इसके उपरांत उन्होंने इविवि हिन्दी विभाग की विभागाध्यक्षा प्रो. लालसा यादव जी को स्वागत और संयोजकीय वक्तव्य के लिए मंच पर आमंत्रित किया। संयोजकीय वक्तव्य देते हुए प्रोफेसर लालसा यादव जी ने कहा विभाग 101 वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है, साहित्य की दुनिया वृहत्तर है, जिसके केन्द्र में रही है स्त्री। उसके बगैर साहित्य की रचना असंभव है। यहाँ आते हुए जब उनसे किसी ने कहा कि आज हवा बहुत तेज़ चल रही इसका प्रत्युतर देते हुए उन्होंने कहा- 'कोई बात नहीं स्त्रियों का संघर्षों के बीच से ही निकलना हुआ है।'
अनामिका की 'स्त्रियाँ' कविता का उन्होंने पाठ किया। स्त्री विमर्श की आरम्भिक पृष्ठभूमि पर बात रखते हुए उन्होंने कहा कि 'स्त्री मन की उन्मुक्त अभिव्यक्ति का 'थेरी गाथा' एक दस्तावेज है।' हम तुलसीदास को जानते हैं, रत्नावली को नहीं। रत्नावली ने 202 दोहे लिखे।
इसके अतिरिक्त 'ब्यूटी विदआऊट ब्रेन, ब्यूटी विद ब्रेन' के हवाले बात करते हुए उन्होंने देहमुक्ति के प्रश्नों को रेखांकित किया और कहा कि किस तरह महाकुंभ मेले की माला बेचने वाली एक लड़की को उसकी सुंदरता के कारण परेशान किया गया था। कई कंपनियों द्वारा उसे हायर करने का प्रयास किया गया।
उन्होंने पूर्व में ही इस बात का खंडन कर दिया कि स्त्री-विमर्श की गोष्ठी में पुरुष क्या कर रहे? उन्होंने कहा 'हमने उन पुरुषों को बुलाया है, जो फेमिनिस्ट हैं।'
इसके बाद बीज वक्तव्य के लिए वरिष्ठ कथाकार जया जादवानी को मंच पर आमंत्रित किया गया। आते ही उन्होंने जो पहली लाइन बोलीं मुझे बहुत पसंद आईं- 'मोहब्बत, मुरव्वत और इल्म वक्त जाया करने से ही हमारे पास आते हैं।'
पहले की स्त्रियों को घर, बच्चा, पति, प्रेमी जैसी सेक्योरिटी चाहिए थी पर अब उसकी संवेदनाएं बदल गई हैं और सगर्व उन्होंने कहा कि हम आधी दुनिया हैं, जो अपनें हक-हुकूक की लम्बी लड़ाई में संलग्न हैं। पुरुष के दिल और घर में जगह बनानें के लिए संघर्षरत है।
21 वीं सदी के पिछले 20 वर्षों में हर किस्म के काम करती हुई औरतों का उन्होंने जिक्र किया जिनमें समलैंगिक औरतें, सेना में शामिल औरतें, बाजार में शामिल औरतें, खिलाड़ी औरतें, टीवी, वेबसीरीज में शामिल औरतें आदि शामिल हैं।
स्त्री अधिकारों और संघर्षों पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि स्त्री आजादी की लड़ाई बहुत पुरानी है और इस पर 'सुल्ताना का सपना' (1903) के हवाले से बातचीत की और साथ ही एक बात और जोड़ी कि औरत की बगावत इससे भी पुरानी है, जब हव्वा बगीचे में फल तोड़ती है।
उन्होंने 70-80-90 के दशक की स्त्रियों के लेखन और उनके प्रभावों का ज़िक्र करते हुए इसे वर्तमान से जोड़ा। हंस कहानी लेखन प्रतियोगिता में समीना खान की प्रथम पुरस्कार प्राप्त कहानी का उन्होंने जिक्र किया। इस कहानी का मूल यह था कि एक स्त्री 150 रुपए में रजाई बना कर किसी व्यक्ति को बेचती है और वह व्यक्ति बाजार में उस 150 में खरीदी रजाई 500 में बेचता है और उतने में भी वह स्त्री खुश है कि उसे किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ रहा।
योगिता, उपासना, सबा आजाद, जैसी कई नई कहानीकारों का उन्होंने जिक्र किया। 'घने अंधकार में खुलती खिड़की' पुस्तक के हवाले से उन्होंने ईरान की स्त्रियों के सन्दर्भ में बात करते हुए कहा कि स्त्री अभी भी अपना वास्तविक हक नहीं ले पाई। हमारा संघर्ष पुरुष समाज से नहीं पितृसत्ता से है। यह भी उन्होंने कहा 'आने वाले समय में परिवार की संस्था कितनी बचेगी? यह भी विचारणीय है।'
