कैलाश बनवासी की कहानी
कैलाश बनवासी |
परिचय
कैलाश बनवासी
जन्म-10 मार्च 1965, दुर्ग
शिक्षा- बी. एस-सी. (गणित), एम. ए. (अँग्रेजी साहित्य), बी. एड.।
कृतियाँ-
1984 के आसपास लिखना शुरू किया। आरंभ में बच्चों और किशोरों के लिए लेखन।
अस्सी से भी अधिक कहानियाँ देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। अब तक चार कहानी संग्रह प्रकाशित- ‘लक्ष्य तथा अन्य कहानियाँ’ (1993), ‘बाजार में रामधन’ (2004) तथा ‘पीले कागज की उजली इबारत’ (2008), प्रकोप तथा अन्य कहानियाँ (2015), 'जादू टूटता है’ (2019 ), ‘कविता पेंटिंग पेड़ कुछ नहीं’ (2020)।
कुछ कहानियाँ विभिन्न संग्रहों में चयनित। कहानियाँ गुजराती, पंजाबी, मराठी, बांग्ला तथा अँग्रेजी में अनूदित। संग्रह ‘बाजार में रामधन’ मराठी में अनुदित।
उपन्यास - ‘लौटना नहीं है’ (2014) ‘रंग तेरा मेरे आगे’ (2022)
समकालीन सिनेमा पर विचार—‘सिनेमा भीतर सिनेमा’ (2022)
कहानियों पर रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर से पी-एच. डी. हेतु शोध-प्रबंध। समग्र कहानियों पर जे.एन.यू. नई दिल्ली से तथा देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इंदौर से कहानी संग्रह ‘बाजार में रामधन’ तथा उपन्यास ‘लौटना नहीं है’ पर लघुशोध प्रबंध। कुछ विश्वविद्यालयों में कथा-साहित्य पर शोध-प्रबंध जारी।
पुरस्कार- कहानी ‘कुकरा-कथा’ को पत्रिका ‘कहानियाँ मासिक चयन’ (संपादक-सत्येन कुमार) द्वारा 1987 का सर्वश्रेष्ठ युवा लेखन पुरस्कार।
कहानी संग्रह ‘लक्ष्य तथा अन्य कहानियाँ’ को जनवादी लेखक संघ इंदौर द्वारा प्रथम श्याम व्यास पुरस्कार।
दैनिक भास्कर द्वारा आयोजित कथा प्रतियोगिता ‘रचना पर्व’ (2002) में कहानी ‘एक गाँव फूलझर’ को तृतीय पुरस्कार।
संग्रह ‘पीले कागज की उजली इबारत’ के लिए 2010 में प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान।
वर्ष 2014 में वनमाली कथा सम्मान, गायत्री कथा सम्मान 2016
संप्रति- अध्यापन।
1991 ई. में आर्थिक उदारीकरण के साथ भारत में बदलाव की जो बयार महसूस की जा रही थी, उसने न केवल आर्थिक बल्कि सामाजिक तौर पर भी कई ऐसे बदलाव लाए हैं, जो आम आदमी के लिए दिक्कतें ले कर आए हैं। अब जीवन सरल सहज नहीं रह गया, बल्कि उसमें गांठें-गिरहें पड़ गई हैं। हमारा लोकतन्त्र लगातार पीछे छूटता जा रहा है। लोगों की आक्रामकता बढ़ती जा रही है। ऐसा नहीं कि साहित्य इन बदलावों से अछूता है। साहित्य भी समयानुरूप बदला है। लेकिन कुछ प्रतिबद्ध ऐसे भी रचनाकार हैं जो अपने सरोकारों से भलीभांति वाकिफ हैं। कैलाश बनवासी ऐसे ही कथाकार हैं जिनकी कहानियों में समय की विद्रूपताओं की पहचान हम सहज ही कर सकते हैं। आइए आज पहली बार ब्लॉग पर पढ़ते हैं कैलाश बनवासी की नई कहानी 'हवा बहुत तेज है।'
हवा बहुत तेज़ है
कैलाश बनवासी
