शेखर जोशी की कहानी नौरंगी बीमार है

 



कारखानों के मजदूरों के जीवन को ले कर शेखर जोशी ने उम्दा कहानियां लिखी हैं। ये कहानियां उनके अनुभवजनित जीवन के दास्तान की तरह हैं। 'नौरंगी बीमार है' ऐसी ही कहानी है जिसमें दफ्तर के अधिकारी सन्देह करते हैं कि नौरंगी ने वेतन के समय कुछ ज्यादा धनराशि प्राप्त कर ली है। नौरंगी वेतन प्राप्त करने के बाद  जब कुछ दिन ऑफिस नहीं आता तो अधिकारियों का उस पर सन्देह बढ़ता है। दूसरी तरफ नौरंगी अपनी बीमारी के चलते ऑफिस से जब अनुपस्थित रहता है, तब उसकी नीयत के बारे में कानाफूसी और बढ़ जाती है। इस तरह नौरंगी की बीमारी वर्तमान व्यवस्था की बीमारी के रूप में बदल जाती है। शेखर जी बड़ी बारीकी से अपने समय और समाज की विडंबनाओं को उद्घाटित करते हैं। इसीलिए इनकी कहानियां पाठक को अंदर तक बेध डालती हैं।

शेखर जोशी हमारे समय के अप्रतिम कथाकार हैं। आज दादा का 90वां जन्मदिन है। शेखर जी के स्वस्थ एवम सक्रिय जीवन की कामना करते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं शेखर जोशी की कहानी 'नौरंगी बीमार है'।

 


नौरंगी बीमार है


शेखर जोशी 



तीन-तीन चेकरौल का पैसा बँटे और हिसाब में रुपए-दो रुपए नीचे-ऊपर न हों, ऐसा कम ही होता है। रेजकारी का तो रोज ही अकाल पड़ा रहता है। किसी को दस पैसे कम पड़े तो किसी को पाँच ज्यादा दे दिए। फिर बाँटने-गिनने वालों की बात पर भी है। अब राय साहब थे, नोट क्या गिनते जैसे बिजली का पंखा चला देते हों-फर्र-फर्र-फर्र। देख रहे हैं आपकी तरफ और अँगुलियाँ नोट की गड्डी पर दौड़ रही हैं। मजाल है जो एक भी नोट कम-ज्यादा हो जाए। फट से पटक देंगे लेने वाले के सामने। कोई बिचौलिया नहीं गिन ले बेटा, अगर शक हो तो! अगर बैंक से नए नोटों की गड्डी आ गई तब तो और भी फटाफट पैसा बँट जाता। बड़े दिमाग वाले थे राय साहब। मन-ही-मन नोट के नंबर की गिनती देख कर हिसाब लगा लेते और फट से जरूरत भर नोटों का गुच्छा निकाल कर आदमी के हाथ में पकड़ा देते। घंटे-भर में पेमेंट खतम! टैम से घर पहुँचो, सौदा-सुलफ करो क्या बात थी उनकी!


माथुर साहब थे, जिस पेमेंट पर उनकी बारी हो, उस दिन समझो हो गया बिना पैसे का ओवरटैम। घिचिर-पिचिर गिन रहे हैं एक-एक नोट मेज पर सामने पानी से भीगा पैड रखा है पर अँगुलियों को बार-बार थूक में लथेड़ रहे हैं। एक बार दो बार खुद गिनेंगे, फिर क्लर्क बाबू को पकड़ा देंगे-लो चेक कर लो! कोई ढंग का बाबू हुआ तो ठीक, नहीं कामेश्वर बाबू फँस गए तो फिर गई भैंस पानी में। पहली बार गिनेंगे तो कहेंगे- साहब, दस का एक नोट कम है। माथुर साहब घुड़केंगे- ठीक से गिनो फिर से! दूसरी बार कहेंगे- नहीं सर, एक ज्यादा हो रहा है। कामेश्वर बाबू की लियाकत जानते हुए भी अबकी बार माथुर साहब के खड़े हो जाएँगे। अगले आदमी का पैसा गिनना छोड़, नोट की गड्डी अपने हाथ में ले लेंगे और फिर अँगुलियों को थूक में सानने लगेंगे। नोट क्या घटेंगे-बढ़ेंगे, लेने वाले का माथा खराब हो जाता।


एक नमूना थे भण्डारी साहब। नोट गिन रहे हैं, गिन रहे हैं। तब तक किसी ने ऊँची आवाज में बात कर दी तो गड़बड़ा जाएँगे। फिर पहले से गिनती शुरू। अब सौ-पचास आदमी बैठे हैं, काम-काज कुछ है नहीं, दफ्तर के बराँडे में। बीड़ी-सिगरेट भी नहीं पी सकते। बात नहीं करेंगे तो क्या मुर्दों से ठंडे पड़े रहेंगे! गप-शप भी होती, हँसी-मजाक भी होता, सुर्ती-खैनी भी बँटती लेकिन भंडारी साहब थे कि दस नोट गिनते, फिर चिल्लाते - डिस्टर्ब मत करो भाई! तनखा के दिन साहूकार महाजनों का धंधा भी जोरों पर रहता है। दरवाजे से ही नोंच-खसोट शुरू हो जाती है। सभी तो माहवारी दस के ग्यारह वाले महाजन बन गए हैं आजकल। कुछ शरीफ लोग भी गुप्ती महाजन हैं तो उनके चेले-चापड़ उघाई-वसूली करते हैं। एक मनई के पीछे चार-चार चिल्लर लगे हों तो हल्ला-गुल्ला तो होगा ही। ले तेरी की, दे तेरी की।


भंडारी साहब कैश छोड़ कर उठ जाते- हम नहीं बाँटेंगे पैसा। आप लोग तो पैसा ले कर घर चले जाएँगे और इस हल्ले-गुल्ले में गड़बड़ हो गई तो हम कहाँ से भरेंगे?


