सुधा अरोड़ा की कहानी 'देह धरे का दंड'

 

सुधा अरोड़ा 



पितृसत्तात्मक समाज स्त्रियों पर अपना वर्चस्व कायम रखने के सारे पितृसत्तात्मक समाज स्त्रियों पर अपना वर्चस्व कायम रखने के सारे तिकड़म तो करता ही है वह उन्हें महज एक 'वस्तु' की तरह देखता है और व्यवहार भी करता है। इस क्रम में स्त्रियां पुरुषों के उस व्यवहार का अनायास ही शिकार होती हैं जिसकी कल्पना वे स्वयं नहीं करतीं। धर्म की आड़ में स्त्रियों का यह शोषण कुछ अधिक ही होता है। साधु महात्मा का बाना ओढ़े ढोंगी लोग इसका नाजायज फायदा उठाते हैं। धर्म इन ढोंगियों के लिए सर्वाधिक सुरक्षित शरणस्थली साबित होता है। सुधा अरोड़ा ने अपनी कहानी 'देह धरे का दंड' के जरिए इस ढोंग को करीने से उद्घाटित करती हैं। सुखदेव जी महाराज हर वर्ष अपने शिष्यों समेत तनेजा परिवार के घर पधारते हैं और इस अवसर पर अपने भक्तों को कृतार्थ करते हैं। धर्म की आड़ में सब कुछ इस व्यवस्थित तरीके से चलता है कि इन ढोंगियों की हरकतों को परिवार के लोग भी भांप नहीं पाते। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सुधा अरोड़ा की एक बेजोड़ कहानी 'देह धरे का दंड'।



'देह धरे का दंड'


सुधा अरोड़ा


पूरी रात विशाखा सो नहीं पाई थी। सुबह-सुबह उसकी आँख लगी ही थी कि दादी ने झकझोर दिया, "ए कुड़िए, नी उठ जाग! बसाक्का! ओए! उठ उठ चल्ल जा बागान में फूल लेने!"


उँ हूँ, विशाखा खीझी, सुबह-सुबह दादी के मुँह से अपना नाम सुन कर ही मूड खराब हो जाता है। एक तो वे बोलती ऐसे हैं जैसे भेड़-बकरियों को हंकाल रही हों, दूसरा विशाखा के नाम का हर हिज्जा दादी गलत बोलती है, न उनसे "व-बोला जाता है न श और न ख। इससे तो अच्छा है, वह उसे घर 'नाम' छोटी से ही बुलाए। सबके घर के नाम ही वह ठीक से बोल पाती हैं, स्कूल के नाम से पुकारने में तो वह हर नाम की टॉग ही तोड़ती हैं।


"अरी, उठ ना! नहीं तो सुभा-परभा सब फूल चुन लेंगी।" दादी उतावली हो रही थीं।


"झाई जी, मैं न-हीं जा-ती फूल ले-ने।" लेटी हुई विशाखा ने तपाक से आँखें खोली, सख्त आवाज में एक-एक हिज्जा साफ उच्चारा और फिर चादर मुँह तक ढांप कर पड़ गई।


दादी सकते में आ गई। कैसी बेशऊर हो गई है लड़की। पहले तो ऐसे नहीं बोलती थी।


"अब उठ भी, आज तो गुरुदेवजी महाराज के चरन पड़ने हैं घर में, अपने ठाकुरों का सिंगार नहीं करना? आज फूलों बिना कैसे चलेगा। चल रानी थी मेरी, उठ जा। दादी ने पासा पलटा, पुचकार भरे सुर में बोली, "उठ राजा पुत्तर उठ जा छोटिए।"


झाई जी, आज शनीचर के दिन मुझे तंग न करो, मैं नहीं उठने वाली। आज आप ही ले आना फूल चुन के।" विशाखा ने करवट बदल कर दादी की ओर पीठ फेर ली, 'मुझे सोने दो। फिर मन-ही-मन बड़बड़ाई, हुँह, हर छठे छमाही श्री श्री एक-सौ आठ स्वामी गुरुदेवजी महाराज अपने चेले-चपाटियों की जमात के साथ चले आते हैं, घर में अच्छा-खासा तमाशा खड़ा हो जाता है।


"रुड़ गई, मरजानी बेड़ा तर जाए तेरा।" दादी पंजाबी में गालियां देती हुई, हाय हाय करती घुटनों पर हाथ रखे मुश्किल से उठी, क्या जमाना आ गया है। बूढ़ी दादी का जरा खयाल नहीं, खड़ी हो जाएँ तो बैठा नहीं जाता, बैठ जाएँ तो उठा नहीं जाता, जोड़ों के दर्द के मारे बुरा हाल है। ऐसे में लड़की कहती है, आज आप ही ले आना फूल चुन के। 'मेरी चिता जलेगी न, तब भी दूसरे दिन भूत बन कर अपने फूल आप ही चुनने आएगी झाई तेरी', दादी बड़बड़ाई। उन्होंने समझ लिया था। आज लड़की बिदकी हुई है, जरूर सुजाता ने कान भरे हैं इसके, वर्ना क्या मजाल थी इसकी कि ऐसा टेढ़ा बोलती। और कोई दिन होता तो दादी विशाखा के जबान चलाने पर दो-चार रसीद कर देतीं, सीधी हो जाती लड़की मिनटों में, पर कल सुजाता को पीट कर दादी का अपना शरीर ही ऊपर से नीचे तक अकड़ा हुआ था। जोड़-जोड़ दुख रहा था।


सुबह से ही घर में स्वामी जी के आगमन की तैयारियाँ शुरू हो गई थीं। पूजा घर के लिए वही हरसिंगार के फूल थे, जो शायद दादी ने शुभा-प्रभा से मंगवा लिए थे और खुद ही ही पालथी मारे बैठीं उन्हें पिरो रही थीं। महाराज के शिष्यों के लिए बड़े-बड़े पीले और केसरिया गेंदे के फूलों के दो टोकरे भर कर मालाएँ आई थीं। प्रसाद के लिए कलकत्ता के सबसे बढ़िया क्वालिटी के सेब, मुसम्बी, नाशपाती बाऊजी खुद जग्गू बाजार से झाका भरवा कर लाए थे। जिस दिन गुरु महाराज घर पधारते, बाऊजी का उत्साह देखने लायक होता, महीना भर चाहे वह घर खर्च के लिए पैसे देने के नाम पर माँ से झिकझिक करते रहते, पर गुरु महाराज के आने से एक दिन पहले ही वह दो और पाँच के नोटों के रबड़ लगे बंडल बड़ी दरियादिली से माँ को थमा देते कि दही बड़े के लिए पीठी, खीर के लिए 'गरमाई' और मीठे के लिए चाँदी का वर्क वगैरह चीजें मंगवा कर रख लें। यह अलग बात थी कि उन रुपयों में से भी माँ बाऊजी से छिपा कर कुछ न कुछ बचा लेती थीं और छह-आठ महीने बाद माँ, सोने के बुंदे या चूड़ियाँ बड़े गर्व से बाऊजी को दिखाती कि महीने के खर्च से पैसे बचा कर उन्होंने सुजाता के लिए यह गहने गढ़वा लिए हैं।


