कुमार मंगलम का आलेख मैं अपनी अनास्था में अधिक सहिष्णु हूँ।

 



एक कवि में उसका समय शिद्दत से समाहित होता है। लेकिन कई अर्थों में यह समय एक नहीं, बल्कि अनेक होता है। कुंवर नारायण ऐसे ही कवि रहे हैं जिनमें कई समय एक साथ दिख जाते हैं। जहां एक तरफ वे अपने समकाल को रेखांकित करते हैं वहीं वे मिथकों को पुनर्जीवित करने का काम भी बखूबी करते हैं। हालांकि इन सबके मूल में मनुष्यता है। बीते 19 सितंबर 2022 को कुंवर जी का जन्म दिन था। युवा कवि कुमार मंगलम ने कुंवर जी पर केन्द्रित एक आलेख लिखा है। कुंवर जी की स्मृति को नमन करते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं कुमार मंगलम का आलेख 'मैं अपनी अनास्था में अधिक सहिष्णु हूँ'।



मैं अपनी अनास्था में अधिक सहिष्णु हूँ।



कुमार मंगलम



स्वप्नान्नं जागरितांत चोभौ येनानुपश्यति। महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति।। (बृहदारण्यक उपनिषद्)


भारतीय दर्शन, साहित्य, कला एवं विचार में “सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिव अजायते पुनः” का भाव एक कलात्मक दृष्टिकोण के रूप में ही नहीं वरन एक बुनियादी जीवन-दर्शन एवं विवेक के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। जो सृजन भी है सृजनकर्त्ता भी, स्वप्न भी और स्वप्न द्रष्टा भी। भारतीय चिन्तन परम्परा में वस्तुवादी यथार्थ-बोध सब कुछ रीत जाने का नहीं बल्कि समय के साथ एकाकार भाव से मृत्यु और त्रासदी के भाव की स्वीकार्यता है जहाँ जीवन केवल देह-वस्तु है। आत्मा अजर-अमर है। यानी जीवन का, अमरता का मूल तत्व सुरक्षित है। जिससे किसी भी जीवन का मूल स्वभाव निर्धारित होता है। मृत्यु का यह अस्वीकार और अमरता की यह स्वीकार्यता वस्तु एवं जीवन जगत से उदात्त सम्बन्ध का प्रबल घोषणा-पत्र है। कालातीत और काल-सापेक्ष के बीच का संतुलन जीवन-दृष्टि से उत्पन्न होता है, जो आत्मा के उन्नयन के बीजों में संरक्षित है। जो आदमी के अंदर है बाहर नहीं। साहित्य भी इससे परे नहीं। भरत मुनि के रस-सिद्धांत से ले कर आचार्य रामचंद्र शुक्ल के चिंतामणि के निबंधों तक भाव और मनोविकारों का विस्तृत विश्लेषण और वर्गीकरण है।   



