सदानन्द शाही की कविताएं

 

सदानन्द साही

 

यह जीवन जितना आसान दिखता है, वास्तव में उतना आसान होता है नहीं। जीवन को अपना अस्तित्व बनाए बचाए रखने के लिए उसे समय समय पर जद्दोजहद करनी पड़ती है। आज मनुष्य के होने में इस जद्दोजहद का बहुत बड़ा हाथ है। हाल ही में कोरोना महामारी ने मनुष्य जाति के समक्ष अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया। लेकिन मनुष्य इसीलिए सर्वश्रेष्ठ है, कि वह हर संकट का समाधान निकाल ही लेता है। कवियों ने इस समय को अपनी तरह से अपनी कविताओं में व्यक्त किया है। कवि सदानन्द शाही ने कोरोना काल में ऐसी जीवंत कविताएं लिखी हैं, जो पाठक के अंतर्मन को बेध डालती हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कवि सदानन्द शाही की कोरोना के दौर में लिखी कुछ कविताएँ।



सदानन्द शाही की कविताएं


कोरोना के दौर में लिखी कुछ कविताएँ




हे आनन्द संज्ञस्थ!*


तुम्हीं बताओ
श्रद्धा खेतों में तो नहीं उगती
न किसी कम्पनी में बनती है
रोज़ रोज़ इतनी श्रद्धांजलियाँ
इतने श्रद्धा सुमन
कहाँ से लाऊँ!


तुम कहोगे
शब्दों से ही दी जाती हैं श्रद्धांजलियाँ
शब्दों से ही अर्पित किए जाते हैं श्रद्धा सुमन


लेकिन नहीं मेरे भाई!
शब्दों के सिक्के भावों के टकसाल में ही ढलते हैं


भावनाओं का सोता ही जैसे सूख चला है
बंद हो गई है शब्दों की ढलाई
 

आख़िर इतने निष्ठुर क्यों हो
थोड़ा रहम करो
 

आँसुओं की भी कोई सीमा होती है
हे आनन्द संज्ञस्थ!
 

तुम तो हमारे आकाश पर
एक आश्वासन की तरह आये थे
उम्मीद की तरह छाये थे
 

कहाँ हम आनन्द की उम्मीद में थे
और कहाँ यह मृत्यु का अहर्निश ताण्डव
 

तुम कैसे मानव भक्षी निकले!
यह कैसा मानवमेध मचा रखा है तुमने
नरमुण्ड खोजते फिरते हो
बेशर्म !
ज़रा भी शर्म नहीं आती?
 

बोलो! कितनी
नर बलि तुमको लेनी है?
ले लो
इस मानव मेध का उत्सव तुम्हीं मनाओ
आनन्द संज्ञस्थ कहाओ
 

हे मानवमेध के दिग्विजयी
हमें हमारे महाशोक में
अकेला छोड़ कर
दूर चले जाओ
बस दूर चले जाओ
 

नहीं चाहिए
हमें तुम्हारा
यह आनन्दोत्सव
जो लाशों की गिनती पर चढ़ता
और संवरता है
 

धिक्कार तुम्हारे होने पर
धिक्कार तुम्हारे आने पर
 

बस जाते जाते लौटा दो
हमारी आँखों के वे आँसू
जो दूसरों के दुख पर छलक पड़ते थे
अनायास
 

हे आनन्द संज्ञस्थ
उठाओ अपना मृत्यु का पिटारा
अब प्रस्थान करो!
 

