सुशील कुमार का आलेख "काव्य परंपरा का 'अवाँ-गार्द'.. ?"
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गीत चतुर्वेदी |
समकालीन कवियों में जिन कवियों की चर्चा सर्वाधिक होती है उनमें कवि गीत चतुर्वेदी का नाम अग्रणी है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि उनके पास अपनी एक आकर्षक भाषा है। अपने बिंबों के इस्तेमाल के दम पर गीत अक्सर अपने पाठकों को चकित कर देते हैं। लेकिन हिन्दी आलोचना की दिक्कत यह है कि वह अरुण कमल, राजेश जोशी, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल से आगे अब तक बढ़ ही नहीं पाई है। गीत चतुर्वेदी की चर्चा भले ही वैश्विक स्तर पर हुई हो, हिन्दी में उनकी कवित्व का मूल्यांकन अब तक नहीं हो पाया है। कवि आलोचक सुशील कुमार अपनी बेबाकी के लिए जाने जाते हैं। सुशील ने गीत चतुर्वेदी की कविता का एक आलोचनात्मक मूल्यांकन प्रस्तुत किया है। आइए आज पहली बार हम पढ़ते हैं सुशील कुमार का आलेख "काव्य परंपरा का 'अवाँ-गार्द'.. ?"
"काव्य परंपरा का 'अवाँ-गार्द'.. ?"
(गीत चतुर्वेदी की कविता)
सुशील कुमार
जिस हिंदी लेखक को कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, स्पंदन कृति सम्मान, वाग्धारा नवरत्न सम्मान तथा गल्प के लिए कृष्ण प्रताप कथा सम्मान, शैलेश मटियानी कथा सम्मान, कृष्ण बलदेव वैद फेलोशिप और सैयद हैदर रज़ा फेलोशिप मिल चुके हों और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ सहित कई प्रकाशन संस्थानों ने उन्हें भारतीय भाषाओं के दस सर्वश्रेष्ठ लेखकों में शुमार किया है और जिनकी रचनाएँ देश-दुनिया की 22 भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं, साथ ही कविताओं के अंग्रेज़ी अनुवाद का संग्रह ‘द मेमरी ऑफ़ नाउ’ 2019 में अमेरिका से प्रकाशित हुआ और जिनके उपन्यास ‘सिमसिम’ के अंग्रेज़ी अनुवाद को (अनुवादक अनिता गोपालन) ‘पेन अमेरिका’ ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित ‘पेन-हैम ट्रांसलेशन ग्रांट’ अवार्ड किया हो, उन पर अब तक साहित्यिक चिंतकों या आलोचकों का कहीं भी (पत्रिकाओं में या किताबों में या इंटरनेट पर) एक भी सुगठित आलोचनात्मक लेख उपलब्ध न हो, यह हिंदी साहित्य में उनकी अन्यमनस्कता नहीं तो और क्या कहा जाएगा? इसे मैं हिंदी की दुर्दशा कहूँ या कुछ और कहूँ? इस चुप्पी के पीछे राज़ क्या है? उनको क्या राज नेताओं की तरह केवल साहित्यिक वक्तव्य जारी करना चाहिए?