नेता किसम के दो-चार लोग बीच-बचाव करते। 

-ए भाई! आप लोग चुपचाप बैठिए। बिलकुल हल्ला-गुल्ला मत कीजिए। 

- उधर लॉन में जा कर बैठो भाई! जिसका नाम पुकारा जाए वही इधर आएगा। 

-अमें, ई मादर" महाजन के चमचन के हटावो, एही सब गदर मचाए हैं। 

-लॉन में नहीं भाई! लॉन में नहीं। सब फूल-पत्ती खराब हो जाती हैं। उधर बरांडे में बैठो।


-अब बाँटें हुजूर। अब कोई हल्ला-गुल्ला नहीं होगा। 

भंडारी साहब फिर शुरू करते। पंद्रह-बीस मिनट सब ठीक रहता, फिर वही चख चख, किच-किच शुरू हो जाती। 

भंडारी साहब चिल्लाते- डिस्टर्ब मत करो भई!


नेता चिल्लाते-चुप रहिए आप लोग।


जैसे-तैसे पेमेंट निबटता। फुटकर पैसों के लेन-देन में भूल-चूक से कभी कुछ बच गया तो उसे बड़े बाबू सँभाल लेते और थोड़ी बहुत कमी होने पर ऐसी ही बचत की जमापूँजी से भरपाई कर देते थे। लेकिन किसी तरह का बड़ा घाटा न बड़े बाबू के बूते की बात थी, न अफसर-हुक्काम के। छोटा अफसर भी कहाँ से देगा? उसे महीने भर गिनती के रुपए मिलते हैं। फिर जैसी औकात वैसा खर्च इस महँगाई के जमाने में किसी नौकरी-पेशा आदमी पर सौ-पचास की चपत लग जाए तो महीनों तक सहलाता ही रहेगा।


बनर्जी साहब से कहीं चूक हो ही गई। आखिरी हिसाब-किताब में दो सौ रुपया कम पड़ गया। बड़े ऑफिस के खजांची ने तो पूरा ही दिया होगा वरना टंडन साहब पहले ही हल्ला मचा देते। कैश ला कर मेज पर रखने के बाद पहला काम अफसर उसे दुबारा बड़े बाबू से चैक कराने का करता है। सौ, पचास, दस, पाँच, एक, दो के नोटों की गड्डियों की थोक गिनती में कौन टैम लगना है। गिन कर देख लिया, चेकरौल की कुल रकम से मिलान कर लिया तो तसल्ली हो गई। कहते हैं, एक बार खजांची बाबू की गलती से सौ रुपए वाली एक गड्डी ज्यादा आ गई थी। शायद दस वाले नोटों भ्रम बैठा बेचारा। एक ही झटके में दस हजार का वारा-न्यारा हो जाता अगर टंडन बाबू न होते। नहीं, दस नहीं, एक दस की गड्डी तो उसे देनी ही थी, नौ हजार का वारा-न्यारा समझो। मगर, वाह रे टंडन बाबू! उसी वक्त फोन कर दिया बड़े ऑफिस, कहीं हाटफेल न हो जाए बेचारे खजांची बाबू का। कुछ भी कहो, अपनी बिरादरी के लिए आदमी के दिल में दर्द तो रहता ही है।