सेक्टर-6 के कला-मंदिर से बांयें मुड़ते ही सिविक-सेंटर की रौनक़ आपको एकदम नज़र आने लगती है। जैसे ही थोड़ा आगे बढ़े, दाँयी ओर काँच के भीतर जगमगाता दुमंजिला होटल आपका ध्यान तुरंत खींच लेता है। वहां की जगमग, चहचह, ख़ुशी के उठते शोर, इतनी कि नज़र वहां ठहर-सी जाती है। होटल के मुख्य द्वार पर मन को प्रफुल्लित करते ढेर सारे रंग-बिरंगे गुब्बारे करीने से सजे हैं। दूसरी मंज़िल के टैरेस को किसी पार्क की तरह मेंटेन करके रखा गया है। जगमगाते नियोन लाइट्स में उनकी हरियाली और चटख हो कर चमक रही है। यहाँ आज शाम भी कोई पार्टी चल रही है। पिछले कुछ बरसों से यह ट्रेंड चल पड़ा है। पार्टी का खाना-पीना, साज-सज्जा वगैरह आप होटल या इवेंट-मैनेजमेंट वाले के जिम्मे छोड़ो, आप तो जी बस चैन से बैठो, और जो चार्जेस लग रहे हैं वह पे करो।
सामने पार्किंग में खड़ी गाड़ियाँ भी नयी और चमचमाती हुईं।
जगन्नाथ बाबू इन्हें हकबकाया हुआ देखते रह जाते हैं। वे सहसा इस ऐसे आयोजनों के बजट की सोचने लगते हैं, जिसका वह कभी सही-सही अनुमान नहीं लगा सकते। उन्हें लगता है, जितना वह सोचेंगे, यह उससे महंगा ही होगा। परेशान हो कर उन्होंने इनके बारे में सोचना ही बंद कर दिया है। ये किसी और ही श्रेणी के लोग हैं।किन्हीं और लोगों की दुनिया... उनके जैसे साधारण क्लर्क की दुनिया से बहुत अलग। इन्हें वह दूर से ही देख सकते हैं।
और सिविक सेंटर में सिर्फ़ यही नहीं है। आगे, बायीं तरफ से एल शेप में जो एक के बाद एक दुकानें हैं, वह भी जैसे इन्हीं लोगों के लिए हैं। ब्रांडेड कम्पनियों के शॉप।चमचमाते, जगमगाते, रंगीनियों से भरे। यहाँ आने वाले अधिकांश ग्राहक अधिकारी या बिजनेस क्लास के लोग होते हैं, जिन्हें चीज़ों के कीमतों की चिंता नहीं रहती। ब्राण्डेड चीज़ों में भला देहाती किस्म के मोल-भाव की गुंजाइश कहाँ रहती है? लेकिन उन्हें भला इन दुकानों से क्या लेना-देना? उन्हें जहां जाना है, वह तो आगे है. कुछ ही आगे। वे तो परिवार- पत्नी गीता और बेटी मिनी- के साथ अपनी सेकेंड हैण्ड मारुती ‘आल्टो’ में यहाँ अक्सर अपने ‘आउटिंग’ के नाम पर दोसा खाने आ जाते हैं। जब कभी बाहर खाना खाने का मन हो, कि गीता को घर में खाना बनाने का मन न हो, या कि अचानक मूड ही हो गया।
जैसी रौनक़ यहाँ हुआ करती है- शनिवार-रविवार या छुट्टी के दिनों में- वह बदस्तूर है। दुकानों में खुशहाल लोगों की भीड़ है। इनकी खुशहाली इनके गोरे, दमकते उजले चेहरों से ही नहीं, इनके नए डिज़ाइन और फैशन के कपड़ों से भी नज़र आती है। सिविक सेंटर की सबसे ख़ास बात यह है कि यहाँ नयी पीढ़ी के लोग सबसे ज्यादा नज़र आते हैं। कॉलेज पढ़ने वाले लड़के-लड़कियाँ।इसलिए कि भिलाई आज प्रदेश का एक बहुत जाना-माना ‘एजुकेशन-हब’ है। यहाँ पचीसों तरह के इंस्टिट्यूट हैं। नामी–गिरामी संस्थानों के कॉलेज और कोचिंग इंस्टिट्यूट की भरमार। ये लड़के-लड़कियाँ अपने वीकेंड मनाने ऐसे ही शाम को यहाँ पहुंचे होते हैं। बात-बात पे हँसते-खिलखिलाते। एक-दूसरे को छेड़ते, पल-पल में सेल्फी लेते। अपनी ही दुनिया में डूबे...।