अब तक गीत चतुर्वेदी के तीन कविता संग्रह -
2019: ख़ुशियों के गुप्तचर (रुख पब्लिकेशन)
2017: न्यूनतम मैं (राजकमल प्रकाशन)
2010: आलाप में गिरह (राजकमल प्रकाशन)
और दो कहानी संग्रह
2010: सावंत आंटी की लड़कियाँ (राजकमल प्रकाशन)
2010: पिंक स्लिप डैडी (राजकमल प्रकाशन )
व
कथेतर साहित्य में
2021: अधूरी चीज़ों का देवता (रुख़ पब्लिकेशन्स)
2018: टेबल लैम्प (राजकमल प्रकाशन)
प्रकाशित हो चुके हैं।
इसके अलावे उन्होंने अनुवाद और संपादन का भी काम किया है। मात्र 47 वर्ष की वय में गीत की यह आमद परिमाण की दृष्टि से ज़्यादा नहीं, तो कम भी नहीं है।
गीत चतुर्वेदी के बारे में लेखकों, संपादकों ने भले गहन विश्लेषण न किया हो, लेकिन उन पर कसीदा पढ़ने से बाज न आए! आपको बताऊँ कि इनके कसीदे विकिपीडिया से लेकर इंटरनेट पर भी सब जगह देखने को मिल जाएंगे। मुझे लगता है, इन अतिशयोक्तियों को यहाँ शब्दशः रखना ज्यादा माकूल होगा -
'21वीं सदी के पहले दशक के मेरे प्रिय कवि व कथाकार हैं गीत चतुर्वेदी।' - नामवर सिंह, महान आलोचक।
'गीत के पास बहुत ताज़ा और चमकीली भाषा है। वह विचारवान और स्वप्नदर्शी हैं।' - ज्ञानरंजन, कथाकार व संपादक, पहल।
'गीत चतुर्वेदी ने अपने गल्प व कविताओं में अवाँ-गार्द भाव दिखाया है। उनका अध्ययन बेहद विस्तृत है जो कि उनकी पीढ़ी के लिए एक दुर्लभ बात है। यह पढ़ाई उनकी रचनाओं में अनायास और सहज रूप से गुँथी दिखती है। उनकी भाषा व शैली अभिनव है। उनके पास सुलझी हुई दृष्टि है जिसमें क्लीशे नहीं और जो कि वर्तमान विचारधारात्मक खेमों के शिकंजे में भी फँसी हुई नहीं है।' - अशोक वाजपेयी, कवि-आलोचक।
'गीत चतुर्वेदी की काव्य-निर्मिति और शिल्प की एक सिफ़त यह भी है कि वह यथार्थ और कल्पित, ठोस और अमूर्त, संगत से असंगत, रोज़मर्रा से उदात्त की बहुआयामी यात्रा एक ही कविता में उपलब्ध कर लेते हैं। इतिहास से गुज़रने का उनका तरीक़ा कुछ-कुछ चार्ली चैपलिन-सा है और कुछ काल-यात्री (टाइम- ट्रैवलर) सरीख़ा…। भारतीय समाज के लुच्चाकरण और अमानवीयता पर जो बहुत कम हिंदी कवि नज़र रखे हुए हैं, गीत उनमें भी एक निर्भीक यथार्थवादी हैं।' - विष्णु खरे, कवि-आलोचक।
'किसी भी अच्छे कवि की तरह, गीत चतुर्वेदी के पास तीसरी आँख है, जिसकी मदद से वह सिनेमाई तकनीकों का प्रयोग करते हैं और ऐसे दृश्य रचते हैं जो अद्भुत, मासूम और खिलन्दड़ हैं। उनके संवेदना-बोध और शैली की सूक्ष्मता के कारण उनकी कविताओं को पढ़ने में अत्यन्त आनन्द आता है।' - दुन्या मिख़ाइल, अरबी भाषा की इराक़ी कवि।
'भारतीय साहित्य की संस्कृत-पालि परंपरा, योरप के उत्तर-आधुनिक साहित्य व विश्व-कविता के अध्ययन के कारण गीत चतुर्वेदी की कविताएँ स्वाभाविक रूप से इंटर-टेक्स्चुअल हैं।' - अरुंधति सुब्रमण्यम, भारतीय अंग्रेज़ी भाषी कवि।
'गीत चतुर्वेदी एक विलक्षण कवि हैं।' - सुदीप सेन, भारतीय अंग्रेज़ी भाषी कवि।
बहुत खेद का विषय है कि तीसरी आँख वाले इस “विलक्षण” कवि पर किसी ने विस्तार से अब तक कुछ पढ़ा-लिखा नहीं, तो फिर खुशफहमी या गलतफहमी में किन इरादों के मानिंद ये स्टेटमेंट जारी कर दिए गए? अहम् सवाल यह है कि उनको चिंतन या आलोचना की परिधि में लाने से परहेज क्यों किया गया? शायद इसीलिए कवि धूमिल को आलोचकों के चरित्र पर ऊंगली उठाते हुए में बड़े तंज में कहना पड़ा -
वह तुम्हारी कविता का