समकालीन हिंदी कविता परिदृश्य में भारतीयता के प्रसंग को यथार्थ एवं समकालीन सवालों की तीक्ष्णता के ज़मीन पर कुँवर नारायण ने विशेष अर्थ संकेतों के साथ अपनी कविताओं में दर्ज किया है। कुँवर नारायण की रचनाधर्मिता के मूल में जीवन विवेक के साथ-साथ समन्वय और समावेश की विराट चेतना मनुष्य के जिजीविषा के खराद पर निर्मित होता है। जहाँ संघर्ष के साथ साथ सुलहें भी हैं। मनुष्यता का एक संयत स्वर निस्पृह बौद्धिकता के भीतरी यात्रा के साथ करुणा का जीवद्रव्य भी इन रचनाओं में मौजूद है। कुँवर नारायण के तीनों खंडकाव्य ‘आत्मजयी’, ‘वाजश्रवा के बहाने और ‘कुमारजीव को देखें तो आप पायेंगे कि ‘आत्मजयी’ और ‘वाजश्रवा के बहाने’ के वे खुद ही अपराजेय नचिकेता और पश्चताप करता हुआ सुलह समझौते वाला पिता वाजश्रवा, और कुमारजीव का तटस्थ शिक्षक व पिता कुमारायण और रचनाकार के रूप में सम्वेदनशील और दुःख का अनंत भोगता रचनाकार कुमारजीव दोनों हैं। इन दो इकाईयों में कुँवर नारायण की सर्वाधिक मौलिक निर्मित पिता-पुत्र द्वंद्व का रचाव है। दरअसल यह वह द्वंद्व है, जहाँ कुँवर नारायण दो समयों को, दो पीढ़ियों को, दो युगों को, दो विचारों को, दो आधुनिकताओं को सम्बोधित कर रहे होते हैं। इन रचनाओं से गुजरते हुए आपके मानस को पहले से संबोधित कर रही मिथकों अथवा पौराणिक संदर्भों के सघन अरण्य के अन्तस्तल में विचार और आधुनिकता की पक्षधर वे चिन्ताएं मिलेंगी जो मनुष्यता के कठिन और अनुत्तरित प्रश्नाकुलता से पैदा हुई हैं। यहाँ एक सुगठित और अकाट्य जीवन-विवेक की तलाश समझौते पर नहीं संवाद की आत्मीयता पर घटित होता है। कुँवर नारायण ‘वाजश्रवा के बहाने’ की भूमिका में लिखते हैं— “जीवन में संघर्ष भी हैं, पर संघर्ष-ही-संघर्ष नहीं हैं... उसमें मार्मिक समझौते और सुंदर सुलहें भी हैं। इस विवेक को प्रमुख रख कर भी जीवन को सोचा और चित्रित किया जा सकता है। संघर्ष और हिंसा अतिवाद में है न कि विभिन्नताओं में।”



‘आत्मजयी, ‘वाजश्रवा के बहाने’ और कुमारजीव की रचनात्मक बुनावट को लक्ष्य करें तो जहाँ ‘आत्मजयी’ जीवन को मृत्युमुखी देखने का, ‘वाजश्रवा के बहाने’ जीवन की ओर से मृत्यु को ओर देखने का यानी जीवनमुखी तो ‘कुमारजीव’ में जीवन को जीवन-संघर्षों के ‘उदात्त’ में देखने का उपक्रम है, किन्तु मनुष्य की सम्पूर्ण साहसिकता के आवरण के साथ। यह साहस नैतिक भी है और आत्मिक भी। याद करें इनकी बहुचर्चित कविता


“कोई दुख

मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं

वही हारा जो लड़ा नहीं”


किन्तु यह लड़ाई आपसी संघर्षों की लड़ाई नहीं है। यह दो व्यक्तियों का अपने अधिकारों का द्वंद्व नहीं है। जैसा कि उनकी कविता ‘सम्मेदीन की लड़ाई’ में है—



“किसी ने कहा

‘लड़ो। जिन्दगी हक़ की लड़ाई है।’

हथियार उठाया तो देखा

मेरे ख़िलाफ़ पहला आदमी मेरा भाई है।”



कुँवर नारायण के यहाँ लड़ाई अदम्य साहस एवं औपनिषदिक साहस की लड़ाई है। जहाँ आत्मिक-विवेक जीवन-विवेक की तर्कों का उत्खनन करता है। एक बौद्धिक प्रश्नाकूलता स्व की तलाश कई समयों में करता है। यह मनुष्य की उस जैविकता को संबोधित है जिसके केंद्र में मनुष्य है और उसकी सर्वोच्च इच्छाएं मनुष्यता है। “जीवन का अपना सम्मोहन होता है जो मृत्यु के संत्रास के बावजूद हमें जीने की शक्ति देता है।... जीवन के इसी प्रबल आकर्षण के स्पर्श की चेष्टा है। इस जिजीविषा के विभिन्न आयाम चाहे भौतिक हों या आत्मिक, चाहे दार्शनिक हों या भावनात्मक, तत्वतः वे हैं जैविक ही।”