कार पार्क करने के बाद वे इस दुनिया को चुपचाप देखते-देखते धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे हैं-अपनी दुनिया की ओर। उस बड़े मैदान की तरफ़ जहां आयताकार ढंग से आवंटित बीसियों तम्बू या टपरे वाले खाने-पीने के ‘होटल’ हैं। सामने प्लास्टिक की टेबल-कुर्सियों से सजीं। लोगों को देखते ही उनके वेटर लड़के ‘आइये सर, आइये मैडम... आइये अंकल...’– की मशीनी और प्रतियोगी टेर लगाते...। इनमें साउथ-इन्डियन से ले कर नान-वेज, चाट-पकौड़े, या आइसक्रीम या जूस... हर तरह की दुकानें। शनिवार–रविवार को सचमुच किसी मेले का सा माहौल रहता है यहाँ...। एक पुराना हाथी-घोड़े वाला गोल झूला है, तो एक बहुत छोटे बच्चों को खिलौने कार या बाइक में गोल-गोल घुमाने वाला झूला... या कुछ ज़मीन पर बच्चों के लिए तरह-तरह के खिलौनों की दुकान सजाये हैं या कुछ घूम-घूम कर सस्ते खिलौने या गुब्बारे बेचने वाले।
कॉलेज-फर्स्ट इयर-पढ़ रही उनकी बेटी मिनी यहाँ आने पर उनसे इस बात पर चिढ़ती है कि आप हमको हर बार उसी होटल में ले के आ जाते हो! हमको कुछ और खाना है! जगन्नाथ बाबू जानते हैं, बेटी आज की पीढ़ी की है। खाने-पीने की कितनी सारी तो नयी-नयी चीजें इधर बाजार में कब्जा जमा चुकी हैं-मैगी.. नूडल्स, पास्ता, पित्ज़ा, मोमोस...। जगन्नाथ बाबू कभी-कभार उसकी बात भी मान जाते हैं ...लेकिन उनकी और पत्नी के ज़िद के कारण कभी-कभी मिनी भी खुद को समझा लेती है।
जगन्नाथ बाबू जिस तम्बू वाले ‘अन्ना साऊथ इंडियन होटल’ में जाते हैं, वहां के वे बहुत पुराने ग्राहक हैं। कोई बीस-पच्चीस साल पुराने। उस जमाने से जब एक साधारण ठेले में यह दुकान एक अधेड़ अन्ना चलाते थे....। आज जो अट्ठाईस-तीस साल का सांवला नौजवान है—बी. संजय- जो इस होटल को सम्भाल रहा है- तब वह आठ-दस साल का रहा होगा, जो स्कूल के बाद शाम को पिता का हाथ बंटाने आ जाया करता था। जगन्नाथ बाबू की आँखों में आज भी अन्ना का मुस्कुराता चेहरा बसा हुआ है... दुबला-पतला, गहरा सांवला अन्ना...। देखते ही सहज विनम्रता से मुस्का देता—दांतों की धवल पंक्ति झलकाता और आपस में कोई ज्यादा बात नहीं होती। जाने कैसा सहज और आत्मीय आकर्षण था अन्ना की मुस्कान में, कि उनके कदम खुद-ब-खुद अन्ना के ठेले की तरफ बढ़ जाते। कोई बारह बरस हुए अन्ना को गुजरे। एकाध बरस तक वो बीमार रहे, तब से ही उसके बेटे संजय ने इसे सम्भाल लिया है। संजय ने इसे आज के वातावरण के हिसाब से ढाल लिया है, इसका विस्तार किया है। पहले के केवल इडली-दोसा से आगे बढ़ कर उसके होटल में आज पावभाजी, चाउमीन, मंचूरियन, फ्राइड राईस, वेज-बिरियानी, वेज-चिल्ली जैसे कितने नए डिश बन रहे हैं....। इधर पुश्तैनी धन्धे वालों की नई और स्मार्ट पीढ़ी ने जब से धंधा अपने हाथ में लिया है, अपने धंधों को समयानुसार ‘मॉडर्न’ बना रहे हैं, जैसे धोबी अपनी दुकानों को ‘ड्राईक्लीन’ में या नाई ‘सैलून’ और ‘ब्यूटीपार्लर’ में बदल रहे हैं।