हमारी माँ बुर्का पहनतीं थी, बेटियां जींस पहनती हैं और इनके बीच में हम यह सोचते हैं कि जो हमने भोगा वह हमारी बेटियां न भुगतें। इस प्रकार तीन पीढ़ियों के संघर्ष, मुक्ति और उसकी छटपटाहट को उन्होंने रेखांकित किया। स्त्री चेतना में क्या गुणात्मक विकास हुआ? यह प्रश्न करते हुए उन्होंने कहा 'अकेला पुरुष मुक्त नहीं हो सकता, अकेली स्त्री मुक्त नहीं हो सकती और जब तक स्त्री मुक्त नहीं होगी, तब तक मनुष्यता नहीं मुक्त होगी।'
उन्होंने कहा कि स्त्री संघर्ष पितृसत्ता के खिलाफ है, उनके जैसा बनने में नहीं और पुरुषों को भी यह समझना होगा कि गुलाम स्त्री उसकी सेवक हो सकती है उससे प्रेम नहीं कर सकती। अंत में उन्होंने यह बात कही कि 'हर स्त्री एक बुद्ध पुरुष को ढूँढ रही है।'
इसके उपरांत प्रोफेसर चंदा देवी के धन्यवाद ज्ञापन के साथ ही यह उद्धघाटन सत्र समाप्त हो गया।
पहले सत्र का संचालन डॉ. शशि कुमारी ने किया और इस सत्र की वक्ता के तौर पर प्रो. चारू गुप्ता, प्रो. सुधा सिंह और प्रो. प्रज्ञा पाठक की उपस्थिति मंच पर थी। प्रो. आशीष त्रिपाठी को भी आना था मगर किन्हीं कारणों से उनकी उपस्थिति संभव नहीं हो पाई। इस सत्र का विषय था 'हिन्दी नवजागरण और स्त्री प्रश्न'।
पहली वक्ता के तौर पर प्रो. प्रज्ञा पाठक को आमंत्रित किया गया। उन्होंने कहा कि इलाहाबाद पहुँचने की एक अलग खुशी होती है, बनारस घर है इसलिए इलाहाबाद पहुंचने पर लगता है कि अब घर के नजदीक आ गए।
हिन्दी नवजागरण में स्त्रियों की भूमिका तय करने में इलाहाबाद की महती भूमिका रही है। हिन्दी साहित्य के पुरुष आलोचकों के व्यवहार पर प्रश्न उठाते हुए उन्होंने कहा कि 'स्त्री थी ही नहीं, उंगलियों पर गिना जाता है' कह कर लम्बे समय से उनकी उपस्थिति, आवाज को दबाने की कोशिश की गई। मल्लिका पर लगभग चार किताबों का प्रकाशन हुआ इस ओर उन्होंने ध्यान आकृष्ट कराया।
अज्ञेय ने 'निसर्ग' की भूमिका लिखी, राम विलास ने सुमित्रा कुमारी सिन्हा की पुस्तक भूमिका लिखी, प्रेमचंद ने कमला चौधरी की रचना की भूमिका लिखी।
'पूर्णप्रकाश चंद्रप्रभा' के हवाले से भी उन्होंने अपनीं बात रखी। उन्होंने बताया कि रामविलास शर्मा 'पूर्णप्रकाश चंद्रप्रभा' भारतेन्दु की पुस्तक मानते हुए आलोचना करते हुए कहते हैं कि 'इसके द्वारा प्रेमचंद के अभ्युदय की प्रत्यूष-वेला मानते रहे।' जबकि यह अनुवाद मल्लिका ने किया था।
उन्होंने कहा कि इसी इलाहाबाद से रामेश्वरी नेहरु सन् 1909 में 'स्त्री दर्पण' पत्रिका का प्रकाशन कर रहीं थीं, जो सन् 1929 में बंद हो गई थी परन्तु इस बीस वर्ष की अवधि में उस पत्रिका में स्त्री अधिकारों से जुड़ी लगभग हर समस्याओं की चर्चा होती थी और बराबरी के अधिकार का मुद्दा बार-बार निकल कर आता था। इसके अलावा उन्होंने इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका 'गृहलक्ष्मी' का भी जिक्र किया। उमा नेहरु का जिक्र करते हुए प्रो. प्रज्ञा पाठक ने 'सौंदर्य के दुरादर्श' का मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा कि तमाम पत्रिकाओं के माध्यम से उस दौर की स्त्रियों ने अपनें जीवन का ब्लू प्रिंट समाज के सामने रखा।
भारतेन्दु के 'बलिया व्याख्यान' (भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है, निबंध) का जिक्र करते हुए उन्होने कहा कि किस तरह उस दौर के पुरुष रचनाकार यह कह रहे थे कि 'लड़कियों को भी पढ़ाइए मगर किंतु इस चाल से नहीं जैसे आजकल पढ़ाई जाती है।'