एक शब्द सूँघता है
और नाक की सीध में
तिजोरियों की ओर दौड़ता चला
जाता है।
और लो, उस गुर्राहट ने
सारे चेहरे खरोंच दिए,
एक टाँग उठाई
और मूत दिया
यह कुकुरमुत्ता है
गाँव में
बच्चे इसे छाता कहते हैं।
(कविता “आलोचक”/ “कल सुनना मुझे” पुस्तक से )
अगर गीत चतुर्वेदी की औपचारिक शिक्षा की बात करें तो उनकी शिक्षा के संबंध में विशिष्ट संस्थानों की जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है। आप खोज कर थक जाइएगा, मगर मिलने से रहा, हालांकि अभिलेख यह जरूर बताते हैं कि उनके व्यापक अध्ययन और साहित्य, सिनेमा, संगीत में गहरी रुचि ने उनके लेखन को समृद्ध किया है, गाे कि वे कविता में शिल्प और तजुर्बा दोनों विदेशी साहित्यकारों से लेते हैं। उन्होंने नीत्शे (1844-1900), पाब्लो नेरुदा (1904-1974), रिल्के (1875-1926), जॉर्ज लुईस बोर्खेस (1899-1986), गैब्रियल गार्सिया मार्खेज (1927-2014), अल्बेयर कामू (1913-1960), ऑक्टेवियो पॉज (1914-1998), एजरा पाउंड (1885-1972) इत्यादि को धुन कर पढ़ा, उससे उनकी कविताओं के गुर सीखे। भारतीय कवियों - लेखकों में उनको अज्ञेय (1911-1987), जयशंकर प्रसाद (1889- 1937), निर्मल वर्मा (1929- 2005), कुबेर नाथ राय (1933-1996), रवीन्द्र नाथ ठाकुर (1891-1941), मुक्तिबोध (1917-1964) आदि की कविताओं ने प्रभावित किया है।
ग़ौरतलब है कि इनमें से कुछेक को छोड़ कर कोई भी इनके समकालीन नहीं थे। गीत का जन्म 1977 में हुआ। लेकिन इतना कह देने से बात पूरी नहीं हो जाती है। कविता का शिल्प और उसकी कला वह उनसे ले कर उसे अपनी मेधा और बौद्धिकता की भट्टी में पूरी तरह सीझाते हैं और फिर अपनी कविता में प्रस्तुत करते हैं। (इसमें कोई दोष भी नहीं है।)
गीत चतुर्वेदी की कविताएँ साहित्यकारों की इन परंपराओं और विचारों को भारतीय संदर्भों और संवेदनाओं के साथ जो “फ्यूजन” करा कर उसे सम्मिश्रित (Juxtapose) कर जो रचनात्मकता प्रस्तुत करती हैं, उससे साहित्य खासकर कविता और कहानी का जो एक संकर (cross) रूप तैयार होता है, उसमें प्रयोगधर्मी शैली और पारंपरिक काव्य संरचनाओं को तोड़ने की प्रवृत्ति भी गीत चतुर्वेदी के लेखन में अटूट रूप से परिलक्षित होती है। इस क्रियाविधि में वे एक विस्मित करने वाला सौंदर्य बोध अपने अनुभव के आकाश में उगाते हैं, लेकिन वह उस कवि या लेखक के संघर्ष से कुछ भी सीख नहीं लेते। केवल उनकी “लिरिकल आधुनिकता” और “शिल्प विज्ञता” को छान कर अपना लेते हैं और संघर्ष व विचारधारा को भूॅसा समझ कर अलग रख देते हैं।
जैसे कि, फ्रेडरिक नीत्शे ने ईश्वर की मृत्यु" का विचार प्रस्तुत किया और नैतिकता, शक्ति की इच्छा (Will to Power), अस्तित्ववाद और अतिमानव (Übermensch) की अवधारणा दी, जबकि नेरुदा मार्क्सवादी विचारधारा के समर्थक थे और उन्होंने अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ लिखा। रेनर मारिया रिल्के ने अपने जीवन में अकेलेपन का सामना किया। उन्हें हमेशा जीवन के अर्थ और आत्मा की खोज में संघर्ष करना पड़ा। उन्होंने “रहस्यवाद” का प्रतिपादन किया। इसी प्रकार जार्ज लुइस बोर्खेस धीरे-धीरे अंधे हो गए और अपने जीवन के अंतिम वर्षों में पूर्ण अंधकार में रहे। उन्होंने समय, अनंतता, पहचान और ज्ञान के दार्शनिक सवालों को अपनी कविताओं और कहानियों का आधार बनाया। बोर्खेस का