गलती अकेले बनर्जी साहब की थी यह भी कैसे कहा जाए! मान लिया, बनर्जी साहब ने गलती से दो नोट ज्यादा गिन दिए, पर हर आदमी को पेमेंट करने से पहले उस रकम को दुबारा टंडन बाबू भी तो गिनते हैं। ऐसा भी नहीं हो सकता कि साहब ने किसी के नाम के आगे दूसरे की रकम देख ली हो। उसकी भी काट है। रकम लेने से पहले आदमी अपनी पे-स्लिप पकड़ाता है। उसमें लिखी रकम का मिलान तो टंडन बाबू ने ही किया होगा। जब सामने पड़ा पैसा कम हो रहा है तो मानना पड़ेगा गलती इसकी हो या उसकी, गलती तो हो ही गई। बड़े बाबू ने तुरत-फुरत 'वैलफेयर के भोंपू पर ऐलान करवाया-गलती से किसी भाई को दो सौ रुपया ज्यादा दे दिया गया है। जिस किसी को ज्यादा मिला हो, साहब को लौटाने की किरपा करें। ईमानदारी के लिए ईनाम दिया जाएगा। तब तक आधे से ज्यादा लोग तो जा ही चुके थे। तनखा के दिन गेट पर भी ढील रहती है- तनखा लो और फूटो। न जाने वालों में बचे रहते हैं- महाजन-सूदखोर, उनके चमचे-अहलकार, गर्जमंद कर्जखोर जिनका कभी पूरा नहीं पड़ता- भले बोनस मिले, जाली एल. टी. सी. या मेडिकल का पैसा मिल जाए, फेस्टिवल एडवांस मिले या सायकिल एडवांस- उन्हें तो जो भी मिले उसे मादर सूदखोर-महाजन के खप्पर में डालना है जो कभी भरता ही नहीं। फिर दलिद्दर के दलिद्दर। और बचे रह जाते हैं बीसी की कमेटियों वाले। हर महीने पर्ची डाल कर बीस में एक आदमी को पहले रुपया मिलता है। जिसकी तकदीर खुल जाए। रुपए की गरज किसे नहीं होती। सभी मिंबर रुके रहते हैं। कमेटियाँ भी तो कई हैं-कोई सौ रुपया माहवारी वाली तो कोई पचास वाली। कोई-कोई गरीब-गुरबा की दस-दस रुपया वाली भी है। हाँ, तनखा के दिन आखिरी हूटर के बाद तक रुके रहने वालों में एक दल और है-बेर के झाड़ के नीचे वालों का। तनखा मिली नहीं कि पहुँचे वहीं-माँग पत और कटिंग हो जाए वारा-न्यारा। आज इधर या उधर। बगल में देने वाला महाज तो बैठा ही है। उनकी बला से, भोंपू पर गाना बजे या बड़े बाबू अपने रुपय का रोना रोएँ। वहाँ तो एक ही राग है- तिग्गी-तिग्गी-तिग्गी, छक्का छक्का छक्का ये मारा!


बड़े बाबू ने चेकरौलों के हर पन्ने की रकम का अलग-अलग टोटल कर भी देख लिया, कहीं गलती से देनदारी और टोटल में फर्क न हो। लेकिन वह भी ठीक निकला।


बनर्जी साहब ने फोरमैन शर्मा को बुलवाया। मशीन ब्रेकडौन में फँसे थे बेचारे, आज तनखा के दिन मेन्टेंस वालों का ओवरटैम लगा कर मशीन चालू कराने के चक्कर में थे। साहब ने बुलाया तो आना ही पड़ा। शर्मा जी ठहरे घाघ आदमी - आते ही सही नब्ज पर हाथ रख दिया। चेकरौलों के हर पन्ने पर एक नजर डाली और मामला समझ लिए। बनर्जी साहब और टंडन बाबू घंटों से जिस गुत्थी को नहीं सुलझा पाए थे वह गुत्थी उन्होंने चुटकी मारते ही सुलझा दी। 

- बड़े बाबू, अपना चश्मा कब चेक कराए थे आप? 

बड़े बाबू भकुआ के शर्मा जी की ओर देखते हैं।


-चार पेमेंट आठ-आठ सौ के, बीच में एक पेमेंट छः सौ का, फिर तीन पेमेंट आठ-आठ सौ के। बनर्जी साहब ने इसे भी आठ सौ का समझा और गिन दिए आठ नोट। आपने पे स्लिप देखी, अंग्रेजी के छः और आठ की गोलाई तो एक-सी होती है। चश्मा पुराना हो गया, छः के बीच का गैप नहीं पकड़ पाए आप।


आज भरपूर भड़ास निकाल ली शर्मा जी ने। हमेशा तो दफ्तर वालों से चख-चख चलती ही रहती है। तुम बड़े कि हम बड़े? हम शॉप के राजा, नहीं हम दफ्तर के राजा! हम आउटपुट देते हैं, नहीं हम तनखा बनाते हैं! आप बड़े आदमियों की बड़ी बात। सीधे अंधा-काना नहीं कहा लेकिन कहा तो वही। सुलग कर रह गई होगी टंडन बाबू की!


लेकिन छः सौ की रकम जिस आदमी के नाम के आगे लिखी थी उसका नाम पढ़ कर बड़े बाबू का भी हौसला बढ़ गया। लोहा गरम था, उन्होंने भी चोट कर दी। 


- शॉप के आदमियों को तो आप हमसे अच्छा जानते होंगे! आप उनके माई-बाप बनते हैं। लेकिन इतना मुझे भी मालूम है, नौरंगी मिस्त्री को पे स्लिप से एक रुपया भी ज्यादा मिला होता तो वह तत्काल लौटा जाता। 

कहते-कहते बड़े बाबू एकाएक उठ कर चल दिए। कहाँ गए? क्यों गए?


पानी-पेशाब, दिशा-मैदान? नहीं, सीधे अपने दफ्तर में। हड़बड़ी में चपरासी को भी नहीं पुकारा। स्टूल पर खड़े हो कर 'डेली आर्डर' की मोटी-मोटी पुरानी जिल्द बँधी फाइलें उतारीं। अंदाज से चार साल पहले की एक फाइल के पन्ने पलटते-पलटते उनकी मुराद पूरी हो गई। पैंट, क़मीज और चश्मे के शीशों पर धूल चढ़ गई थी। कपड़ों की परवाह उन्होंने नहीं की। हाँ, जेब से रूमाल निकाल कर चलते-चलते शीशे जरूर साफ कर लिए।


