रणविजय सिंह सत्यकेतु का आलेख 'अज्ञेय : ऊंची उड़ान, ठोस बिहान और मानव उत्थान के साधक'

 

अज्ञेय



अज्ञेय बहुमुखी प्रतिभा वाले ऐसे रचनाकार थे जिन्होंने विविध विधाओं में विपुल और सार्थक लेखन किया। उनका रचनात्मक विस्तार छायावाद से शुरू हो कर, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद होते हुए नई कविता तक दिखाई पड़ता है। विकास के क्रम में प्रकृति के साथ मनुष्य की जो दूरी बढ़ती जा रही है, अज्ञेय उससे परिचित होते हुए ऐसी कविताएं लिखते हैं जिसमें प्रकृति के प्रति उनका सहज अनुराग महसूस किया जा सकता है। नई प्रतिभाओं को स्वीकार करने का साहस भी अज्ञेय में था। इसी क्रम में वे सप्तक के जरिए कवियों की नई पौध को सामने लाने का महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं। कवि कथाकार रणविजय सिंह सत्यकेतु ने अज्ञेय पर एक महत्त्वपूर्ण आलेख लिखा है। तकनीकी कारणों से हम अज्ञेय के जन्मदिन पर 7 को हम इस आलेख को प्रस्तुत नहीं कर पाए। अज्ञेय की स्मृति को नमन करते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं सत्यकेतु का आलेख 'अज्ञेय : ऊंची उड़ान, ठोस बिहान और मानव उत्थान के साधक'।


'अज्ञेय : ऊंची उड़ान, ठोस बिहान और मानव उत्थान के साधक'


रणविजय सिंह सत्यकेतु


प्रयोगवादी कवियों के लिए कहा जाता है कि वे वाह्य हलचल के बजाय आंतरिक संघर्षों, संवेदनाओं और अनुभूतियों से जीवन की समग्र भावनाओं का चित्रण करते हैं। वे सामाजिकता को संपूर्णता में जीने-परखने के स्थान पर संतापों, विषमताओं और जड़ताओं में फंसे व्यक्ति की पीड़ा को अभिव्यक्त करने, उससे उबरने की संगत खोज में लगे दिखाई देते हैं। यह कोई दोष हो, ऐसा तो नहीं लगता, क्योंकि व्यक्ति व्यक्ति की संवेदनाएं ही वृहद रूप में सामाजिक/ सामूहिक रूप ग्रहण करती हैं। एक व्यक्ति की समस्त संवेदनाएं समाज से ही जुड़ी होती हैं। प्रेम है तो भी, वैराग्य है तो भी। पुकार है तो भी, साकार है तो भी। बल्कि यह एक तरह की विशिष्टता ही कही जाएगी यदि सामूहिकता के संजाल में खो रहा व्यक्ति खुद की पहचान करने की कोशिश करे। अपनी कामनाओं, चाहतों और अपेक्षाओं को उद्गाटित करे, उसकी पूर्ति का अनुसंधान करे। यह प्रयोग भी है और नए दौर का प्रस्थान बिन्दु भी।


यदि कवि का अनुभव क्षेत्र व्यापक और अध्ययन विस्तृत है तो  वैयक्तिक चेतना और तद्जनित संवेदनाओं का संसार भी उतना ही व्यापक होगा। उसका मनोविश्लेषण उस मानक की तरह होगा जो समान अनुभूतियों वाले व्यक्तियों पर समान रूप से फलित/प्रभावकारी होगा। मनोजगत की रश्मियां अपनी यात्रा में बाहरी हलचलों के भावानुभवों से ही टकराती हैं और तदनुरूप मनोद्वेग उत्पन्न होता है। इस तरह बाहरी विश्व से तादात्म्य के साथ वैयक्तिक उड़ान का आनंद भी प्राप्त होता है।


हर वस्तु का एक रूप होता है जो देखने वाले, अनुभूत करने वाले के भीतर खुद को संप्रेषित करता है। रूप वह गुण है जो वस्तु का आधार ग्रहण कर खुद को प्रतिबिम्बित करता है। इस तरह एक अन्योन्याश्रय संबंध होता है दर्शक और दृश्य के बीच। फिर जब दर्शक कहीं और उस दृश्य का विश्लेषण करता है तो श्रोता या ग्रहणकर्ता उस अभिव्यक्ति से खुद को जुड़ा हुआ पाता है। या अपनी मनोदृष्टि से उस अभिव्यक्त दृश्य को अनुभूत करता है, अपनी कल्पना से खुद को वहां अवस्थित कर लेता है।  


अज्ञेय की अभिव्यक्ति का विस्तार छायावाद से शुरू हो कर, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद होते हुए नई कविता तक है। विविधता भरी उनकी काव्य यात्रा के द्वार पर इसलिए सिर्फ प्रयोगवाद का नेमप्लेट नहीं लगाया जा सकता। बल्कि उनका सर्जना संसार एक फूलवारी की तरह है जिसमें हर तरह के फूल खिले मिलते हैं। उनकी खूबसूरती, उपयोगिता और प्रभावशीलता के अलग रंग मिलते हैं। उन्हें चुनते/ गुजरते समय बारीक पड़ताल की जा सकती है। उनकी पंखुड़ियों, पत्तियों, डंठलों, हरे, मुरझाए और झड़े प्रत्यंगों का विशद विवेचन किया जा सकता है। सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं को प्वाइंट आउट किया जा सकता है। लेकिन अधिकाधिक प्रजातीय पहुंच और निरंतर परिवर्धन-परिवर्तन की प्रक्रिया को अलक्षित नहीं किया जा सकता। इसके लिए जरूरी है कि उन प्रभागों का भी अवलोकन किया जाए जो वैयक्तिक प्रस्फुटन के बावजूद सामूहिक स्वीकार्यकता को फ्लैश करते हों।