कार्य मिथकों और दर्शन को साहित्य से जोड़ता है। मार्खेज़ ने अपने शुरुआती जीवन में गरीबी और संघर्ष का सामना किया। उन्होंने “जादुई यथार्थवाद” (फैंटेसी) की अपूर्व शैली विकसित की, जिसमें वास्तविकता और कल्पना का विलय होता है। अल्बेयर कामू अस्तित्ववाद, मानव जीवन की निरर्थकता और विद्रोह में विश्वास करते थे। उन्होंने अल्जीरिया में गरीब प्रवासी जीवन बिताया और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान फ्रांसीसी प्रतिरोध का हिस्सा बने।
यहाँ कहने का मूलार्थ इतना ही है कि गीत चतुर्वेदी ने जिन विदेशी “आइकॉन” साहित्यकारों से शैली-शिल्प की दीक्षा ली, अपनी रचना में उसे उतारने का यत्न किया, वह सब का सब उधार का है, क्योंकि उनके जीवन संघर्ष की जिस मूल विचारधारा के बीज से वह फलित हुआ, उसकी शैली और कला को तो ग्रहण किया, किन्तु उसके संघर्ष और विचारधारा का त्याज्य कर दिया, यानी हाथी के कीमती दाँत तो निकाल लिए, लेकिन हाथी को वहीं छोड़ दिया! इससे गीत चतुर्वेदी को कविता के लिए अनूठी बिंबात्मक मोहक भाषा और भाव तो मिल गए, लेकिन उसके भीतर की चेतना छूट गई। आत्म-चिंतन और बहुआयामी दृष्टि विकसित कर उन्होंने उनकी विचारधारा से उधार की ली गई एक विशिष्ट शैली और तकनीक तो अवगाहन कर लिया, किंतु लोकजीवन, उसके दुःख-दर्द और संघर्ष से अपना कोई रिश्ता-नाता कभी नहीं रखा।
उनकी कविताएँ सामाजिक, राजनीतिक, और दार्शनिक मुद्दों पर संकेत तो करती हैं, लेकिन वे आत्मचिंतन, अति आत्मबद्धता, नितांत वैयक्तिकता और घोर एकांतिकता और पूर्व से ही निर्मित “लघु मानव” के भँवरजाल में पूरी उलझी होती है। आप उनकी कविताओं को पढ़ कर महसूस करेंगे कि किसी एक विचारधारा को पूरी तरह अपनाने के बजाय वे उसे प्रश्नांकित कर वहाँ से धीरे से किनारा कर लेते हैं। उसमें अपनी पक्षधरता को कभी व्यक्त नहीं करते, बल्कि अपनी लेखनी को "विचारधारा से परे" ले जा कर कविता के रूपक और बिम्बजाल को इस ताने बाने में बुनते हैं कि पाठक उसमें पूरी तरह सम्मोहित, मदहोश हो जाता है।
गीत चतुर्वेदी की कविताओं में इतनी क्षमता और सशक्तता तो जरूर है कि वह विचारधारात्मक रूप में अपना आगाज़ कर सके, लेकिन उनका कवि उनको कभी किसी ढांचे में बंधने नहीं देता।
वह प्रेम पर लिखते हैं, लेकिन नेरूदा की तरह उसे "राजनीतिक रूपक" नहीं बनाते।
वह अस्तित्व पर लिखते हैं, लेकिन रिल्के की तरह विशुद्ध आत्मवादी और आध्यात्मिक नहीं होते।
वे दर्शन पर लिखते हैं, लेकिन नीत्शे की तरह उसे कठोर नहीं बनाते।
वे सामाजिक राजनीतिक चिंताओं में घिरते तो जरूर हैं पर मुखर नहीं होते।
बस उससे सौंदर्य-सृजन भर का नाता रखते हैं। यह गीत के कवि की बहुत बेरुखी है, जो कविता को केवल पाठक ओर बाजार की निजत्व की चीज़ भर बना कर पाठकों को परोसता है, पर कभी बदलाव की लिए उद्वेलित नहीं करता। हृदय में एक मद्धिम “लौ” तो जलाता है, पर आग दबी रह जाती है, उनसे फुटकर चिंगारियाँ नहीं निकलतीं, यानी गीत के कवि यथास्थितिवाद का विरोध मुखर होकर अपनी कविताओं में नहीं करते, बल्कि कविता को "कला के लिए कला" का उत्स बना कर उसे पाठक पर छोड़ कर धीरे से आगे बढ़ जाते हैं। मूल में, उनका मानना है कि कविता विरोध, विचार-बोध और संघर्ष के दायरे में सिमट कर संकीर्ण हो जाती है, उसके पंख कतर जाते हैं और वह स्वछंद मन के वितान में उत्फुल्लता के साथ विचरण नहीं कर पाती।