उस प्लास्टिक शीट से ढंके टपरे होटल के लड़के उन्हें देख कर वैसे ही बदस्तूर चिल्लाने लगते हैं---आइये सर ... आइये मैडम...।
जगन्नाथ बाबू का परिवार सामने के दांयें किनारे की एक खाली टेबल पर बैठ गया। पास खड़े लड़के को इसकी साफ-सफाई का निर्देश देते हुए। इस बीच अपने ठेले में दोसा बनाने में जुटे बी. संजय की नजर जगन्नाथ बाबू से मिलती है और वह चूल्हे और तवे से उठते धुंए के पीछे से उन्हें देख स्वागत में बहुत अदब और आत्मीयता से मुस्कुरा कर नमस्ते करता है...।
यहाँ सबकी अपनी-अपनी पसंद हो जाती है। उनकी पत्नी को सादा दोसा पसंद है, जगन्नाथ बाबू को कटपीस दोसा और बेटी को एग-चाउमीन। वे अपना आर्डर कर देते हैं। और जगन्नाथ बाबू समय काटने यों ही आसपास देखते लगते हैं। यहाँ यंग जनरेशन अपने दोस्तों के साथ और गृहस्थ लोग उनकी तरह अपने घर-परिवार के सदस्यों के साथ पहुँचे हुए हैं- अपना सन्डे मनाने। चारों तरफ एक शोर-शराबा है... भट्ठी के तेज जलने की भर्र-भर्र... तलने और कड़ाही-तवे में छौंक--बघार की छन-छन... खाने के आर्डर ग्राहकों की अपनी बातचीत...।होटल के लड़कों की बदस्तूर ज़ारी पुकार।
जाने कैसे उन्हें सहसा उस बूढ़े की याद आ जाती है जो यहाँ सिविक-सेंटर में खिलौना-बाजा चिकारा बेचता आ रहा है। जाने कितने बरस से।मिटटी के नन्हें कटोरे, बांस की पतली कमची और लोहे के पतले तार से बना चिकारा, जिसे वाइलिन की तरह तांत वाले धनुषाकार ‘गज’ से बजाया जाता है। वह बूढ़ा अक्सर यहाँ-वहां घूम कर अपने चिकारे बेचता दिख जाता रहा है, पुराने फ़िल्मी धुनों को बजाता हुआ— ‘मेरा जूता है जापानी ये पतलून इंगलिश्तानी...’ जीवन के सफर में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को.... ‘सैंया झूठों का बड़ा सरताज निकला...., मुझे छोड़ चला बड़ा धोखेबाज निकला...’ या ‘मेरा नाम है चमेली... मैं हूँ मालन अलबेली... मैं अकेली चली आई बीकानेर से...’ जाने क्यों उसे यही कुछ धुनें पसंद है जो वह इन्हें ही बजाता रहता है...। यह तो पता नहीं, वह कहाँ का रहने वाला है... लेकिन उसकी ‘बीकानेर’ पसंद से लगता है, वह राजस्थान से है, जो किसी ज़माने में यहाँ आ गया था। जगन्नाथ बाबू को याद है, जब वह छोटे थे तो उनके पिता कभी-कभी साइकिल में बिठा कर उन्हें यहाँ घुमाने लाते थे...। तब शायद सिविक-सेंटर को बने अधिक दिन भी नहीं हुए थे। तब से उसे यहाँ चिकारा बेचते देखते आ रहे हैं वे। बाबू से ज़िद कर के तब अपने लिए उससे चिकारा खरीदवाते थे...। यह कोई चालीस-पैंतालिस साल पुरानी बात होगी...। जगन्नाथ बाबू की ही उम्र आज 58 साल की है और दो साल बाद नौकरी से रिटायर होने वाले हैं...। उन दिनों कागज़, पन्नी, टिन या मिटटी के ऐसे ही हाथ से बने खिलौने बाज़ार में बिका करते थे...।