अज्ञेय की कविताओं से गुजरते हुए वैविध्यपूर्ण भावानुभूतियों से परिचय होता है। खुद उनका जीवन विस्तृत, परिवर्तित, परिमार्जित अनुभवों का पुलिंदा रहा है। जोखिम, अन्वेषण से भरा किन्तु कलात्मकता से आच्छादित। यही वजह है कि अपनी लंबी कविताओं के जरिए वह अलग-अलग आख्यान तो रचते ही हैं, अपनी छोटी कविताओं और हायकू से भी चौंकाते हैं। दो-दो पंक्तियों की कविताओं में विचारों को इस तरह फ्लैश करते हैं कि उसकी रेंज देखते ही बनती है। 'सांझ-सवेरे' में इसकी बानगी देखें, 


'रोज़ मैं थोड़ा-सा अतीत में जी लेता हूं-

क्योंकि रोज़ शाम को मैं थोड़ा-सा भविष्य में मर जाता हूं।' 


प्रथम पुरुष में कही गई दो पंक्तियों की यह कविता दुनिया के किसी भी व्यक्ति का अहसास हो सकता है। कविता यदि इस तरह वैयक्तिक स्वरूप में हो तो उसका समष्टिगत प्रभाव स्वत: सिद्ध हो जाता है। 'चिड़िया की कहानी' की दार्शनिकता खींचती है, 


'उड़ गई चिड़िया

कांपी, फिर

थिर हो गई पत्ती।' 


तीन पंक्तियों में कही गई इस सहज कविता का शब्दार्थ जितना चित्रात्मक है, भावार्थ उतना ही सूक्ष्म और गूढ़। एक जीवन की कहानी तीन लाइनों की जुबानी। आत्मा और शरीर की सच बयानी। मृत्यु का एक पल जीवन पर संपूर्ण विराम लगा देता है।


इसके उलट 'धरा-व्योम' में अज्ञेय जीवन के उल्लास के आगे मृत्यु को स्थगित करते हैं। सुख और आनंद के क्षणों की तुलना में भय, संशय और तकलीफों को छोटा/ नगण्य करार देते हैं, 


'अंकुरित धरा से क्षमा

व्योम से झरी रूपहली करुणा

सरि, सागर, सोते-निर्झर-सा

उमड़े जीवन :

कहीं नहीं है मरना।' 


प्रकृति का रूपक ले कर जीवन के यथार्थ का चित्र एक अन्य कविता 'पहाड़ी यात्रा' में भी सुंदरता के साथ उभरा है, 


'मेरे घोड़े की टाप

चौखटा जड़ती जाती है

आगे की नदी-व्योम, घाटी-पर्वत के आसपास:

मैं एक चित्र में

लिखा गया-सा आगे बढ़ता जाता हूं।' 


प्रत्येक प्राणी की जीवन यात्रा प्रकृति का अटूट हिस्सा है। उसका हर कदम स्वयमेव अंकित होता चलता है चाहे जहां से भी गुजरे। इसमें अज्ञेय की यायावरी का सुंदर चित्रांकन भी देखा जा सकता है। फोटोग्राफी के उनके शौक और प्रकृति से लगाव को निहारा जा सकता है। स्थितियों के गहन अवलोकन और सूक्ष्म कहन की विशेषता अज्ञेय के कथोपकथन को गरिमामय बना देती है, इतनी कि उसका स्थूल अर्थ भी विराट दिखाई देने लगता है।


विराटता के आकांक्षी अज्ञेय की न केवल दृष्टि बहुआयामी है, बल्कि मन की उड़ान भी सर्वथा ऊंची है। ऊंचाई में विचरने की चाह और ऊंचाई से देखने का सीधा लाभ तो यह है ही कि नीचे की अधिकाधिक चीजों पर नज़र जाती है। विराट होने या दिखने का यह भाव अज्ञेय को विशिष्टता प्रदान करता है। 'धूप' कविता में इस भाव को परखें, 


'सूप-सूप भर

धूप-कनक

यह सूने नभ में गयी बिखर :

चौंधाया

बीन रहा है

उसे अकेला एक कुरर।' 


एक दृश्यांकन है आसमान में फैली स्वर्णिम धूप और उसका आनंद उठा रहे लंबी चोंच और मजबूत काठी वाले पक्षी का। लेकिन बात इतनी सीधी तो है नहीं। वैचारिकी के खुले आसमान में फैली प्रतिभाओं से हतप्रभ किन्तु उन्हें सहेजने की उनकी अकेली कोशिश का दावा भी है यह। 'धूप' कविता लिखी गई 1958 में, लेकिन प्रतिभाओं को बीनने का उनका प्रयास तो 1943 (तार सप्तक) से जारी था। अज्ञेय अपने खोजी, पारखी व्यक्तित्व का आनंद उठाते प्रतीत होते हैं, क्योंकि अपनी ऊंची उड़ान में वह खुद को सूर्य के करीब पा रहे हैं। यह दिनकर के 'मैं समय का सूर्य हूं' के उद्घोष का जवाब भी लगता है कि सूने आसमान में सूर्य का अकेला चमकना काफी नहीं होता, चौतरफा बिखर रही धूप को समेटना महत्वपूर्ण होता है।





विराटता की चाह और वृहत्तर प्रकृति को आत्मसात करने की ललक अज्ञेय की अवलोकन क्षमता को सघन बनाती है। एक साधक की तरह उनकी चाह प्रकृति और ब्रह्मांड की विशालता, नैसर्गिक स्वर और उसके विविध रूप ही नहीं, जीवन के रहस्यों को भी आत्मसात कर जाने की है। वह बुद्धि और विचार की अपरिमित संभावनाओं में न सिर्फ गहरे पैठना चाहते हैं, बल्कि इच्छा रखते हैं कि उसकी संपूर्ण विराटता को ग्रहण कर लें। कवि के दृष्टिकोण से यह मानव उत्थान के लिए यथेष्ट भी है। चुप-चाप कविता में प्रकृति के उपादानों के विहंगम स्वरूप को स्वीकारने का आग्रह वास्तव में मनुष्य के भीतर सकारात्मकता को उभारने का आह्वान ही है। शारीरिक अवयवों की शिथिलता भंग करने के लिए नैसर्गिक शक्तियों की निकटता आवश्यक है। अज्ञेय लिखते हैं, 