-छब्बू, शर्मा जी से बोलो, साहब फिर बुला रहे हैं। 


साहब क्या कहें! न हाँ, न ना! इस वक्त पिटे हुए मुहरा बने हैं। असली जिम्मेवारी तो उन्हीं की है, उन्होंने ही वाउचर साइन किया है। फिरौती में खजांची बाबू को भरपाई उन्हें ही करनी पड़ेगी। पेइंग अफसर तो वे ही हैं- टंडन बाबू अपनी भनमनसाहत में नुकसान का हिस्सा-बाँट कर लें वरना कानूनन उनकी कोई जिम्मेवारी नहीं बनती। मिला के रखने में ही भलाई है। बुलाओ भैया मेरे नाम पर, शर्मा को बुलाओ चाहे वर्मा को बुलाओ। आज तो हमारी पिटी है। आज हम तुम्हारे नहीं, तुम हमारे अफसर हो।


फोरमैन शर्मा अपने काम का हर्ज होता देख कर झुंझलाए तो जरूर होंगे लेकिन जो गुत्थी अभी-अभी वे सुलझा गए थे उसका नशा भी कम नहीं था। 


-फिर क्या बात हो गई साहब?


उन्होंने सीधे बनर्जी साहब से ही पूछा, जैसे टंडन बाबू को सेटना ही न चाहते हों।


बनर्जी साहब कुछ कहें इससे पहले बड़े बाबू ने तुरुप का-सा पत्ता फेंकते हुए पुराने डेली ऑर्डर की फाइल का एक पन्ना उनके आगे कर दिया।

 


 


-यह देखिए! महेंद्र सिंह साहब के जमाने का केस है। दो सौ नहीं, पूरा चार सौ ज्यादा मिला था नौरंगी मिस्त्री को उस बार। कई पेमेंट थे-बोनस, ओ. टी. तनख्वा-सब एक साथ मिले थे। लेकिन उसने बिना किसी के पूछे, खुद आ कर बकाया पैसे लौटा दिए थे। सरदार साहब ने दूसरे ही दिन हैड ऑफिस जाकर डी. ओ. करवाया था और चीफ साहब यहाँ आ कर उसे शाबासी दे कर गए थे। आप समझते हैं, नौरंगी को दो सौ ज्यादा मिले होते तो वह दबा जाता? आदमी इतनी जल्दी नहीं बदलता शर्मा जी!


शर्मा जी का मुँह चुचुक गया। बड़े बाबू की डेलीऑर्डर वाली बात नहीं, अपनी जल्दबाजी में उन्होंने सिर्फ रकम ही देखी थी। जिस नाम के आगे रकम लिखी उसे भी तत्काल देख लिए होते तो कुछ सोच-समझ कर अपनी बात रखते।


पुराने डेली ऑर्डर वाली बात तो उन्हें आज पहली बार मालूम हुई है, तब उनकी पोस्टिंग यहाँ नहीं थी। लेकिन शॉप में जिन लोगों के काम और बात पर वे विश्वास कर सकते हैं उनमें से एक नौरंगी मिस्त्री भी है। सिर्फ शर्मा जी ही क्यों, कोई सुपरवाइजर हो या कारीगर, नौरंगी की ईमानदारी पर शक नहीं कर सकता। उस बार स्टोर में आधा सूत वाले बरमे कम हो गए थे। टूट-फूट बहुत हो रही थी। जो दो-चार थे उन्हें शर्मा जी ने ले कर अपने कब्जे में कर लिया था। एक साझे की ड्रिल मशीन इशू करा दी थी जिसे जरूरत हो ले जाए, अपनी गाड़ी पर काम करे और वापिस अलमारी में रख दे। गिनती के चार बरमों में से दो फिर किसने तोड़ दिए, पता नहीं चला। लेकिन तीसरा टूटा बरमा ले कर नौरंगी मिस्त्री खुद आया था-शर्मा जी को बताने।


-यह आखरी ड्रिल बची है नौरंगी! ले जाओ, मशीन में लगा दो। तुम लोगों को जरा सावधानी से काम करना चाहिए।


कारीगर आदमी के लिए इतना ही कहना-सुनना बहुत है। सुन कर नौरंगी को बुरा न लगा हो, ऐसी बात नहीं। लेकिन फोरमैन साहब का लिहाज कर गया। सयाने आदमी हैं, उन्हें भी दस चिंताएँ रहती हैं। 


कोई दूसरा आदमी होता तो इतना सुन चुकने पर जैसे पहले दो बरमे तोड़ कर कोई छोड़ गया था वैसे ही छोड़ कर पल्ला झाड़ लेता। लेकिन चौथा बरमा भी जब घंटे भर में ही टूट गया तो नौरंगी मिस्त्री ने खुद आ कर इसकी रिपोर्ट शर्मा जी को दी थी।


-कानपुरिया स्टील है साहब जी! आप कब्जों का माल बदलवा दीजिए। यह बरमे-टैप सब तोड़ देगा।


एक भरोसेमंद, दूरदर्शी, ईमानदार आदमी है नौरंगी, बड़े बाबू ठीक ही कहते हैं। अपनी सूझ-बूझ पर पछतावा होने लगा शर्मा जी को। बड़े बाबू उनके पाले में आ कर उन्हें थप्पी दे गए आज!