सुबह-सुबह रसोई की भी धुलाई पूँछाई हो गई थी। रसोई से प्याज-लहसुन का स्टॉक गुप्ताइन के घर भेज दिया गया था। स्वामी जी के लिए खाना बनने से पहले रसोई घर से तामसिक वस्तुओं का बहिष्कार आवश्यक था। स्वामी जी और उनके शिष्यों के लिए प्याज-लहसुनरहित, लौंग, दालचीनी और इलायची, काजू, किशमिश, पिस्ता और बादाम मिश्रित सात्विक भोजन तैयार किया जा रहा था। खास बड़ी अँगीठी सुलगाई गई थी। बड़े-बड़े कड़ाहों में गाजर-मेथी, पनीर-मटर, पालक-पनीर की आलूरहित सब्जियां बन रही थीं। स्वामी जी आलू नहीं खाते थे। बिना प्याज, लहसुन के सोड़े वाले काबुली चनों में जम के गरम मसाला और चाय का बुरादा डाला गया था। काबुली छोलों के मसालों की खूशबू से गुप्ता बाबू की तीन तल्ला बाड़ी महक रही थी।


दादी ने अपने पूजा घर का शृंगार अकेले ही कर लिया था। इस बार सुजाता विशाखा ने दादी का हाथ नहीं बँटाया था। हमेशा की तरह दादी ने छोटे-छोटे ठाकुरों को जन्माष्टमी पर बनाई गई जरी-कीमखाब की पोशाकें और वृंदावन से लाए गए मोती और नग जड़े मुकुट-माला और हथफूल पहना दिए थे। सुजाता ने बीमार जया को माँ की सिली हुई लाल फूलों वाली नई फॉक पहना कर तैयार कर दिया था। तीनों भाई सज-धज कर सीढ़ियों पर ऊधम मचा रहे थे। शादी की गहमागहमी-सा माहौल था।


स्वामी जी के पधारने से पहले ही विशाखा के चाचा-चाची, मामा-मामी, बुआ-फूफा तथा अन्य आमंत्रित गुरुभक्त रिश्तेदार और बंधु-बाँधव सब जुट गए थे। दो कमरे, एक रसोई और एक बरामदे का छोटा-सा घर लगभग साठ गुरुभाइयों से खचाखच भर गया था।


मिट्टी के कुल्हड़ों में फिरनी डाल कर, उस पर चाँदी का वर्क लगा कर और कटा हुआ बादाम पिस्ता और पिसी हुई इलायची छिड़क कर स्वामी जी के आने की प्रतीक्षा शुरू हो गई।


साल में दो बार स्वामी सुखदेव जी महाराज कलकत्ता आते थे। एक बार बेलूर मठ वाले स्वामी नित्यानन्द जी के आश्रम में जब भागवत सप्ताह मनाया जाता था और दूसरी बार सेठ गोवर्धनदास के आमंत्रण पर जब उनके सीताराम मंदिर में त्रिदिवसीय अखंड रामायण रखी जाती थी, प्रतिदिन स्वामी सुखदेव जी महाराज का रामचरितमानस पर संध्याकालीन प्रवचन होता था। स्वामी जी सप्ताह भर कलकत्ता रह कर अपने सभी भक्तों का एक-एक दिन का भोजन का आमंत्रण स्वीकार कर उन्हें कृतार्थ करते थे। जहाँ-जहाँ स्वामी जी के भोजन का आयोजन होता, उनके कई स्थानीय भक्त बिना आमंत्रण भी वहाँ पहुँच जाते। स्वामी जी के सान्निध्य में जितना अधिक-से-अधिक समय बिताया जाए, उतना ही उनके पुण्य जागृत होंगे और उनका परलोक सुधर जाएगा। इसलिए वे स्वामी जी के इर्द-गिर्द मंडराते रहते थे।


तनेजा परिवार स्वामी जी के भक्तों में सबसे पुराना और अग्रणी था। सेठ गोवर्धन दास के बाद स्वामी जी सुन्दर लाल तनेजा को ही मानते थे।


आखिर कई जोड़ी प्रतीक्षित आँखों को दूर से ही सेठ गोवर्धन दास की दोनों लंबी एयरकंडीशंड विलायती गाड़ियाँ दिखाई दी।


पहली गाड़ी में सबसे पहले स्वामी सुखदेव जी महाराज के खास शिष्य और अंगरक्षक स्वामी सदानन्द जी उतरे। उतर कर उन्होंने स्वामी जी की ओर हाथ बढ़ा दिया। उनका हाथ पकड़े चाँदी की मूठ वाली लंबी-सी लाठी टेकते हुए स्वामी सुखदेव जी महाराज गाड़ी से बाहर आए। स्वामी जी जन्मांध थे। उनके पीछे-पीछे गेरुए कपड़ों में बड़ी-बड़ी तोंद वाले स्वामी आत्मानन्द जी, सिद्धार्थ मुनि और शंकर मुनि उतरे, दूसरी गाड़ी से स्वामी जी के कनखल स्थित संस्कृत महाविद्यालय के चार विद्यार्थी सफेद कपड़ों में कतार में आते दिखाई दिए।


स्वामी जी के लिए बड़ा कमरा खाली कर दिया गया था। उस कमरे में अब सिर्फ एक पलंग था, जिस पर फूलों वाली छापेदार चादर के ऊपर झालरों वाला खूबसूरत, मुलायम मखमली गलीचा बिछा दिया गया था। बार-बार तीनों भाई आ-आ कर जिस पर हाथ फेरते थे और माँ या बाऊजी से डॉट खाते थे, गलीचे के ऊपर दो मसनद दीवार से टिके हुए थे और स्वामी जी के बैठने की जगह को छोड़ कर दो मसनद दाएँ-बाएँ से मँगवाए गए थे। उन पर साफ-सुथरे कलफ लगे डाक सफेद कवर चढ़ा दिए गए थे।


