भरत प्रसाद का आलेख 'लंबी कविता की समकालीन सैद्धांतिकी'

भरत प्रसाद


लंबी कविता अपने में एक महाकाव्यात्मक विस्तार लिए हुए होती है। लम्बी कविता का अपना अलग विन्यास होता है। इसे लिखते समय कवि के सामने कई चुनौतियां होती हैं। प्रायः इसकी पृष्ठभूमि में कोई कथानक, कोई दुर्लभ चरित्र, मर्मभेदी घटना या बहुपरतीय अर्थों वाला विषय होता है। किसी न किसी रूप में पृष्ठभूमि की व्यापकता लंबी कविता के लिए अनिवार्य हैं। एक बड़ी चुनौती उस पठनीयता की होती है जो पाठक को बिना उबे अपने शब्द दर शब्द से साक्षात्कार करा सके। भरत प्रसाद ने लम्बी कविता पर एक तरतीबवार आलेख लिखा है। इस आलेख के माध्यम से हम लम्बी कविता के इतिहास और वर्तमान से सहज ही परिचित हो जाते हैं। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं भरत प्रसाद का आलेख 'लंबी कविता की समकालीन सैद्धांतिकी'।



 लंबी कविता की समकालीन सैद्धांतिकी



 भरत प्रसाद    


  

इस दौर में बतकही प्रधान गद्यवादी कविता ने हिन्दी कविता को अपूर्व संकट में ला खड़ा किया है। विपुल और बेहिसाब मात्रा में उत्पादित हो रही असंख्य गद्य कविताओं के लिए न कोई तत्वपूर्ण सिद्धांत है, न दिशासूचक व्याकरण और न ही कोई पूर्व तैयारी। लय, आवेग, अंतर्नाद, संवेदनात्मक पारगामीपन, मंत्रमयता और मार्मिक मौन जो कि कविता की आत्मा में मूलस्थ मौलिक काव्यतत्व माने जाते हैं- वर्णनबद्ध कविताई के कारण एक एक कर विलुप्त हो चुके हैं। अब शेष बचे हैं- विशुद्ध विचार, नयी बात कहने की स्मार्टनेस, अनकही दृष्टि धर देने का हुनर और विषय की मीमांसा करने के बजाय उसके ऊपरी परिचय में तैरते रहने का खिलंदड़ापन। तल में पैठ कर विषय की संरचना का मर्म उद्घाटित करने की तैयारी अब कहाँ? अलक्षित यथार्थ को चिंतन की आंच से प्राणमय करने का औघड़ साहस अब कहाँ? ऐसे नाजुक मोड़ पर आ कर आखिर सवाल तो बनेगा, कि नवचेतना लाने वाली सर्जना फिर कैसे उठ खड़ी हो?


एन्हेदुआना वह नाम हैं, जिन्हें सृजन के इतिहास में महाकाव्यात्मक कविता रचने वाले पहले कवि के तौर पर याद किया जाता है। एन्हेदुआना उर के सुमेरियन शहर में स्थिति चन्द्रमा मंदिर के महायाजक थे। "द डिसेंट आफ इनाना" इनका पहला महाकाव्य है, जो कि 400 पंक्तियों में रचित "एपिक पोएट्री" का दर्जा हासिल किए हुए है। आधुनिक युग की कवयित्रियों में एलिजाबेथ बैरेट ब्राउनिंग का नाम महाकाव्यात्मक कविता रचने के लिए जाना जाता है। इनकी प्रदीर्घ कविता है- "आरोरा लेह", जो कि तत्कालीन स्त्री वर्ग पर केन्द्रित है। ओलिविया गट्टी टेलर ने इस कविता की मूलभूत शक्ति पर एक लेख पर लिखा है। अंग्रेजी साहित्य की काव्य-धारा में रोमांटिसिज्म का अद्वितीय और निर्विकल्प महत्व है। इस धारा की एक उंची लहर का नाम है-कीट्स, जिन्होंने 1820 ई. में अपनी लंबी कविता रची- "हाइपरियन : ए फ्रैगमेंट। आगे इसी धारा की शिखरस्थ मेधा विलियम वर्ड्सवर्थ ने 1850 ई. में "द एक्सर्सन" नामक बृहद कविता रची। पर्सी शेली एक और स्थायी स्तम्भ, जिन्होंने "प्रामिथियस अनबाउंड" शीर्षक से लंबी कविता खड़ी की। एजरा पाउंड के दुर्लभ क्षमता से कौन साहित्यिक अछूता है? इनकी लंबी कविता- "द कैंटोस" अपनी संरचना में बेलीकियत लिए हुए है। अमेरिकन कविता के सिरमौर वाल्ट ह्वीटमैन ने "सांग आफ माईसेल्फ" में दरअसल अमेरिका की नैसर्गिक, सहज, जमीनी पहचान को उद्घाटित करने का कद्दावर प्रयत्न किया है। अंग्रेजी कविता में "बियोवुल्फ़" और प्रसिद्ध कवि चौसर की दो कविताएँ-"ट्रायल्स" और "क्रिसेड" विशिष्ट मूल्य की लंबी कविताएं हैं। इस संदर्भ में लिन केलर के योगदान का भुलाया नहीं जा सकता, जिन्होंने अपने निबंध- "पुशिंग् द लिमिट्स" में इस निष्कर्ष को स्थापित किया है कि लंबी कविता को बीसवीं सदी के आरंभिक अमेरिकी साहित्य में एक उल्लेखनीय काव्य-शैली के तौर पर मान्यता हासिल हुई। केलर ने निर्णयात्मक मनन करते हुए यह भी निष्कर्ष दिया कि लंबी कविता ने आधुनिकतावादियों को समाजशास्त्र, मानवशास्त्र और इतिहास को कुशलतापूर्वक  देखने योग्य भी बनाया। डेरेक वाल्काट की लंबी कविता- "ओमरोस" शीर्षक से है, जिसमें कवि कैरेबियन मछुआरों की जीवन-कथा अर्थबद्ध करता है। यह कविता गुमनाम, दृष्टि की सीमा से बाहर, हाशियाई जन के इतिहास को पूरे अधिकार के साथ दर्ज करने वाली उत्कृष्ट रचना है। 

 

टी. एस. इलियट

 

कोलाज शैली में लंबी कविता का अनन्य उदाहरण है- टी. एस. इलियट की प्रसिद्ध कविता- "द वेस्ट लैंड।" प्रथम विश्व युद्ध की संहारक पृष्ठभूमि में लिखी गयी इस कविता में इलियट ने एक प्रामाणिक यथार्थवादी दृष्टि को साकार किया है, जो कि अलग-अलग आयामों में बंटे हुए दृश्यों का समूह है। कोलाज कविता कई आवाजों को समाहित किए होती है, जिसका एक और प्रसिद्ध उदाहरण है- लैंगस्टन ह्यूज की लंबी कविता- "मोंटाज आफ ए ड्रीम डिफर्ड।" इसमें 20वीं से ताजा दरयथार्थ का व्यापक चित्रांकन हुआ है।


हिन्दी साहित्य में लंबी कविताओं की श्रृंखला लंबी है। प्रलय की छाया (जयशंकर प्रसाद), राम की शक्तिपूजा, सरोज स्मृति, कुकुरमुत्ता (निराला), अंधेरे में, भविष्यधारा (मुक्तिबोध), असाध्य वीणा (अज्ञेय), आत्महत्या के विरूद्ध (रघुवीर सहाय) और पटकथा (धूमिल) हिन्दी में अब तक की श्रेष्ठ लंबी कविताओं का मानक रचती हैं। इसके अतिरिक्त गिरिजा कुमार माथुर की "इतिहास के जर्राहों से। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की "कुआनो नदी"। जनकवि नागार्जुन की- "हरिजन गाथा" हिन्दी की पठनीय लंबी कविताओं के तौर पर समादृत ह़ोती हैं। इस सिलसिले में विजयदेव नारायण साही की कविता- "अलविदा", केदार नाथ सिंह की कविता "बाघ" और राजकमल चौधरी की कविता- "मुक्तिप्रसंग" को याद करना अनिवार्य दायित्व जैसा है। यह बात दीगर है कि काल के फलक पर अमिट ढंग से चमकने वाली दो ही कविताएँ सिद्ध हुईं- "राम की शक्तिपूजा" और "अंधेरे में।" राम की शक्तिपूजा की जमीन जहाँ रामायणिक है, वहीं "अंधेरे में" कविता की जमीन चतुर्दिक पसरते बाहरी-भीतरी अंधकार का मायावी विस्तार है।


