हेमन्त शर्मा का आलेख 'होली है……….आज जुम्मा है……'
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हेमन्त शर्मा |
भारत अनेक धर्मों, जातियों, वर्गों और भाषा भाषियों का देश है। यहां की संस्कृति विविधता में एकता की रही है। अलग-अलग धर्म, समुदाय और जाति का होते हुए भी लोग परस्पर एक दूसरे का सम्मान करते रहे हैं और धार्मिक आयोजनों को हंसी-खुशी से मिल कर मनाते रहे हैं। यह संयोग ही है कि इस वर्ष आज के दिन जहां हिंदू समुदाय होली का रंग-बिरंगा पर्व मना रहा है वहीं मुस्लिम समुदाय पवित्र रमजान माह के जुम्मा का दिन मना रहा है। पारस्परिक एकता और सौहार्द्र के उदाहरण के जगह दिखाई पड़े हैं। हिंदू भाइयों ने जहां मुस्लिम नमाजियों पर फूलों की पंखुड़ियां बरसा कर स्वागत किया है, वहीं मुस्लिम समुदाय रंग अबीर के साथ हिंदू भाइयों का अभिनंदन कर रहा है। यह इसलिए भी आश्वस्तिपरक है कि कुछ शरारती तत्त्व दोनों समुदायों के बीच तनाव बढ़ाने के लिए लिए सक्रिय हैं। हेमन्त शर्मा अपने एक आलेख में लिखते हैं 'होली हिंद का पर्व है। हिंदुस्तान का कोई कवि या शायर जिसने गंगा का पानी पिया, इस मिट्टी में जिया, वो होली से अछूता नहीं रहा। फिर वो चाहे हिंदी का कवि रहा हो, उर्दू का, हिंदवी का या यौंम-ए-उर्दू का चश्मदीद, होली उसके ज़ेहन और कलम में रही। स्याही से भी खेली और होठों से भी उछाली गई।' इस विशिष्ट अवसर पर हेमंत शर्मा का यह महत्वपूर्ण आलेख हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
'होली है………. आज जुम्मा है……!'
हेमन्त शर्मा
होली और जुमा मुख़ातिब हैं। संयोग से रंग के दिन जुमा है। कुछ नज़रों में होली और जुमे का एक दिन होना उन्हें संघर्ष लगता है। इस संघर्ष में अकारण भय है या अकारण टकराव। एक अकारण असहजता। लेकिन हिंदी के पन्नों में तो होली और मुसलमान भी मयार और मिसाल के मकाम हैं। तो आज के फाग में कुछ गवाहियां और मिसालें हिन्दी (हिन्दवी) की शुरुआत से अब तक के कुछ मुसलमान कवियों की। इससे शायद कोई रौशनी दिखे। प्रज्ञा जागृत हो। कुछ रास्ता निकले। और शायद समझ आ सके रंग-बिरंगे का सही मायने।
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अमीर खुसरो |
अबुल हसन यमीन उद-दीन खुसरो (1253-1325 ई.) यानी अमीर खुसरो हिन्दी के पहले कवि थे। वे हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के आध्यात्मिक शिष्य थे। मुख्य रूप से उनकी कविताएँ फ़ारसी में हैं पर वे हिन्दवी के जनक हैं। उन्होंने कुछ पंजाबी गीत भी लिखे हैं।
अमीर खुसरो जिस दिन हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के मुरीद बने थे, उस दिन होली थी। मतवाली हवा में अबीर-गुलाल की रंगीन महक थी। अपने मुरीद होने की ख़बर अपनी माँ को देते हुए उनके बोल निकले थे-
"आज रंग है, ऐ माँ रंग है री
मोरे महबूब के घर रंग है री
सजन गिलावरा इस आँगन में
मैं पीर पायो निज़ामुद्दीन औलिया
मैं तो जब देखूं मोरे संग है री...।"
अमीर खुसरो ने हिंदवी में हालात-ए कन्हैया एवं किशना नामक दीवान लिखा था। इसमें उनके होली के गीत भी हैं जिनमें वह अपने पीर हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के साथ होली खेल रहे हैं-
