सेवाराम त्रिपाठी का आलेख हरिशंकर परसाई : कुछ बातें-कुछ विचार

 

हरिशंकर परसाई

 

 

व्यंग्य लेखन जितना आसान लगता है लिखने में उतना आसान होता नहीं है। व्यंग्य लेखक को अनुभव की आंच में पक कर, सजग सतर्क हो कर अपना लेखन करना पड़ता है। व्यंग्य लेखन जुमलेबाजी या नारेबाजी तो कतई नहीं है बल्कि यह कबीर के शब्दों में कहें तो 'शीश उतारे भूई धरै' जैसा मामला है। इसीलिए हरिशंकर परसाई होना आसान नहीं है। परसाई जी का लेखन आज कहीं ज्यादा प्रासंगिक है। किसी भी तरह के लेखन की इससे अधिक सफलता भला और क्या हो सकती है। 


सेवाराम त्रिपाठी व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के साथ कुछ समय तक काम कर चुके हैं। वे इन दिनों परसाई जी के लेखन पर गम्भीर काम करने में जुटे हुए हैं। पहली बार पर हम श्रृंखलाबद्ध ढंग से उनके इस काम को प्रस्तुत करने जा रहे हैं। इसी क्रम में आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'हरिशंकर परसाई : कुछ बातें-कुछ विचार'।



हरिशंकर परसाई : कुछ बातें-कुछ विचार

      

सेवाराम त्रिपाठी

     

         

"मैं काफी बेहया हूं … मैं पहुंचते ही आयोजकों के चेहरों, व्यवहार और आवभगत से हिसाब  लगाना शुरु कर देता हूं कि ये हूं, अच्छे पैसे देंगे या नहीं? कभी ऐसा भी हुआ है कि ज्यादा आवभगत करने वालों ने, रुपए मुझे कम दिए हैं। लेखक का शंकालु मन है। शंका न हो तो लेखक कैसा? मगर वे भी लेखक हैं जिनके मन में शंका उठती है न सवाल।"

 

(हरिशंकर परसाई)


        

परसाई जी का कैनवस बहुत बड़ा है। यूं तो उन पर कई तरह से कई मुद्दों के बारे में कहा जा सकता है लेकिन बिना किसी तारतम्य के कुछ बातें कह रहा हूं। वे बेहद बड़े आयामों वाले लेखक हैं। वे केवल लेखक नहीं समाज दृष्टा और चिंतनशील, जागरूक साहसी लेखक हैं। उनका दर्शन, लेखन मानव मुक्ति का लेखन और पुकार है? खुशी होती है जब हिन्दी व्यंग्य की दुनिया में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हरिशंकर परसाई की जन्मशती के उपलक्ष्य में, परसाई जी के हवाले से कुछ वैचारिक बातें की जाती हैं।  परसाई जी हास्य के लिए कभी नहीं लिखते। वह अपने आप आ जाय यह अलग बात है। परसाई जी दिनोंदिन मौजू और अति प्रासंगिक होते जा रहे हैं। वे देश के वर्तमान समय और दौर में हमें भविष्य वक्ता की तरह भी लग रहे हैं। शताब्दी वर्ष के पूर्व उनको बेहद गंभीर रूप में लेना और उनका ज़रूरी और प्रासंगिक होते चला जाना सचमुच एक नया मोड़ है। उन पर जो बातें हो रही हैं। इससे उनकी पहुंच का दायरा निरंतर प्रभावी हो रहा है। वे प्रेमचंद जी की तरह स्वतः स्फूर्त लेखक हैं। ज़िम्मेदार लेखक हैं। आज यानी बाइस अगस्त को उनका जन्मदिन है। उनकी लोकप्रियता अपार है। कितने समूह उन पर काम कर रहे हैं। परसाई जी की शताब्दी निकट है। 


     

सच है कि उनका स्मारक ईंट पत्थर का नहीं होगा बल्कि हमारे दिलों में होगा। जनता की आकांक्षाओं और सपनों में होगा। जैसे प्रेमचंद का बनारस के पास लमही में है। अब तो यह स्मारक हर शहर में हो गया है। लोगों के दिलों में जिंदा है। परसाई का लेखन घोर अवसरवाद के ख़िलाफ़ खड़ा है। समाज और राजनीति में टुच्चेपन और नंगई के प्रतिरोध में है। लूट खसोट और तानाशाही मनोविज्ञान के बवंडरों के विरोध में है। सच्चे लोकतंत्र के पक्ष में मनुष्यता की जय यात्रा में सीना ताने खड़ा है। परसाई की भूमिका और स्वीकारता दिन-रात बढ़ रही है। उनका कहा याद कर रहा हूं "कोई लेखक तटस्थ नहीं होता। जो लेखक तटस्थ होने का ढोंग करते हैं वे ही किनारे बैठ कर तटस्थता की मछली फंसाते हैं। जो जीवन से तटस्थ है, वह व्यंग्य-लेखक नहीं, जोकर है। कोई भी सच्चा व्यंग्य-लेखक सामाजिक संघर्ष के  संदर्भों से कट कर नहीं रह सकता।"