पलंग को एक राजसी सिंहासन का रूप देने की कोशिश की गई थी। विशाखा ने यह साज-सज्जा देखी तो उसे पिछले साल स्कूल के सालाना जलसे में खेला गया नाटक 'कैकेयी विलाप' याद हो आया, जिसमें उसने भरत का चरित्र निभाया था। उसमें एक दृश्य भरत की राजगद्दी का भी था। एकाएक विशाखा को लगा कि अभी इस सिंहासन पर लकड़ी की एक जोड़ी खड़ाऊ प्रकट हो जाएगी और बाऊ जी घुटने मोड़ कर हाथ जोड़ कर भरत का अभिनय करने लगेंगे और यह कमरा अभी एक स्टेज में परिवर्तित हो जाएगा।


स्वामी जी धीरे-धीरे सीढियां चढ़ रहे थे। सीढ़ियों से स्वामी जी के कमरे तक सब भक्तजन हाथ जोड़े एक कतार में खड़े हो गए। स्वामी सदानन्द जी के रोकने के बावजूद कुछ भक्त रास्ते में ही स्वामी जी के चरणों पर लोटते रहे।






माँ के दहेज वाले नक्काशीदार सिंहासननुमा पलंग पर स्वामी जी के विराजमान होते ही कार्यक्रम का पहला चरण प्रारंभ हुआ- माल्यार्पण और चरण स्पर्श। सबसे पहले दादी, फिर बाऊ जी, फिर माँ और फिर अन्य सगे-संबंधियों ने स्वामी जी के चरण स्पर्श कर उन्हें माला पहनाई। स्वामी जी सबको आशीर्वचन कहते रहे। बड़ों के बाद बच्चों का नंबर आया। दादी की आवाज गूंजी चलो बच्चों आ जाओ।


बच्चे पहले से ही इस हाँक की प्रतीक्षा में थे। पुकार सुनते ही पाँचों बच्चे लाइन लगा कर खड़े हो गए और माँ की गोद में बैठी जया, जो खड़ी नहीं हो सकती थी।


यह सुजाता आई, महाराज!" बाऊ जी ने परिचय कराने की भूमिका सँभाली। साढ़े सोलह साल की सुजाता ने रो-रो कर सूजी हुई आँखें झुका कर स्वामी जी के चरणों में अपना मस्तक छुआ दिया। स्वामी जी ने प्रसन्न होकर सुजाता की पीठ ठोंकी, "जय हो बेटी, रोज मंत्रजाप करती हो न?" पिछले साल सुजाता ने स्वामी जी से गुरुमंत्र लिया था।


सुजाता ने पलकें उठाए बिना सिर हिला दिया, फिर चौंक कर बोली, "जी स्वामी जी।"


"मंगल हो, कल्याण हो।" स्वामी जी ने दुबारा पीठ ठोंक कर आशीर्वाद दिया।


अब विशाखा की बारी थी। सुजाता को हटते देख वह आगे बढ़ी। "यह विशाखा, महाराज।" बाऊ जी की आवाज के साथ चौदहवें साल में पाँव रखती विशाखा ने स्वामी जी के चरणों में दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम कर दिया। आज उसका तेरहवें साल का आखिरी दिन था।


"जय, बेटा विशाखा। स्वामी जी बोले, आठवीं कक्षा पास कर ली?"


"जी गुरुदेव! इस बार भी कक्षा में प्रथम आई है।" बाऊ जी ने सगर्व उत्तर दिया, "सब आपकी कृपा है गुरुदेव।" "साक्षात् सरस्वती का बरदहस्त है बेटी विशाखा पर।" स्वामी जी ने विशाखा के सिर पर हाथ रख आशीर्वाद दिया, "विदुषी बनोगी। जय बेटी ।"


"विशाखा बेन, संस्कृत में एम. ए. करना", पास बैठे स्वामी सदानंद बोले, 'फिर गुरुदेव तुम्हें प्रवचन करना भी सिखा देंगे।" विशाखा का हाथ पकड़ कर उन्होंने अपने पास उसे बिठा लिया और कार्तिकेय को आगे बढ़ने का संकेत किया। सुजाता फर्श पर बिछी चादर पर बैठी विशाखा को इशारे से कहती रही, चल, इधर आ। सुजाता की सूजी हुई आँखें दूर से भी दिख रही थीं। कल कितना रोई है दीदी, उफ। विशाखा को कल की कहानी फिर याद हो आई।


"यह कार्तिकेय, महाराज", दस साल के कार्तिकेय ने स्वामी जी के पैरों के पास अटेंशन में खड़े हो कर बिना गर्दन झुकाए हाथ जोड़ दिए और फूलमाला पहनाने लगा।


"कार्तक पुत्तर, पहले सोणी तरॉ मत्था ताँ टेक" दादी ने घुड़का। यह दादी भी अजीब है, एक भी नाम सही नहीं बोल पाती। दो अक्षरों के बीच में इ की मात्रा आ जाए तो मात्रा खा जाती हैं। पक्की पंजाबन है।


वैसे कलकत्ता में अरसे से रहते-रहते दादी में अब लाहौरीपन कम और बंगाल का असर ज्यादा आ गया है। पहले भगवान को रब्बा, सतगुरु', वाहे गुरु' कहा करती थी, अब लाल्टू की दादी माँ की सोहबत में ठाकुर जी ही कहती हैं। हफ्ते में सातों दिन उनके लिए किसी-न-किसी भगवान के दिन हैं। सोमवार को वह शिव मंदिर जाएँगी, मंगलवार को बजरंग बली के मंदिर, बृहस्पतिवार को गुरुद्वारे जाएँगी, शुक्रवार को संतोषी माता का उपवास रखेंगी और शनिवार को काली मंदिर, रविवार को सूर्य भगवान को अर्घ्य देंगी। बचा एक बुधवार, बुधवार किस भगवान का दिन है, विशाखा ने सोचा, स्वामी जी के जाने बाद वह दादी से पूछेगी।


"यह कौस्तुभ आया, महाराज।" बाऊ जी ने कौस्तुभ को लगभग धकेल दिया। दादी ने फूलमाला के टोकरी में बची गेंदे के फूल की आखिरी माला उसे पकड़ा दी।


"चल कौस्तुब, जल्दी कर दादी फिर बोलीं, विशाखा फिर खीझी। यह झाईजी महावीर हैं, नाम बोलना आए न आए, मगर बोलेंगी जरूर।


सात साल के कौस्तुभ ने बहुत श्रद्धापूर्वक स्वामी जी के चरणों में माथा टेक कर प्रणाम किया। एक वही बाऊजी का आदर्श बेटा, राजा बेटा है। उसे छोड़ कर बाकी सब, घर में जरूरत से ज्यादा धर्म-कर्म, पूजा-पाठ, व्रत-उपवास देख-देख कर एक लाइन से नास्तिक होते जा रहे हैं।