*13 अप्रैल 2021 से शुरु हुए संवत्सर की संज्ञा यानी नाम आनन्द है। महामारी का हाहाकारी रूप तभी से प्रकट हुआ है। आगामी संवत्सर का नाम राक्षस बताया जा रहा है।
(21 अप्रैल 2021)
 


2
 
 
गंगा पश्चाताप के आँसू रो रही है


शववाहिनियां खोजे से नहीं मिल रहीं हैं
शव जितने हैं
उतने कंधे नहीं बचे हैं
 

भय और आतंक में
तिरोहित हो चुकी है
आत्मीयता
 

अंतिम संस्कार के लिए
सदैव तत्पर
पुरोहित भी नहीं मिल रहे हैं


मणिकर्णिका का हृदय विदीर्ण है
हाहाकार कर रहे हैं हरिश्चंद्र
आख़िर कितने
रोहिताश्वों को देनी होगी
मुखाग्नि
 

गंगा पश्चाताप के आँसू रो रही है।
 
(23 अप्रैल 2021)
 
 

 
 
 
3
 
आक्सीजन की कमी
 

सबसे पहले लोगों की सोच में कम हुआ
ऑक्सीजन
फिर भाषा में दिखने लगी ऑक्सीजन की कमी
जिसे सामाजिक ताने बाने में महसूस किया गया
 

भावनाओं में ऑक्सीजन की कमी की खबर
जंगल में आग की तरह फैलाई गयी
खबर का फैलना था
कि
धू-धू कर के जल उठे सातों जंगल
 

वातावरण में ऑक्सीजन की कमी महसूस होने लगी
शरीर में गिरने लगा आक्सीजन का लेवेल
 

हस्पतालों का नम्बर सबसे अखीर में आया
उन्होंने ऑक्सीजन ख़त्म होने का बोर्ड ही लगा दिया।



4

सतयुग में जाने का रास्ता


जब आक्सीजन के लिए हाहाकार मचा था
हिमालय की गोद में बैठे
महापुरुष ने
लोगों को
सतयुग में जाने की सलाह दे डाली
क्योंकि
सतयुग बिना ऑक्सीजन के भी रह लेते थे लोग
 

भगदड़ सी मच गयी है
लोग सतयुग की ओर भागे जा रहे हैं
रास्ता किसी को नहीं मालूम
न ही सवारी का पता है
 

हरिश्चन्द्र घाट पर
भीड़ लग गयी
शायद सतयुग में जाने का रास्ता
यहीं से निकलता हो।
 
 


5

उलटबांसी


डाक्टर भोंपू बजा रहा था
मास्टर ट्रैफिक कंट्रोल के लिए तैनात थे
पुलिस के जिम्मे डाक्टरी आ गयी थी
अर्थशास्त्री लोक-नृत्य कर रहे थे
राजनीति शास्त्री विदूषकों के नाक में दम किए हुए था
इतिहासकार अर्थ रचना संभालने में जुटे थे
कवियों ने भांटों का पेशा हथिया लिया था
भांट इतिहास लिखने के लिए मजबूर थे
पत्रकारों ने खोल लिए थे मसाज पार्लर
वकील योगा सिखाने लगे थे
योगिराज तेल बेंच रहे थे
भोंपू बजाने वाले के हाथ में विधि व्यवस्था संभालने की जिम्मेदारी थी
विदूषक वीजा पासपोर्ट विभाग में जम गये थे
लोक नर्तक जुट गये थे एटामिक रिसर्च के फ्रंट पर
मदारी युद्धनीति पर काम कर रहे थे
फिल्मी कलाकार फरमान जारी कर रहे थे
विलेन सेवा कार्य में जुटा हुआ था
महानायक बीमा पालिसी बेचने में मशगूल था
पुजारी ले उड़े थे दारू के ठेके
और जब दारूवाला ज्योतिष बांच रहा था
ठीक उसी समय
सल्फाश की दुकानों पर
खरीदारों की लम्बी लाइन लग चुकी थी
 
 
(20 जुलाई 2020)
 
 

 


 
 
6

प्रेतात्माओं की प्रार्थना


जब लोग मर रहे थे
प्रेतात्माएं
गिनती कर रही थीं
 

प्रेतात्माएं
चिंतित थीं
कि
इतने कम लोग मर रहे हैं
 

प्रेतात्माएं
बयान जारी कर रही थीं-
 

देखिए न
हमारी इतनी कोशिशों के बावजूद
कितने कम लोग मरे हैं
 

प्रेतात्माएं
हवन कर रही थीं
प्रेतात्माएं
शंख बजा रही थीं
प्रेतात्माएं
प्रार्थना कर रही थीं
 

हे प्रेतों के देवाधिदेव!
कुछ करो न!
देखो न!
कितने कम लोग मर रहे हैं
कुछ तो करो मेरे प्रभो!