       

परसाई जी की शताब्दी के सिलसिले में कुछ चर्चाएं भी हो रही हैं। मसलन कुछ मित्र उनका जन्म 22 अगस्त 1922 मानते हैं। श्याम सुंदर मिश्र के शब्दों में - "श्री हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त 1922 को होशंगाबाद जिले के जमानी गांव में हुआ था। खेती किसानी और बाद में जंगल विभाग की ठेकेदारी से जुड़े पिता श्री झूमकलालू परसाई और माता श्रीमती चंपा बाई की पांच संतानों में श्री हरिशंकर परसाई सबसे बड़े थे।" (युगसाक्षी हरिशंकर परसाई- पृष्ठ, 329) कुछ का कहना है कि यह वास्तविक है और 1924 सर्टिफिकेट वाला है। जो भी हो। उनकी तमाम किताबों में यह 1924 ही दर्ज़ है। परसाई रचनावली में उनकी सभी रचनाएं शामिल नहीं हैं। लोग उनको पूरी तरह पढ़ें, समझें और गुनें तो उनकी दृष्टि का विस्तार होगा। छुआ-छुवाई से उनके लेखन का एक चुल्लू पानी भी नहीं ही मिल सकता है। कुछ व्यंग्य के उद्यमी परसाई जी का सट्टा लगाने पर तुले हैं। उनकी रचनावली के बाद भी बहुत सारा लेखन हैं। जो बाद में प्रकाशित होता रहा है? लेखक का निवेदन कमाल का है। उनकी अनेक किताबों में और गूगल में भी 22 अगस्त 1924 ही दर्ज़ है। मैं भी इसे सही मानता हूं। मुझे लगता है यह स्थिति प्रायः सभी के साथ कनेक्ट है। स्कूल का रिकॉर्ड अलग और जन्म कुंडली का रिकॉर्ड अलग। कुछ लोग तो रिकॉर्ड देखते हैं या रिपोर्ट कार्ड। मैं कहीं दूर नहीं जाता। मेरा अपना भी यही हाल है। वास्तविक जन्मदिन 09 नवंबर 1950 है जबकि स्कूली और सरकारी रिकॉर्ड में 22 जुलाई 1951 दर्ज है। यह एक उदाहरण मैंने दिया है। ऐसे तमाम उदाहरण आपको हँसते मुस्कुराते मिल ही जाएंगे। इससे किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए। मेरा मानना है कि परसाई को जानना है तो उनको जम कर पढ़ो। उनसे बहस करो। उनकी चिंताओं को साझा करो।

   

परसाई जी के भांजे योगेश दीवान ने भी यह सवाल मुझसे शेयर किया था। खैर, ये बातें रही आती हैं। बातें हैं बातों का क्या? वैसे राजेन्द्र चंद्रकांत राय भी यही मानते हैं। उनका जीवनी परक उपन्यास भी आ रहा है। और परसाई जी भी  मोटे तौर पर यही मानते थे। खैर, परसाई जी की रचनावली प्रकाशित करने की कोशिश की जा रही थी। परसाई जी के शब्दों पर ध्यान दें - "मित्रों ने अचानक प्रस्ताव किया कि मेरी रचनावली छप जाय। तब मेरी तबीयत काफी खराब थी, तो मैंने आनाकानी की। अभिनंदन में और रचनावली प्रकाशित करने में कभी-कभी इसलिए भी जल्दी की जाती है कि लेखक बीमार रहने लगा है - न जाने कब टें बोल जाय। इसलिए समय रहते, इसका कुछ कर डालो। ऐसा सोचना मेरे बारे में नहीं था। मेरे दूसरी प्रकार के लाभ जरूर मित्रों के ध्यान में थे।" (परसाई रचनावली, भाग 1, पृष्ठ-1)


          