घंटों सिर खपाने पर भी कुछ हाथ नहीं लगा। हैड ऑफिस में खजांची बाबू 'चेकरौल और फिरौती के कैश के इंतजार में बैठे थे। दो बार फोन भी कर चुके थे। 


बनर्जी साहब ने कागजात समेटते हुए अपनी ओर से इशारा किया। 


-अभी तो हम लोग भरपाई कर देते हैं लेकिन आप कल लोगों को बुला कर कुछ तो पता चाहिए बड़े बाबू! 


- ठीक है साहब, कोशिश करेंगे कल, आप जाइए, चेकरौल जमा करा आइए! एकदम निर्लिप्त ! मुँह-जबानी जमाखर्च भी नहीं!


फोरमैन शर्मा की अकड़ कम करने के लिए टंडन बाबू ने डेली ऑर्डर की तुरुप चाल भले ही चली हो लेकिन मन के किसी कोने में उन्हें भी शर्मा जी की बात में वजन मालूम पड़ रहा था। इतना बड़ा चेकरौल! कहाँ याद रहता है कि किसको कितना दिया था। दिमाग पर जोर डालने पर भी याद नहीं आता कि आठ सौ वाली सात पेमेंट के बीच अकेली एक छः सौ की पेमेंट भी उन्होंने की थी। याद पड़ता है सीधे एकमुश्त एक-सी रकम देते जाने में। उन्होंने तब राहत-सी महसूस की थी।


पे-डे के दूसरे दिन यूँ भी हाजिरी कम रहती है। फिर भी बड़े बाबू ने शॉप के हर सेक्सन में सर्कुलर भेजा। वेलफेयर के भोंपू से लंच टाइम में खुद अपील की। लेकिन कहीं कोई सुनगुन नहीं। जिन तीन-चार आदमियों के पेमेंट को ले कर शक था उन्हें बुलवा कर पूछा लेकिन कोई हल नहीं निकला। नौरंगी गैरहाजिर था। 


शॉप के टाइमकीपर को देख कर टंडन बाबू ने पूछा- क्यों भई, नौरंगी की कितने दिन की अर्जी आई है? कहीं गाँव तो नहीं चला गया? 


- बड़े बाबू, इस बार तो न कह के गया और न घर से ही अर्जी भेजी। कोई बात हो गई होगी। यूँ नौरंगी कभी ऐसा करता नहीं।


एक और खटका लगा बड़े बाबू को। लेकिन अपने तक ही रहे, कुछ जाहिर नहीं किया। आँखों से चश्मा उतार कर शीशे पोंछते रहे। 


-कल आए तो भेजना इधर।

 


 


पैसे की भरपाई बनर्जी साहब ने भले ही कर दी हो लेकिन मन में कचोट टंडन बाबू के ही अधिक थी। अफसर की नजरों में हमेशा ऊँचा रहने वाला आदमी इस बार दुहरी मार खा गया। अरे, साहब ने गलती से दो नोट ज्यादा गिन भी दिए थे तो उन्हें खुद चौकस रहना चाहिए था। यह क्या कि राजा अंधा हो तो मंत्री भी अंधा हो जाए! फिर तो चल चुका राजपाट! राजपाट ही है यह! पूरी वर्कशॉप तो यहाँ से चलती है। भर्ती से ले कर रिटायर होने तक, तरक्की से मुअत्तली तक, न्याय-अन्याय सबका फैसला तो इस टेबुल से होता है। सारा दिमागी काम तो हमें करना पड़ता है-लोहा कूटने के तो पैसे नहीं लेते। तो टंडन बाबू ने महसूस किया, नुकसान की भरपाई में आधा भुगतान उन्हें भी करना चाहिए था। मामले को सुलझाना जरूरी है, तभी पार लगेगा।


नौरंगी का इंतजार फोरमैन शर्मा भी बेचैनी से कर रहे थे। चार दरवाजों के कब्जों में टैपिंग नहीं हुई, गाड़ियाँ आखिरी स्टेज पर अटक गई हैं। 


लेकिन टूलकिट ले कर ठिये पर जाते हुए नौरंगी को टोक कर अपने कमरे में बुला लिया शर्मा जी ने। 


-हो जाएगी टैपिंग, पहले इधर आओ।


-आप लोग चलिए अपने-अपने काम पर।


-कल कहाँ रह गए थे? कुछ बता कर भी नहीं गए। 


क्या बताएँ साहब जी! अचानक गाँव से बिटिया आ गई। उसे बड़े अस्पताल ले गए रहे, डाक्टरनी के पास। 


-किस डाक्टरनी को दिखाया भई अस्पताल में? आजकल तो डाक्टरों की हड़ताल चल रही है।


नौरंगी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही हैं। 


-परसों तनख्या ठीक मिल गई थी?