लंबी कविता आधुनिक साहित्य का वैकल्पिक खंडकाव्य है। इसकी शुरुआत क्यों हुई, यह विचारणीय मुद्दा है। ध्यान खींचने योग्य तथ्य है, कि यह उपविधा के रुप में महाकाव्यों के लगभग अवसान के पश्चात प्रकट हुई। 20वीं सदी में बृहद उपन्यासों को जीवन का महाकाव्यात्मक आख्यान कहा गया, जो कि तर्कपूर्ण भी है। सही अर्थों में उपन्यास ही महाकाव्य के विकल्प सिद्ध होते हैं, अन्य कोई भी विधा नहीं। इस नजरिए से ल़ंबी कविता की अपनी अलग विशिष्टता, पहचान और प्रकृति है। लंबी कविता कविता का ही बहुदिशात्मक विस्तार है। प्रायः इसकी पृष्ठभूमि में कोई कथानक, कोई दुर्लभ चरित्र, मर्मभेदी घटना या बहुपरतीय अर्थों वाला विषय होता है। किसी न किसी रूप में पृष्ठभूमि की व्यापकता लंबी कविता के लिए अनिवार्य हैं। परन्तु अब यह अनिवार्यता भी समाप्त हो गयी है। लंबी कविता किसी एक भाव का विस्फोट, एक प्रश्न का बृहद उत्तर, एक गुत्थी का सुलझाव या एक ही मौलिक उद्देश्य का उद्घाटन हो सकता है। जैसे एक दीपक की रश्मियां, एक आग की चिंगारियां, एक फूल की चतुर्दिक सुगंध या एक आंख की कई दिशाएं। इसीलिए लंबी कविता अपनी प्रकृति में दीर्घायु रहने की शक्ति छिपाए हुए है। हमारे लिए यह समझना अधिक जरूरी है, कि इसकी शुरुआत क्यों हुई? जब कविता साहित्य के केन्द्र में सिंहासनारूढ़ थी, फिर लंबी कविता क्यों? कविता विषय के मूल्य, मर्म, महत्व का संक्षिप्त संगीत है, जबकि लंबी कविता एक या एक से अधिक समानधर्मा विषयों का समग्र मूल्योद्घाटन है। कविता तो पूरी हो लेती है, विषय, वस्तु, चरित्र, घटना पूरी नहीं हो पाती।विषय हमेशा कविता की पकड़ से बाहर रह जाता है। और स्पष्ट कहें, तो विषय कविता पर जीत दर्ज किए रहता है। बड़ी से बड़ी कविता भी विषय की शक्ति के आगे मात खायी रहती है। कविता का अधूरा रहना उसकी नियति है। वह पूरा हो कर भी अधूरी और अमुकम्मल है। जो कवि अपने प्रति तटस्थ, निर्मम और आलोचनाशील रहता है, वह अपनी पूरी हो चुकी छोटी कविताओं की सीमाओं को बखूबी समझता है। वह भीतर-भीतर यह भी कसक बूझता है कि हमारी कविता ने मार्मिक क्षमता हासिल करने के बावजूद विषय के तह-तह महत्व के साथ न्याय किया ही नहीं, फिर वह क्या करे? कौन सा तरीका अपनाए, कि विषय, घटना, चरित्र का रेशा-रेशा उद्घाटित हो जाय। एक-एक प्रसंग चमक जाए, जो उससे सम्बद्ध है। आधुनिक वक्त में कुछ भी सीमित अर्थ का नहीं। जो सीमित दिखता है, वह भी अंत:प्रकृति में असीमित निहितार्थ का है। जो लघु है, वह बृहद अर्थों वाला है, जो सूक्ष्म है, उसकी सत्ता व्यापक है, जो मामूली है, वह नजर का विशुद्ध धोखा है, जो साधारण है, वह असाधारण से नीचे कुछ भी नहीं। सर्जक की समझ में आया यह गुणात्मक परिवर्तन भी लंबी कविता के जन्म का मूल कारण बना। साथ ही समय में व्यापक होते हुए रहस्य, विषयों का विशिष्टता के साथ सूक्ष्म होते जाना और ज्ञान के