और और जगहों पर
और और लोग मर रहे हैं
वहां की प्रेतात्माएं कितनी खुश हैं
कितना नाच रही हैं
ढोल पीट रही हैं
खुश हो रही हैं
उनके कुटुम्बी
उत्सव मना रहे हैं
मरे हुए लोगों की
जगह जमीनों पर
काबिज हो रही हैं
प्रेतात्माएं
बेच रही हैं
मरे हुए लोगों के घर द्वार
माल असबाब
उखाड़ रही हैं दरवाजे
दरवाजों में लगी किल्लियां
तांबा पीतल हाथी दांत
कबाड़ियों की बन आई है
गुलज़ार हो गये हैं श्मशान
 

वहां प्रेतात्माएं
तेजी से बेदखल कर रही हैं
मानवात्माओं को
और हम यहां
गिनती गिन रहे हैं
एक-दो-तीन
 

हे प्रेतों के देवाधिदेव!
कुछ करो न!
देखो न!
कितने कम लोग मर रहे हैं
कुछ तो करो मेरे प्रभो!
 

प्रार्थनाओं के बाद
प्रेतात्माएँ
फिर से गिनने में हो जाती हैं
मशगूल
 
(8 सितम्बर 2020)
 


7

लाकडाउन में कुत्ते


 
लाकडाउन में कुत्ते
अकबकाए घूम रहे थे
लंका से नरिया
और नरिया से सुंदरपुर
झुंड के झुंड
 

बेशक वे भूखे थे
और भोजन की तलाश में
डोल रहे थे
इधर उधर
 

कहना मुश्किल था कि
उन्हें लाकडाउन के बारे में हुई
राजाज्ञाओं का कोई इल्म था भी
या नहीं
 

रोज रोज बदलती
आसमानी उद्घोषणाएं
उन तक पहुंच भी रही थीं
या नहीं


फिर भी
उन्होंने भौंकना बंद कर दिया था
ओढ़ ली थी
चुप्पी की गहरी चादर


भूख से कहीं ज्यादा
वे इस बात से चिंतित दिखे
कि आखिर
इन आदमियों को हो क्या गया है?
 

क्या उन्हें सांप सूंघ गया है?
न आना न जाना
न बोलना न बतियाना
टुकुर टुकुर टीवी निहारना
न पढ़ना न लिखना
सिर झुकाए मोबाइल पर
थोक के भाव जारी संदेशों को
पढ़ते हुए
अज्ञात अंदेशे में डूबे रहना
 

मुंह पर जाबी लगाए
चोरी छुपे निकलना
 

आखिर इन आदमियों ने
ऐसा क्या कर दिया है
कि
मुंह दिखाने के लायक नहीं रहे
इसी सोच में डूबे हुए
आते जाते
आदमियों पर करुण सी निगाह
डालते जाते हैं कुत्ते
 

उनकी निगाह में वैसी ही करुणा थी
जिसे प्रेमचन्द ने पाया था
हलकू के लिए
जबरा की ‌आंखों में
पूस की एक सुबह।
 
 

 
 