- क्या सा'ब? नहीं-हाँ, हाँ ठीक मिल गई थी। 


नहीं, अब और नहीं पूछेंगे। दुधारू गाय को बिगाड़ना ठीक नहीं। अपनी बला से भुगतें बनर्जी, भुगतें टंडन! कौन हमारी जेब से गया है कि हम बुरे बन कर अपनी कब्र खोदें। 


-ठीक है नौरंगी, जाओ! चारों दरवाजे अभी टँगने हैं-जल्दी निबटा दो टैपिंग।


ग्यारह बजे बड़े बाबू का बुलावा आया नौरंगी के लिए। शॉप में छब्बू मैसेंजर को आते देख कर भाँप लिया शर्मा जी ने। टहलते हुए नौरंगी के ठिये के नजदीक जा कर बिजली की लाइन का मुआयना करने लगे। 


छब्बू की बात कान में पड़ी।


-नहीं, कह दो अभी जरूरी काम हो रहा है-लंच बाद आएगा।


छब्बू लौट गया। बड़े बाबू के लिए बीच-बीच में इतनी चिकोट काफी है। हजार बार कह दिया हमारे किसी भी आदमी से सीधे बात करने की जरूरत नहीं। लेकिन अपनी हेकड़ई से बाज नहीं आएँगे। 


नौरंगी की आँखों में जैसे बाघ के मुँह से बचा लिए गए आदमी की-सी कृतज्ञता है। टंडन बाबू कुढ़ कर रह गए। नहीं, ऐसे नहीं काम चलेगा। अफसर का डंडा करो, तब लाइन पर आएँगे।


-सर, वो नौरंगी आज आया है। अभी बुलाएँ उसे? आप उससे पूछिएगा कि पेमेंट पर कितने रुपए मिले थे। हो सकता है, हम लोग सचमुच भूल से उसे भी आठ सौ दे बैठे हों।


कलाई में बँधी घड़ी देखी साहब ने। फिर सामने रखी फाइल देखी। फिर अपना अधूरा मेमो देखा।


- प्लीज, मुझे घंटे भर का टाइम दो। अभी यह मशीनरी फोरकास्ट वाली रिपोर्ट पूरी कर लूँ। डब्लू. एम. ने शाम को माँगी है।


धत्तेरे की! मजबूरी में शर्मा का ही हथियार अपना कर भी वार खाली गया।


किसी करवट पुट्ठे पर हाथ नहीं रखने दे रहा है नौरंगी। 


- अमर बहादुर को भी बुलवा लें सर ? कल को ये लोग कहेंगे हमने डरा-धमका कर कबूलवा लिया।


- बुलाना है तो फिर देवनाथ को भी बुलाओ। दोनों नेता सामने रहें। 

 

 


 


बनर्जी जानते हैं, टंडन बाबू का झुकाव अमर बहादुर की तरफ ज्यादा है, अब वर्कशॉप की राजनीति ज्यादा समझ में आने लगी है। टंडन बाबू के कहे में रहें तो कहीं के न रहें। कालियानाग की तरह देवनाथ फुंफकारता है तो सारी वर्कशॉप उसके पीछे लग जाती है। लेकिन दोनों को बुलाने का कोई फायदा नहीं। फोरमैन शर्मा को भी नहीं। इन्हें तो अपने आदमी को बचाना है- चोर हों, डाकू हो, जुआड़ी हो, शराबी हो, उसी का पक्ष लेंगे। इस मामले में अमर बहादुर कुछ ठीक है। गुप-चुप कुछ पते की बात बता देता है। उससे बात की जाएगी -अलग से।


-इस बार तुम्हें कुल कितना रुपया मिला था नौरंगी ? 

- हमें तो याद नहीं रहा सरकार! पर्ची में देख लें कितना रहा।

-अरे, एक दिन पहले तुम्हें पैसा मिला और आज याद नहीं? 


-क्या जानें हुजूर, हम तो कभी गिनते भी नहीं। जो आप पंचन दो-दो बार के दे देते हैं उसे सही मान कर जेब में रख लेते हैं।


लगता है, पूरी तरह तैयार हो कर आया है। कहीं किसी ने सिखा-पढ़ा तो नहीं दिया! टंडन बाबू मँजे हुए वकील की तरह जिरह करते हैं।


महेन्द्र सिंह साहब के जमाने में जब तुम्हें इनाम मिला था तब तो तुम्हें गिन कर ही मालूम पड़ा होगा कि ज्यादा मिले हैं। तब गिनते थे, अब क्यों नहीं गिनते?


-उस बार ढेर रुपया रहा सरकार! बोनस, ओ. टी., तनखा सब रहा। इस मारे गिना। अब तो सूखी तनखा रहती है। कटकटा के जौन मिले तौन ठीक। 


-देखो, घर जा के हिसाब मिला लेना। तुम्हारा छः सौ बनता था। शायद गलती से आठ सौ दे दिया हमने। अगर इस बार भी दो सौ ज्यादा चला गया हो तो तुम तो लौटा ही दोगे। इसीलिए बुलाया था।


-ठीक है हुजूर!


डराने-धमकाने से काम नहीं चलेगा। पालिसी से ही चलना पड़ेगा। इतना सीधा नहीं है जितना बन रहा है। दाल में कुछ काला जरूर है। कुछ क्यों, पूरी तरह। बड़े बाबू मक्खनबाजी पर उतर आए हैं।


-बहुत ईमानदार आदमी है साहब नौरंगी मिस्त्री। मैं आपको एक पुराना डेली ऑर्डर दिखाऊँगा। चार-पाँच साल पहले की बात है। तब महेंदर सिंह साहब थे यहाँ। उन्होंने गलती से इन्हें चार सौ रुपया ज्यादा दे दिया था। ये वर्कशाप में गए, एक-दो बार रुपया गिना, लगा कि कुछ गड़बड़ है। वापिस कर गए तत्काल। कहाँ मिलते हैं ऐसे लोग, इस जमाने में! चीफ साहब खुद यहाँ आ कर उन्हें शाबाशी और इनाम दे गए थे। इनसे हाथ मिलाया था। क्यों, गलत तो नहीं कह रहा हूँ। नौरंगी?