वह विचारधारा की जगह विचारों के छोटे-छोटे पुट पर विश्वास रखते हैं। उनका कवि मन सदैव आत्म-चिंतन और आत्म-संवाद की राह से गुजरता हुआ व्यक्तिगत अनुभवों और मानव मन की जटिलताओं की धुरी पर घूमता है। यही कारण है कि सामाजिक संघर्ष की जगह उनके लेखन में व्यक्ति और उसके भीतर के संघर्ष को अधिक महत्व दिया गया है।
दो
स्व की खोज में विचरता कवि-मन
विचारशून्य कोई नहीं होता। स्वयं को हर विचार से अलग रखने का निश्चय और निर्विचार बने रहने की बात भी अंततोगत्वा एक विचार धारा का ही अंश है। अर्थहीनता और विचारशून्यता के इस आशय को कविता में कलात्मक रुझानों के लिए हम अभिजनवादी कवि की एक सुविधा या अवसर के रूप में देखते हैं।
हम लेख्य में कौन सा विचार ग्रहण कर रहे हैं और उसका आधारतल या विचारभूमि कहां है, इसका निर्धारण हमारी चित्तवृत्ति करती है। उससे अन्तर्भूत हो कर यह कवि के शब्द से उसकी कविता में उतरता है। इस लिहाज़ से गीत चतुर्वेदी का कवि विचारधारा से मुक्त हो कर कविता की एक निहायत स्वायत्त दुनिया (a quite autonomous world of poetry) बनाना चाहता है, (सापेक्ष स्वतंत्रता में तो फिर भी कवि का मन उतना आवारा नहीं होता,) लेकिन पूरी आजादी पा कर गीत का कवि-मन परंपरा और सौंदर्य को तोड़ने की सीमा का अतिक्रमण कर शब्दों का बाजीगर बन बैठता है। इसलिए तो वह इसकी इतनी “अराजक छूट” पाना चाहता है।
जिन विदेशी कवियों से गीत चतुर्वेदी प्रभावित हुए, उनका जिक्र मैं ऊपर लेख में कर चुका हूँ। उन कवियों के देशों की हालात और हमारे देश की मौजूदा हालात और इतिहास भिन्न-भिन्न हैं। लेकिन गीत का कवि घोर वैयक्तिक और एकांतवादी है। उसके भीतर का द्वंद्व, अकेलापन और पीड़ा नीत्शे, रिल्के जैसे चिंतकों की चिंतन शैली की प्रतिलिपि मात्र है क्योंकि गौर करने वाली बात यह है कि यह समय “अस्तित्ववाद” के विचार से प्रेरित होने का नहीं है। उसकी तीव्रता तो तार सप्तक (1943-1959) के समय ही कुंद हो गई थी और हिंदी कविता में सामाजिक यथार्थ, जनवादी चेतना और अन्य नई प्रवृत्तियों ने इसे बहुत पीछे छोड़ दिया। गो कि, सामाजिक और सामूहिक संघर्षों से हट कर व्यक्ति के अकेलेपन और भावनात्मक पीड़ा में लिप्त हो जाने का कवि का यह जो अरण्य रुदन व एकांतालाप है, यह पाठक को आधुनिक अस्तित्ववादी विचारधारा के करीब ले जाती है जो स्वभाव से जितनी एकांतवादी, आलापी और पलायनवादी है, उतनी ही अवचेतन मन पड़ी किसी गहन उधेड़बुन और अनेक गिरहें पड़ी भाववादी सिहरन भरी चेतना से बंधी हुई। लेकिन पाठकों और आलोचकों ने इसे "प्रयोगधर्मिता" का पर्याय मान कर इसकी मूल चेतना और अंतर्वस्तु के बनावट (टेक्सचर) की घोर अनदेखी की है।
एक व्यक्ति का अनुभव के वास्तविक संसार से अलग-थलग हो कर अपनी अंतरात्मा से संवाद करना गीत की कविताओं में स्पष्ट रूप से दिखता है। यही “एकांत” उनके लेखन की विशेष पहचान है जो दुनियादारी से पलायन करने की तरह का एक सच भी है। संघर्षविहीनता का यह “सिम्पटम” पाठक को यथार्थ की दुनिया से अलग, एक जादुई यथार्थ की दुनिया में ले चलता है , जहाँ एकाकीपन और आत्मालाप का प्रबल स्वर होता है जो बिंबों और प्रतीकों से हमें एक “क्लोज्ड या लॉक्ड सिंड्रोम” यानी एक ऐसी अंधेरी दुनिया में कैद कर लेता है जिससे निकलने के सभी दरवाजे बंद होते हैं!