परसाई जी का जन्मशताब्दी वर्ष हम केवल उत्साह के लिए नहीं बल्कि एक गहन विचार मंथन के लिए, ज़िंदगी की अंदरूनी तहों और हक़ीक़तों को समझने के लिए और अपने को  ज्यादा सक्षम बनाने के लिए, कुछ सीखने के उद्देश्य से जन जीवन को समझने के लिए अनुभव करें। व्यंग्य कभी भी मनमाने तरीके से पेश नहीं होता। उसकी एक वस्तुगत दुनिया है। परसाई जी को समझने के विभिन्न आयाम हो सकते हैं। शीर्षकों की तो धूम है और भी कुछ हो सकते थे। हमें तो परसाई जी पर सोचना, उनके लेखन के बारे में विचार करना होगा। यह किसी भी तरह एकांगी या सीधा सादा मामला नहीं है। मेरा मानना है कि परसाई जी का जन्म दिन मनाना मात्र खानापूर्ति के लिए नहीं होना चाहिए क्योंकि परसाई जी उत्साह के साथ जीवन-विवेक, संघर्ष-विवेक और करुणा-विवेक की अंदरूनी तहों तक जाने वाले दृष्टिवान लेखक रहे हैं। वे हर चीज़ और वास्तविकता को हमेशा आर पार देखते, संवेदित होते, लिखते और लड़ते रहे हैं। वे जितना दुनिया से लड़ते हैं उतना ही अपने आप से। उनके आत्मालोचन से ही इसे ठीक ढंग से जाना जा सकता है।

    

वे जहां भी विद्रूप, बिडंबना और अंतर्विरोध देखते थे, उसकी पहचान करते हुए उसकी अच्छी-खासी ख़बर लेते थे और उन वास्तविकताओं को भीतर तक चीर भी देते थे। उनका लेखन किसी भी तरह हंसी-ठिठोली का लेखन कतई नहीं है। एक झगड़ा यह भी शुरू है कि व्यंग्य को हास्य के इलाके में पटक दिया गया है। जबकि वह जुमलेबाजी, नारेबाज़ी का किसी भी सूरत में लेखन नहीं है। इसलिए बहुत सावधान हो कर ही उसकी वास्तविकता जानी पहचानी और अनुभव की जा सकती है। यथार्थ जितना कठिन है उतना ही कड़वा भी, उतना ही वह जानलेवा और उतना ही हैरतअंगेज भी। व्यंग्य व्यंग्य है और हास्य हास्य। इसे परसाई के लेखन के सिलसिले में भी समझना होगा और व्यंग्य के विराट संदर्भ में भी। परसाई के समझने में और समझाने में गफलत  क्यों की जाती है, यह समझ से परे है। 

    

जाहिर है कि परसाई जी को केवल व्यंग्य लेखन भर में न देखिए। हम जितने ज्यादा आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के इलाके में आते जा रहे हैं। अंधविश्वास उतना ही ज्यादा बढ़ता जा रहा है। उसकी मार्केटिंग भी बड़ी तेज़ी से बढ़ गई है। पढ़ा लिखा वर्ग वैज्ञानिकता से निरंतर दूर जा रहा है। विज्ञान वाले प्रयोगों के आधार पर वैज्ञानिक प्रविधियों वाले बार-बार भरभरा रहे हैं। परसाई के शब्दों में -"अंधविश्वासों को ले कर निहित स्वार्थ कायम हो गए थे। पूजा, दान आदि से कल्पित विपदा का शमन कर के कर्मकांड चलाने वाले पुरोहित-वर्ग को इससे धन, सोना, दूसरी सामग्री मिलती थी। इस पुरोहित-वर्ग का प्रमुख आमदनी का जरिया अंधविश्वास हो गए। यह वर्ग इन्हें जीवित रखना चाहता था और उसने ऐसा किया।" (ऐसा भी सोचा जाता है, पृष्ठ-63)




          

जीवन की असलियत को हमें खुली आंखों से देखना चाहिए। व्यंग्य भरमाने की दुनिया किसी भी तरह नहीं हो सकता। लेखन मात्र सपना नहीं है बल्कि वह हमारी ज़िंदा हक़ीक़त भी है। वह हमारे जीवन में पलने वाली आग भी है। वह जीवन में फैली सड़ांध के खिलाफ़ भी है। हमारे जीवन के उत्ताप को वस्तुगत और करीने से रखता है। हमें  ज़िंदगी को तरह-तरह के रंगीन चश्मों भर से नहीं देखना चाहिए। जीवन संघर्षो की यात्रा भी है और जीवन संग्राम की सार्थक पहल भी है। परसाई जी ने ज़िंदगी में, ज़िंदगी से बाहर, ज़िंदगी के भीतर और आर-पार बहुत कुछ देखा और लिखा है। उनके लिए लिखना कोई छोटी-मोटी चीज़ नहीं है। लिखना उनके लिए बेहद ज़िम्मेदारी का काम रहा है। व्यंग्य लेखन किसी कीमत में फालतू की टें-टें भी नहीं है। वह ज़िंदगी की असलियत और गहमा गहमी का बखान भी है और उसकी जीवंत कथा भी।

       