बाद में प्लास्टिक-युग आ जाने से खिलौनों में जो तकनीकी क्रान्ति हुई, उसने इन सब पुराने धंधों को एकाएक बहुत पीछे धकेल दिया। बाजे की पूछ-परख बंद हो गयी। बूढ़े की ग्राहकी भी जैसे इससे जाती रही। इसीलिए पिछले कुछ सालों से अब वह चिकारा नहीं बेचता, केवल चिकारा बजाता घूमता फिरता है। कंधे पर झोला लटकाए अपने बहुत मटमैले हो चुके- गोया महीनों से न धुले- लबादेनुमा ढीले-ढाले कुरते-धोती में वह यहाँ-वहाँ घूमता नज़र आ जाता है- किसी भिखारी या पागल की तरह।
...जगन्नाथ बाबू को आज वह नहीं दिखा।बिखरी-बिखरी मटमैली पीलियाई दाढ़ी-मूँछ और गंजे सिर वाला वह बूढा, कभी ऊंचा-पूरा रहा किंचित स्थूल देह का मालिक, जिसकी कमर इधर बढ़ती उम्र के साथ झुकती जा रही है...।यहाँ, शाम में घूमते हुए अक्सर उसके चिकारा की मद्धम ध्वनि सुनाई दे जाती रही है। चौतरफा बेपनाह रंगीनी, रौशनी, रूपयों, हँसी-खिलखिलाहटों के शोर के बीच उसकी एक चुपचाप, उदास, निरीह और गुमनाम उपस्थिति।कि अब वह चिकारा बेचता नहीं, सिर्फ़ बजाता है...। मद्धम सुर में बजाता... बिना किसी से कुछ कहे इन दुकानों के सामने से गुज़रता है...। या बस यों ही अपनी धुन में घूमता रहता है...। हाथी जैसे मंथर चाल से... सबसे बेपरवाह... यहाँ अब बस वह एक नामालूम उपस्थिति भर है...। इस चकाचक दुनिया के बरक्स अपनी चालीस साल से भी अधिक पुराने, बाज़ार से बाहर हो चुके खिलौने-बाजे को बजाते हुए... किसी से कुछ नहीं कहता हुआ... उसका ख़ुद से बेख़बर यह हुलिया जगन्नाथ बाबू को पुराने युग के किसी बूढ़े ऋषि-मुनि की तरह लगता है- शांत, निर्विकार, और निरासक्त! ...शायद उसका खाना-पीना भी अब इधर ही हो जाता है...। किसी ने कुछ दे दिया, वही उसका भोजन और यहीं-कहीं वह सो भी जाता होगा...। अगर कोई कहना चाहे तो उसे कह सकता है- सिविक-सेंटर के अतीत का जीता-जागता और चलता-फिरता ‘एंटिक-पीस’!
और यह भी सच है कि बीतते समय के साथ-साथ ख़ुशी वाली धुनें उसके बाजे से मानो अपने आप ग़ायब होती चली गयी हैं, और धुनें अधिकाधिक उदास और करुण होती गयीं-- ’जाने कहाँ गये वो दिन...’ या ‘एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है’,... जैसे समय से अपने पराजित हो जाने की गहरी पीड़ा और मायूसी में डूबी हुईं....। अपनी अनकही निरीहता प्रकट करतीं और सुनने वालों के मन में एक असहाय-सी करुणा उपजाती हुईं ...जो कभी-कभी हमको सहसा मुंह उठा कर देखती किसी गाय की पनीली आँखों में दिख जाती है...।
वह बूढ़ा चिकारा-वादक इस वक़्त यहाँ नहीं है..लेकिन उसकी बजाई धुन जगन्नाथ बाबू के भीतर कहीं गूँज रही है... मद्धम स्वर में... इस शोरगुल में अपनी एक नियमित किन्तु अदृश्य और अज्ञात उपस्थिति दर्ज कराती...।
...जगन्नाथ बाबू अपने आसपास देख रहे हैं, यों ही। अभी बैठे दो उन्हें मिनट भी नहीं हुए थे कि अचानक एक आवाज़ उनका ध्यान भंग कर देती है।
- अंकल, फुग्गा ले लो न...!