अज्ञेय की तरह गीत चतुर्वेदी भी आत्म-संघर्ष और व्यक्तिवादी सौंदर्य-बोध को प्रमुखता देना चाहते हैं, लेकिन अज्ञेय का व्यक्तिवाद, दर्शन की ठोस संरचना पर आधारित है, जबकि गीत का व्यक्तिवाद अधिक भावनात्मक, छद्म और काव्यात्मक है, जिसमें कविता को कला के अतिरिक्त आग्रह की ओर ले जाने जैसा प्रतीत होता है।
कहें तो, गीत चतुर्वेदी की कविताई दुनिया हिंदी साहित्य में व्यक्तिवादी और एकांतवादी, कहीं-कहीं पलायनवादी प्रवृत्तियों का समकालीन विस्तार है। उनके लेखन में जो व्यक्ति की अंतर्यात्रा और भावनात्मक अनुभवों की सूक्ष्मता देखने को मिलती है, वह रवीन्द्र नाथ टैगोर और अज्ञेय की दुनिया से बिल्कुल अलग है क्योंकि गीत के यहाँ जीवन का कोई आलंबन या सूत्र नहीं है, लेकिन जो उन्हें आधुनिक हिंदी कविता का एक विशिष्ट कलावादी कलेवर रचने में सहायक जरूर होती है, देखिए गीत की एक कविता -
जाने कितनी बार टूटी लय
जाने कितनी बार जोड़े सुर
हर आलाप में गिरह पड़ी है
कभी दौड़ पड़े तो थकान नहीं
और कभी बैठे-बैठे ही ढह गए
मुक़ाबले में इस तरह उतरे कि अगले को दया आ गई
और उसने ख़ुद को ख़ारिज कर लिया
थोड़ी-सी हँसी चुराई
सबने कहा छोड़ो भी
और हमने छोड़ दिया
(आलाप में गिरह/ गीत चतुर्वेदी)
इस कविता के शीर्षक के नाम से इनका पहला संग्रह भी है जो 2010 में छप कर आई थी। इसलिए यह इनकी चयनित कविताओं में से एक है। यहाँ "हर आलाप में गिरह पड़ी है" कह कर कवि ने कला और अस्तित्व की जटिलता को रेखांकित तो बड़ी बारीकी और नज़ाकत से किया है, लेकिन यह देखना कितना निराशाजनक है कि हर प्रयास में एक अदृश्य अवरोध जुड़ा होता है, जो उसे सहज होने से रोकता है।
"कभी दौड़ पड़े तो थकान नहीं
और कभी बैठे-बैठे ही ढह गए"
जैसी पंक्तियाँ जीवन के अनुभवों की अप्रत्याशित पराजय और विरोधाभास को व्यक्त करती हैं। यह केवल शारीरिक थकावट का नहीं, बल्कि अपरिमित मानसिक और भावनात्मक अवस्थाओं का रूपवादी बिंब रचता है, जहाँ किसी क्षण असीम ऊर्जा का अनुभव होता है, तो अगले ही पल घनघोर निराशा। यह जितना श्रवणीय और कर्णप्रिय है , उतना ही आत्मघाती निनाद का स्वर भी, जो लगभग प्रलाप की अवस्थिति तक पहुंच जाता है।
"मुक़ाबले में इस तरह उतरे कि अगले को दया आ गई
और उसने ख़ुद को ख़ारिज कर लिया"
पंक्तियाँ परस्पर प्रतियोगिता और मानव संबंधों के उस पहलू को उद्घाटित करती है, जहाँ पराजय या विजय के बजाय कुंठाजन्य करुणा और आत्मस्वीकृति की प्रधानता है।
उसी प्रकार एक दूसरी कविता को देखिए :-
साल में एक रात ऐसी आती है
जब एक कविता किताब के पन्नों से
निकलती है
और जुगनू बन कर जंगल चली जाती है
जब सूरज को एक लंबा ग्रहण लगेगा
चाँद रूठ कर कहीं चला जाएगा
जंगल से लौट कर आएँगे ये सारे जुगनू
और अँधेरे से डरने वालों को रोशनी देंगे
(जुगनू/ गीत चतुर्वेदी)