जाहिर है कि व्यंग्य की धारा भी होती है और धार भी। व्यंग्य हमारी ज़िन्दगी में शामिल हो कर बड़े व्यापक परिप्रेक्ष्य ग्रहण करता है। व्यंग्य में जब वास्तविकता और जनपक्षधरता होती है तो प्रसन्नता का अनुभव भी होता है और जीवन मूल्यों के घात-प्रतिघात के तमाम रूपों से साक्षात्कार भी होता है। और उसे जब भी एक तरह का तमाशा बनाने की साजिश रची जाती है तो कष्ट के साथ क्षोभ भी होता है। व्यंग्य में इस दौर में खर पतवार बहुत है। नकलीपन भी है और नक्काल भी अनेक हैं। परसाई व्यंग्य दिखाऊ के लेखक नहीं हैं। हो सकता है कि मैनें परसाई जी के साथ मिल कर काम भी किया है और उनसे सीखा भी है, इसलिए व्यंग्य का गलत इस्तेमाल होने पर मुझे कुढन, कोफ़्त और पीड़ा होती है। परसाई जी का लेखन वर्तमानता का लेखन है शाश्वतता का नहीं। वे शाश्वत लिखने के चक्कर में कभी पड़े नहीं। वे अपने समय, समाज राजनीति और परिवेश के बेहद सावधान और सतर्क लेखक रहे हैं? उन्होंने कभी भी कालजयी लेखक बनने का अभियान नहीं चलाया। वे मर मर कर लिखते रहे और जी जी कर मरते रहे। व्यक्तिगत ईमानदारी ही उनकी असली ताकत है। उन्होंने तमाम प्रचलित विधाओं की हदबंदियों को तोड़ा है। निबंध में कहानी, संस्मरण, आलोचना, नाटक, कविता और न जाने क्या क्या प्रवेश करता रहा। परसाई जी की जीवटता हमें  आकर्षित करती है।


          

मैं सोचता हूं कि परसाई जी कब प्रासंगिक और मौजू नहीं थे? हमेशा थे। लेकिन सवाल उठाए जाते हैं और आगे भी उठाए जाते रहेंगे? लोगों को कुछ न कुछ करना है। सो वे करते रहेंगे।परसाई अपने समय में जितने प्रासंगिक रहे हैं उससे ज्यादा आज हैं और आने वाले समय में इससे भी हज़ार गुना ज्यादा होंगे। उनका लेखन कार्य-कारण की जबर्दस्त ख़ोज का लेखन है। उनका लेखन ज़िन्दगी के रिश्तों का लेखन है। उनका लेखन आदमी के पक्ष में सीना तान कर खड़ा हुआ लेखन है। यही नहीं वह हर सत्ता, व्यवस्था और प्रतिष्ठान के खिलाफ़ लेखन है। वे हर तरह के दलालों के खिलाफ़ लिखते रहे हैं। व्यंग्य को किसी मुगालते में नहीं देखा जाना चाहिए। साहित्य-साहित्य, व्यंग्य-व्यंग्य चिल्लाने से  हरिशंकर परसाई के व्यंग्य को नहीं समझा जा सकता। जीवन की वास्तविकता और गहन अवलोकन के बिना उसमें प्रवेश भी संभव नहीं है। वह अपने को चमकाने का फलसफा भी  नहीं है और वह किसी भी तरह के खुशफहम इरादों का लोक भी नहीं है। वह यथार्थ जीवन की वास्तविकता और आपाधापियों की दुनिया है। हरिशंकर परसाई का लेखन एक विशेष अर्थ में वर्तमानता का लेखन है लेकिन वे इसे अतीत और भविष्य की एक नायाब श्रृंखला बना देते हैं। ज़िंदगी का दर्पण बना देते हैं। रोज़मर्रा जीवन और अति मामूली सी लगने वाली घटनाएं उनकी परिधि में आती हैं। उनके लेखन में जो ताप है वह हमें बार-बार उद्वेलित और विक्षुब्ध करता है। उनके यहां जीवन का फैलाव व्यापक है। ऐतिहासिक पौराणिक संदर्भ और मिथक एकदम पिरोए हुए से लगते हैं। मुक्तिबोध के बाद वे फंतासियों का सही और सटीक ढंग के साथ संतुलित इस्तेमाल करने वाले बड़े लेखक हैं। उनके लेखन में करुणा की अजश्र धारा है। आज़ादी के बाद वे पाखण्ड विध्वंसक लेखक के रूप में पहचाने जाते हैं।

        