स्त्री विमर्श के पश्चिम और भारतीय अवधारणाओं पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि 'स्त्री पश्चिमी हो या पूर्वी हमें उसकी स्वतंत्रता, उदारता और गुणों की चिंता करनी है।'
अपनें उद्बोधन के आखिर में उन्होंने यह कहा कि 'समय की धार में हुए आंदोलन के मुकाबले वर्तमान में हम पीछे हो गए हैं' और सामने बैठे शोधार्थियों, विद्यार्थियों और अध्येताओं से उन्होंने एक अपील की कि उन्हें गुमनाम स्त्री लेखन को शोध के माध्यम से सामने लाने का प्रयास करना चाहिए।
अगली वक्ता के रूप में डॉ. चारू सिंह को वक्तव्य के लिए बुलाया गया। उन्होंने कहा कि 'नवजागरण की अवधारणा में स्त्री महज एक प्रश्न है।' 'सीमन्तनी उपदेश' (1881) की लेखिका को वीर भारत तलवार ने 'अज्ञात हिन्दू लेखिका' कहा था जिसे 2016 में डॉ. चारु सिंह ने 'हर देवी' को लेखिका के रूप में खोजा। उन्होंने यह भी कहा कि मैक्समूलर ने ऑक्सफोर्ड की लाइब्रेरी (जिसके वे संरक्षक थे) में हर देवी का दिया एक लेख डोनेट किया।
'सुगृहिणी' पत्रिका और पंडिता रमा बाई का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि स्त्री और दलित पर बातचीत पब्लिक स्फीयर की बातचीत है, इतने भी पिछड़े हुए हम नहीं हैं।
हिन्दी नवजागरण की समस्याएँ-नामवर सिंह का जिक्र करते हुए उनके कहे गए एक वाक्य 'हिन्दी बांग्ला का पिछलगुआ है' पर उन्होंने अपनी बात रखी।
प्रो. सुधा सिंह ने कहा, नवजागरण पर हुई बातचीत से वास्तव में स्त्री जीवन में क्या बदला? क्या आज 12 बजे रात स्त्री के बाहर होने पर उस पर प्रश्नचिन्ह नहीं उठाया जायेगा? नवजागरण स्त्री केन्द्रित नहीं था, इसलिए नवजागरण का प्रयोग किसी स्त्री ने नहीं किया, जबकि उस दौर में व्यापक स्त्री लेखन हो रहा था। स्त्रियाँ इसे 'जागरण युग' कहती हैं। नवजागरण के सामाजिक आलोड़न-विलोड़न में सत्ता के किस तरफ (पक्ष-विपक्ष) शक्ति काम करती हैं यह देखने लायक है, यहीं से विचारों में अंतर उत्पन्न होगा और स्त्रियों के समक्ष केवल बाहरी सत्ता ही नहीं घर की पितृसत्तात्मक सत्ता भी थी। नवजागरण में किसी विचारक (राजा राम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर और दयानंद सरस्वती) का महिलाएं नाम नहीं लेंती।
रामविलास शर्मा की नवजागरण कालीन आलोचना भक्ति काल तक पहुँचती है, जबकि स्त्रियों ने इसे 'वैराग्य काल' कहा। महिलाएं स्त्री लेखन के जरिए भक्ति काल और रीति काल के ठीक उलट, एक नये लोकवृत्त का निर्माण करती हैं। स्त्री लेखन पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि तत्कालीन महिलाओं ने राष्ट्रीय परिकल्पना, भाषा की समस्या, मातृत्व और परिवार के पालन और शोषण पर लिखा और यह कहा कि उनका राष्ट्र सह-अस्तित्व वाला राष्ट्र है, जो निकटता का परिचय और विश्व भातृत्व की भावना से ओत-प्रोत है और बहनापे का समर्थक है।
जैविकता इनके लिए सामान्य सी चीज है, कमतर या हेय नहीं। स्त्रियों के विभिन्न रूपों पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि स्त्रियों के अंदर भी विविधता है, जिनमें ग्रामीण, शहरी, उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग की स्त्रियाँ सम्मिलित हैं।
अंत में उन्होंने कहा कि 'नई संस्कृति का आधार धर्म नहीं होगा, वह विज्ञान और प्रज्ञान से चिन्हित होगी।'
डॉ. सुप्रिया पाठक ने कहा 'हम साहित्य के विद्यार्थी नहीं समाज विज्ञान के लोग हैं इसलिए हमारा पहला काम आब्जर्वर का काम है, डेटा कलेक्ट करना है।' अक्सर किसी बड़े आयोजनों में स्त्रियों के शिरक़त करने पर किए जाने वाले कटाक्षों को रेखांकित करते हुए कहा 'पहली पंक्ति आज आप लोगों की है?'