"गंज शकर के लाल निज़ामुद्दीन चिश्ती नगर में फाग रचायो
ख़्वाजा मुईनुद्दीन, ख़्वाजा कुतबद्दीन प्रेम के रंग में मोहे रंग डारो
सीस मुकुट हाथन पिचकारी, मोरे अंगना होरी खेलन आयो
अपने रंगीले पे हूँ मतवारी, जिनने मोहे लाल गुलाल लगायो
धन-धन भाग वाके मोरी सजनी, जिन ऐसो सुंदर प्रीतम पायो…"
उनकी एक और रचना-
धरती अंबर घूम रहे हैं, बरस रहा है रंग
खेलो चिश्तियों होली खेलो, ख्वाजा निजामुद्दीन के संग।
रैनी चढ़ी रसूल की, सो रंग मौला के हाथ।
जिसकी चूनर रंग दियो, धन-धन वा के भाग।।
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बाबा बुल्ले शाह |
सैय्यद अब्दुल्ला शाह कादरी उर्फ बाबा बुल्ले शाह (जन्म 1680) सूफ़ी संत और कवि थे। उनकी कविताओं को काफ़ियाँ कहा जाता है। बुल्ले शाह एक "क्रांतिकारी" और "विद्रोही" कवि थे जिन्होंने अपने समय की शक्तिशाली धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक संस्थाओं के खिलाफ़ आवाज़ उठाई। बाबा बुल्ले शाह होली का ज़िक्र कुछ इस अंदाज़ में करते हैं।
"होरी खेलूँगी कह कर बिस्मिल्लाह
नाम नबी की रतन चढ़ी, बूँद पड़ी इल्लल्लाह
रंग-रंगीली उही खिलावे, जो सखी होवे फना फी अल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह...।"
नाम नबी की रतन चढी, बूँद पडी इल्लल्लाह.
रंग-रंगीली उही खिलावे, जो सखी होवे फ़ना-फी-अल्लाह.
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह.
अलस्तु बिरब्बिकुम पीतम बोले, सभ सखियाँ ने घूंघट खोले.
क़ालु बला ही यूँ कर बोले, ला-इलाहा-इल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह.
नह्नो-अकरब की बंसी बजायी, मन अरफ़ा नफ्सहू की कूक सुनायी.
फसुम-वजहिल्लाह की धूम मचाई, विच दरबार रसूल-अल्लाह.
होरी खेलूंगी कहकर बिस्मिल्लाह.
हाथ जोड़ कर पांव पड़ूंगी, आजिज़ होकर बिनी करुँगी
झगड़ाकर भर झोली लूंगी, नूर मोहम्मद सल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह.
फ़ज अज्कुरनी होरी बताऊँ, वाश्करुली पीया को रिझाऊं.
ऐसे पिया के मैं बल जाऊं, कैसो पिया सुब्हान-अल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह.
सिबग्तुल्लाह की भर पिचकारी, अल्लाहु-समद पिया मुंह पर मारी.
नूर नबी [स] डा हक से जारी, नूर मोहम्मद सल्लल्लाह
बुला शाह दी धूम मची है, ला-इलाहा-इल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह।
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रसखान |
सय्यद इब्राहीम ख़ान उर्फ "रसखान" (1548 ई) ब्रजभाषा में कृष्ण भक्ति काव्य के प्रमुख कवि थे। हिन्दी के कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन रीतिमुक्त कवियों में रसखान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे विट्ठल नाथ के शिष्य थे एवं वल्लभ संप्रदाय के सदस्य थे। रसखान को 'रस की खान' कहा गया है। आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, "इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए" उनमें रसखान का नाम सर्वोपरि है। बोधा और आलम भी इसी परम्परा में आते हैं। उनका होली वर्णन देखें।