'चुप-चाप, चुप-चाप

झरने का स्वर

हम में भर जाए

चुप-चाप, चुप-चाप

शहर की चांदनी

झील की लहरों पर तिर आए,

चुप-चाप, चुप-चाप

जीवन का रहस्य

जो कहा न जाए, हमारी

ठहरी आंखों में गहराए,

चुप-चाप, चुप-चाप

हम पुलकित विराट में डूबें

पर विराट हम में मिल जाएं -

चुप-चाप, चुप-चाप'


 ...यहां ध्यान देने की बात है कि अज्ञेय ने पूरी कविता में 'मैं' की जगह 'हम' का प्रयोग किया है। यहां भी वह स्पष्ट कहना चाहते हैं कि उनकी चिंता के केंद्र में समग्र उत्थान है, एकल विकास नहीं। ऐसा भाव वही प्रकट कर सकता है जो मानता हो कि उसके कंधों पर अगुवाई की जिम्मेदारी है। कहना न होगा कि अज्ञेय एक अगुवा रचनाकार, चिंतक, संपादक थे।


अपने नेतृत्व को ही नहीं, अपनी कविताई को चुनौती देने वालों का भी स्वागत करते हैं अज्ञेय। उनके मुताबिक जरूरी नए लोगों का आना है, नई बहस का जन्म लेना है, नई पौध के प्रस्फुटन का है। भले नए कवि उनकी बनाई लीक को तोड़ डालें, उनके मंतव्य के ख़िलाफ खड़े हों, लेकिन कविता के नए स्वर उभरने चाहिए। क्योंकि उन्होंने खुद अपने पिछले कवियों की बनाई लीक को तोड़ा है। पथ के अनुगमन से अलग पहचान नहीं बनाई जा सकती। 'नये कवि से' कविता में अज्ञेय लिखते हैं, 


'तेरा कहना है ठीक : जिधर मैं चला

नहीं वह पथ था :

मेरा आग्रह भी नहीं रहा मैं चलूँ उसी पर

सदा जिसे पथ कहा गया, जो

इतने पैरों द्वारा रौंदा जाता रहा कि उस पर

कोई छाप नहीं पहचानी जा सकती थी।'


अज्ञेय नए रचनाकारों को ही नहीं, पाठकों को भी शिक्षित, सतर्क करते हैं। वह ऐसा पाठक वर्ग चाहते हैं जो सिर्फ नाम के पीछे न भागे। केवल उन रचनाओं से न गुजरे जो बहु प्रकाशित और बहु प्रचारित हों। इसके स्थान पर वह गुणवत्ता की पहचान करे। धर्म, जाति, क्षेत्रगत स्वाभाविक झुकाव और उपेक्षा से निरपेक्ष होकर व्यापक एवं सूक्ष्म अध्ययन की ओर प्रवृत्त हों। अक्सर होता यह है कि पाठक बहुप्रचारित रचनाकारों की आभा से प्रभावित होते हैं और जेनुइन लेखक इग्नोर कर दिए जाते हैं। इसलिए अज्ञेय रचना पाठ के लिए पाठक से अपनी तैयारी की अपेक्षा भी करते हैं। 'पाठक के प्रति' कविता में वह लिखते हैं, 


'मेरे मत होओ

पर अपने को स्थगित करो

जैसा कि मैं अपने सुख-दुख का नहीं हुआ

दर्द अपना मैंने खरीदा नहीं

न आनंद बेचा,

अपने को स्थगित किया

मैंने, अनुभव को दिया

साक्षी हो, धरोहर हो, प्रतिभू हो

जिया।' 


रचना पाठ के लिए पाठक कैसी तैयारी करे, इसके लिए अज्ञेय अपना ही उदाहरण देते हैं कि जैसे रचना में वह अपने निजी सुख-दुःख की अभिव्यक्ति में निरपेक्ष हैं। उनके द्वारा व्यक्त किया गया दर्द न तो आयातित है और न प्रायोजित। वह अनुभव जन्य है, परखा-भोगा हुआ है। रचनात्मक सुख या आनंद के कारोबार से भी वह विलग रहे। अपने को साधा, तपाया। अपनी अनुभूतियों का साक्षी बन कर वह पाठक के समक्ष उपस्थित हुए हैं। इसलिए पाठक को भी स्थिरचित्त हो कर, निरपेक्ष हो कर, अनुभव को इकट्ठा कर रचना या रचनाकार के प्रति अपनी राय बनानी चाहिए।


बड़ी ख्यात कविता है अज्ञेय की 'कहीं की ईंट'...खूब प्रयोग की जाती हैं इसकी पहली दो पंक्तियां। खासकर किसी कार्य या समूह की कमतरी को उजागर करने के लिए, विरोधियों पर कटाक्ष करने के लिए। संसद और विधानसभाओं में भी इसे बार-बार दोहराया जाता रहा है। हालांकि इसका अर्थ इतना सरल, सीधा नहीं है जिस तरह इसे संदर्भित किया जाता है लेकिन एक कवि के कहे के वजन के तौर पर देखा जा सकता है। अज्ञेय की इस कविता को दो पाटों के बीच खींची गई पतली रस्सी मान सकते हैं। इसके ऊपर पैर रखकर गुजरने की कलाबाजी की जाए या रस्सी को हाथ से पकड़ कर लटकते हुए आर-पार हो जाने की कोशिश की जाए, दर्जनों व्यग्र आंखों पर चढ़ना तय है। उछाल और संभाल की खूबियों वाली इस कविता की पहली दो पंक्तियां भीड़ में शामिल या नापसंद कवियों के लिए उछाला गया शिगूफा जैसा लगता है, शेष चार पंक्तियां कविकर्म को संभालने का जतन जैसा। 'जांचो तो सांची' की पुचकार से पहले 'कहो-भर तो झूठ' से संशय की कालीन बिछा दी है। अब जिसे कवि का सच जानने की फुर्सत हो वो जांचे, शोध कर अनुभव की ज़मीन तलाशने का वक़्त हो तो तलाशे, वरना तो निर्णायक पाठक/ पब्लिक है जिसकी जुबां पर चढ़ गई, 


'कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा

भानमति ने कुनबा जोड़ा'।


देश-विदेश की निरंतर यात्राओं की वजह से अज्ञेय ने साहित्य, राजनीति और विकास के सच का सीधा अनुभव किया था। कई देशों की आजादी के आंदोलनों में साहित्य की भूमिका देखी थी, फिर राज्य के नवनिर्माण में राजनीति के कसते पंजे का सीधा अनुभव किया था। 'संभावनाएं' कविता में अज्ञेय साहित्य में खींचतान के पीछे राजनीतिक घेरेबंदी को रेखांकित करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी समझ और अपना पक्ष होता है, इसमें कोई दो राय नहीं, लेकिन एक कॉमनसेंस होता है जो कुनबे को साकार करता है। कुनबा साहित्य-संस्कृति का भी है, कार्यक्षेत्र-कारोबार का भी है, राजनीति का भी है। राजनीति के हाथ में स्टेयरिंग है जो अपने वाहन में सवार कुनबों को नियंत्रित करती है। जो समूह या व्यक्ति नियंत्रित नहीं होता, राजनीति उससे अपने तरीके से निपटती है। फिर चाहे भौतिक निर्माण या बौद्धिक विकास में उसका जितना भी बड़ा योगदान हो। राजनीति तभी तक सहज दिखाई देती है, जब तक कुनबों के सदस्य आपस में तू-तू, मैं-मैं और जूतम-पैजार करते हैं। उसकी अपनी बनाई सीमा भंग होते ही राजनीति के चेहरे से लोकतांत्रिक मुखौटा उतर जाता है। काफी पठनीय और मौजू कविता है, 


'अब आप हीं सोचिए कि कितनी संभावनाएं हैं

कि मैं आप पर हँसूं और आप मुझे पागल करार दे दें

या कि आप मुझ पर हँसें और आप हीं मुझे पागल करार दे दें

या कि आपको कोई बताए

कि मुझे पागल करार दिया गया

और आप केवल हँस दें

या कि हँसी की बात जाने दीजिए

मैं गाली दूं और आप...

लेकिन बात दोहराने से क्या लाभ

आप समझ तो गए न

कि मैं कहना क्या चाहता हूं?

क्यूंकि पागल न तो आप हैं और न मैं

बात केवल करार दिये जाने की है

या हाँ कभी गिरफ्तार किये जाने की है

तो क्या किया जाए?

हाँ! हँसा तो जाए

हँसना कब-कब नसीब होता है!

पर कौन पहले हँसे

किबला आप किबला आप।' 


साहित्य और राजनीति में चलने वाली धमाचौकड़ी और उठापटक का सटीक विवेचन है इस कविता में।




साहित्य, कला, समाज का नेतृत्व करने के लिए ईमानदारी, पक्षधरता, संकल्प और दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत होती है। नहीं, तो रिजल्ट में धोखा और सिद्धांतहीनता ही सामने आती है। ऊपर से बदलाव और लोकधर्मिता की आवाज़ उठाने वालों के सत्ता के गलियारों में टहलते देखे जाने के उदाहरण भरे-पड़े हैं। यही हाल रचनात्मक दुनिया का है। शब्दों की बाजीगरी से वाहवाही लूटने वालों का असल अझेल होता है। इसकी तुलना में शांति से, चुपचाप अपना कर्तव्य करते जाने वाले वास्तव में कर्मवीर होते हैं, सच्चे साधक होते हैं। 'हीरो' कविता में अज्ञेय लिखते हैं, 


'सिर से कंधों तक ढँके हुए

वे कहते रहे

कि पीठ नहीं दिखाएंगे-

और हम उन्हें सराहते रहे।

पर जब गिरने पर

उनके नकाब उल्टे तो

उनके चेहरे नहीं थे।' 


ऐसी बानगी स्वाधीनता के पहले भी मिलती है और बाद में भी। सत्ता का सुख वह मखमली स्वप्न है जिसे हासिल करने की तमन्ना अच्छे अच्छों को पथच्युत कर देता है। नहीं कुछ तो, निरापद रहने का आश्वासन ही मिल जाता है। सिद्धांत की राजनीति, तेवर भरा साहित्य अक्सर भुरभुरा साबित होता है, आत्मोत्थान की कलाबाजी जैसा। ये वो लोग होते हैं जो चुपचाप काम करने वालों का क्रेडिट छीनते हैं। धरातल पर काम करने वालों का हक़ लूटते हैं। फूल-मालाएं उनके गले में डाली जाती हैं, जय-जयकार उनकी होती है और काम करने वाले तालियां बजाते रह जाते हैं। मूढ़ साबित होते हैं। 'जो पुल बनाएंगे' में अज्ञेय साफ लिखते हैं, 


'जो पुल बनाएंगे

वे अनिवार्यत:

पीछे रह जाएंगे।

सेनाएं हो जाएंगी पार

मारे जाएंगे रावण

जयी होंगे राम

जो निर्माता रहे

इतिहास में

बन्दर कहलाएंगे।' 


यही कल का सच था, यही आज घटित हो रहा है। जो सुधार में लगे रहेंगे, जो विकास की नींव डालेंगे, सभ्यता का मस्तूल खड़ा करेंगे, वे उसका श्रेय नहीं ले पाएंगे। राम-रावण युद्ध में निर्णायक मोड़ सिद्ध हुए सेतु समुद्रम के असल निर्माताओं को दुनिया बन्दर के रूप में जानती है। विज्ञान और कला के ऐतिहासिक अपमान के इस अप्रतिम उदाहरण को साहित्य में दर्ज कर अज्ञेय ने अपनी दृष्टिसंपन्नता सिद्ध की है।