नये-नये आयाम खड़े होते जाना भी लंबी कविताई के जन्म के कारण बने। लंबी कविताओं के सृजन का वह प्रारंभिक चरण था, जब उसे किसी तयशुदा कथानक पर निर्भर रहना पड़ता था। पूरी कविता उसी के ताने-बाने में उलझ कर रह जाती थी। परन्तु अब लंबी कविता की अंत:रचना में रोचक परिवर्तन आया है। टी. एस. इलियट की कविता- "द वेस्ट लैंड" इसका नायाब उदाहरण है, जो कि कई कविताओं का कोलाज है। यह एक कथानक पर केन्द्रित न हो कर एक ही समय में, एक ही घटना के अनेक कारणों, प्रभावों और परिणामों का काव्य रूपान्तरण है। इसके बरक्स मुक्तिबोध की कविता "अंधेरे में" बल्कि "भविष्यधारा", "इस नगरी में" जैसी और लंबी कविताएं भी परखी जा सकती हैं। मुक्तिबोध की शायद ही कोई लंबी कविता एक कथानक को आधार बना कर तानी गयी हो। शायद ही उसमें विषय का एक आयामीपन मिल सके। वे भी कोलाज ही हैं- भावों, चिंताओं, संकल्पों, संघर्षों, विकल्पों और अटूट जिद्द के कोलाज। मुक्तिबोध जैसे भागते हैं, फिर वापस लौटते हैं, लड़ने के लिए। परास्त होते हैं, हार नहीं मानते। जूझते हैं, मात देने का सपना पाले। गोताखोरी करते हैं, तह-तह झांक लेने के लिए। इस विकट मकसद के लिए ही उन्होंने फैंटेसी शिल्प को हथियार की तरह इस्तेमाल किया। आगे चल कर एक भी हिन्दी कवि इस शिल्प का मौलिक प्रयोगकर्ता सिद्ध न हो सका।आवश्यक नहीं कि सफल लंबी कविता के लिए फैंटेसी को अपनाया ही जाय, वह तो महा औघड़ कवि की अपनी खोज थी, अपनी नायाब उपलब्धि थी। अब मानक लंबी कविता रचने के लिए विचार के पीछे मचे विचार हैं। भाव के पीछे खदबदाते अलक्षित, अद्वितीय भाव हैं। चिंता के पीछे असंख्य चिंतन हैं। मुख्य अर्थ को संभाले अनेक उप-अर्थ हैं। उन्हीं को समझ जाएं, साक्षात्कार कर लें। पकड़ने का हुनर सीख लें।आत्मसात करने का धैर्य विकसित हो जाय, तो बिना फैंटेसी शिल्प को अपनाए, फैंटेसी जैसा अतल आनंद मिलेगा। लंबी कविता बृहद तैयारी का यादगार हस्तक्षेप है। एक प्रकार से विषय का विशेषांक। जो कवि की ओर से विषय, वस्तु, घटना का अधिकतम उद्घाटन होता है। परन्तु समग्र उद्घाटन यह भी नहीं। वह भरपाई तो केवल महाकाव्य ही कर सकता था। परन्तु महाकाव्य की अपेक्षा लंबी कविता रचना अधिक व्यावहारिक है, खासकर आजकल के साहित्यिक दौर में। महाकाव्य पूरे जीवन भर की तैयारी की शर्त रखता है, जबकि लंबी कविता एक  विषय को उसकी समग्रता में आत्मसात करने की शर्त रखती है बस। लंबी कविता "बहु भावात्मक आख्यान" ही है, बगैर किसी आख्यान के। छोटी कविताएं जैसे-जैसे निष्प्रभावी, सतही, सरल रेखीय होती जाएंगी, लंबी कविता अपना अनिवार्य दबाव बनाएगी, कवियों के ऊपर। वह भी जिम्मेदार, मोर्चाबद्ध, प्रतिबद्ध और सशक्त चेतना के कवियों पर। जिन्हें अपनी किसी भी नायाब कविता से कभी भी सन्तुष्टि नहीं मिलेगी, वे ही बार-बार लंबी कविता में उतरने, डूबने, मथने के लिए उद्धत होंगे।