वैसे यह दौर व्यंग्य, विद्रूप अंतर्विरोध, विडंबना, विकृति और विसंगति का बेहद भयावह दौर है। लेकिन बेहद बेशर्मी के साथ व्यंग्य के शिविर में व्यंग्य पर ही लगातार कुठाराघात हो रहे हैं। निरंतर आक्रमण हो रहे हैं। उसे ढिठाई की कोटि में पटका जा रहा है। कहना यही है कि इस समय व्यंग्य की असलियत को उजागर किया जाए। सुविख्यात तथ्य है कि व्यंग्य बहुत जिम्मेदारी की मांग करता है। व्यंग्य से वही अर्थ और जीवन मूल्यों की वास्तविकता और तत्त्व सामने आए, जिसका वह हकदार है। केवल चमचमाहट वाले  और हर तरह का  स्वार्थ साधने वाले लाभार्थी शामिल हो कर उसको भोंथरा बनाने की ही जाने अनजाने कोशिश करते हैं। तब व्यंग्य शर्मसार होता है और हरिशंकर परसाई को छलनी कर दिया जाता है। केवल परसाई जी का नाम लेना पर्याप्त नहीं है। परसाई व्यंग्य की दुनिया में हमेशा नंबर एक हैं किसी भी कीमत में दूसरे नंबर पर नहीं। कोई व्यंग्यकार दूसरे तीसरे में आ सकता है लेकिन कभी भी परसाई की चर्चा दूसरे नंबर नहीं होती, हालांकि  व्यंग्य की दुनिया में ठीक ढंग से पहुंचने की होड़ाहोडी  भी  इस दौर में कम नहीं है। इस दौर में प्रशंसित होने के इलाके भी किसी तरह कम नहीं हैं। 

    

व्यंग्य का नाम ही हरिशंकर परसाई का एक तरह से पर्याय हो चुका है। ज़िन्दगी का ताप और प्रवाह, समस्याएं और उनके समाधान खोजने की तड़प उनमें है। परसाई जी की मालाएं जप कर उनका काम किसी भी सूरत में आगे नहीं बढ़ाया जा सकता? जो व्यंग्य के इलाके में आए, वह न तो परसाई जी को शर्मसार करे और न व्यंग्य को धरासाई करने का प्रयास करे। व्यंग्य की दुनिया हंसी भर का क्षेत्र नहीं है। व्यंग्य का एरिया, व्यंग्य का औचित्य बहुत बड़ा है। इसलिए हरिशंकर परसाई  की दुनिया बहुत बड़ी दुनिया है।  व्यंग्य की औसत समझ के बिना परसाई की दुनिया को और उनके लेखन को समझा  ही नहीं जा सकता। वैचारिकता के साथ  और आम आदमी के साथ जुड़ने के साक्ष्य भी चाहिए। हरिशंकर परसाई की राजनीति, जीवन दृष्टि और जीवन विवेक के साथ ही सत्ता के साथ उनके संघर्ष एकदम जग जाहिर रहे हैं। किसी भी प्रतिष्ठान को उन्होंने कभी बख्शा ही नहीं। उसमें कोई लुकाव-छिपाव भी नहीं रहा है, जहां भी विसंगति, विडंबना, अंतर्विरोध है- वह चाहे जितनी बड़ी हस्ती हो। परसाई जी ने उसके खिलाफ ताक़त के साथ लिखा, बिना लाग लपेट के और बेबाक लिखा। खुल कर लिखा, बिना भय के लिखा - रिटायर्ड भगवान की आत्मकथा कालम इसका जीता जागता प्रमाण है। 

      

    

परसाई जी का विश्वास लेखक की व्यक्तिगत ईमानदारी में है। बिना व्यक्तिगत ईमानदारी के कुछ समय के लिए अपना नेटवर्क बढ़ा कर, संपर्क बढ़ा कर आप काम और नाम कर सकतें हैं लेकिन यह यात्रा लंबी नहीं हो सकती। किसी तरह की तड़क-भड़क और बेईमानी में नहीं। वे व्यक्ति के नहीं एक खास प्रवृत्ति के विरोध में ज़िंदगी भर लिखते और आचरण करते रहे हैं और लगातार लोहा भी  लेते रहे हैं। वे और  उनका समग्र लेखन सांप्रदायिकता, अंधविश्वास और रूढ़ियों के सतत खिलाफ रहा है। जो संकीर्णता, कूढ़-मगज मनोविज्ञान के खिलाफ़ नहीं है- वह परसाई जी के साथ शायद एक क़दम भी नहीं चल सकता? कबीर की तरह ही उनका हौसला और साफगोई है। परसाई जी का लेखन बेहद विश्वसनीय लेखन है। उनका आकलन, मूल्याकंन वस्तु सापेक्ष होता है। वे चीज़ों को बाहर बाहर से नहीं बल्कि अंदर तक घुस कर देखते हैं। खुदा से लड़ाई नामक व्यंग्य में वे कहते हैं -"शोषकों के वर्ग स्वार्थों को जब कोई चुनौती देता है, तो उस वर्ग के प्रवक्ता कहते हैं- यह आदमी खुदा से लड़ रहा है। खुदा को प्राइवेट संपत्ति का रक्षक और शोषण का एजेंट तभी से बना लिया गया था, जब मनुष्य ने उसके होने की कल्पना की थी।" 