'सोन मछली' कविता में भौतिक विकास का बड़ा सच सामने रखते हैं अज्ञेय। यह कविता 1957 में लिखी गई जापान के क्योटो शहर में। द्वितीय विश्व युद्ध में हुई बमबारी के बावजूद जापान विकसित देश था। अज्ञेय के पास कई और विकसित शहरों का अनुभव था। भौतिकता के चकाचौंध में किस तरह मनुष्यता छीजती है, दिखावे और प्रदर्शन की वस्तु बन जाती है, यह छोटी सी कविता हमें बताती है, 


'हम निहारते

रूप कांच के पीछे

हाँफ रही है, मछली।

रूप तृषा भी

(और काँच के पीछे)

हे जिजीविषा।' 


मॉडल विकास का अर्थ है सजावट और सौंदर्य का खेल। इसके नियमों और मानकों की जकड़न से आम इंसान की सांसें फूल रही हैं। अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद में ही जीवन खपा जा रहा है। इन दिनों हिन्दुस्तान भी इसी राह पर अग्रसर है।


इसके अगले ही वर्ष 1958 में अज्ञेय ने इलाहाबाद में 'जीवन छाया' कविता लिखी। प्रकृति के पास जाने का उनका चिरपरिचित आग्रह और उसकी खूबसूरती पहचानने की कोशिश के साथ, 


'पुल पर झुका खड़ा मैं देख रहा हूं

अपनी परछाहीं

सोते के निर्मल जल पर..

तल पर, भीतर,

नीचे पथरीले-रेतीले थल पर:

अरे, उसे ये पल-पल

भेद जाती हैं

कितनी उज्ज्वल

रंगारंग मछलियां।' 


अज्ञेय बार-बार प्रकृति की ओर लौटने, प्रकृति से जुड़ने का संकेत करते हैं। असल आनंद और जीवन सौंदर्य अपने शत-प्रतिशत रूप में तभी हासिल हो सकता है। जैसे-जैसे हम प्रकृति से दूर होते जाएंगे, उसे विनष्ट करने की कोशिश करेंगे, हमारी तकलीफ बढ़ती जाएगी। प्राणि के तौर पर हम कमतर होते चले जाएंगे। इस कविता के रचने जाने के समय बाकी देशों के मुकाबले हिन्दुस्तान में प्राकृतिक संसाधनों का पर्याप्त ख़जाना था। नदियां प्रवहमान थीं। उनका पानी स्वच्छ था। इतना कि उसके सतह पर अपनी परछाहीं ही नहीं, तल की हलचल, उन्मुक्त हो कर विचरण करती विविध रंग और प्रजाति की मछलियों तक को देखा जा सकता था। इन मछलियों की तुलना में कांच की इक्वेरियम में बंद सोन मछली की बेबसी समझी जा सकती है। नदी की उन्मुक्त मछली देखने वाले की परछाहीं भंग कर सकती है, लेकिन कांच में बंद मछली प्राण रक्षा ही कर ले, बहुत है। अतार्किक और प्रदर्शनकारी विकास का प्रेत प्राणी की नैसर्गिकता का सर्वनाश कर देती है। 'सोन मछली' और 'जीवन छाया' दोनों कविताओं को साथ-साथ रखने से प्रकृति से दूर और पास होने के फ़र्क़ को आसानी से समझा जा सकता है।





नगरीय या भौतिक सुख-सुविधाओं से भरी जीवन शैली भी प्रकृति से दूर होती चली जाती है। हवा-पानी है तो बिलकुल प्रदूषित, ज़मीन है तो कंक्रीट की। आसमान है तो देखने की फुर्सत नहीं। आग है तो उसे प्राप्त करने के साधन सेहत के लिए ख़तरनाक। नगरों/ शहरों में हसरतें हर तरफ दिखाई देती हैं, हरियाली नज़र नहीं आती। कार्यदायी संस्थाएं या कुछ शौकीन लोग हरियाली पैदा करने की जुगत करते हैं। अधिकाधिक भौतिक सुख पाने के लिए मनुष्य ने खुद को इतना यांत्रिक बना लिया कि प्राकृतिक हरियाली के संरक्षण का ध्यान ही नहीं रहा। अब जब क्रंक्रीट के संजाल और हर ओर बिखड़े कूड़े के जहरीले रसायन से सांसें फूल रही हैं, कृत्रिम आक्सीजन की जरूरत बढ़ गयी है तो हरियाली की चिंता होने लगी है।


उपभोग और उपयोग की थ्योरी ने मनुष्य को निरंतर अतीत का शरणार्थी बना दिया है। उसके पास पलट कर अपना अतीत देखने का समय नहीं है। आत्मावलोकन या आत्मचिंतन तक का वक्त नहीं है उसके पास। निकटता का नितांत अभाव हो गया है। आस-पास रह रहे लोगों की एक-दूसरे से दूरी बन गई है। मिल-जुल कर बैठना नसीब नहीं हो रहा। व्यवस्तता, चिंता और अन्यमनस्कता स्वभाव-सा हो गया है। ऐसे में हरि घास दिख जाए तो उस पर बैठने का मन तो करेगा ही। अज्ञेय की बहुपठित कविता 'हरी घास पर क्षण भर' इसी भाव भूमि को उद्घाटित करती है, 


'आओ बैठें

इसी ढाल की हरी घास पर।

माली-चौकीदारों का यह समय नहीं है,

और घास तो अधुनातन मानव-मन की भावना की तरह

सदा बिछी है-हरी, न्यौतती, कोई आ कर रौंदे।

आओ, बैठो

तनिक और सट कर, कि हमारे बीच स्नेह-भर का व्यवधान रहे, बस,

नहीं दरारें सभ्य-शिष्ट जीवन की।' 