आत्मा के साहस की यह सनातन लय कुँवर नारायण की कृतियों का टेक है। ‘मानवता का उदात्त’, ‘आत्म की नैतिकता’, ‘संवाद की प्रश्नाकूलता और ‘संघर्ष की साहसिकता’ ये वे तंतु हैं  जिनसे उनकी रचनाओं का ताना-बाना निर्मित होता है। भाषा, शिल्प और विचार में मनुष्य की निजता का अतिक्रमण किए बगैर सामाजिकता की स्थापना और अशिव के सभी आयामों का निषेध कविता की महत्ता को स्थापित करती है।



“कुछ इस तरह भी पढ़ी जा सकती है

एक जीवन दृष्टि

कि उसमें विनम्र अभिलाषाएँ हों

बर्बर महत्वाकांक्षाएँ नहीं

...ईर्ष्या द्वेष के बदरंग हादसे नहीं

निकट संबंधों के माध्यम से

बोलता हो पास-पड़ोस

एक सुभाषित, एक श्लोक की तरह

सुगठित और अकाट्य हो

जीवन-विवेक।”



बीते शताब्दी और इस शताब्दी के बीस वर्ष बीतने के बाद हम देखते हैं कि हमारे विचारों, जीवन और मान्यताओं पर विज्ञान हावी होता चला गया है। आधुनिकता से ले कर उत्तर सत्य, तकनीक, विकास, प्रगति, संघर्ष, बहिर्मुखता यानी ओब्जेक्टिविटी इत्यादि शब्द हमारे आत्मिक उन्नयन का हमारे भौतिकतातिरेक का स्थानापन्न बने हुए हैं। आज बाज़ार और पूँजी हमारे नियंता और नियंत्रक बन बैठे हैं। हम उसके प्रोडक्ट हो गए हैं और बहुत हद तक उनसे संचालित भी हो रहे हैं। जानकारियों के बाहुल्य ने हमारे सोचने के ढंग में एक व्यवस्था तो दी है। हम तार्किक भी हुए हैं। किन्तु इस विकास यात्रा में हमने बहुत कुछ खोया भी है। मनुष्य अपने विकास क्रम के अतिरेक पर चला गया है और इस युग को मनुष्य के प्रभाव बाहुल्य में एंथ्रोप्सीन भी कहा जा रहा है। जरा ठहर कर सोचने पर पता चलता है कि हमने अपने जीवन को यांत्रिक बना डाला है। जीवन-विवेक की सवालों की जगह हमारे जीवन पर ही सवाल खड़े होने लगे हैं। जिस वैज्ञानिक दृष्टिकोण की हम बात करते हैं वह तथ्यपरक और वस्तुनिष्ठ है। हमारी कोमलतम भावनाएं, प्रेम, आस्था, अनुभूति इत्यादि ‘वस्तु’ में तब्दील हुई हैं। मनुष्यता की कोमलतम रागात्मक भाव तटस्थ हुआ है, जिसे कविता संरक्षित करती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपने निबंध ‘कविता क्या है?’ में कविता से सम्बंधित कुछ परिभाषाएँ देते हैं। “कविता से मनुष्य-भाव की रक्षा होती है।”, “कविता वह साधन है जिसके द्वारा शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के रागात्मक सम्बन्ध की रक्षा और निर्वाह होता है।” और “सृष्टि के नाना रूपों के साथ मनुष्य की भीतरी रागात्मिका प्रकृति का समांजस्य ही कविता का लक्ष्य है। वह जिस प्रकार प्रेम, क्रोध, करुणा, घृणा आदि मनोवेगों या भावों पर सान चढ़ा कर उन्हें तीक्ष्ण करती है उसी प्रकार जगत के नाना रूपों और व्यापारों के साथ उनका उचित सम्बन्ध स्थापित करने का उद्योग करती है।” अर्थात् जिसे हम उन्नति समझ रहे हैं वह हमारी आत्मिक उन्नति की कीमत पर हुआ है। इससे कविता तो क्या मनुष्यता पर भी खतरे आसन्न है। कुँवर नारायण अपनी कविताओं में इस भौतिकतावादी उन्नति का प्रत्याख्यान रचते हैं और आत्मिक उन्नयन के पैरोकार बनते हैं।



“किसी महात्मा ने पूछा था             

एक बार

किसी ने—

“कितना समकालीन है तुम्हारा सत्य?

    कितने आधुनिक हैं तुम्हारे हथियार?”

कितना तर्कसंगत है तुम्हारा सन्देश?


क्या तुम्हारे सिपाही

लड़ सकते हैं

एक महायुद्ध?”

कोई उत्तर न दे कर

महात्मा ने पूछा था उससे—

        “कितना विकसित है तुम्हारा जीवन-विवेक?

कितना आधुनिक है तुम्हारा युद्ध?

कितने प्रबुद्ध हैं तुम्हारे सैनिक?


क्या वे लड़ सकते हैं

स्वयं से

एक आत्मिक न्याय-युद्ध?”


हमने अपनी इस विकास यात्रा में यथार्थ की विकृतियों का ऐसा रहस्यलोक निर्मित किया है जो एक किस्म का अति-यथार्थ है। जिन्होंने जीवन-विवेक के लिए एक अनुशासन और नैतिकता की माँग की वह या तो उपेक्षित है अथवा उसे मार डाला गया। गांधी की वैचारिक यात्रा में अहिंसा, सत्याग्रह, ईश्वर, चरित्र जैसे आदर्शों का हमने क्या किया? आज गांधी एक मात्र प्रतीक हैं। जो तब हत्या था आज वध में तब्दील हो गया है और राजनीति ने गांधी को प्रतीक में तब्दील कर दिया है। गांधी की राजनीति का सबसे प्रबल और दूरदेशी प्रत्यय आत्मबल और नैतिकता था। उस सवाल की हत्या हमने की।



“मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा!

चीख़ पड़ा था             एक अधीरज,

और बिना महात्मा का मतलब समझे

उसने एक महा-आत्मा की हत्या कर दी

   हत्या के सब से विकसित

हथियार से!”



आज अगर भारतीय राजनीति बिल्कुल भ्रष्ट और चरित्र-निरपेक्ष दिखाई दे रही है तो उसके पीछे सम्पत्ति है, पूँजी है। हम लगातार अपनी मनुष्यता की भौतिक सम्पदा से दूरी बनाते गए हैं। हमारे आत्मबल को हटा कर हमारी महत्वाकांक्षा जगह लेती गयी है। हमने अपनी पहचान, अस्मिता, स्थानिकता इत्यादि को वैश्वीकरण से जोड़ दिया है। सत्ता में बने रहने की महद्-आकांक्षा ने शासकों को निष्ठुर बनाया है और जनता को बेवश। हमने एक अनुशासनहीन और जन विरोधी सरकार को जन्म दिया है।



“अति महत्त्वाकांक्षी और निष्ठुर शासक की प्रजा

कभी सुखी नहीं हो सकती

लोगों को भुलावे में रखना

उनके साथ विश्वासघात है

आक्रामकता का मनोविज्ञान कहीं

हिंसक प्रवृत्तियों को उकसाता है।

सदाचार और सद्विचारों की

एक महिमा होती है

जिससे उत्प्रेरित मानव मूल्यों से भी

अनुशासित हो सकता है

एक राज्य और समाज।”





