होली पर कविताएं

 




होली पर कविताएं 


प्राचीन भारतीय सामाजिक एवम आर्थिक व्यवस्था मूलतः कृषि पर आधारित थी। इसीलिए भारतीय परिदृश्य में जो भी तीज त्यौहार दिखाई पडते हैं उनके मूल में कृषि से जुड़ाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। होली भी ऐसा ही त्यौहार है। इस समय खेत में गेहूं, सरसों, अलसी, मटर जैसी फसलें पक कर तैयार हो जाती हैं। स्वाभाविक रूप से किसान अन्न को घर में लाने के लिए बेसब्र रहता है। एक ऐसे में होली का त्यौहार महत्वपूर्ण बन जाता है। इसके बहाने लोग अपने घरों की साफ सफाई करते हैं और घर आने वाले अन्न के स्वागत की तैयारी करते हैं। होली केवल रंगों का त्यौहार नहीं है बल्कि यह उमंगों का भी त्यौहार है। होली पर कई कवियों ने महत्वपूर्ण कविताएं लिखी हैं। पहली बार की तरफ से अपने रचनाकारों और पाठकों को होली की रंग बिरंगी बधाई देते हुए आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं होली पर हिन्दी और उर्दू के कुछ महत्वपूर्ण कवियों की कविताएं।



अमीर खुसरो 


अमीर खुसरो


दैया री मोहे भिजोया री 


दैया री मोहे भिजोया री 

शाह निजाम के रंग में 

कपरे रंगने से कुछ न होंवत है 

या रंग में मैंने तन को डुबोया री 

पिया रंग मैंने तन को डुबोया 

जाहि के रंग से शोख रंग सनगी 

खूब ही मल-मल के धोया री 

पीर निजाम के रंग में भिजोया री।



रसखान



रसखान


आई खेलि होरी ब्रजगोरी वा किसोरी संग


आई खेलि होरी ब्रजगोरी वा किसोरी संग।

              अंग अंग अंगनि अनंग सरकाइ गौ।

कुंकुम की मार वा पै रंगति उद्दार उड़े,

           बुक्‍का औ गुलाल लाल लाल बरसाइगौ।

छौड़े पिचकारिन वपारिन बिगोई छौड़ै,

            तोड़ै हिय-हार धार रंग तरसाइ गौ।

रसिक सलोनो रिझवार रसखानि आजु,

            फागुन मैं औगुन अनेक दरसाइ गौ।।




नजीर अकबराबादी 


नजीर अकबराबादी


मियां तू हमसे न रख कुछ गुबार होली में


मियां तू हमसे न रख कुछ गुबार होली में 

कि रूठे मिलते हैं आपस में यार होली में 

मची है रंग की कैसी बहार होली में 

हुआ है जोरे चमन आश्कार होली में 

अजब यह हिंद की देखी बहार होली में


अब इस महीने में पहुंची है या तलक यह चाल 

फलक का जामा पहन सुखरी शफक से लाल 

बना के चांद और सूरज के आस्मा पर थाल 

फरिश्ते खेले हैं होली बना अबीरो गुलाल 

तो आदमी का भला क्या शुमार होली में


सुना के होली जो जहरा बजाती है तंबूर 

तो उसके राग से बारह बरूज हैं मामूर 

छओं सितारों के ऊपर पड़ा है रंग का नूर 

सभों के सर पे हरदम पुकारती है हुर 

कि रंग से कोई मत कीजो आर होली में


जो घिर के अब कभी इस मंजे में आता है 

तो बादलों में वह क्या-क्या ही रंग लाता है 

खुशी से राद भी ढोलक की गत लगाता है। 

हवा की होलिया गा-गा के क्या नचाता है 

तमाम रंग से पुर है बहार होली में


चमन में देखो तो दिन-रात होली रहती है 

शराब नाव की गुलशन में नहर बहती है 

नसीम प्यार से गुंचे का हाथ गहती है 

और बागवान से बुलबुल खड़ी यह कहती है 

न छेड़ मुझको तू ऐ बदिशआर होली में।


आश्कार=प्रकट। शफ़क=लाली। बरुज=बारिश। मामूर=तय। आर=दुश्मनी। अब्र=बादल। रांद=मुक्त वाद्य। नाब=नम, गीला.। बदशिआर =मूर्ख।



नज़ीर अकबराबादी


हाँ, इधर को भी ऐ गुंचादहन पिचकारी 


हाँ, इधर को भी ऐ गुंचादहन पिचकारी 

देखें कैसी है तेरी रंगबिरंग पिचकारी


तेरी पिचकारी की तक़दीद में ऐ गुल हर सुबह 

साथ ले निकले है सूरज की किरण पिचकारी


जिस पे हो रंग फिशाँ उसको बना देती है 

सर से ले पाँव तलक रश्के चमन पिचकारी


बात कुछ बस की नहीं वर्ना तेरे हाथों में 

अभी आ बैठें यहीं बनकर हम तंग पिचकारी


हो न हो दिल ही किसी आशिके शैदा का 'नज़ीर' 