पहली नज़र में व्यक्तिवादी दिखाई देने वाली यह कविता वास्तव में शहराती जीवन की विडंबना, ऊब और अकुलाहट को दर्शाती है। लोग इतने व्यस्त हैं कि एक साथ बैठने का वक्त नहीं है। इसलिए यदि हरी घास है चाहे वह व्यक्तिगत प्रयास (लोन) से हो या नगर निकाय की ओर से योजित, उसका आनंद लिया जाना चाहिए। इससे मेलजोल, निकटता बढ़ती है। खुद को खोलने, दूसरों को जानने और इस तरह मानव मूल्यों को समझने में मदद मिलती है।


पार्कों और मैदानों में जा कर भी अलग-थलग बैठने, खुद में खोए रहने की बजाय एक-दूसरे से बातचीत की जाए, अनुभव बांटा जाए तो मेलजोल तो बढ़ता ही है, समाधान के रास्ते भी खुलते हैं। आत्मीयता बढ़ती है, संवेदनाओं का विस्तार होता है। हरी घास के बहाने अज्ञेय ने सभ्यता विमर्श का जरूरी राग छेड़ा है। प्रकृति से जुड़ने से स्वभाव में सहजता आती है। सहजता की विदाई तब अवश्य हो जाती है जब हम दिनचर्या का अवलोकन करना छोड़ देते हैं। दिनचर्या हमेशा सहजता की मांग करती है। इसके बगैर घर-आंगन में, रिश्तों में बनावटीपन आ जाता है। ख्यात, प्रचारित और चलन वाली वस्तुओं के फेर में आसपास और सुलभ वस्तुओं की अनदेखी से स्वाभाविकता का क्षरण होता चला जाता है। 'कलगी बाजरे की' कविता में सहज, सुलभ जीवन के प्रति अज्ञेय के आग्रह को देखा जा सकता है।


प्रेयसी को संबोधित इस कविता के बहाने पुन: अज्ञेय शहराती जीवन के दिखावे को नकारते हैं। इसकी जगह प्राकृतिक और सहज शैली अपनाने की वकालत करते हैं। हरी घास और बाजरे की कलगी को सृष्टि के विस्तार का, ऐश्वर्य का, औदार्य का सच्चा प्यारा प्रतीक बताते हैं। अपनत्व और संवेदनाओं के प्रकटीकरण के पुराने, खर्चीले और अस्वाभाविक प्रतीकों को छोड़ कर प्राकृतिक और नवीन प्रतीकों को सामने रखते हैं। शब्दों की जादूगरी की जगह समर्पण को तरजीह देते हैं। कमाल की बात है कि आयुर्वेद और प्राकृतिक पद्धति भी हरी घास पर चलने और मोटे अनाज का सेवन करने की सलाह देता है। ऐसे में अज्ञेय की कविता बहुत सामयिक लगती है। हरी घास शहर में हो तो मनुष्य की सेहत के लिए लाभकारी, गांव में हो तो पशुधन के लिए उपयोगी। बाजरा या उस जैसे मोटे अनाज की खेती हो तो कम लागत में अधिक उपज से किसानों के चेहरे पर मुस्कान की वजह बनती है। सेहत के लिए उपयोगी शहर के लिए भी, गांव के लिए भी।


बाजरे की कलगी और हरी घास अपनी स्वाभाविक खूबसूरती से लुभाती हैं। इसी तरह प्रेयसी की खूबसूरती उसमें ही निहित है। उसकी अभिव्यक्ति के लिए ऐसे अतिरिक्त उपमान देने की जरूरत नहीं है जो अपेक्षाकृत अधिक सुंदर समझ में आए। जैसे प्रेयसी की तुलना लालिमा भरी शाम के आसमान की अकेली तारिका से करना, उसे गुलाब, जूही या चंपा का फूल कहना। यह शैली ही अस्वाभाविक है। अज्ञेय कहते हैं, 'ये उपमान मैले हो गए हैं। देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।' इसकी जगह यदि लहलहाती हरी घास से तुलना करें या बाजरे की छरहरी कलगी कहें तो क्या बुरा हो। महत्त्वपूर्ण भाव है, वह बोध है जिसके वशीभूत उपमान दिया गया हो। हरी घास, बाजरे की कलगी जैसे उपमान नए हैं, स्वाभाविक हैं, सहज हैं।


लगभग इसी भाव को अज्ञेय ने 'हमारा देश' कविता में व्यक्त किया है। रांची जाने के लिए बस से यात्रा के दौरान लिखी गई इस कविता में अज्ञेय ने भारत के असली स्वरूप को चित्रित किया है, स्वीकार किया है, 


'इन्हीं तृण-फूस छप्पर से

ढंके ढुलमुल गँवारू

झोपड़ों में ही हमारा देश बसता है

इन्हीं के ढोल-मादल-बाँसुरी के

उभरते सुर में

हमारी साधना का रस बरसता है।' 


ग्रामीण और देसी संस्कृति भले अभावों में दिखाई देती है लेकिन जीवन का सच्चा आनंद वहीं प्राप्त होता है। मानवीय मूल्यों का वास वहीं होता है। निश्छल हंसी वहीं सुनाई देती है। वहीं के गीतों और सुरों में सच्ची साधना का दर्शन होता है। फिर कवि चिंतित हो उठता है। उसे याद आता है शहरों का लोलुप कायदा जो भारत की सुंदर ग्रामीण संस्कृति को नेस्तनाबूत करने पर तुला है। उसके संरक्षण और सुधार के नाम पर उसकी स्वाभाविकता खत्म कर रहा है। वहां के माहौल को भी जहरीला बना रहा है। असभ्य कहकर उसकी हंसी उड़ाता है। इसी कविता की अगली पंक्तियों में अज्ञेय दर्ज करते हैं, 


'इन्हीं के मर्म को अनजान

शहरों की ढंकी लोलुप

विषैली वासना का साँप डँसता है

इन्हीं में लहराती अल्हड़

अयानी संस्कृति की दुर्दशा पर

सभ्यता का भूत हंसता है।'