कुँवर नारायण अपने आशयों में मनुष्य जनित मानव मूल्यों को बचाने में सबसे अग्रणी साहित्यकार हैं। जिनकी चिंताएं भौतिक कम, आध्यात्मिक अधिक है। यह आध्यात्मिकता धर्मध्वजी नहीं हैं। वे धर्म-भीरु भी नहीं है जिससे आज की राजनीति संचालित हो रही है बल्कि कुँवर नारायण की आध्यात्मिकता मनुष्य में निहित मनुष्यता के मूल्यों को संबोधित है। उनके यहाँ आध्यात्मिकता के आवरण में लिपटे अपनी संस्कृति को ही सर्वोच्च मानने की नहीं है बल्कि वह स्वीकार्य-भाव है कि हमारी एक अपनी विशिष्ट संस्कृति है और हम उन मूल्यों को ले कर चलें तो मनुष्यता को एक बृहद-आकाश दिया जा सकता है। जिसका उल्लेख एडवर्ड सईद ने अपनी पुस्तक कल्चर एंड एम्पीरियलिज्म के अंतिम पैरा में किया है— “कोई भी आज केवल एक ही चीज नहीं बचा है। जैसे भारतीय, या स्त्री, या मुस्लिम, या अमरीकी जैसे ठप्पों से शुरू तो कर सकते हैं, लेकिन आगे बढ़ते ही हमारे अनुभव उन्हें एकदम ख़ारिज कर देते हैं। साम्राज्यवाद ने संस्कृतियों और पहचानों को एक-दूसरे में घोल दिया। लेकिन इसका सबसे बड़ा और बुरा विरोधाभास यह था कि हम अपने को मुख्यतः और सर्वप्रथम गोरे, या काले, या पश्चिमी या पूर्वी मान कर सोचने लगे। दरअसल, जैसे आदमी अपना इतिहास बनाता है, उसी तरह अपनी संस्कृतियों और पहचानों को भी। इसमें संदेह नहीं कि लम्बी परम्पराओं, रहन-सहन के स्थायी तौर-तरीकों, राष्ट्र-भाषाओँ और सांस्कृतिक भूगोलों की अटूट धाराएँ होती हैं; लेकिन इसमें सिवाय शक और संदेह के दूसरा कोई कारण नहीं दिखता कि उन्हें एक-दूसरे से अलग और विशिष्ट मान कर इस तरह बरता जाए मानो मनुष्य के जीवन का इससे बड़ा कोई उदेश्य ही न हो। जीवन का अर्थ है चीजों के बीच सम्बन्ध परिलक्षित कर सकना : जैसा इलियट ने कहा है, ‘यथार्थ को हम उन तमाम ध्वनियों से खाली तो नहीं कर दे सकते जो पूरे बाग़ में रची-बसी है।’ दूसरों को जो गैर मान कर नहीं, अपनी ही तरह मान कर सोचते हैं, जो मुश्किल जरुर है, तो वह हमें समृद्ध करता है। बशर्तें कि इसके पीछे भी हमारी मंशा कहीं भी दूसरों पर शासन करने या धाक जमाने या वर्गभेद या रंगभेद आदि पैदा करने की न हो, और सबसे बढ कर तो यह शेखी बघारना जरूरी नहीं कि हमारा देश हमारी संस्कृति ही सबसे बढ़ कर है।”



कुँवर नारायण की कविता है, ‘अबकी अगर लौटा तो’ इस कविता में कुँवर जी जिस बृहद मनुष्य और कृतज्ञ मनुष्य को स्थापित कर रहे होते हैं, वह समन्वय और सह-अस्तित्व की विराट चेतना का रूपाकार ही तो है।



“अबकी अगर लौटा तो

बृहत्तर लौटूंगा

...

अगर बचा रहा तो

कृतज्ञतर लौटूंगा

अबकी बार लौटा तो

हताहत नहीं

सबके हिताहित को सोचता

पूर्णतर लौटूंगा”