'अरे, आप लोगों का तो सीजन चल रहा है!!' जैसे फब्तियां कसते वाक्यों का सामना स्त्रियों को करना पड़ता है। आदर्श समाज में स्त्रियों ने स्वतंत्रता पा ली और दे भी दी गई पर आज यहाँ इस विषय पर बातचीत इस ओर ध्यान आकृष्ट करती है कि 'अभी बहुत मंजिल बाकी है और हम कहीं पहुँचे नहीं हैं।'
स्त्रीवाद यह मानता है कि स्त्रियाँ भी मनुष्य है और यह हम मानते हैं कि उन्हें अभी भी मनुष्य नहीं समझा गया है। स्त्रियाँ एक ऐसा समाज चाहती हैं जिसमें उसका और उसकी कृति का मूल्यांकन लिंग के आधार पर न हो। नामवर सिंह जैसे आलोचकों का स्त्री विमर्श के सन्दर्भ में यह मानना कि यह 'कुछ दिखाने, कुछ छिपाने' जैसा है यह सिद्ध करता है कि आलोचना की परंपरा में वैचारिक स्तर पर स्त्रियों को प्रामाणिकता प्रदान करना अभी तक हिन्दी साहित्य में संभव नहीं हो सका।
'विमर्श' अभी के संदर्भ में आया हुआ शब्द है। यह पब्लिक स्फीयर से निकली बात नहीं है, यह पारिवारिक स्तर से शुरु होता है और इसके लिए ऐतिहासिक रूप में हमें उन आख्यानों को भी देखने की जरुरत है जो लिखित रुप में नहीं हैं, मौखिक हैं।
एक लोक गीत के हवाले से उन्होंने रखी और कहा कि लोक साहित्य की अभिव्यक्ति में जब एक लड़की अपने पिता से कहती हैं, 'पिता जी परिवार अपने लायक खोजिएगा, पंचों के लायक बारात खोजिएगा, लेकिन लड़का मेरे लायक ही खोजिएगा।' और 'गइया, भैसिया हमरौ सम्पत्ति, बहिनी पराया धन' जैसी अभिव्यक्तियाँ बताती हैं कि लोक गीतों में उठने वाले ऐसे स्वरों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता।
सविता सिंह के कविता संग्रह 'वासना एक नदी का नाम है' का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा वासना स्त्री जिजीविषा से जोड़ती हैं। देह जब प्रकृति से एकाकर होगी तो वासना (जीवन के प्रति जिजीविषा) के साथ जीवन को बचा कर रखेगी। यह वास्तव में स्त्रीवादी आलोचना है।
उन्होंने सुमन केसरी के 'गांधारी' और भीष्म साहनी 'माधवी' नाटक के हवाले से भी अपनीं बात रखी और दुष्यंत जी के शेर के साथ उन्होंने अपनी बात समाप्त की-
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
डॉ. अर्चना सिंह जो कि गोविंद वल्लभ पंत में समाज विज्ञान की प्रोफेसर थीं, उन्होंने यह प्रश्न करते हुए कहा कि हिन्दी आलोचना में स्त्री विमर्श क्यों नहीं आ रहा था? अगर इस पर विचार किया जाये तो पता चलता है कि ज्ञानवादी परंपरा से नवजागरण काल तक स्त्रियों के सृजन का डॉक्यूमेंटेशन नहीं किया गया क्योंकि महत्वपूर्ण ये था कि उन्हें ज्ञान समझा ही नहीं गया। सीमोन-द- बउवा से पहले महादेवी 'शृंखला की कड़ियाँ' लिखती हैं और इसके माध्यम से पितृसत्तात्मक समाज पर गहरा कटाक्ष करती हैं। उन्होंने कहा कि आलोचना से पहले साहित्य पर बात होंनी चाहिए।
प्रसिद्ध स्त्रीवादी आलोचक प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने कहा 'मैं असल में स्त्रियों को सुनना चाहता था। स्त्रियों पर आप लिख सकते हैं मगर स्त्रियों की अनुभूति महसूस नहीं कर सकते।' सबसे सुंदर चीज स्त्री की यही है कि जब भी वह दाखिल होती है वह यथास्थिति को डिस्टर्ब करती है, यही उसकी ताकत है। स्त्री विमर्श की इस सड़क पर आप सतत खड़े हो ही नहीं सकते।