     


परसाई जी ने तथाकथित आरक्षणवाद, स्त्री विमर्श का न तो ठेका लिया है और न पंजीकरण किया है। उनके यहां  दलित-आदिवासी विमर्श भी बने बनाए ढर्रे में नहीं है। परसाई जी हर चीज़ को वास्तविकता में लेते हैं किसी स्वप्नलोक में नहीं। पूरी तरह से ठोक बजा कर। वैसे भी व्यंग्य इस तरह के कोटे निर्धारित करने में कतई विश्वास नहीं करता। वह राजनीतिक रोटियां सेंकने का मकड़जाल भी नहीं है? 


इधर के दौर में जो द्वैत, दोहरापन है वह भयावह है। परसाई जी सूक्तियों में बातें करते हैं। यह शैली उनकी प्रिय शैली है। हमारे समय में जो नकलीपन है वह जानलेवा है। परसाई जी सुधार के लिए नहीं बल्कि बदलने के लिए लिखते हैं। इसलिए उनके लेखन को खदबदाता लेखन माना जाना चाहिए। वे अपने व्यंग्य लेखन द्वारा चेतना में हलचल पैदा करने के लिए लिखते हैं। विसंगतियों, अंतर्विरोधों, विकृतियों और विद्रूपताओं का सामना अपने लेखन में सक्रिय रूप से करते हैं। एक स्थान पर उन्होनें लिखा है कि - "कोई भी लेखक अराजनैतिक नहीं हो सकता।" वे गहन अंतर्दृष्टि वाले और बेहद सरोकारी और प्रतिबद्ध लेखक हैं। उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी हमेशा अक्षुण्य रही है। दो कथन उद्धृत कर रहा हूं।


(1). "राष्ट्रीय पुरुष को मरघट में सोर्स मिल गया तो मुफ़्त लकड़ी में जल मरे।"

(2). मानवीयता उन पर रम के किक की तरह चढ़ती उतरती है।"

   

भाषा के द्वारा मानक बना कर व्यंग्य लेखन की दुनिया में थोड़े समय के लिए खलबली मचाई जा सकती है। पाठकों को भ्रमित किया जा सकता है? लेकिन दीर्घ काल के लिए नहीं। माना कि व्यंग्य ध्वनि प्रधान या ध्वन्यात्मकता या उसके लिए वक्रोक्ति महत्त्वपूर्ण है लेकिन यदि सरोकार और जनसंबद्धता या प्रतिबद्धता यानी कमिटमेंट- दायित्व बोध नहीं है तो टांय टांय फिस्स हो जाएगा वह व्यंग्य। उसके लिए बचेगा तो सिर्फ़ इत्यादि। कुछ लोग इत्यादि ही रहे आएंगे। परसाई की भाषा आयातित भाषा नहीं है। वह हमारी अस्मिता की पहचान है और वह जीवन संघर्षों से, खेत खदानों से और खून पसीने से नहा कर आती है। देखना है तो उनकी संवेदनशीलता देखिए। उनकी दृष्टि देखिए। उनकी दिशा देखिए। उनका बांकपन अनुभव कीजिए। उसके शब्दों को बजते हुए देखिए। उनका लेखन हमें सावधान सतर्क और ताकतवर बनाता है। निडर निर्भीक भी बनाता है। साहित्य की दुनिया में इस तरह के परकोटे बनाए जाएं, शायद यह किसी तरह से ठीक नहीं होगा। व्यंग्य की दुनिया में यह सब होगा तो सब बंटाधार ही हो जाएगा। व्यंग्य इस तरह के चरम पवित्रतावाद पर बिल्कुल विश्वास नहीं करता। अब पवित्रताएं धार्मिक संस्थाओं में भी नहीं मिलती। वहां लूट पाट का अखंड साम्राज्य है। इन महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर मात्र विमर्श होते रहें हैं। लोगों ने इन वास्तविकताओं का, जटिलताओं का,सूक्ष्मताओं का पालन किया ही नहीं। निर्णय और कार्रवाई भी हो, केवल नाटक-नौटंकी नहीं। यह कौन सी कार्रवाई है? कि केवल ऊपर-ऊपर देखो, समाज के अंदरूनी इलाकों में न जाओ।

 

 


 

     