 

 

मुक्तिबोध


यदि वर्तमान दौर में लंबी कविता अपना निर्विकल्प हस्तक्षेप दर्ज करना चाहती है, तो उसका स्टैंडर्ड क्या होगा, व्याकरण किस अंदाज़ का होगा। उसकी सैद्धांतिक रूपरेखा क्या होगी। वैसे सृजन की विधाओं को सिद्धांत के फ्रेम में फिट न करना उसकी जीवंतता के लिए अनिवार्य है, क्योंकि तयशुदा ढांचे में विधाओं को बांधते ही उसकी नैसर्गिक उर्जा मद्धिम, क्षीण और निस्तेज होने लगती है। इसीलिए विधाओं के लिए तरल, लचीली, परिवर्तनधर्मी सैद्धान्तिकी होनी चाहिए, जो समय, परिस्थिति या युग की पुकार के अनुरूप अपने को बदल सके, ढाल सके। लंबी कविता मजबूत तनाव की विधा है। यह तनाव प्रबल भावों, उद्दाम चेतना, प्रखर बौद्धिकता या कल्पना के विस्फोट का हो सकता है। विषय की नाटकीय प्रस्तुति करके भी लंबी कविता को चुम्बकीय बनाया जा सकता है। सिनेमाई अंदाज़ आधुनिक विधाओं को आकर्षक बनाने का कारगर उपाय रहा है, किन्तु यह सृजन को उसके मूल लक्ष्य से भटकाता भी है। क्योंकि तब सृजन का मकसद रेशा-रेशा अंत:मर्म का उद्घाटन नहीं, रोचकता के अंदाज़ में पाठक मन को बांधे रखना रह जाता है। इसीलिए लंबी कविता का समकालीन व्याकरण नाटकीयता के व्यामोह से मुक्ति में है। हमें तलाश करनी होगी, उन नये उपायों की जो नाटकीयता से कहीं ज्यादा असर पैदा करते हैं, चित्त का कहीं अधिक संस्कार करते हैं, चेतना को आश्चर्यजनक ढंग से परिष्कृत करते हैं। इनमें से एक गुर है-दृष्टि की अभिनवता। इसके लिए कवि को लौहकार, बढ़ई, मूर्तिकार की हुनर सीखनी होती है। लंबी कविता का आरंभ बल खाती जलराशि की तरह होनी चाहिए, न कि दरवाजे पर पड़ी चट्टान की तरह। खुला द्वार अधिक आकर्षित करता है, अंदर झांकने के लिए, बनिस्बत कि बंद दरवाजे के। अचूक जीवन दर्शन से लबरेज़ लंबी कविता का आगाज़ सदैव चुम्बकीय होता है। वह अनेक गहरे, चमकदार, अप्रत्याशित मोड़ों से भरी विधा है। इसीलिए लंबी कविता की भाषा में बहुरंगीपन अनिवार्य हैं। उसमें प्रतिष्ठित हों, मौलिक बिम्ब, अनछुए प्रतीक और ताजातरीन अर्थचित्र। क्योंकि पाठक के उत्सुक चित्त का निर्माण नयेपन की अदम्य भूख करती है। कथ्य के भीतर विद्युत की तरह बहती उद्देश्य की अंतर्धारा लंबी कविता की दूसरी शर्त है। यदि कविता में मोड़ आते ही मर्म का प्रवाह टूट जाता है, यदि काव्यार्थ की तरंगें बनती-बिगड़ती चलती हैं, यदि तत्व-खोजी कवि-दृष्टि बदलाव आते ही क्षीण हो जा रही, तो यह लंबी कविता की उम्र के लिए स्वस्थ लक्षण नहीं है। लंबी कविता अपने वितान में छोटी-छोटी अलक्षित दिशाओं को छूने की क्षमता रखती है, किन्तु उनका मूल्योद्घाटन करती हुई, पुनः अपने केन्द्रीय पथ पर लौटती है, पुनः अबाध आवेग से अपने निर्धारित मार्ग पर ज्वारित हो चलती है। लंबी कविता अनिश्चित लक्ष्यों में कवि-मन का बिखराव नहीं, बल्कि निरंतर उर्ध्वगामी होती हुई सशक्त चेतना का अभिनव तनाव है। चूंकि लंबी अपनी प्रकृति में फैलाववादी रहती है, इसलिए उसके विस्तार के बीच अर्थहीनता, बासीपन, शिथिलता और खोखली भाषा का खतरा रहता है। और ऐसे ही नाजुक पड़ाव पर कवि की क्षमता का इम्तहान होता है। लंबी कविता की पंक्ति-दर-पंक्ति कमाल की सार्थकता से सम्पन्न हो, यह बेहद श्रमसाध्य है। मुक्तिबोध की कविता "अंधेरे में" क्लासिकी का मुकाम हासिल करती है, और हिन्दी की शेष लंबी कविताएं क्यों नहीं, इसका कारण यही अर्थगत शैथिल्य, वर्णनात्मक बासीपन और दृष्टि का सपाट होना है। कविता हो, कहानी हो या उपन्यास हर विधा दूरगामी जीवन दर्शन से दीर्घायु होती है, लंबी कविता भी। वह दर्शन जो कविता की विद्युत-रीढ़ है, जो कविता की आत्मा का उजास है, जो कविता को एक प्रकाशमय आकार देता है, जो कविता की जड़ में मौजूद उर्वरक है। दर्शन अनेक दिशात्मक है। वह कभी जीवन दर्शन, कभी सृष्टि दर्शन, कभी मनोभाव मीमांसा, कभी भावी पथ तो कभी व्यक्तित्व को तराशने वाले स्वर्णसूत्र के रूप में जन्म लेता है।लंबी कविता की लचकदार रीढ़ यही मौलिक दर्शन ही है। समसामयिक शब्द विन्यास, रोज-रोज की जीवित भाषा, अर्थ को पेश करने की अनदेखी कला और शब्द-शब्द को मंत्र बनाने की काबिलियत लंबी कविता का महाकाव्य महत्व प्रदान करती है। कहना जरूरी है कि लंबी कविता में बजती हुई सुदूर लय की गूंज-प्रतिगूंज जीवित रहनी चाहिए। साथ ही हृदयाकर्षक गैप अनिवार्य है - अद्वितीय अर्थों की ध्वनियों का, कवि की उच्चाकांक्षा का, मूल्यवान इशारों का और कह कर भी न कह पाने की असीम अनुभूतियों का। लंबी कविता सैद्धांतिकी से बाहर रहने में जितनी ही सक्षम रहेगी, उसकी महत्ता और प्रासंगिकता उतनी ही स्थायी रहेगी।


कविवर मुक्तिबोध ने अपनी लंबी कविताओं के अंत:सत्य के संदर्भ में तात्विक बात कही है-"यथार्थ के तत्व परस्पर गुंफित होते हैं, साथ पूरा यथार्थ गतिशील होता है। अभिव्यक्ति का विषय बन कर जो यथार्थ प्रस्तुत होता है, वह भी ऐसा ही गतिशील और उसके तत्व भी परस्पर गुंफित हैं। यही कारण है, कि मैं छोटी कविताएं नहीं लिख पाता, जो छोटी होती हैं, वे वस्तुतः छोटी न हो कर अधूरी होती हैं। उन्हें खत्म करने की कला मुझे नहीं आती। यही मेरी ट्रेजेडी है। ("एक साहित्यिक की डायरी,पृष्ठ संख्या-20)


     

सदियों के फासलों में आगे बढ़ती सदी कई प्रवृत्तियों, अनेक संभावनाओं, शक्ति, कुशलता, माया और जटिलता के साथ विस्तृत हो चुकी है। ऐसा कोई क्षेत्र, वस्तु, तथ्य, सत्य, चरित्र, घटना या चेहरा नहीं- जो एक अर्थी हो, एक रंगी हो, एक पक्षीय या एक पानी को हो। मुखौटा तो सबकी प्रकृति ने ही दे रखा है। फिर चाहे वस्तु हो, व्यक्ति हो, जीव हो या जीवन। नित नये, अनोखे, आश्चर्यपूर्ण आचरण जन्म ले रहे हैं, मनुष्य में। इसका कारण समय का दबाव है, ज्ञान-वृद्धि का साइड इफेक्ट है,और पदार्थ के नियंत्रण और गुलामी में जीते मनुष्य की नियति है। यदि पुरुष अपनी दूसरी पत्नी की सौतेली बेटी से विवाह रचा ले रहा, तो उसे किस श्रेणी का अधोगामी मनुष्य कहेंगे? यदि एक ही परिवार के लगभग सभी एक दूसरे से कटे-कटे अजनबी की तरह साथ जीते हैं, तो ऐसे आचरण को क्या नाम देंगे?


धूमिल


मनुष्य जब किसी को धोखा देने की सोच रहा, उसी क्षण वह अपनी संभावनाओं के दरवाजे पर ताला भी लटका रहा। जब वह शक्ति और सत्ता के आसान पर विराजते हुए उपलब्धि के नशे में झूम रहा, तो उसी क्षण पतनशील विकृतियां उसे भीतर-भीतर खींच रहीं अपनी ओर। यदि मनुष्य का आचरण एक परतीय नहीं, तो तय है - न उसकी बुद्धि विश्वसनीय है, न व्यवहार, न बोली-वाणी और न ही कथन। आज का व्यक्ति में कहने-करने की फांक सर्वाधिक तेज हो चुकी है। इतना ही नहीं, वह किसी के भी प्रति जवाबदेही से मुक्त है। अपनी नींव, अपनी जड़, अपने आधार, अपनी जमीन के प्रति भी हृदयशून्यता इस कदर कि शाब्दिक कृतज्ञता तक ज्ञापित करना आवश्यक नहीं मानता। कृतज्ञता-भाव का खत्म होना अभूतपूर्व हो चला है- आज के मानव में। इसका कारण है- अवैध सम्पन्नता, बौद्धिकता की चालाकी और स्वार्थों के तारों से बुने हुए शख्त हृदय की सिकुड़न। मुक्तिबोध ने अनेक कविताओं में इस मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी के असल चरित्र की शिनाख्त की है। मनुष्य जब अलग-अलग भूमिकाओं में तत्पर रहता है, तो उसका व्यक्तित्व समृद्ध होता है, किन्तु जब अपने सारी भूमिकाओं का एक ही आत्मग्रस्त लक्ष्य तय कर लेता है, तो उसके व्यक्तित्व का ह्रास तय है। निस्संदेह नकारात्मक प्रकृति हावी है, मनुष्य के मन पर। अपने को छोड़ कर वह शेष सबके प्रति घोर निंदाशील है। इसीलिए नकारवादी मुखौटे का पोस्टमार्टम लंबी कविता की भावी भूमिका होनी चाहिए। मुक्तिबोध और धूमिल ने अपनी कविताओं में अवसरवादी मुखौटों का अपूर्व पोस्टमार्टम किया है, जो कि हमें सजग भी करती हैं, और सबक भी सिखाती हैं। केवल आम जन को छोड़ दें, तो सबके पास एक से बढ़ कर एक मुखौटे हैं। जितने धरती पर मनुष्य नहीं, उससे कई गुना उसके मुखौटे हैं। बुद्धिमान व्यक्ति कभी भी स्वयं को पूर्णतः प्रकट नहीं करता। राज करने वाला शासक अपने राज जीवन भर छिपाता है। जो खुद को प्रकट कर रहा, उससे बहुत ज्यादा वह कुछ और है, जो कह रहा, बस उतना ही नहीं कह रहा। बल्कि जो अनकहा है, वह अधिक जरूरी सच है। लंबी कविता इन मुखौटों की सटीक पहचान, उनकी शिनाख्त, उनको नग्न करने वाली अचूक विधा है। केवल यथार्थ की पारदर्शी व्याख्या, तथ्य का प्रामाणिक निरुपण और दृश्य को पुनः शब्द-चित्र में तब्दील कर देना, लंबी कविता की इति नहीं। सभ्यता की नयी संरचना की पारंगत मीमांसा, समाज में अविश्वसनीय गति से बढ़ती भेदगत जटिलता और संस्कृति में पनपती हुई न्याय विरोधी शक्तियों की शिनाख्त भी लंबी कविता का दायित्व है। लंबी कविताई एक प्रक्षेप, प्रोजेक्शन और धनुष से निकला हुआ तीर भी है।जो वर्तमान की जटिलता से जूझते हुए, भविष्य का पथ प्रशस्त करता है। जो एक अधिक वैज्ञानिक, अधिक तर्कशील, अधिक समृद्ध व्यक्तित्व के लिए मोर्चा संभालता है। दो मत नहीं, कि सम्यक्, सुचिंतित उम्मीदों के प्रक्षेप के बगैर लंबी कविता अधूरी लगती है, भले ही वह अनगिनत पन्नों पर क्यों न फैली हो। लंबी कविता एक मशाल भी है, एक टार्चलाइट, सशक्त दृष्टि का स्रोत भी। वह न केवल हमारे भीतर सामाजिक दायित्व भरती है, न केवल हमें राजनीतिक दृष्टि से सम्पन्न करती है, न केवल शेष मनुष्यों के प्रति मूलभूत कर्तव्यों से भर देती है, बल्कि हमें भविष्य के योग्य जमीनी मानव के रुप में निर्मित भी करती है। वर्तमान की कुरुपताओं को मात दे कर भविष्य के लिए प्रशस्त जनपथ का निर्माण करना लंबी कविता का मूलभूत दायित्व है। समय की पुकार की कसौटी पर चढ़ते हुए, जो लंबी कविता सटीक उत्तर देती है। जटिलतम सवालों का सटीक समाधान खोज निकालती है, जाहिर है - वही। लंबी कविता सर्वाधिक दीर्घजीवी सिद्ध हो पाती है। अपनी समग्र निर्मिति में लंबी कविता जीवन-दर्शन का प्रकाश पथ है, सत्यों के मर्म को संभाले रखने में सक्षम रीढ़। दो शिखरों की शिराओं को जोड़ने वाली लौह-रस्सी, जिस पर गंभीर संतुलन साधता हुआ कवि, जीवन की तलभेदी व्याख्या करने में समर्थ हो पाता है।



      

सम्पर्क

 

भरत प्रसाद

हिन्दी विभाग

पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय

शिलांग-793022,

मेघालय


जुलाई-2022 ई.

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