फागुन लाग गयो जब ते तब ते ब्रजमंडल धूम मच्यौ है।
नारि नवेली बचै नहिं एक विसेख यहै सवै प्रेम अच्यौ है।
साँझ सकारे वही रसखानि सुरंग गुलाल लै खेल रच्यौ है।
को सजनी निलजी न भई अब कौन भटू जिहिं मान बच्यौ है।
एक अन्य रचना-
खेलत फाग सुहाग भरी अनुरागहिं लालन कों धरि कै।
मारत कुंकुम केसरि के पिचकारिन में रँग को भरि कै।
गेरत लाल गुलाल लली मनमोहिनी मौज मिटा करि कै।
जात चली रसखानि अली मदमस्त मनों मन को हरि कै।
आई खेलि होरी ब्रजगोरी वा किसोरी संग।
अंग अंग अंगनि अनंग सरकाइ गौ।
कुंकुम की मार वा पै रंगति उद्दार उड़े,
बुक्का औ गुलाल लाल लाल बरसाइगौ।
छौड़े पिचकारिन वपारिन बिगोई छौड़ै,
तोड़ै हिय-हार धार रंग तरसाइ गौ।
रसिक सलोनो रिझवार रसखानि आजु।
फागुन मैं औगुन अनेक दरसाइ गौ।
गोकुल को ग्वाल काल्हि चौमुंह की ग्वालिन सों,
चाचर रचाइ एक धूमहिं मचाइ गौ।
हियो हुलसाइ रसखानि तान गाइ बाँकी,
सहज सुभाइ सब गाँव ललचाइ गौ।
पिचका चलाइ और जुवती भिंजाइ नेह,
लोचन नचाइ मेरे अगहि नचाइ गौ।
सासहिं नचाइ भोरी नंदहि नचाइ खोरी,
बैरनि सचाइ गोरी मोहि सकुचाइ गौ।।
आवत लाल गुलाल लिए मग सूने मिली इस नार नवीनी।
त्यौं रसखानि लगाइ हियें मौज कियौ मन माहिं अधीनी।
सारी फटी सुकुमारी हटी अंगिया दर की सरकी रगभीनी।
गाल गुलाल लगाइ लगाइ कै अंक रिझाइ बिदा करि दीनी।
लीने अबीर भरे पिचकार रसखानि खरौ बहु भाय भरौ जू।
मार से गोपकुमार कुमार से देखत ध्यान टरौ न टरौ जू।
पूरब पुन्यनि हाथ पर्यौ तुम राज करौ उठि काज करौ जू।
ताहि सरौ लखि लाज जरौ इहि पाख पतिव्रत ताख धरौ जू।
सूफ़ी शाह नियाज़ भी कवि और लेखक थे। नियाज़ साहब ने अपना सूफी प्रशिक्षण सैयद फखरउद्दीन मोहम्मद देहलवी, जिन्हें फख्र-ए-जहाँ के नाम से भी जाना जाता है, से लिया था। उनकी होली-
“होरी होए रही है अहमद जियो के द्वार।
हज़रत अली का रंग बना है हसन हुसैन खिलार,
ऐसो होरी की धूम मची है चहुँ ओर पड़ी है पुकार
ऐसो अनोखो चतुर खिलाड़ी रंग दीन्हों संसार।
नियाज़ पियाला भर भर छिड़के, एक ही रंग सहस पिचकार।
नवाब सदरुद्दीन मोहम्मद खान बहादुर फ़ाएज़ (1690-1738), जिन्हें उनके कलम नाम फ़ाएज़ देहलवी से जाना जाता है, उर्दू और फ़ारसी के मशहूर कवि थे। उन्हें भारतीय संस्कृति और परंपराओं का प्रवर्तक भी माना जाता है। उनके पूर्वज ईरान से भारत आए थे और दिल्ली में बस गए थे। उनके पिता ज़बरदस्त ख़ान एक प्रतिष्ठित कुलीन व्यक्ति थे और औरंगज़ेब के शासन काल में ओहदेदार थे। उन्हें 1696 में जौनपुर में न्यायाधीश और 1697 में अवध का प्रशासक नियुक्त किया गया था। फ़ाएज़ देहलवी ने दिल्ली की होली का कुछ अलग ही अंदाज़ में वर्णन किया है। सखियाँ इत्र और अबीर छिड़कती हैं, रंग उड़ाती हैं। गुलाल से उनका गाल आतिशफ़िशां यानी ज्वालामुखी की तरह हो जाता है। हर घर में ढोलक बजते हैं और पिचकारियाँ चलती हैं।
"जोश-ए-इशरत घर-ब-घर है हर तरफ़
नाचती हैं सब बतकल्लुफ़ बर तरफ़
ले अबीर और अरगजा भर कर रुमाल
छिड़कते हैं और उड़ाते हैं गुलाल
ज्यूं झड़ी हर सू है पिचकारी की धार
दौड़ती हैं नारियाँ बिजली की सार।"
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सौदा |
मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी 'सौदा' दिल्ली के प्रसिद्ध शायर थे। अपनी ग़ज़लों और क़सीदों के लिए जाने जाने वाले सौदा मीर के समकालीन थे। मीर जहाँ ग़ज़लों के लिए आधुनिक उर्दू के उस्ताद माने गए हैं तो वहीं मुग़ल बादशाह शाह आलम सौदा के शागिर्द थे। वे अपनी रचनाओं की ग़लतियाँ सौदा से सुधरवाते थे। सौदा ने मसनवी, क़सीदे, मर्सिया तर्जीहबन्द, मुख़म्मस, रुबाई, क़ता और हिजो तक लिखा है। यहां भी होली का वर्णन मिलता है-
"ब्रज में है धूम होरी की व लेकिन तुझ बग़ैर
ये गुलाल उड़ता नहीं, भड़के है अब ये तन में आग।"
18वीं शताब्दी के अंतिम दशक के महत्वपूर्ण शायर ‘क़ाएम’ चाँदपुरी 1725 में क़स्बा चाँदपुर, ज़िला बिजनौर में जन्मे। इस्लाह-ए-शे'र-ओ-सुख़न के सिलसिले में 'क़ाएम' सबसे पहले शाह हिदायत की सोहबत से फ़ैज़-याब हुए उसके बा’द पहले ख़्वाजा मीर 'दर्द' और फिर मोहम्मद रफ़ीअ’ 'सौदा' के शागिर्द हुए।
क़ाएम चांदपुरी ने अपनी एक मसनवी ‘दर तौसीफ़-ए-होली’ यानी होली की तारीफ़ में लिखा-
"किसी पर कोई छुप के फेंके है रंग
कोई क़ुमक़ुमों से है सरगर्म-ए-जंग
है डूबा कोई रंग में सर-ब-सर
फ़क़त आब में है कोई तर-ब-तर।"
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मीर |
मोहम्मद तकी उर्फ मीर तकी ‘मीर’ उर्दू और फ़ारसी भाषा के पहले बड़े शायर थे जिन्हें ख़ुदा-ए-सुखन यानी शायरी का ख़ुदा कहा जाता है। मीर को उर्दू, फ़ारसी और हिन्दुस्तानी के शब्दों के फ्यूजन के लिए जाना जाता है। अहमद शाह अब्दाली और नादिर शाह के हमलों से कटी-फटी दिल्ली को मीर तक़ी मीर ने अपनी आँखों से देखा था। इस त्रासदी की व्यथा उनकी रचनाओं मे दिखती है। मीर तक़ी मीर की होली से संबंधित दो मसनवियाँ मिलती हैं। ‘दर जश्न-ए-होली-ओ-कत-ख़ुदाई’ जो आसिफ़ुद्दौला की शादी के मौक़े पर लिखी गईं–
"आओ साक़ी बहार फिर आई
होली में कितनी शादियाँ लाईं
जश्न-ए-नौ-रोज़-ए-हिंद होली है
राग रंग और बोली ठोली है
आओ साकी, शराब नोश करें
शोर-सा है, जहाँ में गोश करें
आओ साकी बहार फिर आई
होली में कितनी शादियाँ लाई।"
मीर अपनी दूसरी मसनवी ‘दर बयान-ए-होली’ में फरमाते हैं-
"होली खेला आसिफ़ुद्दौला वज़ीर…
क़ुमक़ुमे जो मारते भर कर गुलाल
जिस के लगता आन कर फिर मुँह है लाल
होली खेला आसिफु़द्दौला वज़ीर
रंग सोहबत से अजब हैं ख़ुर्दोपीर।"
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बहादुर शाह ज़फ़र |
अन्तिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र होली की सुबह लालकिले के झरोखे में बैठे हैं, अपने हिंदू-मुस्लिम उमरा के साथ. होली के हुड़दंगी स्वांग रचते, हो हल्ला करते, टोलियाँ दर टोलियाँ उनके सामने से गुजर रही हैं। रंगीन झांकियाँ निकल रही हैं… बादशाह मुग्ध भाव से इस रंगीन नज़ारे को देख रहे हैं। उनके मुँह से निकलता है-
“क्यों मोपे मारी रंग की पिचकारी
देख कुंवरजी दूंगी गारी
भाज सकूं मैं कैसे मोसो भाजो नहीं जात
थांडे अब देखूं मैं बाको कौन जो सम्मुख आत
बहुत दिनन में हाथ लगे हो कैसे जाने देऊं
आज मैं फगवा ता सौ कान्हा फेंटा पकड़ कर लेऊं
शोख रंग ऐसी ढीठ लंगर से कौन खेले होरी
मुख बंदे और हाथ मरोरे करके वह बरजोरी”
पीर जामिन निजामी, सूफ़ी कवि और हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के वंशज थे। वे हज़रत निज़ामुद्दीन दरगाह के 19वें सज्जादानशीन थे। उनका होली वर्णन देखिए।
बसंती रंग में देखो निजामी पीर के जलवे
कि होली रंग लाती है निजामुद्दीन चिश्ती का।
मोरा जोबना नवेलरा भयो है गुलाल।
कैसे घर दीन्हीं बकस मोरी माल।
निजामुद्दीन औलिया को कोई समझाए,
ज्यों-ज्यों मनाऊँ. वो तो रुसो ही जाए।
चूडियाँ फूड़ों पलंग पे डारुँ
इस चोली को मैं दूँगी आग लगाए।
सूनी सेज डरावन लागै
बिरहा अगिन मोहे डस डस जाए।
नवाब सआदत अली खाँ के दौर में महज़ूर नाम के एक शायर थे जिन्होंने ‘नवाब सआदत की मजलिसे होली’ नाम से एक नज़्म लिखी जिसकी पहली पंक्ति कुछ यूँ हैं -
"मौसमे होली का तेरी बज़्म में देखा जो रंग।"
हातिम नाम के एक और शायर ने भी होली का वर्णन अपनी नज्मों में किया है -
"मुहैया सब है अब अस्बाबे होली।
उठो यारों भरों रंगों से झोली।"
नज़ीर बनारसी बनारस के महबूब शायर थे। मेरे चचा थे। वे कहते
सोएंगे तेरी गोद में एक दिन मर के,
हम दम भी जो तोड़ेंगे तेरा दम भर के,
हमने तो नमाजें भी पढ़ी हैं अक्सर,
गंगा तेरे पानी से वजू करके...।’
उन्होंने भी होली को ले कर कुछ नज्में कहीं हैं -
"ये किसने रंग भरा हर कली की प्याली में
गुलाल रख दिया किसने गुलों की थाली में।"
मशहूर गायिका गौहर जान, देश में जिनका पहला ग्रामोफ़ोन रिकार्ड बना। वे अक्सर गाती थीं -
"मेरे हज़रत ने मदीने में मनाई होली”
मुगल बादशाह शाह आलम सानी अपनी तमाम रचनाओं में हिन्दुस्तानी तहज़ीब का जश्न मनाते हुए नज़र आते हैं -
"तुम तो बड़ी हो चातुर खिलार, लालन तुन सूँ खेल मचाऊँ, रंग भिजाऊँ
दफ़, ताल, मिरदंग, मुहचंग बजाऊँ, फाग सुनाऊँ, अनेक भांत के भाव बताऊँ।"
शायर शाह आलम सानी की कुछ और पंक्तियाँ सुनिए -
"नैनन निहारियाँ, क्यारियाँ लगें अति प्यारियाँ
सौ लेकर पिचकारियाँ, और गावें गीत गोरियाँ।"
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वाजिद अली शाह |
होली की बात हो और अवध के आख़िरी नवाब और भारतीय संगीत, नृत्य एवं नाटक के संरक्षक वाजिद अली शाह (1822-1887) की बात न हो यह कैसे संभव है। वे अपने दरबार में होली का जो जश्न मनाते थे उसके बारे में सुन कर हैरत होती है। वे एक अच्छे शायर भी थे और अपनी रचनाओं में होली का ज़िक्र भी खूब किया है –
"मोरे कान्हा जो आए पलट के
अब के होली मैं खेलूँगी डट के
उनके पीछे मैं चुप के से जा के
ये गुलाल अपने तन से लगा के
रंग दूँगी उन्हें भी लिपट के।"
नज़ीर अकबराबादी 18वीं सदी के महान शायर थे। उन्होंने सभी तीज त्यौहारों पर लिखा है। आम जीवन, ऋतुओं, त्योहारों, फलों, सब्जियों आदि पर लिखा। नज़ीर आम लोगों के कवि थे। जिन्हें "नज़्म का पिता" कहा जाता है। उन्होंने अपना जीवन आगरा में बिता दिया। जो उस वक़्त अकबराबाद के नाम से जाना जाता था।
हिन्द के गुलशन में जब आती है होली की बहार।
जांफिशानी चाही कर जाती है होली की बहार।
एक तरफ से रंग पड़ता, इक तरफ उड़ता गुलाल।
जिन्दगी की लज्जतें लाती हैं, होली की बहार।
जाफरानी सजके चीरा आ मेरे शाकी शिताब।
मुझको तुम बिन यार तरसाती है होली की बहार।