"जय बेटा कौस्तुभ।" स्वामी जी ने कौस्तुभ की पीठ ठोंकी, तुम्हारे पाँव का फ्रैक्चर ठीक हो गया? अब जरा संभल कर फुटबॉल खेलना !" सब हँस पड़े। स्वामी जी की स्मरण शक्ति की दाद देनी पड़ती है। हिन्दुस्तान के असंख्य शहरों में लाखों भक्त है, पर कितना याद रखते हैं स्वामी जी।


अब लाइन में आखिरी था किंशुक। किंशुक को मत्था टेकने को कहा गया तो वह मुँह घुमा कर खड़ा हो गया। आगे खिसका ही नहीं। उसका नंबर आने तक गेंदे के फूलों की माला खत्म हो गई थी। टोकरी खाली देख कर यह बुक्का फाड़ कर रोने लगा, "हमको पहले माला चाहिए।"


"परनाम तो कर।" दादी ने बिसूरते हुए किंशुक का तना हुआ सिर जबरदस्ती स्वामी जी के पैरों में झुका दिया। 'यह छोटा आया, महाराज।" "माला चाहिए।" पाँच साल का किंशुक रिरियाता वहीं खड़ा रहा, स्वामी जी के सामने।


स्वामीजी ने किंशुक को अपने पास खींच लिया, "लो बेटा।" अपने गले से दो मालाएँ उतार कर उन्होंने किंशुक के गले में डाल दीं।


घुटनों तक लंबी फूलमाला पहने किंशुक सबकी ओर गर्व से देख कर इतराता हुआ आगे बढ़ गया।


अब माँ उठी और उन्होंने जया को स्वामी जी के पैरों से छुआ कर उनकी गोद में डाल दिया। दो साल की जया दुबी पतली, मरगिल्ली-सी थी। देखने में वह आठ-नौ महीने से ज्यादा की नहीं लगती थी। न उसने चलना सीखा था न बोलना।


स्वामी जी की गोद में ही जया रोने लगी। स्वामी दयानन्द उठे और नाक तक फूल-मालाओं से लदे हुए स्वामी सुखदेव जी महाराज के गले से दो मालाएँ छोड़ कर बाकी सब फूलमाला उतार कर वापस टोकरे में डाल दीं। स्वामी जी ने जया पर एक माला डाली तो उसका रोना और तेज हो गया।


"बच्ची का स्वास्थ्य अब कैसा रहता है, माँ?" स्वामी जी ने दादी की ओर मुँह घुमा कर पूछा। स्वामी जी दादी को माँ ही कहते थे।


"बस महाराज आपका ही आसरा है अब तो, दादी ने बुझे स्वर में कहा, "हकीम, वैद, डागदर, कोई नहीं छोड़ा इसके बाप ने, पर मुन्त्री तो ऐसी खाँसी और दमा ले कर पैदा हुई कि देखा नहीं जाता। आप इसके मत्थे पर हाथ धर दो महाराज, आपकी किरपा दिरिष्टी से सब ठीक हो जाएगा।"


स्वामी जी ने रोती हुई जया के माथे पर हल्का-सा स्पर्श दिया, "प्रभु जी करेंगे, अच्छा ही करेंगे, माँ।"


दादी ने फिर उसी सूत्र को पकड़ा "बहू भी बहुत परेशान रहती है महाराज, फिर धीमे स्वर में बोली, 'बहू के पैर फिर भारी हैं महाराज ।"


स्वामी जी के माथे पर चिंता की लकीरें खिंची, "लो बहन, सब अच्छा ही होगा।" स्वामी जी ने माँ को जया थमा दी, जो एक बार बहुत जोर से रो कर अप्रत्याशित रूप से चुप हो गई थी। स्वामी जी ने एक लंबी साँस ली और एक पल की चुप्पी के बाद अचानक बनावटी उत्साह से बोले, "अच्छा, बेटा कार्तिकेय, कौस्तुभ और किंशुक आप लोगों को अब भाई चाहिए या बहन? माँ, इस बार तुम्हारी पोती हो तो उसका नाम इति और पोता हो तो उसका नाम पूर्णांक रख देना। बस, सात की संख्या बहुत शुभ होती है।" स्वामी जी ने अप्रत्यक्ष रूप से माँ और बाऊ जी को परिवार नियोजन का आदेश दे दिया था।


तनेजा परिवार के सभी बच्चों का नामकरण संस्कार स्वामीजी के आने पर ही होता था। कार्तिकेय तनेजा का पहला लड़का था। उसके नामकरण संस्कार के अवसर पर ही सुजाता और विशाखा को भी नए नाम दिए गए। पहले सुजाता का नाम सुरजीत और विशाखा का नाम वीरल्याई था। लाहौर में नानी के घर वह पैदा हुई थी और नानी ने कार्तिकेय के जन्म पर छोटी पुकारी जाने वाली दूसरी बेटी का नाम वीरल्याई रख दिया था, जिसका अर्थ था भाई को लाने वाली और सचमुच वीरल्याई के बाद वीरों की लाइन लग गई थी। बाद में स्वामी सुखदेव जी महाराज ने यह नाम बदल दिया। पहला अक्षर उन्होंने वही रहने दिया। सुजाता विशाखा-जया और कार्तिकेय कौस्तुभ-किंशुक नाम स्वामी सुखदेव जी महाराज के ही दिए हुए थे। लड़कियों के नाम तो दादी किसी तरह पुकार लेती थी, पर लड़कों के नाम उनकी जबान पर अब तक नहीं चढ़े थे। दादी कार्तिकेय को काक्का, कौस्तुभ को बिट्टू और किंशुक को किट्ट बुलाती थीं।





माल्यार्पण और चरण स्पर्श के बाद सब महिलाएँ संतों के भोजन की तैयारियों में जुट गई और इधर गुरुदीक्षा चरण आरंभ हुआ। पिछले साल स्वामी जी के आने पर सुजाता ने मंत्र लिया था। इस साल विशाखा की बारी थी। कमरे से सबको बाहर भेज दिया गया। विशाखा के हाथ में दान-दक्षिणा की थाली थमा दी गई, जिसमें रोली, मौली, नारियल, पुष्पमाला, कुछ फल और सफेद कोरे वस्त्र थे। सफेद धोती के ऊपर रखा हुआ सेब और सेब के नीचे दबे हुए दो नोट-एक सौ एक रुपये गुरु दक्षिणा। कमरे से बाहर निकलते हुए स्वामी सदानन्द बोले, विशाखा बेन, सिर ढक लो।" विशाखा ने दुपट्टा सिर पर ओढ़ लिया और स्वामी जी के हाथ में थाली रख कर साष्टांग प्रणाम कर दिया। स्वामी जी ने थाली उठा कर एक ओर रख दी और बोले, "बैठो बेटी विशाखा, सबसे पहले एक प्रश्न का उत्तर दो।"