पहुँचा है हाथ में उसके बन कर पिचकारी



भारतेंदु हरिश्चंद्र 


गले मुझ को लगा लो ऐ मिरे दिलदार होली में


भारतेन्दु हरिश्चंद्र 


गले मुझ को लगा लो ऐ मिरे दिलदार होली में

बुझे दिल की लगी भी तो ऐ मेरे यार होली में


नहीं ये है गुलाल-ए-सुर्ख़ उड़ता हर जगह प्यारे

ये आशिक़ की है उमड़ी आह-ए-आतिश-बार होली में


गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझ को भी जमाने दो

मनाने दो मुझे भी जान-ए-मन त्यौहार होली में


'रसा' गर जाम-ए-मय ग़ैरों को देते हो तो मुझ को भी

नशीली आँख दिखला कर करो सरशार होली में



सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 


केशर की, कलि की पिचकारी


सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'


केशर की, कलि की पिचकारी

पात-पात की गात संवारी 

राग-पराग-कपोल किए हैं 

लाल-गुलाल अमोल लिए हैं 

तरु-तरु के तन खोल दिए हैं 

आरती जोत-उदोत उतारी 

गंध-पवन की धूप धवारी 

गाए खग-कुल-कठ गीत शत 

संग मृदंग तरंग-तीर-हत 

भजन-मनोरंजन-रत अविरत 

राग-राग को फलित किया री 

विकल-अंग कल गगन विहारी।



जयशंकर प्रसाद 


जयशंकर प्रसाद


होली की रात


बरसते हों तारों के फूल 

छिपे तुम नील पटी में कौन 

उड़ रही है सौरभ की धूल 

कोकिला कैसे रहती मौन


चांदनी धुली हुई है आज 

बिछलते है तितली के पंख 

सम्हल कर, मिल कर बजते साज 

मधुर उठती हैं तान असंख


तरल हीरक लहराता शांत 

सरल आशा-सा पूरित ताल 

सिताबी छिड़क रहा विधु कांत 

बिछा है सेज कमलिनी जाल


पिये, गाते मनमाने गीत 

टोलियों मधुपों की अविराम 

चली आती, कर रहीं अभीत 

कुमुद पर बरजोरी विश्राम


उड़ा दो मत गुलाल-सी हाय 

अरे अभिलाषाओं की धूल 

और ही रंग नहीं लग लाय 

मधुर मंजरियां जावें झूल


विश्व में ऐसा शीतल खेल 

हृदय में जलन रहे, क्या हात 

स्नेह से जलती ज्वाला झेल 

बना ली हां, होली की रात।



हरिवंश राय बच्चन 



खेल चुके हम फाग समय से 


हरिवंशराय बच्चन


खेल चुके हम फाग समय से 

फैलाकर निःसीम भुजाएं 

अंक भरीं हमने विपदाएं 

होली ही हम रहे मनाते 

प्रतिदिन अपने यौवन वय से 

खेल चुके हम फाग समय से


मन दे दाग अमिट बतलाते 

हम थे कैसा रंग बहाते 

मलते थे रोली मस्तक पर 

क्षार उठा कर दग्ध हृदय से 

खेल चुके हम फाग समय से


रंग छुड़ाना, चंग बजाना 

रोली मलना, होली गाना 

आज हमें यह सब लगते हैं केवल 

बच्चों के अभिनय से 

खेल चुके हम फाग समय से!



फणीश्वर नाथ रेणु 


फणीश्वर नाथ रेणु


साजन! होली आई है!


सुख से हंसना

जी भर गाना

मस्ती से मन को बहलाना

पर्व हो गया आज-

साजन! होली आई है!

हंसाने हमको आई है!

साजन! होली आई है!

इसी बहाने

क्षण भर गा लें

दुखमय जीवन को बहला लें

ले मस्ती की आग-

साजन! होली आई है!

जलाने जग को आई है!

साजन! होली आई है!

रंग उड़ाती

मधु बरसाती

कण-कण में यौवन बिखराती,

ऋतु वसंत का राज-

ले कर होली आई है!

जिलाने हमको आई है!

साजन! होली आई है!

खूनी और बर्बर

लड़कर-मरकर-

मधकर नर-शोणित का सागर

पा न सका है आज-

सुधा वह हमने पाई है!

साजन! होली आई है!

साजन! होली आई है!

यौवन की जय!

जीवन की लय!

गूंज रहा है मोहक मधुमय

उड़ते रंग-गुलाल

मस्ती जग में छाई है

साजन! होली आई है!






केदार नाथ अग्रवाल


फूलों ने होली फूलों से खेली


लाल गुलाबी पीत-परागी

रंगों की रँगरेली पेली


काम्य कपोली कुंज किलोली

अंगों की अठखेली ठेली


मत्त मतंगी मोद मृदंगी

प्राकृत कंठ कुलेली रेली



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