तू बगल में हो जो प्यारे, रंग में भीगा हुआ।
तब तो मुझको यार खुश आती है होली की बहार।
और हो जो दूर या कुछ खफा हो हमसे मियां।
तो काफिर हो जिसे भाती है होली की बहार।
नौ बहारों से तू होली खेलले इस दम नजीर।
फिर बरस दिन के उपर है होली की बहार।
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नजीर अकबराबादी |
एक और नज़्म देखिए।
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।
हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे
कुछ घुंगरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की।
गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।
एक और होली-
मियाँ तू हम से न रख कुछ ग़ुबार होली में
कि रूठे मिलते हैं आपस में यार होली में
मची है रंग की कैसी बहार होली में
हुआ है ज़ोर-ए-चमन आश्कार होली में
अजब ये हिन्द की देखी बहार होली में
अब इस महीने में पहुँची है याँ तलक ये चाल
फ़लक का जामा पहन सुर्ख़ी-ए-शफ़क़ से लाल
बना के चाँद के सूरज के आसमाँ पर थाल
फ़रिश्ते खेलें हैं होली बिना अबीर-ओ-गुलाल
तो आदमी का भला क्या शुमार होली में
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मौलाना हसरत मोहानी |
उर्दू के मशहूर शायर जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई के दौरान इंकलाब ज़िन्दाबाद जैसा नारा दिया और जो मौलाना होते हुए भी अपनी कृष्ण भक्ति के लिए भी मशहूर थे, मौलाना हसरत मोहानी (1875-1951) ने होली पर क्या मनोरम दृश्य रचा है -
"मोहे छेड़ करत नंद लाल
लिए ठाड़े अबीर गुलाल
ढीठ भई जिन की बरजोरी
औरां पर रंग डाल-डाल।"
सीमाब अकबराबादी (1880-1951) ने तो अपनी नज़्म ‘मेरी होली’ में होली को एक नए अर्थ में पेश किया है-
"इर्तिक़ा के रंग से लबरेज़ झोली हो मिरी
इन्क़िलाब ऐसा कोई हो ले तो होली हो मिरी।"
ये कुछ बानगियां थीं। होली हिंद का पर्व है। हिंदुस्तान का कोई कवि या शायर जिसने गंगा का पानी पिया, इस मिट्टी में जिया, वो होली से अछूता नहीं रहा। फिर वो चाहे हिंदी का कवि रहा हो, उर्दू का, हिंदवी का या यौंम-ए-उर्दू का चश्मदीद, होली उसके ज़ेहन और कलम में रही। स्याही से भी खेली और होठों से भी उछाली गई।
इतने अच्छे कलामों के बाद मैं आपको जुमे और होली के घिसपिटिया टकराव पर कोई भाषण नहीं देना चाहता। आज रंग है। अपने रंग में इन शायरों को भी शामिल करें। रंग का रंग लें. तरंग लें। जुमे वाले जुमा करें आप हम रंग करें। होली मुबारक. चंचल जी के शब्दों में स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, उभयलिंगी सबको।
सबकी सोच ऐसे ही सुलझी हुई हो तो सारे गिले शिकवे सारे झगड़ा सारी नाराजगी एक दूसरे के प्रति अविश्वास सब खत्म हो जाए लेकिन इसके लिए सबको दिल बड़ा करना होगा केवल एक पक्ष से अपेक्षा करने से बात नहीं बनेगी
जवाब देंहटाएंसबकी सोच ऐसे ही सुलझी हुई हो तो सारे गिले शिकवे सारे झगड़ा सारी नाराजगी एक दूसरे के प्रति अविश्वास सब खत्म हो जाए लेकिन इसके लिए सबको दिल बड़ा करना होगा केवल एक पक्ष से अपेक्षा करने से बात नहीं बनेगी- rajiv ojha
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