"जी", विशाखा चौकी।


"हाँ तो बेटी, पहले यह बताओ कि अपने बाऊ जी के कहने पर मंत्र लेना चाहती हो या तुम्हारी अपनी भी इच्छा है?" स्वामी जी बड़े ठहरे हुए संयत स्वर में बोले।


"जी। मेरी भी इच्छा है। दीदी तो रोज सुबह नहाने के बाद पूजाघर में थोड़ी देर बैठती है।"


"तुम भी रोज स्नान के बाद पूजा-ध्यान कुछ करती हो? बोलो बेटी।"


विशाखा स्वामी जी की ओर देखने लगी, क्या कहना चाहिए- हाँ या ना? स्वामीजी का चेहरा देख कर उसे लगा- सच कहने में कोई हर्ज नहीं है। "सुबह-सुबह स्कूल जाने की इतनी जल्दी होती है, और कुछ करने का समय ही नहीं मिलता", विशाखा के मुँह से बरबस निकल पड़ा।


"बेटी, तुम्हारे तो घर में ही सभी भगवान की मूर्तियां हैं। परिवार में सभी परम भक्त हैं। तुम्हें भी रोज दो-चार मिनट का ध्यान अवश्य करना चाहिए। इससे अंतःकरण शुद्ध होता है।"


"कभी-कभी हनुमान चालीसा का पाठ झाई जी को सुनाती हूँ। नवरात्र में दुर्गा सप्तशती का पाठ बाऊ जी सुनते हैं। ऊपर गुप्ता जी के यहाँ जब अखंड रामायण रखी गई तो मैंने और दीदी ने रामचरित मानस के बहुत सारे अंशों का पाठ किया था।" विशाखा ने सगर्व कहा।


"यह पाठ नहीं बेटी। रोज नियम से थोड़ी देर केवल अपने लिए भगवान को याद करना चाहिए। दूसरे के निमित्त किया गया पाठ कर्तव्य होता है, ध्यान नहीं।"


"जी"


"देखो बेटी, अभी तुम्हारा ज्ञान अर्जित करने का समय है। मैं तुम्हें बहुत छोटा-सा मात्र पाँच शब्दों का एक विद्यामंत्र देता हूँ, पर यह मंत्र किसी को बताना नहीं। बता देने से मंत्र की शक्ति समाप्त हो जाती है।"


"जी, स्वामी जी।"


"यह कागज लो और इस मंत्र को पढ़ कर सुनाओ। उच्चारण में भूल नहीं होनी चाहिए, उच्चारण शुद्ध होना चाहिए।"


जी विशाखा ने कागज खोल कर उसमें लिखा हुआ संक्षिप्त मंत्र बड़े ध्यान से धीरे-धीरे पढ़ कर सुना दिया।


"अति सुंदर, बेटी। तुम्हारा उच्चारण बहुत स्पष्ट है। स्नान के बाद स्कूल जाने से पहले यदि समय हो तो ग्यारह बार और बहुत जल्दी में हो तो केवल पाँच बार देवी सरस्वती के सम्मुख नमन कर यह मंत्र पढ़ना। यदि जल्दी में कभी भूल जाओ तो स्कूल जाने के रास्ते में या स्कूल पहुँच कर भी मंत्र का जाप कर सकती हो। सरस्वती की प्रतिमा के सामने खड़े हो कर ही मंत्र पढ़ा जाए, यह आवश्यक नहीं है। प्रतिमा तो मात्र ध्यान को केंद्रित करने का अवलंब है।"


"जी।"


कुछ पूछना चाहती हो, बेटी? कोई जिज्ञासा है?"


"जी" विशाखा, जो स्वामी जी की वाणी से अभिभूत थी, अचानक चौंकी, "जी क्या दीदी को भी पिछले साल यही मंत्र आपने दिया था।"


स्वामी जी हँस दिए, "वह जिज्ञासा उचित नहीं है बेटी, यह विद्यायंत्र इसलिए है ताकि अभी तुम अपना सारा ध्यान, अपनी सारी शक्ति, विद्वत्ता, ज्ञान अर्जित करने में एकाग्र कर दो। जब तुम्हारा विवाह हो जाएगा तो तुम्हारा मंत्र बदल देंगे, फिर तुम्हें अपना वैवाहिक जीवन सुखी रखने का मंत्र देंगे और जब गृहिणी बन जाओगी तो तुम्हें लक्ष्मी मंत्र देंगे। धन-धान्य, ऐश्वर्य का मंत्र।"


"जी स्वामी जी।" विशाखा ने सकुचाते हुए कहा। स्वामीजी देख नहीं सकते, इसलिए अपनी उपस्थिति हर बार अपने स्वर से घोषित करनी पड़ती है।


"यह प्रसाद लो, बेटी।" स्वामी जी ने एक सेब उठाया। विशाखा ने दोनों हाथों की अंजुरी बना।कर स्वामीजी के हाथों से सेब लिया और श्रद्धा से सिर झुका दिया।


"जाओ बेटी, तुम्हारी दीक्षा पूरी हुई। एक और बात याद रखना, कभी किसी से कटुवचन न बोलना, अपने से बड़ों का, बुजुर्गों का आदर करना और चैतन्य जिस कार्य को गलत बताए, वह कार्य किसी के कहने पर भी न करना। मनुष्य का अपना मन ही उसका सबसे बड़ा रक्षक, सबसे बड़ा पहरेदार है।"


"जी"


"और अपनी दादी से लड़ती तो नहीं हो न?" स्वामी जी ने हँस कर पूछा।


विशाखा स्तब्ध रह गई, क्या दादी ने सुबह फूल लेने जाने से मना करने की घटना स्वामी जी से कह दी है, लेकिन स्वामी जी तो अभी ही आए हैं और अकेले तो दादी मिलीं भी नहीं उनसे।


'बूढ़ा आदमी थोड़ा सठिया जाता है, उसकी बातों का बुरा नहीं मानते, बच्चे अगर उसे जरा-सी बात से भी ठेस पहुँचाए तो उसे बहुत जल्दी चोट लगती है। बड़ों को चोट पहुँचाने से प्रभु हमसे रूठ जाते हैं। हम भी तो बूढ़े हो गए हैं, हमारी बातों का भी बुरा नहीं मानना।" स्वामी जी ने विशाखा की ओर झुक कर बड़े लाड़ से कहा।