नगरों-महानगरों में रहते हुए अज्ञेय को शहरी संस्कृति की निस्सारता, काइयांपन और अमानवीयता का गहरा बोध होता है। वह इसे सृष्टि के सहज विकास के भटकाव की तरह देखते हैं। अपने लिए कुंआ खोदने के साथ ही यह ग्रामीण संस्कृति के लिए खाई को और चौड़ी कर रहा है। शहरी संस्कृति के जहरीले व्यवहार से वह इतना क्षुब्ध होते हैं कि इसकी तुलना साँप के दंश से की है। बल्कि एक कदम आगे जा कर सोचते हैं कि जब साँप कभी शहर नहीं गया तो उसे डँसना कैसे आया। शहरी मानसिकता के लिए इससे खराब उपमान और क्या हो सकता है। कविता देखें, 


'साँप!

तुम सभ्य तो हुए नहीं

नगर में बसना

भी तुम्हें नहीं आया।

एक बात पूछूँ..(उत्तर दोगे?)

तब कैसे सीखा डँसना

विष कहाँ से पाया?'


सृष्टि में मनुष्य बेहतर प्राणि के तौर पर विकसित हुआ, लेकिन फिर उसे इस बात का गुमान भी हो गया। शक्ति संतुलन के लिए वह अन्य प्राणियों से ही नहीं, प्रकृति से भी खेलने लगा। वह अधिक से अधिक दोहन की राह पर चल पड़ा। जो दुनिया खूबसूरत संवेदनाओं का बसेरा हो सकता था... लालच, उपद्रव और अराजक मानसिकता से निरंतर तनावपूर्ण होता चला गया। इससे सृष्टि का सौंदर्य प्रभावित होने लगा। पहाड़, समुद्र, नदी, जंगल, मैदान सब प्रभावित हुए। वर्चस्व और एकाधिकार की घेरेबंदी ने सभ्यता को अनुचित और विध्वंसक मोड़ पर ला दिया।इस हालात से व्यथित अज्ञेय ने अपनी कविता 'बाहर भीतर' में मनुष्य के पतन को स्वीकार किया है, 


'बाहर सब ओर तुम्हारी

स्वच्छ उजली मुक्त सुषमा फैली है

भीतर पर मेरी यह चित्त-गुहा

कितनी मैली-कुचैली है।

स्रष्टा मेरे, तुम्हारे हाथ में तुला है, और

ध्यान में मैं हूं, मेरा भविष्य है,

जब कि मेरे हाथ में भी, ध्यान में भी, थैली है!'  


सृष्टि की चाह और मनुष्य की राह के भावार्थ से अलग इस कविता के आलोक में लोकतंत्र के परिदृश्य पर विचार करें तो बड़ा सटीक अर्थ निकलता है। राजकाज चलाने के लिए लोकतंत्र अब तक की सबसे परिपक्व और तार्किक राजनीतिक प्रक्रिया है। दुनिया का लगभग हर देश, चाहे उसका मिज़ाज जैसा हो, खुद के लोकतांत्रित होने का दावा करता है। लेकिन उन मूल्यों का क्या हश्र हो रहा है, किसी से छुपा नहीं है। लोकतंत्र के सुचारु संचालन के लिए संविधान सर्वोच्च नियमावली है जिसके निर्देशों-नीतियों पर विधायी, कार्यदायी और न्यायिक संस्थाएं काम करती हैं। संविधान में बड़ी स्पष्टता से, स्वच्छ भाव से समस्त नागरिकों के उत्थान के नियम दर्ज हैं। लेकिन हो क्या रहा है? महज सामान्य नागरिक ही लोभ-लाभ की लक्ष्मण रेखा नहीं लांघ रहे, विधायी, कार्यदायी और न्यायिक संस्थाएं आकंठ भ्रष्टाचार और अनैतिकता के दलदल में धंसी हुई हैं। इग्नोरेंस हावी है। भविष्य संवारने की संविधान की मंशा पर वैयक्तिक-सामूहिक कुत्साओं ने पलीता लगा दिया है। खुद्दारी खत्म हो गई है, मुफ्तखोरी चरम पर है। अहम सवाल है कि ऐसे में एक व्यवस्थित और सुचारु समाज यथार्थ में कैसे तब्दील होगा?


देश में जब ऐसे हालात हों कि कर्तव्य निबाहने वाले अपने धतकर्म से मनुष्य कम रह गए हों और अधिकार की चाह रखने वाले भी शालीनता त्याग चुके हों तो व्यवस्था को अराजक होने से कौन रोक सकता है। यह शक्ति का उत्पात ही कहा जाएगा। इसी शीर्षक से लिखी अपनी कविता में अज्ञेय ने शक्ति के लिए अनुशासन पर जोर दिया है लेकिन तल्खी के साथ, 


'क्रांति है आवर्त, होगी भूल उसको मानना धारा :

विप्लव निज में नहीं उद्दिष्ट हो सकता हमारा

जो नहीं उपयोज्य, वह गति शक्ति का उत्पात है

स्वर्ग की हो- मांगती भागीरथी भी है किनारा।' 


क्रांति से व्यवस्था परिवर्तित की जा सकती है लेकिन उसे व्यवस्था में बदला नहीं जा सकता। व्यवस्था संचालन के लिए सुदीर्घ तैयारी और अनुशासित योजना की आवश्यकता होती है। अनियोजित प्रयासों से अक्सर हानिकारक परिणाम निकलते हैं जिसका खामियाजा अंतत: आमजन भुगतता है। अज्ञेय इसलिए चोट करने से पहले वाजिब जोश पैदा करने की बात करते हैं।


क्रांति हो, व्यवस्था परिवर्तन हो या समाज निर्माण का अभियान, कार्य शुरू करने से पहले बिन्दुवार एवं नियोजित तैयारी आवश्यक है। कविता 'हथौड़ा अभी रहने दो' में इस भाव को अज्ञेय ने तरतीब से व्यक्त किया है। उचित संकल्प हो, भाव निर्मल हो, अपेक्षित जोश हो तो ही कदम आगे बढ़ाने चाहिए, अन्यथा इंतजार करना चाहिए। खुद को साधना चाहिए, लक्ष्य संधान से पहले हर तरह के किन्तु-परन्तु का निवारण कर लेना चाहिए। अज्ञेय पूछते हैं, 


'और फिर वह ज्वाला कहां जली है

जिस में लोहा तपाया-गलाया जाएगा-

जिस में मैल जलाया जाएगा?