यह उनके बांयीं ओर खड़ी एक लड़की की आवाज़ थी। बमुश्किल सात-आठ साल की रही होगी। नीले रंग की मैली-सी फ्राक पहने। सर के भूरे बाल जहां-तहां बिखरे। हाथ में एक पतला डंडा है जिसमें कुछ गुब्बारे बंधे हैं....। रंग-बिरंगे... और हवा से लहराते...।
मिनी उससे हँस कर कहती है-- ‘नइ लेते, जा!’
लड़की पर उसके मना करने का राइ-रत्ती असर नहीं —ले लो न अंकल...।
- अरे नई लेना है हमको। तुम जाओ...’ पत्नी भी उसे कुछ झिड़क देती है।
जाने क्यों वह जगन्नाथ बाबू को आशा भरी निगाह से देख रही है... शायद उनमें उसे कुछ सहानुभूति नज़र आई हो—अंकल... अंकल ले लो न.. एक ठो...। आए।
उसके इसरार पर वे कुछ पिघले। पूछा-- कितने का तेरा ये फुग्गा?
--दस का।
--सब फुग्गे दस का? उन्होंने उसे छेड़ा।
--- नइ एक फुग्गा दस का।
--दस का! ये तो बहुत महंगा है।
- नई, यइ रेट है।
उन्होंने उसे फिर छेड़ा--पांच में नइ पड़ेगा?
- नइ। अम्मी बोली है दस में ही देना।
-कहाँ है तेरी अम्मी..?
-वो उधर है..। उसने हाथ के इशारे से दूर कहीं इशारा किया...। मैदान के किसी दूसरे छोर में।
सहसा वे घबरा गये। इतने बड़े बाज़ार में,और ऐसी भीड़ में उसने अपनी इस छोटी-सी बच्ची को फुग्गा बेचने अकेला छोड़ दी है! जबकि माहौल कितना ज़्यादा ख़राब है बाहर...। बच्चों से दरिंदगी कितनी ज़्यादा बढ़ चली है! बच्चों की सुरक्षा के लिए ‘पाक्सो’ क़ानून बन जाने के बावजूद कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब तीन-चार ऐसी भयानक ख़बरें न हों! ...कि देश में हर पांच मिनट में एक लड़की इसका शिकार हो रही है... और लोग भी कितने नीच और बर्बर होते जा रहे हैं!...इसी का असर है कि हमारे जैसे पढ़े-लिखे लोग भी अपनी बेटी को कहीं भेजते समय बीसियों हिदायत देते हैं...। ऐसा करना... वैसा करना... गाड़ी धीरे चलाना... तुरंत कॉल करना...।
वह अब भी उनके पास खड़ी थी। इस बीच मौसम सहसा कुछ ठंडा हो चला था और हवा कुछ तेज़...। लगता था कुछ देर में पानी बरसेगा...। उसके डंडे में बंधे गुब्बारे जिससे लहराने लगे थे। वह इन्हें संभालने की भरसक कोशिश कर रही थी। उसका आग्रह बदस्तूर -- ले लो न अंकल... एक ठो...।
--अरे, हमारे घर में कोई छोटा बच्चा नहीं है फुग्गा खेलने वाला। ले कर क्या करेंगे? वे भी उसे किसी तरह टरका देना चाहते थे।
फिर भी वह खड़ी रही। एक पल बाद, जाने क्या सोच कर उनसे कहती है—अंकल... पाव-भाजी खिलाओ न..!
उन्होंने देखा, उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में एक चमक उभर आई है...। पाव-भाजी खाने का लालच... लेकिन स्वर में कोई याचना नहीं है। वह साफ़ और ठोस है। वह उनसे उसी तरह कह रही थी जैसे कोई अपने किसी अच्छे परिचित को सहज भाव से कह देता है...।
- पाव भाजी? जगन्नाथ बाबू बोले, क्यों? हम लोग तो दोसा खा रहे हैं। तू भी खाएगी तो खिला दूंगा।
- नइ... मुझको पाव-भाजी खाना है।
उसकी बात सुन कर पत्नी भी हंस पड़ी थी। नखरे तो देखो मैडम के! बोली—हम लोग खुद पाव भाजी नहीं खा रहे हैं! महंगा है। दोसा चालीस का है और पाव-भाजी साठ का!