विशाखा गदगद हो गई। इतने प्यार से तो कभी बाऊ जी ने भी विशाखा से बात नहीं की।


हाथ में सेब ले कर विशाखा उसी गर्व से कमरे से बाहर निकली, जिस गर्व से किंशुक स्वामी जी के हाथों से फूलमाला गले में डलवा कर इतराता हुआ निकला था।


बाहर आ कर विशाखा ने देखा, स्वामी जी के भोजन की तैयारियाँ हो चुकी थीं। चाँदी की थाली, चाँदी की चार कटोरियां और चाँदी का गिलास ये बर्तन साल भर माँ की आलमारी में बंद रहते थे और सिर्फ स्वामी सुखदेव जी महाराज के आने पर ही बाहर निकाल कर धोए चमकाए जाते थे।


स्वामी जी की थाली में हमेशा, जितना वह खा सकते थे, उससे ज्यादा परोसा जाता था ताकि बहुत-सी जूठन बच जाए। जूठन्, जिसे सब भक्तजन प्रसाद के रूप में थोड़ा-थोड़ा ग्रहण करते थे। हमेशा की तरह, स्वामी जी के भोजन आसन से उठ उठ जाने के बाद, बाऊ जी ने कटोरी में बचा हुआ रसमलाई का दूध सबको आधा-आधा चम्मच चरणामृत की तरह बाँटा और अपने स्वामी जी की जूठी थाली बड़े एहतियात से एक ओर ढंक कर रख दी।


जितनी देर में बाऊ जी और सबने गुरुप्रसाद लिया और भोजन समाप्त किया, स्वामीजी खाने के बाद आधे घंटे का विश्राम कर चुके थे। बाऊ जी को स्वामी सदानन्द संकेत से स्वामी जी के पास जाने के लिए कह रहे थे। अब बाऊ जी और दादी, स्वामी जी के चरणों में बैठ कर तनेजा परिवार में घटी साल भर की घटनाओं-दुर्घटनाओं का लेखा-जोखा सुनाएँगे। स्वामी जी और बाऊ जी के इस 'सलाह-मशविरा चरण में बच्चों का और माँ का उस कमरे में प्रवेश निषिद्ध था।





स्वामी जी इस घर के भाग्य विधाता थे। छोटी से छोटी बात हो या बड़े से बड़ा मसला, स्वामी जी का फैसला अंतिम होता था। पिछले साल स्वामी जी के आदेश पर ही बाऊ जी ने खून-पसीना एक कर के पार्टनरशिप में अपने चचेरे भाई के साथ जमाया हुआ व्यवसाय उसके नाम कर दिया था और अपने कपड़े झाड़ कर उस कुबेर के खजाने से अलग हो गए थे। बाऊ जी ने अपने पुराने अनुभव और कड़ी मेहनत की कमाई से कपड़ों का रिटेल व्यापार शुरू किया था।


कलकत्ता के सबसे अभिजात्य क्षेत्र पार्कस्ट्रीट में उन्होंने एक एयरकंडीशन शोरूम चचेरे भाई के साथ भागीदारी में लिया था। बरसों से बेकारी और हर नए कारोबार में घाटा झेलते-झेलते उस भाई के दिमाग पर असर होने लगा था। बाऊ जी अपना पुराना काम और पुरानी गद्दी छोड़ना नहीं चाहते थे, इसलिए चाचा के कहने पर उन्होंने उनके बेटे का नाम उसमें डाल दिया था, पर छह महीनों में ही दुकान सोना उगलने लगी तो भाई की नीयत में खोट आ गया और वह पूरी की पूरी दुकान हड़पने की योजना बनाने लगे। बाऊ जी की कमजोरी उनके गुरु महाराज हैं, यह सब जानते थे। चाचा भी गुरुभक्त थे। यह मेरे बेटे की जिंदगी का सवाल है, यह कारोबार उसके नाम न हुआ तो वह पागल हो जाएगा कहते हुए वह स्वामी सुखदेव जी महाराज के चरणों में जा गिरे। इतने बड़े मसले को स्वामी जी ने चुटकियों में हल कर दिया था। बाऊ जी को पास बिठा कर वह बोले, "देखो बेटा, छोटा भाई अपने पुत्र समान है। उसका जीवन बचाने के लिए यदि बड़े भाई को थोड़ा-सा त्याग करना पड़े तो यह उसका कर्तव्य है। पैसा तो हाथ का मैल है, प्रभु ने चाहा तो तुम अपने कपड़ों के थोक व्यापार में ही पहले से दस गुना कमा लोगे।" बाऊ जी के लिए तो स्वामी जी के मुँह से निकला हर वाक्य पत्थर की लकीर था। दूसरे ही दिन सारे कागज तैयार हो गए और स्वामी जी के सामने लिखा-पढ़ी हो गई। एक दस्तखत के साथ बीस हजार का वह एयरकंडीशंड शोरूम भाई के हाथ में थमा कर बाऊ जी फिर फर्श पर बिछी गद्दी पर अपना पुराना हाथ पंखा लिए अपने लाल बही-खातों के पुराने हिसाब-किताब और लाल कपड़ों में लिपटी श्रीमद्भगवत गीता में डूब गए- 


यस्य सर्वे समारम्भाः काम संकल्प वर्जिताः। ज्ञानाग्निदग्ध कर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ।।


माँ, जिन्होंने अपने तीनों बेटों के लिए इस नए काम से बहुत से सपने संजोए थे. कई दिनों तक दुकान हाथ से निकल जाने का मातम मनाती रहीं, पर बाऊ जी को कहीं कोई मलाल नहीं था। उनके लिए गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य करना उनके जीवन का सबसे अहम कार्य था और इसे उन्होंने बिना हील-हुज्जत के बखुशी निभाया था।


पिछले साल स्वामी जी के एक ब्रह्मवाक्य पर तनेजा परिवार में इतनी बड़ी आर्थिक दुर्घटना हो गई थी, इस साल क्या होगा, जानने की उत्सुकता में माँ भी बार-बार दरवाजे तक आ-जा रही थीं, पर कमरे में घुसने का साहस वह नहीं कर पा रही थीं।


"शिखा, झाई जी से पूछ कर आ, आरती के लिए कपूर कहाँ रखा है?" माँ के वाक्य का उत्तरार्द्ध दोहराती विशाखा कमरे में घुसी तो दादी ने खीझ कर वहीं तो पड़ा है, कह कर उसे भगा दिया। आते जाते जो एक दो शब्द विशाखा के कान में पड़े, उससे वह समझ गई कि आज का विषय थी- सुजाता। बाऊ जी सुजाता के फेल होने और स्कूल छोड़ने के बारे में बता चुके थे और अब दादी दत्ता मोशाय के बागान का हरसिंगार फूल पुराण सुनाने जा रही थी। विशाखा कमरे के बाहर ही टहल रही थी। उसने सुना, स्वामी सुखदेव।जी महाराज बड़े ध्यान से पूरी कथा-वार्ता सुनने सुनन के बाद अपने चिर परिचित ठहरे हुए संयत स्वर में अति धीर गंभीर मुद्रा में बोले, "शीघ्रातिशीघ्र सुपात्र ढूँढ़ कर सुजाता बेटी का विवाह करना ही उचित होगा।"