उन्होंने कहा कि 'स्त्री विमर्श और स्त्री आलोचना में मैं आऊटसाइडर हूँ पर मैं फेमिनिस्ट हूँ और उसमें मुझे कोई शर्म नहीं है।'
सन् 1990 में जब उन्होनें स्त्री विमर्श पर काम करनें का मन बनाया उस दौरान मैत्रेयी पुष्पा, मृदुला गर्ग जैसे कई महिला रचनाकारों का इंटरव्यू उन्होंने लिया।
स्त्री आलोचना की प्रथम शर्त के तौर पर उन्होंने कहा कि स्त्रियों का लिखा सब कुछ प्रकाशित होना चाहिए जैसे जैनियों के यहाँ सुरक्षित है। राजस्थान में मध्य काल में लगभग 150 महिलाएं कविता लिख रही थीं। इस बात पर भी जोर दे कर उन्होंने कहा कि अधिकतर लिखने वाली स्त्रियाँ स्त्रीवादी आन्दोलन से नहीं जुड़ती हैं।
आजादी के 75 वर्ष के उपरांत भी स्त्री स्वतंत्र रुप से अपने मन का नहीं कर सकीं, यह कह कर उन्होंने अपनी बात समाप्त की।
द्वितीय दिवस
दिनांक 6 मार्च को संगोष्ठी में 8:30 से 10:30 तक तीन समानांतर तकनीकी सत्र हुए जिनमें क्रमश: प्रथम तकनीकी सत्र की अध्यक्षता प्रो. सरोज सिंह तथा संचालन डॉ. मुकेश कुमार यादव, द्वितीय सत्र की अध्यक्षता प्रो. रचना आनंद गौड़ तथा संचालन डॉ. पद्मभूषण प्रताप सिंह और तीसरे तकनीकी सत्र की अध्यक्षता प्रो. कुमार वीरेन्द्र जी तथा संचालन अनुराधा सिंह ने किया। इन सभी सत्रों में देश भर के तमाम विश्वविद्यालयों से आए शोधार्थियों, शिक्षक प्रतिनिधियों ने अपने-अपने शोध प्रपत्रों का वाचन किया।
तीसरा सत्र, 10:30 से आयोजित हुआ जिसका विषय था, 'स्त्री कविता और कविता में स्त्री', इस सत्र का संचालन डॉ. संतोष कुमार सिंह ने किया। वक्ता के तौर पर इस सत्र में डॉ. कविता कादम्बरी, डॉ. ज्योति चावला और डॉ. सुजीत कुमार सिंह नें अपने-अपने विचारों को रखा। इस सत्र की अध्यक्षता प्रो. प्रणय कृष्ण ने की। इस सत्र का संचालन डॉ. संतोष कुमार सिंह ने किया।
डॉ. सुजीत कुमार सिंह जी ने पार्वती देवी की कविताओं पर बात की, जो फर्रुखाबाद जनपद की निवासी थीं।
'अबला हित कारक' में पार्वती देवी एकमात्र ऐसी स्त्री रचनाकार सम्मिलित थी, जिनकी लगभग 20 कविताएं हैं। उन्होंने किसी कविता में 'विधवा' या 'बेवा' शब्द का प्रयोग नहीं 'रांड' शब्द का प्रयोग किया है। विधवा या बेवा शब्द एक सहानुभूति पैदा करता है जबकि 'रांड' शब्द पितृसत्तात्मक मानसिकता का परिचायक है। उन्होंने एक वाक्य को भी उल्लिखित किया कि 'पुरुष की हर रोज मार खाने से रांड रहना अच्छा है।'
डॉ सुजीत कुमार ने पार्वती देवी की कविता "मैंने किए कौन से पाप/ राम ने विपदा दिखलाई" का वाचन भी किया।
हाल ही में आयोजित किसी कार्यक्रम में जब एक आलोचक ने कृष्णा सोबती का जिक्र करते हुए उनके साहित्य को 'मलबा' कहा तो उन्होंने उसके विरोध में मंच से यह कहा कि 'उनका साहित्य मलबा नहीं है।'
कृष्णा सोबती की 'जिज्ञासा' और 'मेरे कवि मुझे बता दो न' कविता पर बात करते हुए कहा कि उन्होंने सर्वप्रथम कविताओं से शुरुआत की।