बनर्जी साहब मुँह बाए ऐसे सुन रहे हैं जैसे पहले कभी यह बात सुनी ही न हो। वाह रे नौरंगी! सत्त हरिश्चंदर के बाद तुम्हीं तो पैदा हुए हो इस दुनिया में! 


नौरंगी को लग रहा है खुसुर-पुसुर सारी वर्कशॉप में हो रही है। स्मोकिंग एरिया में, कैंटीन में, नल पर, पीपल के नीचे"!


कस बेटा! अकेले की चट कर जाओगे पूरा, हमारा हिस्सा नहीं करोगे? 


कैंटीन में चाय पीते हुए एकाएक चौंक पड़ा नौरंगी। कौन कह रहा है? किससे कह रहा है? अरे नहीं, घसिटुवा है, सालिगराम के हाथ में पकौड़ियों की प्लेट देख कर उसकी लार टपक रही है।


शॉप में काम करते बार-बार हैंगर के गेट की तरफ देखने लगता है नौरंगी। लगता है, मैसंजर छब्बू दफ्तर से कोई संदेश ले कर आ रहा है। नहीं छब्बू नहीं, वैसा ही लंबा-सा कोई दूसरा आदमी है।


-अपने-अपने ठिये की थोड़ा सफा-सफाई और सैटिंग कर लीजिए आप लोग। आज शायद चीफ साहब आएँगे। 


चीफ साहब क्यों आ रहे हैं? कोई खास बात? नौरंगी का दिल धुक धुक करने लगता है।


बनर्जी साहब शॉप में राउंड पर आए। पहले भी आते रहते थे। महीने के आखिर में तो दिन-दिन भर शॉप में ही जमे रहते, जैसे उनके शॉप में रहने से ही महीने की आउटपुट में बढ़ोतरी हो जाएगी।


नौरंगी की गाड़ी के फुटबोर्ड पर एक पाँव टिका कर खड़े हैं साहब। जरूरी वाउचर ले कर वहीं पहुँच गया स्टोरमैन गुप्ता। धड़ाधड़ दस्तखत मार रहे हैं खड़े-खड़े। पाँच मिनट, दस मिनट। नौरंगी छेनी से सान धरने खिसक गया है ग्राइंडर पर।


कनखियों से देख रहा है अपने ठिये की तरफ। साहब अब टलें, अब टलें। 

टंडन बाबू नंबरी काँइयाँ आदमी हैं। हार मानने वाले नहीं। अबकी साधा है महेश को।


-प्यारे, किसी को कानों-कान खबर न हो क्योंकि सबूत कुछ है नहीं। लेकिन मेरा शक उसी पर है। अब लगाओ अपना दिमाग। साम, दाम, दंड, भेद जैसे भी हो। अपनी इज्जत का मामला है। साले कैसे-कैसे मसले हमने हल कर दिए इस कुर्सी पर! इस मामूली-सी बात ने दिमाग खराब कर दिया है।


महेश टंडन बाबू का खास आदमी है। महेश किसका खास आदमी नहीं ? महेश हर कुर्सी का खास आदमी है। लेकिन मजा तो यही है कि चटाई वाले को लगता है वह उसी का सगा है, स्टूल वाले को लगता है वह उसका बिरादर है और कुर्सी वाले को लगता ही है कि महेश उसका कान है, उसकी आँख है, उसकी नाक है, उसका हाथ है।


बड़े बाबू की बात कान में पड़ते ही महेश के दिमाग की बैटरी चालू हो गई है। नौरंगी का घर, पता-ठिकाना, जात-बिरादरी, बाल-बच्चे, हारी-बीमारी, दुःख तकलीफ, ब्याह-शादी-किस सेंध से घुसा जाए अंदर?


-नौरंगी भाई, आप तो कारीगर आदमी हो, जरा हमारे दराज का ताला खोल देते। हमसे चाबी कहीं गुम हो गई है।


- नौरंगी भाई, क्या कायदे से अपने औजार रखे हैं आपने! लोग तो ऐसा घसड़-पसड़ रखते हैं कि इसकी नोंक उसकी में घुसी है।


-नौरंगी भाई, बाल-बच्चे साथ ही हैं या गाँव में रखे हो? दो जगह का खर्चपात भी आजकल मुश्किल हो जाता है। फिर बिना खेती-पाती के सपरता भी नहीं।


लेकिन नौरंगी चुप! गुमसुम हो गया एकदम ! काठ का बुत! 


नौरंगी घर पर बैठ गया है। एक दिन, दो दिन, तीन दिन। कोई अर्जी-वर्जी नहीं, कोई मेडिकल नहीं। विदौट-पे कराएगा क्या?


डिपो के पड़ौसी लेबर से पता-ठिकाना पूछ कर क्वाटर पर पहुँच गया महेश। 


-क्या हो गया नौरंगी भाई? बीमार हो? कोई दुःख-तकलीफ है? गाँव-घर में तो सब कुशल है न?