इसकी संरचना और संदेश की अस्पष्टता पर किसी का मन जाने के बजाय चयनित शब्दों के बुनावट और सौंदर्य पर जा टिकता है और कविता उस मन को सम्मोहित कर अपहृत कर लेती है। कविता की शुरुआत में "कविता किताब के पन्नों से निकलती है और जुगनू बन कर जंगल चली जाती है," यह विचार जितनी कल्पनाशील है, उतनी ही अकल्पनीय या सच से दूर भी, जो संकेत देता है कि कविता वास्तविकता से दूर हो रही है। यदि कविता को जीवन और समाज का प्रतिबिंब मानें, तो इसका "जंगल" में चले जाना एक प्रकार का पलायन प्रतीत होता है। इससे समाज में यह संदेश जाता है कि रचनात्मकता केवल कल्पना के स्तर पर सीमित हो रही है और वह सामाजिक जिम्मेदारियों से कट रही है।
इसके आगे, "सूरज को लंबा ग्रहण" और "चाँद का रूठ कर जाना" जैसे प्रतीक कथित रूप से व्यापक आपदाओं या संकटों को चित्रित करते हैं, लेकिन ये छवियाँ भी उतनी ही अस्पष्ट और धुंधली प्रतीत होती हैं। यह समझना मुश्किल हो जाता है कि यह संकट व्यक्तिगत स्तर पर है या सामूहिक। कविता की यह पारभासी, छद्म कहन पाठक को भ्रमित तो करती ही है, साथ ही भावनात्मक गहराई को कमजोर कर मन के अतल में बैठ जाती है।
अंत में, "जुगनू लौट कर अँधेरे से डरने वालों को रोशनी देंगे" - एक सुखद और सकारात्मक विचार है, लेकिन यह निरा आदर्शवादी दृष्टिकोण है। जुगनू, जो प्रतीकात्मक रूप से कविता में प्रस्तुत किए गए हैं, क्या वास्तव में अँधेरे से डरने वालों की मदद कर सकते हैं? क्या यह सवाल कविता के प्रभाव को रूप के “नॉस्टैल्जिया” की ओर इशारा नहीं करता? इसके अलावा, यह दृष्टिकोण यह मान कर चलता है कि अँधेरे से डरने वाले केवल बाहरी रोशनी की प्रतीक्षा में हैं, जबकि वास्तविकता में उन्हें समाधान और सहारे के अधिक ठोस स्रोतों की आवश्यकता होती है। यह जीवन संघर्ष को कुंद कर निराशा की कुहेलिका में मन को धकेलने का उपक्रम मात्र है।
कुल मिला कर, जुगनू कविता अपने सौंदर्यात्मक गुणों के बावजूद, अपने प्रतीकों की अस्पष्टता, पलायनवादी दृष्टिकोण और आदर्शवादी समाधान के कारण आलोचना का पात्र बनती है। यह रचना एक गहन संवेदनशील अनुभव प्रदान करने की कोशिश करती है, लेकिन इसकी संरचना और संदेश पाठक को विचारधारात्मक स्तर पर पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर पाते।
इनकी एक और छोटी पहल की कविता देखिए -
संसार की सबसे सुंदर मधुमक्खियों ने
अपने शहद से बनाए हैं तुम्हारे होंठ
संसार की सबसे मेहनतकश चींटियाँ
उठाती हैं मेरी कामनाओं का बोझ
(कविता बोझ/ गीत चतुर्वेदी)
इस कविता की तरह ही गीत चतुर्वेदी की लगभग हर कविता प्रतीकों और रूपकों के माध्यम से गहरी संवेदनाओं को व्यक्त करने की कोशिश करती है। लेकिन कविता की काया में प्रवेश करने पर इसमें निहित कई कमजोरियाँ और सीमाएँ स्पष्ट होने लगती हैं।
कविता की शुरुआत में "संसार की सबसे सुंदर मधुमक्खियों ने अपने शहद से बनाए हैं तुम्हारे होंठ" इस पंक्ति से अतिशयोक्ति और आदर्शीकरण के चरम का भान होता है। यह तुलना जितनी कल्पनाशील लगती है, उतनी ही अवास्तविक भी। कवि यहाँ सौंदर्य को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करने की कोशिश करता है, लेकिन कविता वास्तविकता से इतनी दूर चली जाती है कि इसकी प्रामाणिकता ही गुम हो जाती है। मधुमक्खियों और होंठों का यह रूपक भले ही आकर्षक हो, पर यह अपने भीतर किसी गहरे भाव या विचार को स्थापित करने में असफल है। यह केवल सौंदर्य की एक सतही प्रस्तुति बन कर रह जाता है।