डॉ. कविता कादंबरी चूँकि वर्तमान स्त्री कविता के मुख्य स्वरों में से एक हैं इसलिए उनका इस मंच पर होना एक तरह से स्त्री कविता की भी मंच पर उपस्थिति थी। उन्होंने कहा कि अक्सर स्त्री कविता पर ये आरोप लगते हैं कि स्त्रियाँ जब कविता लिखती हैं तो भी पर्सनल बातचीत और मंच पर भी अक्सर पर्सनल बातचीत करती हैं!! और इस समय में लोग अक्सर ये कहते हुए पाए जाते हैं कि स्त्री कविता की बाढ़ सी आ गई है, एक विस्फोट सा हो गया है। पर उनकी चिंता इस बात को ले कर थी कि क्या वास्तव में ऐसा कुछ सर्वेक्षण हुआ हमारे देश में भी जैसा कि आयरलैंड में हुआ, जब एक दशक के दौरान आयरलैंड में हुए सर्वेंक्षण में पता चलता है कि 60-40 के अनुपात में स्त्री-पुरुष कविता लिख रहे थे। इस संदर्भ में उन्होंने कहा कि तात्कालिक अवलोकन के आधार पर विकसित समझ एक तरह से क्षति पहुँचा रही है। स्त्रियों की उपस्थिति पर मात्रात्मक बातचीत पितृसत्तात्मक मानसिकता की उपज है, इससे डिस्कोर्स शिफ्ट हो जाता है। इससे हम स्त्री कविता की भाषा, शिल्प, सौंदर्यशास्त्र पर बातचीत नहीं कर पायेंगे, उसकी गुणात्मकता पर बात नहीं कर पायेंगे। हाँ, यह जरुर कहा जा सकता है कि इनीशियल लेवल का फिल्टर हट गया है, अब स्त्रियाँ लिख रही हैं, छप रही हैं और प्रकाशित हो रही हैं।
स्त्री कविता में एक समान अभिव्यक्ति और रुपकों के दोहराव पर डॉ. कविता कादंबरी ने कहा कि हम जो जीते हैं उसी के आधार पर चीजों का अर्थ निकालते हैं। कविता में आथेंटिसिटी के लिए पर्सनल होना पड़ेगा। 'करने, लिखने, दिखने और दर्ज होने की बात है स्त्री कविता।'
मुदालियर रिपोर्ट का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि जब उनसे स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया तो उन्होंने कहा 'स्त्री शिक्षा पर अलग से बात करने की जरुरत नहीं है, है तो, दिख तो रही हैं' जैसी बातें कह कर लक्ष्मणस्वामी मुदालियर ने पल्ला झाड़ लिया।
हाल ही में हुई महाकुंभ के लिए दिल्ली रेलवे स्टेशन भगदड़ में जिस तरह महिला पुलिसकर्मी की बच्चे को ले कर ड्यूटी को सेलिब्रेट किया गया, उसे ले कर भी उन्होंने अपने विचार रखे और कहा कि वास्तव में इस विडंबना को समाज सेलिब्रेट कर रहा।
इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे पूर्व विभागाध्यक्ष हिन्दी विभाग प्रो. प्रणय कृष्ण ने कहा कि प्रेम और प्रकृति सनातन विषय हैं, जिसमें किसी न किसी रुप में स्त्री की उपस्थिति है ही।
भक्ति काव्य में स्त्रियों की बेहतर उपस्थिति प्रेमाख्यानों में ही है। नख-शिख वर्णन उत्तरवर्ती काव्य में पतित होता है।
कृष्णा सोबती के 'हम हशमत' के हवाले से भी उन्होंने अपनें विचार प्रस्तुत किए।
चौथा सत्र, 'स्त्री कथा और कथा में स्त्री' विषय पर आधारित था। इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार, आलोचक वीरेन्द्र यादव ने की। वक्ता के तौर पर प्रो. प्रीति चौधरी, कविता और डॉ. श्रुति कुमुद ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किए। इस सत्र का संचालन डॉ. गाजुला राजू ने किया।