कुछ होशियार चंद व्यंग्य में जो दाहकता है उससे बचकर व्यंग्य का सेंसेक्स देख रहे हैं। कुछ अपने को छिपा रहे हैं। सामने नहीं आना चाहते। कुछ तो आड़े तिरछे हो रहे हैं और अपने आप औंधे हो रहे हैं।जन जीवन से, जनपक्षधरता से बच बचा कर हाथ आजमाए जाएं। धन्य हो व्यंग्य की। धन्य हो व्यंग्य के इन धुरंधर सूरमाओं की।व्यंग्य के लिए कुछ भी त्याज्य नहीं है। जहां भी विसंगति-विडंबना, अंतर्विरोध और दोगलापन है, व्यंग्य की, व्यंग्य की दुनिया की नज़र वहां है। व्यंग्य वहां-वहां मार करता है। व्यंग्य भीतर तक छेद ही नहीं देता बल्कि जबर्दस्त तरीके से हूल भी देता है।व्यंग्य थानों में किसी हुज़ूर के कहने पर लिखी जाने वाली एफ. आई. आर. नहीं है। व्यंग्य बच-बचा के काम करने के एकदम खिलाफ़ चीज़ है। व्यंग्य किसी भी तरह बदचलन हवाओं का ठेका नहीं ले सकता?  व्यंग्य को यह बीमारी किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं है। व्यंग्य उच्चताबोध की हमेशा ऐसी-तैसी करता रहा है और उसकी धज्जियां भी उड़ाता रहा है। परसाई समाज की रग-रग से वाकिफ रहे हैं। उन्होंने जो लिखा एकदम बेबाक, दोटूक और निर्भीक। किसी को अच्छा लगे या ख़राब। इसकी कभी भी परवाह नहीं की। यूं तो उदाहरण थोक में हैं। उनका समग्र लेखन इसी से गुंथा बिधा है। एक व्यंग्य पढ़ा जाना चाहिए- "छिनाल नेता या जनता।" उनके लिखे में अंतर्निहित ध्वनियों को और प्रप्रत्तियों को भी अनुभव किया जाना चाहिए। मात्र ऊपर के मुलम्मों को नहीं। विख्यात तथ्य है कि उन्होंने अमृता प्रीतम की आत्मकथा 'रसीदी टिकट' पर लिखा। ज्ञात है कि अमृता जी पंजाबी और हिंदी की दमदार लेखिका रही हैं  और  दूसरी हैं कमला दास। उनकी आत्मकथा है 'मेरी कहानी'। कमला दास मलयालम और अंग्रेजी की लेखिका रही हैं। इन पर  परसाई जी ने अत्यंत बेबाकी से लिखा था- "एक मादा दूसरी कुड़ी"। उनका आलेख शायद पहली बार करंट में छपा था। बाद में परसाई रचनावली के खंड चार में प्रकाशित हुआ।इस पर हमें विचार ही नहीं पुनर्विचार भी करना चाहिए। उन वास्तविकताओं को पहचानना चाहिए, जहां से ये व्यंग्य आए हैं ।   


विचारार्थ ये बातें पेश हैं। वे लिखते हैं - "मुझे इन आत्मकथाओं को पढ़ने के पहले कतई भ्रम नहीं था कि मैं सावित्री-सत्यवान की कथा पढ़ने वाला हूं। मैं कोई सतही नैतिकतावादी और पवित्रतावादी भी नहीं हूं। मैं लेखिकाओं से कहता हूं कि खोल कर बताना हो, तो अब बता दो। मगर सवाल यह है कि आप खामख्वाह  बताने पर तुली क्यों हैं? (पृष्ठ -76) देखा जा रहा है कि आजकल स्त्री विमर्श, दलित विमर्श और आदिवासी विमर्श पर तमाम प्रश्न पर प्रश्न खड़े कर दिए जाते हैं। इसे बर्र के छत्ते पर हाथ डालने जैसा नहीं बना देना चाहिए। नक़ली मनोविज्ञान तो इन्हें बराबर सूंघता रहता है। उसकी जमीनी हकीकत को अनदेखा करता है। आज़ादी-  जनतंत्र, नरसंहार, संविधान और अमानवीय मूल्यों को खोहोंं में फेंक दिया करता है। इन आत्मकथाओं के संदर्भ में परसाई लिखते हैं।" पढ़ मैंने काफ़ी पहले ली थीं, इन पर कुछ कहने से अभी तक डर रहा था, क्योंकि दोनों, लिबरेटेड, (मुक्त) स्त्रियां हैं। कम से कम इनके तेवर तो ऐसे ही हैं। पता नहीं ये किन-किन चीज़ों से मुक्त हो गई हों। इनकी मुक्ति के जाल में फंस जाओ, तो फजीहत। हां, मुक्ति की भी जंजीरें होती हैं।" (वही, पृष्ठ -75) 

        