यहाँ कुँवर नारायण जिस पूर्णता की बात कर रहे हैं दरअसल यह मनुष्यता के ‘अंतःकरण के आयतन’ के विस्तार के लिए बेहद आवश्यक है। इस कविता की व्याख्या करते हुए आलोचक कृष्णमोहन ‘भूखी शेर आँखों’, ‘जगह-बेवजह कुचला पड़ा पिद्दी सा जानवर’ को कविता की उदात्तता के लिए बाधक मानते हैं और यह दृश्य उन्हें ‘शहरीकरण और यांत्रिकता की अंधी दौड़ की चपेट में आ कर लुप्त होते जीव-जंतुओं के प्रति कवि की निष्करुणा और मृत पड़े जीव की निरुपायता कवि के मन में वितृष्णा जगाने वाली प्रतीत होती है।’ किन्तु इसी कविता की अंतिम पंक्ति पर उनका ध्यान नहीं जाता। दरअसल, कुँवर नारायण इस कविता में जिस मनुष्य के लौटने की बात करते हैं और जिस मनुष्य को कृष्णमोहन अपनी आलोचना में उद्धृत कर रहे है, वह दो अलग-अलग मनुष्य-स्थितियाँ हैं। जिस ओर कृष्णमोहन संकेत कर रहे हैं, वह पहला मनुष्य है, जिसके लिए भूखी आँखों वाले शेर के द्वारा आहार करना भी पहले मनुष्य के लिए क्रूरता है और हताहत जीव के प्रति भी उसके मन में करुणा नहीं है। किन्तु कुँवर नारायण जिस मनुष्य की वापसी की बात कर रहे हैं वह अधिक मनुष्य है। क्योंकि उसके लौटने में पुनरागमन का वही भाव है जो कुँवर नारायण की कृति वाजश्रवा के बहाने में नचिकेता के जाने के बाद वाजश्रवा के पश्चाताप में है। इस कविता में भी देखें तो यह लौटना किसका है? कौन लौट रहा है? और किन स्थितियों में लौट रहा है? कुँवर नारायण बहुत स्पष्टता से कहते हैं, अबकी बार लौटा तो हताहत नहीं सबके हिताहित को सोचता पूर्णतर लौटूंगा। असल में कुँवर नारायण के यहाँ यह लौटना अपूर्णता से पूर्णता की यात्रा है। यांत्रिकता (भौतिकता) से आध्यात्मिकता (धार्मिक अर्थों में नहीं) की ओर लौटना है। यानी मनु को मनई बनाती हुई स्थिति है। यह ‘लौटना’ एक अमूल्य अवसर है। अपनी भूलों को सुधारने का। पछतावा, पुनरागमन जैसे शब्द वाजश्रवा के बहाने में है किन्तु लौटना शब्द का दुहराव भी यही भाव यहाँ व्यंजित कर रहा है। यहाँ आशा-निराशा के बीच कोई द्वंद्व नहीं बल्कि अपनी पूर्णता के प्रति एक आत्मिक आत्म-विश्वास है। संवाद का एक अवसर है।



“तुमसे फिर मिलना

एक नया अवसर है

कि जारी रहे वह संवाद

जो बीच ही में छूट गया था अधूरा”



कुँवर नारायण ‘कई समयों’ के रचनाकार हैं। इतिहास और मिथक के अंतस्तल में गोते लगते हुए अपने समकालीन यथार्थ को भी अपना सहचर बनाए रखने से उनकी कविताएँ कालातीत बन जाती हैं। इन कविताओं की चिंता में अंततः और प्रथमतः जो समस्याएं सम्बोधित हुई है, वह मनुष्य एवं मनुष्यता की चिंता में संलग्न है। सहजता, कवित्व, भावनाएं और बौद्धिकता कुँवर नारायण की रचनाशीलता के केंद्र में है। मनुष्य की विभिन्न क्षमताओं की तलाश और उन्हें परिष्कृत करने की ज़िद असहमति को अवसर और सहिष्णुता को आचरण देती कुँवर नारायण की कविता पूर्णता की तलाश की कविता है।  







सम्पर्क 


मोबाइल : 8004553533



टिप्पणियाँ

  1. सुचिंतित किंतु नातिदीर्घ या अतृप्त छोड़ देने वाली टिप्पणी. इसके बावजूद अत्यंत सार्थक और उपयोगी ! कुमार मंगलम जी को बधाई और ' पहली बार' का आभार.

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