डॉ. श्रुति कुमुद ने कहा कि स्त्री कथा और कथा में स्त्री दो आयाम है। स्त्री की कथा क्या है? यह एक बात है। दूसरी बात, 'कथा में स्त्री', स्त्री से जुड़ी बाते हैं। स्त्री मुक्ति से जितना समाज डरता है उतना किसी से भी नहीं। कहानियों में स्त्री, पुरुष को भटकानें जैसे स्टीरियोटाइप कैरेक्टर में गढ़ी गई हैं। स्त्री पात्र अकर्मण्य या विलेन बना दी जाती हैं 'लालच के पुतले' की तरह उन्हें प्रदर्शित किया जाता है। पर हिन्दी कहानी के विगत 25 वर्षों में स्त्री को स्थान मिला है, इसमें संदेह नहीं। उन्होंने कई कहानियों का जिक्र किया, जैसे-पंकज की 'क्विजमास्टर', उदय प्रकाश की 'पाल गोमरा का स्कूटर', उमा शर्मा की 'भविष्यद्रष्टा' नीलाक्षी सिंह की 'उस शहर में चार लोग रहते हैं', 'रंगमहल में नाची राधा' और वंदना की 'शहादत' और 'अमर' आदि। कृष्णा सोबती के 'मित्रो मरजानी' उपन्यास पर भी अपने विचार रखे। उन्होंने कहा कि 'मुक्ति की कामना ही स्त्री की आकांक्षा है।'
प्रो. प्रीति चौधरी ने स्त्री आत्मकथाओं के हवाले से अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि भारत में हिन्दी आत्मकथाओं में (अनुवाद सहित) वही आत्मकथा महत्वपूर्ण हैं जिन्हें हाशिए के लोगों ने लिखा। ये आत्मकथाएँ स्थापित संरचना पर सवाल खड़ा करती हैं। 'अन्या से अनन्या'- प्रभा खेतान, 'गुड़िया भीतर गुड़िया', 'कस्तूरी कुंडल बसै' - मैत्रेयी पुष्पा जैसी स्त्री आत्मकथाओं का जिक्र उन्होंने किया।
कविता ने कहा 'पुरुष प्रेम के बारे में लिखते हैं पर स्त्रियाँ प्रेम को जीती हैं।' कामना और चाहने के भीतर भटकता रहता है तमाम स्त्री जीवन।
इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र यादव ने हिन्दी कहानी और उपन्यासों के ऐतिहासिक विकास क्रम पर बात करते हुए कहा कि प्रेमचंद की आरम्भिक कहानी, 'बड़े घर की बेटी' संयुक्त परिवार, आदर्श, पितृसत्ता, मनुवाद के पक्ष में थी परन्तु बाबा साहेब द्वारा पितृसत्ता को संरक्षण प्रदान करने वाले ग्रंथ मनुस्मृति को जलाये जाने के पश्चात, जो कि एक महत्वपूर्ण घटना थी सन् 1932 में प्रेमचंद ने 'बेटों वाली विधवा' कहानी लिखी जो मां-बेटे के संवाद के माध्यम से संपत्ति के अधिकार पर बात करती है।
प्रेमचंद की कहानी और उपन्यास भी बगैर स्त्री के पूर्ण नहीं है। उनपर सवाल उठाया जाता है कि उन्होंने यौनिकता पर बात नहीं की, इस संदर्भ में 'नरक का मार्ग' कहानी हमारे सामने आती है, जिसमें उन्होंने लिखा है 'स्त्री सब कुछ सह सकता है मगर नहीं सह सकती है तो यौवन की उमंगों का कुचला जाना।'
निर्मला में वह कहते हैं कि 'जब वह मेरे पास आ कर बैठ जाता तो मैं अपने को भूल जाती थी।'
उन्होंने जैनेंद्र और अज्ञेय के उपन्यासों पर बात की। केदार नाथ अग्रवाल के 'पतिया' जिसमें 'स्त्री यौनिकता के प्रश्न' थे, कृष्णा सोबती के 'मित्रो मरजानी', सुरेन्द्र वर्मा के 'मुझे चांद चाहिए' और प्रभा खेतान के 'छिन्नमस्ता' पर उन्होंने अपनी बात रखी।
इस तरह से हिन्दी कथा साहित्य पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि अब वर्तमान में चीजें थोड़ा पीछे जाती हुई प्रतीत होती हैं। स्त्री को नायकत्व प्रदान करते हुए भी रचनाकार मेलगेज की अवधारणा से ग्रस्त हैं।
पाँचवां सत्र 'कथेतर लेखन में स्त्री की जगह' विषय पर आधारित था। इस सत्र के पहले वक्ता थे डॉ. अमितेश कुमार, उन्होंने 'रंगमंच और स्त्री' विषय पर अपनें विचार प्रस्तुत किए और कहा कि व्यवस्थित रूप में स्त्रियों का अभिनय में प्रवेश इप्टा के आनें के बाद हो गया और अस्मितावादी विमर्शों के आने के बाद स्त्रीवादी रंगमंच प्रकाश में आया।