परसाई जी किसी भी मुद्दे पर सीधे-सीधे ही विचार नहीं करते। वास्तविकता को सभी कोणों से देखते हैं औरअच्छे से ठोंकते बजाते हैं, तभी फ़ोकस करते हैं ऐसे वैसे नहीं। एक मादा-दूसरी कुड़ी, को विस्तार से पढ़ा जाना चाहिए। शुद्धतावाद के किसी जाल में मुक्त हो कर। दो तीन उद्धरण देना ज़रूरी है।


(1) "कमलादास की आत्मकथा का नाम होना चाहिए था - 'एक मादा की कहानी'। यह किसी स्त्री की कहानी नहीं है, लेखिका की तो कतई नहीं। शुद्ध मादा की कहानी है।" (पृष्ठ -75) 

एक दूसरा उदाहरण भी संजीदगी से अनुभव करें।" लिबरेशन, का अमृता प्रीतम की ही जबानी, यह हाल है कि उनका लड़का पूछता है -ममी, मैं क्या साहिर अंकल का बेटा हूं? यह मुक्ति है, जिसमें बेटा मां से पूछे कि ये जो मर्द तेरे आसपास है, इसमें कौन मेरा बाप है। मुझे मेरे बाप की तलाश है।"(वही, पृष्ठ-75) हमारी ज़िन्दगी की सामाजिकता में तरह तरह के विमर्श घुल चुके हैं। हम सच से आंख चुराते हैं। और गलतियों को छाती से चिपका कर खुशी मनाते हैं। और इस प्रसंग में परसाई जी ने एकदम ठीक स्परिट में बात रखी है "मैं इन लेखिकाओं को विश्वास दिलाना चाहता हूं कि जो इन्होंने लिखा है, वह चौंकाने वाला नहीं, उबाने वाला है। इसे पढ़कर लेखिका के साहस पर दाद देने की इच्छा नहीं होती, उस पर दया आती है।" (वही, पृष्ठ 76)

      

परसाई जी के लेखन का पाठ और पुनर्पाठ होना चाहिए। यह भी जान लेना ज़रूरी है कि वे किसी भी तरह भले आदमी नहीं बनना चाहते थे। भली भलाई को उन्होंने ठिकाने लगाया  है। व्यंग्य कोई खेल तमाशा नहीं है। व्यंग्य की मार को भी समझिए और उसमें विद्यमान करुणा को भी। व्यंग्य किसी भी तरह वाह-वाह की चीज़ नहीं है? व्यंग्य बाहर जितनी मार करता है उतनी ही भीतर भी। देखना है तो परसाई की भाषा देखिए। उसमें अंतर्निहित ध्वनियों को सुनिए और उसकी संवेदना के गाढ़े रसायन शास्त्र को अनुभव कीजिए। व्यंग्य में हंसी आ सकती है लेकिन उसका मूल लक्ष्य समाज की आलोचना करना ही होता है। आजकल गुदगुदाहट में ही व्यंग्य लिखने वाले औंधे हो जाया करते हैं। व्यंग्य का काम कठोर प्रहार है और पढ़ने वाले को बेचैन कर देना। तीन उद्धरण परसाई जी की वास्तविकता और हैसियत को एकदम उजागर कर देंगे।


(1) "यश ही परमार्थ है। हमें एक काम ऐसा ज़रूर करना चाहिए जिससे नाम अमर रहे।"

(2) "आर्थिक क्रांति की तरफ बढ़ती जनता को हम रास्ते में ही गाय के खूंटे से बांध देते हैं।"

(3) "जिस समाज के लोग शर्म की बात पर हंसें, उसमें क्या कभी कोई क्रांतिकारी हो सकता है? होगा शायद पर तभी होगा जब शर्म की बात पर ताली पीटने वाले हाथ कटेंगे और हंसने वाले के जबड़े टूटेंगे?"

     

हरिशंकर परसाई को पढ़ना, गुनना, विचार विमर्श करना, उनके हौसले को समझना कोई छोटी बात नहीं है। उनकी जैसी बातें डंके की चोट कहना इस दौर में काफ़ी कठिन है। परसाई जी की स्परिट को बहुत संजीदगी से ही पहचाना जा सकता है। अंत में परसाई जी का कहा याद दिला रहा हूं कि कोई मुगालते में न रहे-"मैं मार्क्सवादी हूं? बेवकूफ मार्क्सवादी नहीं हूं।इसीलिए अनजाने बौद्धिक गलती का सवाल मेरे सामने है ही नहीं। मैं मार्क्स की इतिहास की व्याख्या मानता हूं। वर्ग संघर्ष में विश्वास करता हूं। पर यह भी मानता हूं कि मानव नियति और आगे बढ़ेगी। निश्चित रूप से मैं वैज्ञानिक समाजवादी हूं।"

 

 

 


 

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