दूसरी पंक्ति में, "संसार की सबसे मेहनतकश चींटियाँ उठाती हैं मेरी कामनाओं का बोझ," यह पंक्ति भी प्रतीकात्मक है, लेकिन इसका संदेश असंतुलित और स्वकेंद्रित लगता है। कवि अपनी कामनाओं को "बोझ" के रूप में व्यक्त करता है, जिसे मेहनतकश चींटियाँ उठाती हैं। यह तुलना श्रम और मानवीय संघर्ष की वास्तविकता का अनादर करती है। चींटियों को एक प्रतीक के रूप में उपयोग करना समझ में आता है, लेकिन यहाँ वे केवल कवि की व्यक्तिगत इच्छाओं के बोझ ढोने वाले माध्यम के रूप में चित्रित की गई हैं। यह दृष्टिकोण न केवल आत्मकेंद्रित है, बल्कि श्रम की पवित्रता और महत्ता को भी कमतर आँकता है।
इस कविता की एक और समस्या इसकी सीमित भावनात्मक गहराई है। यह रचना प्रतीकों के सहारे एक अद्भुत छवि बनाने की कोशिश करती है, लेकिन यह छवि पाठक को कोई नया दृष्टिकोण या गहरी अनुभूति प्रदान नहीं करती। "मधुमक्खियों" और "चींटियों" जैसे प्रतीक यहाँ केवल सजावट का काम करते हैं; वे विचार या भाव को विकसित करने का स्रोत नहीं बन पाते।
अंततः, यह कविता अपनी अप्रतिम प्रतीकात्मकता के बावजूद भाव-बोध और विचार-बोध की गहनता और नवीनता की कमी महसूस कराती है। यह रचना सतही सौंदर्य और कल्पना पर जोर देती है, लेकिन इसमें विचार और भाव की वह शक्ति नहीं है जो पाठक को भीतर तक आलोड़ कर उसकी चित्त-वृत्ति का रूपान्तरण कर सके या किसी गहरे सत्य का एहसास करा सके।
फिर भी इतना तो कहेंगे ही कि गीत चतुर्वेदी ने यथार्थ और कल्पना का "फ्यूजन" करा कर पौराणिकता और आधुनिकता के समागम से अपनी कविताओं में जिन बिंबों और दृश्यों की उत्पत्ति की है, उसकी प्रयोगधर्मिता सामाजिक उपादेयता की दृष्टि से भले ही न्यून हों, पर वे न केवल हिंदी साहित्य में एकदम टटका और अर्वाचीन लगते है, बल्कि किसी विद्युतीय प्रवाह की ज्यों पाठकों के मन को छू कर उसे प्रकंपित और सम्मोहित कर देने की अदृश्य व अपूर्व क्षमता भी रखते हैं।
(नोट : अवाँ-गार्द एक फ्रांसीसी शब्द है जो उन व्यक्तियों या कृतियों के लिए प्रयुक्त होता है जो यथास्थितिवाद से हट कर हों या आमूलवादी हों।)
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सुशील कुमार |
संक्षिप्त परिचय:
सुशील कुमार
13 सितम्बर, 1964, पटना सिटी (बिहार)
कवि-लेखक
• प्रकाशित कृतियाँ:
कविता संग्रह: कितनी रात उन घावों को सहा है (2004), तुम्हारे शब्दों से अलग (2011), जनपद झूठ नहीं बोलता (2012), हाशिये की आवाज (2020), पानी भीतर पनसोखा (2025)
आलोचना: आलोचना का विपक्ष (2019), हिंदी ग़ज़ल का आत्मसंघर्ष (2021)
पुरस्कार: 2006 में खगड़िया से दिनकर स्मृति सम्मान, 2015 में दुमका में सतीश स्मृति विशेष सम्मान, 2020 में सव्यसाची सम्मान की घोषणा।
झारखंड शिक्षा सेवा कैडर में जिला शिक्षा पदाधिकारी के पद से दुमका से सितंबर, 2025 में सेवानिवृत्त।
सम्पर्क :
हंसनिवास, कालीमंडा,
दुमका (झारखंड) – 814101
मोबाइल : 9006740311
ईमेल : sk.dumka@gmail.com
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