भारतेन्दु, जयशंकर प्रसाद (चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त और ध्रुवस्वामिनी), मोहन राकेश (लहरों के राजहंस, आधे-अधूरे) हबीब तनवीर, असगर वजाहत (जिन लाहौर नहीं वेख्या) पर उन्होंने बात रखी। प्रसाद के नाटकों पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि राष्ट्र की चिंता स्कंदगुप्त और चंद्रगुप्त का काम है, ध्रुवस्वामिनी का नहीं। इन रचनाओं में पुरुष मंशा स्पष्ट दिखती है। ध्रुवस्वामिनी की समस्या है विवाह से बाहर निकलना। प्रसाद के ही महिला पात्र अनंता देवी पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि अगर कोई महत्वाकांक्षी है तो उसे कुलटा न दिखा कर जेनविन दिखाना पुरुष लेखन में नहीं है और यही अंतर है स्त्री और पुरुष लेखन में।
रोशन अल्काजी जो इब्राहिम अल्काजी की पत्नी थीं और उनके कॉस्टयूम डिजाइन करतीं थीं, मोनिका मिश्र तनवीर जो हबीब तनवीर की पत्नी थीं, इनके विषय में कोई जानकारी साहित्य में हमें नहीं मिलती।
दूसरे वक्ता के रूप में डॉ. अवधेश कुमार मिश्र ने लोक साहित्य में स्त्री विषय पर बातचीत की और बताया कि किस तरह लौकिक कथाएं अलग-अलग संदर्भों मे कई जगहों पर विद्यमान हैं। एक लोककथा का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया इस कथा की पात्र वसुमती को उसके पिता ने बाल धुलते देख लिया और अपनी ही बेटी की सुंदरता पर आसक्त हो गया।
इस सत्र का संचालन डॉ. जनार्दन ने किया।
समापन सत्र में, समापन वक्तव्य देते हुए प्रो. चारु गुप्ता ने 'यशोदा देवी और संतराम बी.ए., लोकप्रिय हिन्दी विमर्श में स्त्री, विवाह, प्रेम और यौनिकता' पर शोधपरक लम्बी बातचीत की।
अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए प्रो. सुधा सिंह ने इन दो दिनों में हुई बातचीत का संक्षेप में सार रखते हुए कहा कि 'स्त्री क्या और किस तरह का संसार चाहती है', दो दिनों में इस पर विस्तृत चर्चा हुई है।
संगोष्ठी प्रतिवेदक के दायित्व का निर्वहन करते हुए डॉ. दीना नाथ मौर्य ने कहा कि दो दिनों में आयोजित इस संगोष्ठी से हम सभी समृद्ध हुए हैं। इस संगोष्ठी में 350 लोगों रजिस्ट्रेशन करवाए और 68 शोध पत्र पढ़े गए।
धन्यवाद ज्ञापन करते हुए इस राष्ट्रीय संगोष्ठी के सचिव प्रो. आशुतोष पार्थेश्वर ने आभार ज्ञापन करते हुए कहा कि इस संगोष्ठी का आकलन शोधार्थी करेंगे, समाज करेगा और आगामी 20-21 मार्च को होने वाली संगोष्ठी का आमंत्रण दिया।
अंत में इस संगोष्ठी की संयोजिका प्रो. लालसा यादव ने कहा कि
उनको ये शिकायत है कि हम कुछ नहीं कहते
कहने पे आ जायें तो क्या कुछ नहीं कहते।।
और पुनः सभी को धन्यवाद दिया।
समापन के उपरांत एक्स्ट्रा ऑर्गेनाइजेशन, इलाहाबाद की टीम के द्वारा सफदर हाशमी के नाटक 'औरत' का सफल मंचन हुआ।
'समापन सत्र का संचालन डॉ. सूर्यनारायण ने किया।
सम्पर्क
सौरभ तिवारी
शोधार्थी
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
मोबाइल : 7607875189
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