बेटी ने भी उसे मनाया-– दोसा खा ले।
--नइ। मेरे को पाव-भाजी खाने का मन है। अब वह घर के किसी सदस्य की भांति जिद कर रही थी।
--वाह रे लड़की, तेरा मन! वे हँसे, मान न मान मैं तेरा मेहमान! और ऐसी रोलबाज़ी! हमारे मन का कुछ नहीं? लेकिन इन कुछ मिनटों में वह इतनी खुल गयी थी कि उनके मन और मनाही की उसे ख़ास परवाह नहीं रही। उसकी यह बेधड़क सहजता उन्हें आकर्षित किये थी। जगन्नाथ बाबू ने उससे पूछा, -नाम क्या है तेरा?
- आफरीन
---पापा कहाँ हैं?
---काम पे।
---क्या काम करते हैं?
---एक दुकान में जाते हैं...।
---कहाँ रहती है?
---कैम्प तरफ... स्टेशन के पास...।
---पढ़ती है?
--हाँ।
---कौन-सी क्लास में?
---तीसरी में।
उन्होंने नोटिस किया, आफरीन को अपने से जुड़ी इन बातों को बताने में कोई दिलचस्पी नहीं थी..। उसका ध्यान अभी सिर्फ अपनी भूख और पाव-भाजी पर है।
आख़िरकार उन्होंने उससे पूछा-- तो तू पावभाजी ही खाएगी?
--हाँ।
उन्होंने पास खड़े वेटर लड़के को बुला कर कहा, देखो, ये तुम्हारी स्पेशल ग्राहक है...। इसका आर्डर पहले पूरा कर...।
लड़का उसे देख कर हँसा, फिर पूछा, - हाँ, बोलो क्या खाना है?
--पाव-भाजी, उसने कहा। बिलकुल निःसंकोच।
--यहीं खाएगी कि ले के जाएगी...पार्सल?
- ले के जाऊंगी।
लड़का चला गया। वे उससे यों ही बातों में लग गए, देख, तेरा पावभाजी आ रहा है। बदले में तेरे को हमको एक फुग्गा देना पड़ेगा। देगी कि नइ?
--दूँगी।
--तो अम्मी को क्या बताएगी?
--अंकल को दिया कर के...।
--अच्छा। आज कितने का फुग्गा बेच ली?
उसने अपनी फ्राक की जेब के सारे रुपये निकाल लिए। दस-दस के मुड़े-तुड़े चार नोट।
--हाँ, संभाल के रख ले इनको।
आफरीन ने उन्हें वापस अपनी जेब में रख लिया।
कुछ ही देर में वेटर एक पॉलिथीन में उसका पार्सल ले आया। आफरीन ने तुरंत मिनी को एक फुग्गा निकाल के दिया और अपना पार्सल ले के छू-मंतर।
वे सभी हंस रहे थे उसके पावभाजी प्रेम पर. मिनी बैठे-बैठे उस गुब्बारे से खेलने लगी। जबकि जगन्नाथ बाबू उनके बारे में कुछ सोच रहा थे...। ये लोग कैम्प एरिया में रहते है... कैम्प... जहां ऐसे ही लोग बसते हैं....। कभी-काल अपने दुर्दिनों में कहीं से विस्थापित हो कर रोज़ी--रोज़गार की तलाश में भटकते-भटकते इस बेतरतीब और घनी बसाहट वाले इलाके में आ बसे ये लोग... ढेर सारे लोग...। आज ठेले या गुमटी में फल-सब्जी बेचने वाले... उबले अंडे या एग रोल या बड़ा-भजिया-समोसा या इडली-दोसा या गन्ना-रस बेचने वाले...। कोई प्लंबर है तो कोई इलेक्ट्रिशियन.. तो कोई मेकेनिक... और कुछ चोरी-छुपे शराब-गांजा-चरस बेचने वाले...। ऐसे ही न जाने कितने छोटे-मोटे काम-धंधे में लगे हुए... जो हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी... और इधर दिसंबर में संसद में पेश नागरिकता संशोधन कानून--सिटिज़न अमेंडमेंट एक्ट (CAA)-- राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद देश में लागू हो चुका है...। इसी के साथ, देश भर में एक नयी सरगर्मी शुरू हो चुकी है—धरने और जुलूस इसके समर्थन और इसके विरोध में। लोग अपनी नागरिकता प्रमाणित करने या बचाने खातिर अपने भूले-बिसरे या गुम चुके कागज़ी दस्तावेज तलाशने-बनाने में बदहवास हो रहे हैं, सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगा रहे हैं। क्योंकि घोषणा की जा चुकी है...।’ एक-एक घुसपैठिये को यहाँ से निकाल बाहर किया जाएगा!’ ...कि एक दिन अधिकारी आएँगे और कहेंगे अपने कागज़ दिखाओ... और हो सकता है बरसों-बरस से इस देश में रहने के बाद भी अचानक तुम इस देश के नागरिक नहीं रह जाओ...। अवैध घुसपैठिया क़रार दिए जाओ...।
वे अपनी कल्पना में देख रहे हैं कि एक दिन कुछ जाँच-अधिकारी दूसरे बहुत-से घरों से होते हुए आफरीन की झुग्गी में पहुँच गए हैं...।
....कि तभी वेटर उनका आर्डर टेबल पर ले आया। वे खाने लगे।
इस बीच सहसा हल्की बारिश शुरू हो गयी। यह ऐसी बारिश नहीं थी कि लोगों में कोई हड़बड़ी या अफरा-तफरी मचे। यह बेमौसम बारिश की हल्की बूँदें थीं जो कुछ देर के बाद बंद हो जाती है। कुछ छींटें ऊपर ढंके प्लास्टिक शीट के बावजूद उनपे भी पड़ रहे थे...। अलबत्ता हवा बहुत तेज़ है...।
कि तभी उन्हें धीमे-धीमे बजते चिकारे की आवाज़ सुनाई दी...। जो क़रीब आ रही थी...।फिर देखा, चिकारे वाला वह बूढ़ा चिकारा बजाता उनके सामने से गुजर रहा है...। उसी मंथर गति से चलता...। अपने उसी पुराने गंदे, बेढब ढीले-ढाले लबादे में...। अपनी वही पुरानी धुन बजाता - ‘एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है’- जिसे वह न जाने कब से बजाता आ रहा है। वह बाज़ार से तो क्या, जैसे अपने आप से भी बिलकुल बेख़बर... अपनी धुन में ही निमग्न...।
जगन्नाथ बाबू को नहीं पता यहाँ मौजूद कितने लोग उसे सुन रहे थे... लेकिन वे सुन रहे थे, तमाम शोर-शराबे और हलचल के बीच सुनने की कोशिश कर रहे थे...। कुछ इस तरह कि वह धुन उनके भीतर रह जाए... जो भीतर एक असहाय-सी करुणा जगा रही थी...।
कि तभी, पीछे की सड़क से गुज़रते एक विशाल जुलूस की लाऊडस्पीकर पर चीखते भयानक तेज़ और आक्रामक नारों ने सहसा मानो समूचा आसमान घेर लिया था...। पूरे माहौल को जैसे तहस-नहस, छिन्न-भिन्न करते हुए...।
—‘देश के ग़द्दारों को... गोली मारो सालों को!!
देश के ग़द्दारों को... गोली मारो सालों को!!’
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व विजेन्द्र जी की हैं।)
संपर्क :
कैलाश बनवासी,
41, मुखर्जी नगर,
सिकोलाभाठा,
दुर्ग (छत्तीसगढ़)
मो. - 9827993920
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15.9.22 को चर्चा मंच पर चर्चा मंच - 4552 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबाग
बहुत अच्छी कहानी
जवाब देंहटाएंसार्थक सुंदर भाव कथा।
जवाब देंहटाएंकिसी भी अतिरेक से बचते हुए । अपनी स्वाभाविकता में बदलते हुए समय समाज को अभिव्यक्त करती जीवंत कहानी लगी।
जवाब देंहटाएंअच्छी कहानी!
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