दादी के पूज्य गुरु स्वामी सुखदेव जी महाराज के इस वर्ष के एक ब्रह्मवाक्य ने साढ़े सोलह साल की सुजाता की शेष जिंदगी का फैसला कर दिया था।


कमरे के बाहर बिछे हुए सोफे पर स्वामी सदानन्द अपनी तोंद सहलाते हुए ऊँघ रहे थे। विशाखा दरवाजे से हटी तो स्वामी सदानन्द ने सोफे पर से थोड़ा सरक कर विशाखा के लिए जगह बना दी "आओ विशाखा बेन, तुम्हारा हाथ देखें।" विशाखा वहाँ बैठी ही थी कि सुजाता ने उसे अपने पास आने का संकेत किया, पर तब तक विशाखा की बाई हथेली स्वामी सदानन्द अपने दोनों हाथों में थाम कर पूरे मनोयोग से देख रहे थे, 'तुम्हारे हाथ में बहुत यश है विशाखा बेन। तुम पढ़ाई करने बिदेस भी जाओगे, पर तुम्हारा स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं रहेगा। देखो, यह जीवन रेखा कुछ कटी-छँटी-सी है और आयुरेखा में द्वीप हैं।" स्वामी सदानन्द बोल रहे थे और विशाखा का ध्यान उनके हिन्दी उच्चारणों पर था। स्वामी सुखदेव जी महाराज के सभी शिष्यों के नाम एक से थे- सदानन्द, दयानंद, आत्मानंद, शंकर मुनि, सिद्धार्थ मुनि, नाम सुन कर यह बताना मुश्किल था कि कौन किस प्रदेश का है, पर शंकर मुनि जब सुजाता को 'शूजाता' और खीर को पायश कहते थे तो उनका बंगालीपन छिपता नहीं था, इसी तरह स्वामी आत्मानंद जब सुजाता को सुजात्ता और विशाखा को 'वशक्खा' कहते थे तो उनका पंजाबीपन जाहिर हो जाता था। स्वामी सदानन्द के बिशाखा बेन कहने पर विशाखा ने फिर गौर किया और समझ लिया कि स्वामी सदानन्द गुजरात के हैं।


"सरस्वती और लक्ष्मी की आपस में ठनती है। माता सरस्वती की परम कृपा है तुम पर, पर लक्ष्मी अप्रसन्न रहेंगी तुमसे, पैसा बहुत होगा तुम्हारे पास, धन की कोई कमी नहीं रहेगी, पर उसका सुख तुम्हें नहीं मिलेगा।" स्वामी सदानन्द दाएँ हाथ में विशाखा की हथेली थाम बाएँ हाथ में सहला रहे थे। विशाखा की बाई हथेली कुहनी तक स्वामी सदानन्द के दोनों हाथों में थीं।


"अरे, यह घाव कैसे हो गया?" स्वामी सदानन्द चौंके और विशाखा को दोनों हाथों से अपने पास खींच कर उसकी छिली हुई कुहनी देखने लगे।


"कल दीवार से रगड़ खाकर छिल गया था।" विशाखा ने अपने को स्वामी सदानन्द की मजबूत बाँहों की पकड़ से मुक्त किया और अतिरिक्त सतर्क होकर सीधी बैठ गई।


"च्च, च्च, स्वामी सदानन्द सहानुभूति से भर्राई आवाज में बोले, "वह लाल दवा होती है न, वह लगाते तो जल्दी ठीक हो जाता है। हाँ, तो बिशाखा बेन, तुम्हारे विवाह की रेखा देखें।" स्वामी सदानन्द ने विशाखा की बाईं हथेली को उल्टा कर दिया।


विवाह की रेखा हाथ के पीछे होती है क्या?" विशाखा ने व्यंग्य से पूछा जैसे कहती हो, इतना हाथ देखना तो हमें भी आता है।


"नहीं, नहीं यह कनिष्का के नीचे दो रेखाएँ हैं न। तुम्हारा जिससे पाणिग्रहण होगा, उससे कुछ मनमुटाव रहेगा।" स्वामी दयानन्द मुस्कराते हुए बोले।


विशाखा कुछ विचलित हुई। "मुझे नहीं सुनना यह सब। छोड़ दीजिए मेरा हाथ।" विशाखा ने हाथ हटाने की कोशिश की। 





स्वामी सदानन्द ने विशाखा की हथेली पर अपनी पकड़ कस दी, "तुम्हारा विवाह तो कुछ विलंब से है, सुजाता बेन का विवाह अल्पायु में होगा।" कहते हुए स्वामी सदानन्द ने अपने दोनों हाथों में थामी हुई विशाखा की हथेली को अपनी गोद में नीचे दबा दिया। एक क्षण को विशाखा कुछ समझ नहीं पाई, फिर जैसे लोहे की गरम सलाख हथेली को छू गई हो, वह तमक कर उठ खड़ी हुई। स्वामी सदा नन्द की बढ़ी हुई तोंद का वह लिजलिजा-सा स्पर्श और उसके नीचे एक सख्त चुभन। छिः।


"अरे विशाखा बेन, बेठो बेठो न।" स्वामी सदानन्द खिसियानी हँसी-हँस कर कहते रहे। विशाखा के हटते ही शुभा-प्रभा अपनी हथेलियाँ खोले स्वामी सदानन्द के सामने आ खड़ी हुई। दोनों को दाएँ-बाएँ बिठा कर स्वामी सदानन्द ने शुभा की हथेली अपने दोनों हाथों में ली। विशाखा सुजाता के पास जा कर दुबक गई। उसका दिल अभी तक बुरी तरह घड़क रहा था।


'दीदी, वह स्वामी सदानन्द महाबदमाश, ढोंगी हैं, विशाखा ने सुजाता के कान में फुसफुसा कर कहा। 'चुप कर अब, कोई सुन लेगा।" सुजाता ने बिना चौंके झिड़क दिया, "तुझे एक घंटे से इशारा नहीं कर रही थी मैं कि इधर आ, समझ में नहीं आ रहा था तुझे? अब चुप कर। अभी कुछ मत बोल।"


विशाखा रुआँसी हो गई। उसे दीदी से इस प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी। दीदी का इशारा वह सचमुच नहीं समझ पाई थी। उसे क्या मालूम था कि गेरुए कपड़ों में भी नत्थू छिप कर सामने आ जाएगा। कल तो दीवार से रगड़ खा कर कुहनी छिली थी, आज भीतर कुछ छिल गया लगता था। धड़कन सँभल नहीं पा रही थी।


'चलो सुजाता विशाखा, सब चलो।" बाऊ जी ने हाँक लगाई।


कार्यक्रम का अंतिम चरण शुरू होने वाला था-आरती और प्रसाद वितरण।


सजे हुए पलंग पर स्वामी सुखदेव जी महाराज पालथी मारे बैठे थे। दोनों ओर दो गोल तकिये, एक ओर गेरुए कपड़ों में चार शिष्य कतार में, दूसरी ओर सफेद कपड़ों में चार विद्यार्थी। अगरबत्ती और धूपबत्ती के सुगंधित धुएँ से सारा वातावरण महक रहा था। बाऊ जी के हाथ में आरती की थाली थी, जिसमें रखे चाँदी के दीपक में सुगंधित कपूर जल रहा था। कमरे में और बरामदे में भक्त जनों की भीड़ स्वामी जी के दैदीप्यमान मुख की एक झलक पाने के लिए मंत्रमुग्ध-सी खड़ी थी। साक्षात राजा रामचन्द्र का दरबार सजा था।


आरती प्रारंभ हुई...


ॐ जय गुरु ब्रह्मज्ञानी

स्वामी जय गुरु ब्रह्मज्ञानी

सुर नर मुनि जन सेवत ध्यान धरत ध्यानी

ॐ जय गुरु ब्रह्मज्ञानी


विशाखा सुजाता के पास दुबकी खड़ी रही।


क्या हुआ है तुझे" सुजाता ने विशाखा को परे धकेला, "सीधे खड़े नहीं रहा जाता क्या?"


"दीदी, देख ना। कैसे घूर रहा है वह मुझे?" विशाखा ने होंठों को हाथ से छिपा कर धीरे से कहा।


ओफ्फ! तू चुप नहीं रह सकती।" सुजाता ने डाँट दिया।"


विशाखा की आँखें नम हो गई। दीदी भी माँ जैसी हैं। किसी बात से इन लोगों को कोई फर्क ही नहीं पड़ता। आरती समाप्त हो रही थी।


गुरुर ब्रह्मा गुरुविष्णु गुरुदेवो महेश्वरः

गुरुर्साक्षात परम ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवै नमः।


कपूर जल कर बुझ चुका था। अब सिर्फ थाली में से उठता हुआ धुआँ था, जिसे थाली समेत गोलाकार घुमाया जा रहा था-


त्वमेव माता च पिता त्वमेव

त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव

त्वमेव सर्वम मम् देव देव।


आरती के बाद स्वामी जी के दाएँ पैर का अँगूठा बाऊ जी ने रगड़ कर धोया और वह पानी चरणामृत पात्र में डाल कर सबको दिया गया। सबने एक-एक घूँट पी कर हाथ अपने बालों पर फेर लिए।


चरणामृत वितरण के बाद प्रसाद वितरण प्रारंभ हुआ। स्वामी जी सबके नाम बुला बुला कर प्रसाद देने लगे तो सुजाता विशाखा को एक ओर खींच ले आई। 'हाँ, अब बता, क्या हुआ। कुछ कहा स्वामी सदानन्द ने?"


"कहा कुछ नहीं, विशाखा को तसल्ली हुई कि दीदी ने उसकी बात को गंभीरता से लिया है, पर वह समझ नहीं पाई कि कैसे बताए और क्या बताए, छिः।


"तुझे भी छेड़ा क्या स्वामी सदानन्द ने?" सुजाता ने विशाखा को जैसे उबार लिया।


"यानी विशाखा चौंकी, क्या दीदी तुम्हें भी?" विशाखा के स्वर में आत्मीयता थी।


"हाँ, पिछले साल तब से मैं इसके पास नहीं फटकती।" सुजाता ने हिकारत भरे स्वर में कहा।


"एक टाँग टूटी हुई है इसकी। भगवान करे, दूसरी भी टूट जाए।" विशाखा ने लंगड़ाते हुए स्वामी सदा नन्द को घूरकर देखा। सुजाता-विशाखा अपना-अपना नाम पुकारे जाने पर आगे बढ़ कर स्वामी जी से प्रसाद ले आई।





अब स्वामी जी की विदाई हो रही थी। कतार में खड़े गेरुए कपड़ों वाले स्वामियों के सब लोग पैर छू रहे थे, अपनी श्रद्धा और अपनी हैसियत के अनुसार दान-दक्षिणा दे रहे थे। "चलो सुजाता, सबको प्रणाम करो।"


सुजाता सबको प्रणाम करती आगे बढ़ गई। "चलो विशाखा", बाऊ जी का स्वर गूंजा। विशाखा सधे कदमों से गई और स्वामी सुखदेव जी महाराज के चरणों में प्रणाम कर वापस लौट आई। "सबको प्रमाण करो, विशाखा।" "नहीं।" विशाखा ने सिर हिला दिया "मैं नहीं छुऊँगी सबके पैर।" "विशाखा।" बाऊ जी धीमे स्वर में लेकिन कड़क कर बोले।


"रहने दे, रहने दे। दादी ने बाऊ जी का हाथ पकड़ कर खींच लिया, "इसकी एक बार नहीं तो सौ बार नहीं, आज सुबह से ही तिड़ी हुई है। दिमाग फिट्टा हुआ है। महा जिद्दन कुड़ी है।"



हाँ, जिद्दी है विशाखा, नहीं छुएगी वह स्वामी सदानन्द के पैर। विशाखा को लगता है, वह अकेली एक जंगल में भटक गई है। चारों ओर भेड़िये ही भेड़िये हैं, चाहे वह गेरुए कपड़े में हों या सफेद कपड़ों में, लँगोटनुमा धोती में हो या सूट-बूट टाई में। भेड़िये ही भेड़िये। चारों ओर नत्थू सिर्फ अँधेरे गलियारे से नहीं, कहीं से भी कोई भी, चेहरा पहन कर आ सकता है। उस दिन के बाद से माँ को कभी शिकायत नहीं हुई कि विशाखा नहाने में बहुत देर लगाती है। उस दिन के बाद से विशाखा ने नहाते समय अपने आपको आईने में निहारना बंद कर दिया था, हालाँकि अब उसे अपने को आईने में देखने के लिए पंजों पर उचकना नहीं पड़ता था।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

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