आग, आग, सबसे पहले आग'। 


बड़े मार्के की बात कहते हैं अज्ञेय कि जिस विचार से प्रहार किया जाएगा, पहले उसे दुरुस्त करें। ढुलमुल विचार से न प्रतिद्वंद्वी को जवाब दिया जा सकता है, न अपनी बात का मंडन किया जा सकता है। किसी विचार या व्यवस्था के खंडन से पहले प्रतिविचार या प्रतिव्यवस्था के मंडन की पूर्व तैयारी कर लेना जरूरी है।


अपने विस्तृत अनुभव और विशद चिंतन से अज्ञेय की रचनात्मक यात्रा निरंतर गतिमान रही। अपने विपुल लेखन से उन्होंने हर जरूरी विषय पर ठोस मंशा जाहिर की। अपनी दृष्टिसंपन्नता से वैयक्तिक उद्गारों को भी व्यापक संदर्भ से जोड़ दिया। मनुष्य के उत्थान की आशा, आम जनता की पीड़ा को वाणी दी। सभ्यता विमर्श के जरिए उचित-अनुचित को कई तरह से रेखांकित किया। साहित्य, समाज, राजनीति में व्याप्त ऊंच-नीच की मीमांसा की। मनुष्य के विचलन को रेखांकित करने के साथ मनुष्यता के बचाव की चिंता की। पुराने अहंकार पर चोट की तो नए अंकुर का स्वागत भी किया। संपन्नता की दरारों को बेपर्द किया तो साधारण के सौंदर्य का बखान भी किया। एक नेतृत्वकर्ता की तरह विगत की समस्त सीमाओं और आगत की सारी संभावनाओं के रेशे उधेड़ दिए। आख़िर में उनकी 'समाधि लेख' कविता को उद्धृत करना चाहूंगा जो राही और मंजिल का सच बयां करती है, 


'मैं बहुत ऊपर उठा था, पर गिरा।

नीचे अन्धकार है बहुत गहरा

पर बन्धु! बढ़ चुके तो बढ़ जाओ, रुको मत:

मेरे पास या लोक में ही-कोई अधिक नहीं ठहरा।'


कैवल्य भाव से निर्मित इस कविता में उत्थान और पतन का ज्ञान होने के बावजूद आगे बढ़ रहे राही को न रोकने, बल्कि उत्साहित करने की मंशा निहित है ताकि रास्ता और मंजिल का अनुभव वह खुद हासिल कर सके। लेकिन इतना जरूर आगाह करते हैं कि चाहे कोई कितनी भी ऊंचाई हासिल कर ले, वह स्थायी नहीं होता है। समय के अंतराल पर हर सफलता छीजती है, हर व्यवस्था बदलती है। युग कोई हो, शिखर छूने के बाद पतन के अन्धकार का सामना करना ही पड़ता है, चोटी पर पहुंचने वाला फिर कालपुरुष ही क्यों न हो। गर्त और शिखर के बीच की स्थितियां ज़्यादा निरापद और स्थायी होती हैं, पैर स्थिर कर वहीं जमना एवं रमना अधिक श्रेयष्कर है।


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सत्यकेतु



सम्पर्क 


ईमेल : iamsatyaketu@gmail.com


मोबाइल - 9532617710

टिप्पणियाँ

  1. अज्ञेय पर लिखना स्वयं में एक चुनौती पूर्ण कार्य है , हम नए लेखकों में अज्ञेय सर्वाधिक प्रिय लेखक हैं . अपने इस आलेख में सत्यकेतु जी ने बहुत से पहलू छुए हैं , अज्ञेय को कितना भी लिखा जाये अधूरा ही रहेगा , अज्ञेय पर लिखा यह आलेख वास्तव में पाठकों के लिए पठन के नए द्वार खोलता है . अज्ञेय की बड़ी सारगर्भित और प्रसिद्ध कवितायें इस आलेख में चर्चा के दौरान आई हैं . मेरा एक ही बिंदु पर कुछ कहने की इच्छा है वह यह कि अज्ञेय ने छायावादी युग से लिखना शुरू किया किंतु वे छायावाद से आगे बढ़ कर नई कविता और प्रयोगवादी कविता के लिए जाने गए हैं . यहाँ तक कि उन्हें निराला की परम्परा को आगे बढ़ाने का काम किया साहित्यिक हलकों में ऐसा कहा जाता है . निराला ने तुकबंदी तोड़ी थी और अज्ञेय भी अतुकांत लेखन करते हुए आगे बढ़े , यह हिंदी साहित्य की बहुत बड़ी घटना मानी जाती है . ऐसे में अज्ञेय के लेखन को तनिक भी छायावादी कवि के रूप में देखने पर उनका आने वाला काव्य मूल भाव से दूर चला जाता है क्योंकि वह छन्द बद्धता को तोड़ते हैं जबकि छायावाद छंद बद्ध काव्य है . यह जो मैं समझ सका वह लिखा है . मुरली मनोहर श्रीवास्तव

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  2. मुरली जी, अज्ञेय की 'भग्नदूत' और 'चिंता' की कविताओं से गुजरें, जिन्हें उन्होंने दिल्ली, मुल्तान जेल में रहते हुए 1931 से 1935 के दरम्यान लिखी थी. सारी आशंकाओं का शमन हो जाएगा.

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