-लगता है, तुमने तो कई दिनों से चूल्हा-चौका भी नहीं किया। क्या बात है? कुछ पैसा-कौड़ी चाहिए?


-अरे, अपने लोग कब के लिए होते हैं? हमें खबर कर देनी चाहिए थी। 


-सच नौरंगी भाई, आप पर तो हमें बड़ा नाज है। उस बार जब आपका डेली ऑर्डर में नाम छपा सच मानो, हमें लगा आपने हमारी बिरादरी की नाक ऊँची कर दी। आपके ही गाँव में हमारे साढू-भाई हैं-जैकिशन। आप तो जानते ही होंगे रेलवई में हैं। हमने उनको बताया कि नौरंगी भाई ने आपके गाँव-जवार. का नाम ऊँचा किया है।


महेश लगातार चोंच मार रहा है। इधर-उधर, यहाँ शायद पोली मिट्टी है, इधर दरार है। लेकिन नहीं। दीवार पक्के सीमेंट की हो कर रह गई है -अंदर का कुछ भी बाहर नहीं रिसता ।


नौरंगी की बीमारी की खबर वर्कशॉप में फैल गई है। सिर्फ बीमारी की बात, और कुछ नहीं। अनदेखा चोर बाप बराबर। उस बात को कोई क्यों कहे। बड़े बाबू भी नहीं, फोरमैन शर्मा भी नहीं, महेश भी नहीं, साहब तो साहब ही हुए-कच्ची बात अफसर के मुँह से ठीक नहीं लगती।


यूनियन के नेता, वेलफेयर मेंबर, संगी-साथी-बहुत से लोग वर्कशॉप से सीधे ही क्वाटर पर पहुँच गए। परदेश में अपना साथी अकेला है, हम नहीं देखेंगे तो कौन देखेगा!


-ए! विलफेयर लोन का फारम लाए हो? दस्तखत करा लो नौरंगी भाई। दवा-दारू के लिए जरूरत पड़ सकती है। 


- इन्हें अस्पताल में न भरती करा दिया जाए? यहाँ चौबीस घंटे कौन तीमारदारी करेगा।


- नेता जी, आप कहो तो हम और लखन इन्हें गाँव पहुँचा आएँ। लेकिन भाई, हाजिरी लगवानी पड़ेगी हमारी। छुट्टी हमारे पास बकाया नहीं है। विलफेयर के काम के लिए इतना तो हो ही सकता है।


-बनर्जी साहब शायद मान जाएँ लेकिन वह टंडनवाँ बड़ा खचड़िहा है। दस ठो कानून दिखा देगा।


-हाजिरी एक दिन की बढ़ा कर लगवा देना नेता जी! इतनी दूर जा कर एक-एक रात अपनी मेहरारू के पास भी तो रहेंगे लखन और ये दोनों।


-अमें चुप रहो, तुम्हें तो वही टुच्चई सूझती है। हम नहीं जाते, तुम्हीं चले जाओ। साली हर बात में मीन-मेख निकलेगी।


-भई, आने-जाने का रेल भाड़ा भी चाहिए। वह कौन देगा ? 


-दें, दफ्तर वाले दें। चीफ साहब दें किसी फंड से। अपना तो जब इंसपेक्सन होता है, पार्टी होती है और हजारों उड़ जाते हैं, एक ही रात में। वह क्या अपनी जेब से जाता है?


-बाजार के बनिये-बक्काल, दलाल-बिचौलिये सब पूरा करते हैं। फिर लोकल पचेंज में दुगना वसूलते हैं। यह तो रोज का धंधा है।


-इन दलाल-बिचौलियों ने तो और रेड मार रखी है! साले दीमक की तरह अंदर-ही-अंदर चाटे जा रहे हैं। कल के अखबार में नहीं पढ़ा? अकेले एक आदमी ने सरकारी खरीद में कितने करोड़ हजम कर लिए।


–अकेले कोई नहीं खाता भाई! सब मिली-भगत होती है। अपना-अपना पर्चेज अफसर सब नीचे-ऊपर करता है लेकिन मेटेरियल अफसर, वर्क मैनेजर, प्रोडक्सन मैनेजर, चीफ तक हिस्सा पहुँचाता है, उनकी पोजीशन के हिसाब से।


- और शायद ऊपर भी।


-जिनकी टुकड़ों की औकात है उन्हें टुकड़े भी डाल देते होंगे। जैसे, स्टोर कीपर, स्टोर बाबू"! लेकिन कागज में सब ठीक-ठाक है तो सब धुले-पुछे हैं, इज्जतदार हैं।


नौरंगी गुमसुम काठ का बुत बना है। लेकिन उसका दिमाग जड़ नहीं हो गया। वह सुन रहा है सब कुछ। गुन रहा है बहुत कुछ।


वेलफेयर-मेंबर अलख नारायण रात भर चिंता में रहा नौरंगी के लिए। कल बनर्जी साहब से बात करेगा


-पैसे की मदद, आदमियों की मदद, छुट्टियों का एडजस्टमेंट।


लेकिन सुबह नौरंगी काम पर हाजिर था। चुस्त-दुरुस्त! जैसे इस बीच कुछ हुआ ही न हो। वह सीना तान कर शॉप में घुसा और अपने ठिये पर पहुँच गया।

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्वर्गीय कवि विजेंद्र जी की हैं।)

 

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