8

अलविदा कहने का वक्त


खुशियों ज़रा ठहरो
कि रात की रात की सियाही गहरा गई है
 

रंगीनियों
थोड़ा थम जाओ
रोशनियों
थोड़ा वक्त दे दो
 

एक और मर्सिया लिख रखूं
न जाने कब
किस अजीज को
अलविदा कहने का वक्त आ पड़े।
 

9

लूडो खेलिए


 
जब महामारी चरम पर थी
देश का सबसे बड़ा डाक्टर लूडो खेल रहा था
जब पुल भर-भरा कर गिर रहा था
देश का सबसे बड़ा इंजीनियर लूडो खेल रहा था
जब बच्चे पढ़ने के लिए मचल रहे थे
देश का सबसे बड़ा प्रोफेसर लूडो खेल रहा था
जब बाढ़ ने पूरे बिहार में मचाई थी तबाही
देश का सबसे बड़ा ठेकेदार लूडो खेल रहा था
जब लोग भूख से विकल थे
अंतड़िया ऐंठ रही थीं
देश का भामाशाह लूडो खेल रहा था
 

और जब यह सब हो रहा था
देश के बड़े-बड़े पत्रकार
नीति निर्माता
वित्त विधाता
कवि कलाकार
लूडो खेल रहे थे
 

हमारे समय का संदेश है
लूडो खेलिए
 

बाढ़ हो या महामारी
ग़रीबी हो या भुखमरी
हत्या हो या आगजनी
लूडो खेलिए
 

आतंकवादी आ रहे हों
काला धन जा रहा हो
दुनिया मंदी से गुजर रही हो
तबाही आ रही हो
लूडो खेलिए


विश्व युद्ध के मुहाने पर बैठ कर
महाप्रलय के सिरहाने उठंग कर
लूडो खेलिए
 

बहुत आसान है लूडो खेलना
सीधा सा नियम है
दूसरे की गोटी काटना
और
अपनी गोटी चमकाते रहना
 

हमारे समय का संदेश है
लूडो खेलिए।
 
 
 
10
 

गंगा की प्रार्थना -1

मैं सोना चाहती हूँ
पर आँखों में नींद नहीं है
हे मेरे ईश्वर!
मेरी नींद लौटा दो
 

मैं रोना चाहती हूँ
पर आँखों में आँसू नहीं हैं
हे मेरे ईश्वर!
मेरी आँखों का पानी लौटा दो
 

मैं शर्मिंदा हूँ
कि जीवनदायिनी मैं
शववाहिनी कैसे बन गयी
हे मेरे ईश्वर!
मुझे
मेरा जीवन लौटा दो
 

मैं जीना चाहती हूँ
मैं बहना चाहती हूँ
मैं लोगों के साथ रहना चाहती हूँ।
 
 

गंगा की प्रार्थना-2

 
भगीरथ तुम कहाँ हो
मुझे तुम्हारा इंतज़ार है
 

एक बात पूछूँ
क्या इसी दिन के लिए
मुझे लाए थे धरती पर
की थी इतनी तपस्या
शिव की जटा में ही
मैं क्या बुरी थी
 

यहाँ पतित पावनी नाम दे कर
एक से बढ़ कर एक
पतितों को तारने का
काम दे दिया
 

मैं थक गयी हूँ
यह सब करते-करते
 

सुनो भगीरथ!
मैं माँ हूँ
मुझ से नहीं सुना जाता -
संततियों का विलाप
 

मैं लौट जाना चाहती हूँ
शिव की जटा में
इन पापियों से
मुझे छुट्टी दिलाओ
ओ भगीरथ!
 
 

गंगा की प्रार्थना-3
 

ओ सदाशिव!
कहाँ सोये हो
किस ध्यान मुद्रा में
 

लाशों से पट गया है
मेरा आँचल
मैं जीवनदायिनी थी
शववाहिनी हो गयी हूँ
 

ओ सदाशिव!
कहाँ सोये हो
किस ध्यान मुद्रा में।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्वर्गीय कवि विजेंद्र जी की हैं।)



सम्पर्क

मोबाइल : 09616393771












टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं