प्रतुल जोशी का आलेख 'नब्बे वर्ष के हुये पिताश्री'
नब्बे वर्ष के हुये पिताश्री
प्रतुल जोशी
इस वर्ष 10 सितम्बर को पिताश्री (यानी शेखर जोशी) अपने जीवन के 90 बसंत पूर्ण कर रहे हैं। 90 का यह अंक इस मायने में महत्वपूर्ण हो जाता है कि सामान्यतः भारतीय समाज का बड़ा हिस्सा इस अंक तक कम ही पहुंच पाता है। हमारे समाज में 90 की उम्र तक पहुंचना एक कामयाब जीवन का प्रतीक माना जाता है
पिताश्री (जिन्हें हम बच्चे पापा के संबोधन से बुलाते हैं) का 90 की उम्र में पहुंचना केवल हम परिवार वालों के लिये ही नहीं, वरन् हिन्दी साहित्य के असंख्य पाठकों के लिये भी एक महत्वपूर्ण घटना हो सकती है क्यूंकि आज हिन्दी में ऐसा कोई जीवित रचनाकार नहीं है जिसने वर्ष 1953 से अपने कहानी लेखन की शुरुआत की हो।
किशोर वय में शेखर जोशी |
पिताश्री का जन्म 10 सितम्बर 1932 को अल्मोड़ा जिले के ग्राम ओलिया (जो वर्तमान में सोमेश्वर तहसील के तालुका ब्लाक में है) में हुआ था। पिता दामोदर दत्त जोशी छोटी जोत के किसान थे, उनके बड़े भाई देवीदत्त जोशी भवाली सेनिटोरियम में नौकरी करते थे। अपने पिता और दादा-दादी के बारे में एक संकेत पिताश्री ने अपनी पुस्तक ‘‘स्मृति में रहे वे’’ के अध्याय ‘‘मेरा विद्याव्यसनी मातृकुल’’ (पृष्ठ 161) में इस तरह दिया - ‘‘मेरे दादी-दादा संभवतः बीसवीं सदी के पहले दशक में ही स्वर्गवासी हो गये थे। माता-पिता के आश्रय से वंचित ताऊ जी ने अपने एकमात्र अनुज को ननिहाल (बिसाड़-पिथौरागढ़) पहुंचा कर अल्मोड़ा में स्कूली पढ़ाई पूरी की और फिर भुवाली सैनिटोरियम में आफिस में कार्य करने लगे। हमारे पिता वयस्क हो कर ननिहाल से गांव लौटे तो पुराना घर, जो दादा और उनके भाई का संयुक्त आवास था, जीर्ण-शीर्ण हो चुका था। पिता जी ने नये सिरे से गांव और कत्यूर (बंड गांव) की खेती संभाली, अपनी गृहस्थी जमाई और ताऊ जी के आर्थिक सहयोग से सन् 1924 के आस पास गांव में आधुनिक शैली के नए मकान का निर्माण कराया था।’’
हमारी दादी का स्वर्गवास तब हुआ, जब पिता जी मात्र 10 वर्ष के थे। मां की मृत्यु ने पिताश्री के बाल सुलभ मनोविज्ञान को गहरा झटका दिया। अपनी किताब ‘‘मेरा ओलियागांव’’ के अध्याय ‘‘ईजा का निधन’’ (पृष्ठ 127) में पिताश्री ने इस पूरी घटना को बहुत चित्रात्मक तरीक़े से लिखा है:
‘‘मैं दस साल का रहा होऊँगा। ईजा गर्भवती थीं। पहाड़ में दाई का काम अपने ही बिरादरी की कोई अनुभवी बुढ़िया करती थी। पहाड़ों में बहुत सी औरतों की मृत्यु प्रसूति के दौरान या बच्चा होने के बाद ठीक से देखभाल नहीं होने पर प्रसूति ज्वर के कारण हुई है।’’
ईजा की अजीब स्थिति में मौत हुई। जब ईजा की स्थिति बिगड़ गई, तो सोचा गया कि उन्हें अल्मोड़ा ले जाया जाए। अब समस्या यह थी कि उन्हें अल्मोड़ा कैसे ले जायें? कोई एम्बुलेंस तो थी नहीं। बाबू काफी हिम्मती आदमी थे। उन्होंने कहा कि ऐसे ही ले जायेंगे। ईजा को चारपाई पर लिटा कर उन्हें दुशालों में बांध दिया, ताकि रास्ते में गिर न जाएं। हमारा जो हलवाहों का गांव था, वहां से सारे मर्दों को बुला दिया। अल्मोड़ा में डाक्टर ने ईजा की सर्जरी की। जो भ्रूण पेट में ख़त्म हो गया था, उसे निकाला। ईजा के बदन में ज़हर फैल गया था। डाक्टर ने कहा कि केस बहुत खराब है। कोशिश करते हैं। दो तीन दिन ईजा का इलाज चला। ईजा के निधन के बाद शहर में जो अपने लोग थे वे आए, तो बाबू बहुत ही बेचैन हो गये। मैं दस साल का बच्चा बाबू को ढाढ़स बंधा रहा था और कह रहा था कि जब आप ऐसा करोगे, तो हम लोग क्या करेंगे। इस बात की बड़ी तारीफ हुई कि बड़ा बहादुर लड़का है कि अपने बाप को कैसे समझा रहा है।
फिर हम लोग गांव आये। मैं तब भी नहीं रोया। जब गांव पहुंचे, तब बरामदे में ऊपर के खण्ड में चारपाई पर बाबू निढाल हो कर पड़े हुए थे। मैं धीरे से चारपाई से नीचे उतरा। रसोई घर में ऊंची अलमारी थी। उसमें लकड़ी के बर्तन में गुड़ की भेली होती थी। मेरी आदत थी कि मैं किसी तरह से अलमारी पर चढ़ कर गुड़ और घी ले कर खाता था। मेरा वही कार्यक्रम चल रहा था। तब मुझे अचानक ईजा की डांट सुनाई दी ‘‘क्या कर रहा है, यह? जूठे हाथ लगा रहा।’’ मैंने पीछे मुड़ कर देखा- कहीं ईजा नहीं थी। कुछ नहीं था। तब मुझे अकेले में जो रुलाई छूटी, उसे बयान नहीं कर सकता।
मेरे विचार से पिताश्री के लेखक बनने में जिस घटना का सबसे बड़ा योगदान था, वह था माता का निधन। बहुत से साहित्यकारों के जीवन में ऐसी दुर्घटनाएं घटी हैं जिसके चलते वह महान लेखक बने हैं।
मां के निधन के कारण अपनी शिक्षा-दीक्षा के लिये पिताश्री को अपने मामा स्वर्गीय जगन्नाथ शास्त्री जी के पास अजमेर के निकट केकड़ी जाना पड़ा। इस घटना के कई संदर्भ हैं। प्रथमतः मामाजी निःसंतान थे। दूसरा हमारे ताऊ जी स्वर्गीय नवीन जोशी वहां पिताश्री के जाने से पूर्व रह रहे थे। तीसरा पिताश्री के मामाश्री केकड़ी के जिस बीथम हाईस्कूल में अध्यापक थे, वहीं थोड़े दिनों पश्चात एक अन्य कुमाऊंनी युवक अध्यापक के तौर पर नियुक्त हो कर आये, उनका नाम था भगवान बल्लभ पंत। भगवान बल्लभ पंत जी दस जीवित संतानों के पिता हुये। उसमें दूसरे नंबर की संतान चन्द्रकला बाद में हमारी माताश्री बनीं।
ग्यारह वर्ष की आयु में कुमाऊं से राजस्थान विस्थापन ने परवर्ती वर्षों में पिता जी को विस्थापन की पीड़ा का लेखक भी बना दिया। विस्थापन की कहानियों के तौर पर उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘‘दाज्यू’’ और कम चर्चित कहानी ‘‘व्यतीत’’ को लिया जा सकता है तो एकाधिक कविताओं में उनकी यह पीड़ा परिलक्षित होती है।
केदार नाथ अग्रवाल के साथ शेखर जोशी |
सन् 58 तक पिताश्री हिन्दी साहित्य में अपना एक मुक़ाम बना चुके थे। यानी मात्र 26 वर्ष की आयु में ’’कोसी का घटवार’’ कहानी संग्रह के प्रकाशन के साथ, जिसे मार्कण्डेय जी ने अपने ‘‘नया साहित्य’’ प्रकाशन से प्रकाशित किया था। मैं इतने वर्षों बाद तसव्वुर करता हूं कि जिस वक्त पिताश्री इलाहाबाद ई0 एम0 ई0 में नियुक्त हो कर पहुंचे यानी वर्ष 1955 में, वहां साहित्यिक गतिविधियां कितनी शानदार रही होंगी। इस बात का ज़िक्र पिताश्री कई जगह कर चुके हैं कि उस दौर में इलाहाबाद में साहित्यकारों के दो ख़ेमें पूरी सक्रियता के साथ विद्यमान थे। एक ‘‘प्रगतिशीलों’’ का और दूसरा ‘‘परिमल’’ वालों का।
‘‘प्रगतिशील लेखक संघ की बैठकों में हिन्दी के डा0 भगवत शरण उपाध्याय, प्रकाश चन्द्र गुप्त, नागार्जुन, श्रीपत राय, अमृत राय, उपेन्द्र नाथ अश्क, भैरव प्रसाद गुप्त, शमशेर बहादुर सिंह, बलवन्त सिंह जैसे ख्याति प्राप्त लेखक नियमित रूप से भाग लेते थे। वहीं नई पीढ़ी के मार्कण्डेय, कमलेश्वर, दुष्यन्त कुमार, अमरकांत अपनी रचनाओं के द्वारा अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे। अतिथि लेखकों में अक्सर राहुल सांकृत्यायन, भदन्त आनंद कौशल्यायन, डाॅ0 महादेव साहा, डाॅ0 नामवर सिंह, फणीश्वर नाथ रेणु इन बैठकों में भागीदारी करते थे। साथ ही उर्दू के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर फ़िराक़ साहब, डाॅ0 ऐहतशाम हुसैन, डाॅ0 मसिउज्ज़मा, डाॅ0 ऐजाज हुसैन, अजमल अजमली, अनुवादक महमूद अहमद ‘हुनर’ और अन्य युवा लेखक बैठकों में शिरकत करते थे।‘‘
पिताश्री आगे लिखते हैं ‘परिमल’ के सदस्यों में डाॅ0 धर्मवीर भारती, इलाचन्द्र जोशी, बालकृष्ण राव, डाॅ0 रघुवंश, डाॅ0 जगदीश गुप्त, विजयदेव नारायण साही, लक्ष्मीकांत वर्मा, केशवचंद्र वर्मा, डाॅ0 रामस्वरूप चतुर्वेदी, विपिन अग्रवाल, सत्यव्रत सिन्हा, श्रीमती शांति मेहरोत्रा, डाॅ0 लक्ष्मी नारायन लाल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, गोपीकृष्ण गोपेश, नित्यानन्द तिवारी, सत्यप्रकाश मिश्र, केशव प्रसाद मिश्र, मलयज, श्रीराम वर्मा, उमाकान्त मालवीय, प्रेमलता वर्मा, श्रीमती उमा राव, दूधनाथ सिंह, शिवकुटी लाल वर्मा, ओंकारनाथ श्रीवास्तव और अजित कुमार इत्यादि रचनाकार शामिल थे।’’ (स्मृति में रहें वे- पृष्ठ 124)
यह इलाहाबाद के लिए हिन्दी साहित्य का स्वर्ण काल था और इसी वातावरण में एक नौजवान लेखक के तौर पर पिताश्री अपनी कलम को धार दे रहे थे
यदि 10 वर्ष की आयु में मां का साया, पिताश्री के ऊपर से उठा तो 36 वर्ष की उम्र तक आते न आते पिताश्री ने पिता को भी खो दिया।
मां-बाप का अभाव शायद बच्चे पूरा कर रहे थे तभी वर्ष 1962 मे यह नाचीज़, वर्ष 1966 में संजय और वर्ष 1969 में बहन कृष्णा के आगमन ने पिताश्री के आंतरिक दुःख को कम किया होगा ।
शेखर जी अपने परिवार के साथ |
वर्ष 1962 में हमारा परिवार लूकरगंज आ गया था। पहले भैरव प्रसाद गुप्त जी के मकान में क्यूंकि भैरव जी ‘‘नयी कहानियां’’ का सम्पादन करने के सिलसिले में दिल्ली चले गये थे। और जाने से पहले 92/109 लूकरगंज के किराये के मकान में पिताश्री को परिवार समेत शिफ्ट करा गये । इस बीच दिल्ली में भैरव जी की ‘‘नयी कहानियां’’ के मालिकान से पटी नहीं और वह वापस इलाहाबाद लौट आये। इसके चलते हमारे परिवार को एक दूसरे मकान में शिफ्ट करना पड़ा और इस मकान का नंबर था 100, लूकरगंज। दरअसल यह मकान 18-20 मकानो के अहाते का हिस्सा था, जहां हमारा परिवार लगभग 50 वर्ष तक रहा। लूकरगंज आने से कुछ समय पहले पिताश्री करेलाबाग काॅलोनी में भी रहे जहां अमरकान्त जी भी लम्बे समय तक रहे।
पिताजी ने सेना की 31 वर्ष की नौकरी में, इलाहाबाद मे लगभग एक जैसा जीवन जिया - घर से सुबह इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पहुंचना, वहां एक शटल मे लगभग 12-13 किमी की यात्रा। यह शटल सुबह 07.20 बजे इलाहाबाद रेलवे स्टेशन से चल देती थी और यात्रियों को छिवकी तक पहुंचाती थी। छिवकी में ही रेलवे स्टेशन के समीप था पिताश्री का कार्यस्थल ‘‘508 आर्मी बेस वर्कशाॅप’’। इसी वर्कशाॅप में वह चार्जमैन, सीनियर चार्जमैन, फोरमैन और अंत में वर्कशाॅप आफीसर के ओहदे तक पहुंचे। हमारे घर में सुबह पौने छः बजे तक सारा परिवार उठ जाता। पिताश्री वर्कशाॅप जाने के लिए तैयार होते, ईजा उनके लिए खाना बना रही होतीं। हम बच्चे भी तब तक उठ जाते। मुझे याद है कि गुसल में पिता जी प्रायः गा़लिब के शेर गुनगुनाते। ख़ासकर –
‘‘माना कि तग़ाफुल न करोगे लेकिन
खा़क़ हो जायेंगे तुमको खबर होने तक।’’
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सन 1975 में मै मार्च में कक्षा आठ की पढ़ाई समाप्त कर, नवीं में पहुंच चुका था। वर्ष 74-75 उत्तर भारत में अराजकता से भरे हुए वर्ष थे। आये दिन स्कूलों में हड़तालें होती थीं जिसके चलते हमारे स्कूल लम्बे-लम्बे अंतरालों के लिये बन्द हो जाते। इसी समय इलाहाबाद में अलफ्रेड पार्क के स्टेडियम में एक चैरिटी क्रिकेट मैच का आयोजन किया गया था। इस क्रिकेट मैच में भारतीय क्रिकेट की नामी शख़्सियतें आयी थीं। गुंडप्पा विश्वनाथ, सुनील गावस्कर, चेतन चैहान, मोहिन्दर अमरनाथ आदि आदि। लेकिन उस वक्त इलाहाबाद में अराजकता अपने चरम पर थी। हम लोग रेडियो पर इस मैच की कमेण्ट्री सुन रहे थे। अचानक कमेन्टेटर बोलने लगे ‘‘मैदान में कुछ नौजवान घुस आये हैं और हमारे दोनों बैट्समैन मैदान छोड़ कर पैवेलियन की तरफ भाग रहे हैं।"
यह कमेन्ट्री मैं अपने एक मित्र के घर पर बैठा सुन रहा था। मुझे और मेरे मित्र से रहा न गया। हम लोगों ने साइकिल उठायी और पहुंच गये स्टेडियम। वहां किसी तरह पिछले दरवाजे से स्टेडियम के भीतर पहुंच गये। मैच पुनः शुरू हो चुका था। लेकिन विश्वविद्यालय के छात्र और अन्य युवक लगातार गंदी गंदी गालियां बक कर खिलाड़ियों का मनोबल गिराने में लगे थे। एक बार पुनः किसी बैट्समैन ने अच्छा शाॅट लगाया। गेंद बाउंड्री पार हुई। लेकिन इस बीच युवकों का एक हुजूम दौड़ कर मैदान में पहुंच गया। फिर उन युवकों के पीछे सैकड़ों और युवक। मैच भगदड़ भेंट चढ़ गया। बहुत से नवजवान स्टेडियम की ऊंची ऊंची दीवारों से नीचे कूदने लगे क्यूंकि पुलिस ने लाठी चार्ज प्रारंभ कर दिया। मैं और मेरा दोस्त चुन्नू किसी तरह पुलिस की लाठियों से बचते-बचाते स्टेडियम के बाहर निकलने में कामयाब हुये।
ऐसे ही अराजकता के दौर में 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी।
गर्मियों में हमारा परिवार 100, लूकरगंज अहाते में चारपाई डाल कर घर के बाहर सोया करता था। इमरजेंसी लगने वाले दिन रात में एक चारपाई पर बैठ कर पिताजी ने बताया कि देश में इमरजेंसी लग चुकी है। सैकड़ों विपक्षी नेताओं को जेल में डाला जा चुका है। पिताजी की बातो से अहसास हुआ कि वह काफी तनाव में हैं। अगले दिन समाचार पत्रों को देखा तो पाया कि मुखपृष्ठ के समाचारों में आधे पर स्याही पुती है।
अमरकांत और मार्कण्डेय जी के साथ शेखर जोशी |
बावजूद इमरजेन्सी के पिताश्री और उनकी मित्र मंडली का शनिवार काफी हाउस जाना स्थगित नहीं हुआ था। दरअसल हर शनिवार को इलाहाबाद के सिविल लाइंस स्थित काफी हाउस में शहर के जाने-माने साहित्यकारों और विश्वविद्यालय के अध्यापकों का जमावड़ा होता था। पचास के दशक से प्रारंभ हुआ यह जमावड़ा अस्सी के दशक तक चला l। अलग-अलग टेबुलों पर अलग-अलग विचारधाराओं के लेखक बैठते। हमारे पिताश्री का जो गोल था, उसमें भैरव प्रसाद गुप्त जी, अमरकांत जी, मार्कण्डेय जी थे। इमरजेंसी के दौर में भी इन टेबुलों पर जोरदार बहस होती। एक दिन मैंने पिताश्री से कहा कि आप लोग इमरजेन्सी के इस माहौल में भी इतनी बहस कैसे कर लेते हो? तो उन्होंने बताया कि वहां इतना शोर शराबा होता है कि किसी को पता ही नहीं चलता कि बहस क्या हो रही है।
लेकिन इमरजेन्सी में इलाहाबाद के लेखकों पर क़ाफी नजर रखी जाती थी। हमारे घर विभिन्न अंतरालों पर प्रायः सी0आई0डी0 वाले अलग अलग तरीक़े से आते रहते और यह संकेत दे कर चले जाते कि ‘‘आप निग़ाह में हैं।’’
1977 में इमरजेंसी के आतंक से छुटकारा मिलने पर, हम लोगों ने का़फ़ी राहत महसूस की। तब तक पिताश्री अपने दूसरे कहानी संग्रह को प्रकाशित कराने का मूड बना चुके थे। उन दिनों हापुड़ में अशोक अग्रवाल जी ने ‘‘संभावना प्रकाशन’’ के नाम से एक नया प्रकाशन प्रारंभ किया था। 1978 में संभावना प्रकाशन से आये पिताश्री के दूसरे कहानी संग्रह ‘साथ के लोग’ का पूरे हिन्दी जगत में बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया गया। ‘‘साथ के लोग’’ की एक दर्जन से ज्यादा समीक्षाएं प्रकाशित हुईं । बीस वर्षों के अंतराल के पश्चात आये पिताश्री के दूसरे कहानी संग्रह की कुछ समीक्षाओं के शीर्षक भी बड़े रोचक थे। किसी ने लिखा ‘‘साथ के लोग, कितने साथ?’’ ममता कालिया जी ने लिखा शेखर जोशी नहीं। शिखर जोशी। आदि आदि।
बावजूद इतनी साहित्यिक स्वीकार्यता के, पिताश्री का आफिस का क्रम वहीं था। सोमवार से शुक्रवार सुबह 07 बजे से शाम 05 बजे तक वर्कशाप की नौकरी। शनिवार को हाफ डे के चलते 03 बजे घर पहुंचना और शाम को काफी हाउस के लिए चल देना। रविवार का दिन ऐसा होता था जब हमारे घर में मिलने जुलने वालों का तांता रहता। इसमें वर्कशाप के कर्मचारी/सहकर्मी होते, हमारे रिश्तेदार होते या फिर साहित्यिक बिरादरी के सदस्य। यहां इस बात का उल्लेख करना मैं जरूरी समझता हूं कि पिताश्री ने जब पचास के दशक के प्रारम्भ में ई. एम. ई. अप्रेन्टिसशिप का प्रवेश लिया था तो उनके बैच के तीन साथी भी इलाहाबाद में नियुक्त हो कर आये थे उसमें एस0 पी0 गोयल जी, जनकराज शर्मा जी और तरसेम लाल बसरा अंकल थे। दुर्भाग्य से यह तीनों अब इस दुनियां में नहीं हैं। हमारे यह तीनों अंकल करेलाबाग़ कालोनी में ही रहते थे। आप तीनों की पोस्टिंग छिवकी के बजाए यमुना नदी के किनारे पर स्थित ऐतिहासिक किले में थी। कभी-कभी हम इनके घर जाते तो कभी आपका परिवार हमारे घर आता।
लेकिन छिवकी वर्कशाप के जो दूसरे लोग आते, उसमें अलग-अलग ट्रेड के कुशल कारीगरों की संख्या ज्यादा होती। चूंकि पिता जी लम्बे समय तक फोरमैन के पद पर कार्यरत रहे, अतएव इन कर्मचारियों के सुपरवाइजर थे। यह कर्मचारी, अपने सुपरवाइजर से मिलने के चलते भी आते थे।
कभी-कभी एक दो ऐसे भी आ जाते जिनके व्यवहार से मुझे खीज पैदा होती और मैं सोचता पता नहीं यह नमूने क्यूं चले आते हैं। एक बार मैं आराम से चारपाई पर लेटा था कि वर्कशाप का कोई कर्मचारी घर आया था। इन महाशय से मेरा कोई पूर्व परिचय था नहीं। आते ही वह मुझसे पूछने लगे ‘‘आजकल क्या कर रहे हैं?" उन दिनों मैंने NDA का फार्म भरा था। "मैंने कहा NDA का फार्म भरा है।’’ अब उन महाशय ने अपने वक्तव्य में बिना किसी कूटनीति का प्रयोग किये हुए, तपाक से एक बेहूदा कमेंट कर दिया ‘‘लेकिन तुम्हारी तो छाती चौड़ी है ही नहीं।’’ मैं उन महाशय की इस अनाधिकार चेष्टा से भीतर ही भीतर बहुत व्यथित हुआ। फिर भी अपने को संभाल कर मैंने कहा ‘‘लिखित परीक्षा का परिणाम आने दीजिए, छाती खुद ब खुद चौड़ी हो जायेगी।’’
विभिन्न ट्रेड्स के कर्मचारियों के हमारे यहां आने पर पिताश्री कहते कि देखो मैं कितने अच्छे आफिस में कार्य करता हूँ, जहाँ एक साथ अलग-अलग विधाओं (कारपेन्टर, पेन्टर, इलेक्ट्रिशियन, लुहार) के कारीगर एक साथ कार्य करते हैं।
‘508, आर्मी बेस वर्कशाप, छिवकी' में 31 वर्षों की नियमित सेवा ने पिताश्री को हिन्दी साहित्य का एक बिरला रचनाकार स्थापित करने का पूरा अवसर प्रदान किया। इसीलिए वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार नवीन जोशी- ‘‘आजकल के सितंबर 2022 के अंक में पिताश्री की रचनाओं का मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं ‘‘हिन्दी के अकेले डांगरी वाले - (डांगरी वाले) शेखर जोशी’’। यदि पिताश्री ने आजीविका के तौर पर किसी और पेशे का चुनाव किया होता तो हिन्दी साहित्य को ‘‘बदबू’’, ‘‘उस्ताद’’, ‘‘सीढ़ियां’’, ‘‘आशीर्वचन’’, ‘‘नौरंगी बीमार है’’, ‘‘डांगरी वाले’’, ‘‘हेड मसिंजर मंदू’’ जैसी कहानियों से वंचित होना पड़ता।
फैक्ट्री जीवन पर लिखी इन कहानियों का प्रभाव सिर्फ देश के भीतर ही नहीं वरन् विदेशों तक पड़ा। ‘‘बदबू’’ का अनुवाद अंग्रेज़ी, पोलिश, रूसी और जापानी ज़बानों में हुआ तो भारतीय भाषाओं, गुरुमुखी, बांग्ला, उर्दू में भी तरजुमा हुआ। ‘बदबू’ कहानी के अंग्रेज़ी अनुवाद से एक रोचक प्रसंग जुड़ा है। ‘‘बदबू’’ का अंग्रेज़ी में अनुवाद हुआ Stench नाम से। इसे एक अमेरिकन Gordon C R odarmal ने वर्ष 1970 के आस-पास किया था। रविवार 06 मई 1973 को Times Of India ने अपने रविवासरीय के साथ एक सप्लीमेंट निकाला। इस सप्लीमेंट में विभिन्न भारतीय भाषाओं में लिखी जा रही कहानियों के अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुये। इस सप्लीमेंट के पहले पृष्ठ पर छपी थी ‘‘Stench"। जब इस कहानी को प्रसिद्ध फिल्मकार मणि कौल ने पढ़ा तो उन्होंने टाइम्स आफ इंडिया, मुम्बई के दफ़्तर जा कर हमारे घर का पता लिया और पिताश्री को पत्र लिखा। उसके बाद उनके कई पत्र आते रहे जिसमें वह उल्लेख करते थे कि वह ‘बदबू’ पर फिल्म बनाने के कार्य की शुरुआत कर रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि उनका फिल्म बनाने का सपना पूरा नहीं हो पाया।
कभी-कभी कुछ रोचक घटनाएं किसी के जीवन में घटती हैं जो हमेशा याद रहती हैं और ज्ञान में इज़ाफ़ा भी करती हैं। आकाशवाणी लखनऊ में कुछ वर्ष पूर्व रेडियो जापान के एक प्रोड्यूसर साहब पधारे। मेरा उनसे परिचय हुआ। मैंने उन्हें बताया कि हमारे पिताश्री की एक कहानी का अनुवाद जापानी भाषा में हुआ है। लेकिन संकलन में वह कहां है, यह समझ में नहीं आ रहा है। अगले दिन जब पुस्तिका को ले कर मैं प्रोड्यूसर से मिला तो उन्होंने कहानी ढूंढ़ निकाली। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि जापानी भाषा न तो हिन्दी की तरह बांयें से दांये लिखी जाती है, न उर्दू की तरह दांये से बांयें। वरन् वह ऊपर से नीचे लिखी जाती है।
पिताश्री की कहानियों के अनुवाद देश की तमाम भाषाओं में हुये। इनमें शामिल हैं बांग्ला, मराठी, गुजराती, मलयालम, उर्दू, उड़िया, गुरुमुखी भाषाएं। कुछ कहानियों के अनुवाद अंग्रेजी भाषा में समय-समय पर होते रहे।
यदि वर्ष 1951 में पिताश्री ने EME की नौकरी में प्रवेश लिया तो वर्ष 1986 में 06 वर्ष पूर्व ही स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली। इसके पीछे मूलतः दो कारण थे। एक तो नौकरी करते करते उनको 35 वर्ष हो गये थे, दूसरा वर्ष 1985 में मेरी नौकरी इलाहाबाद क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक में लग गयी थी। लेकिन छोटे भाई बहन अभी पढ़ रहे थे।
वर्कशॉप के अपने मित्रों के साथ शेखर जी |
पिताश्री का मानना था कि वर्कशाप की नौकरी के चलते उनका पढ़ना लिखना बहुत प्रभावित हो रहा था। रिटायरमेंट के बाद वह अपना अच्छा ख़ासा समय अपने लेखन को धार देने में देंगे। सेवानिवृत्ति के पश्चात् थोड़े समय पिताश्री ने माया प्रकाशन के लिए कुछ बांग्ला कहानियों का अनुंवाद किया। लेकिन उनकी ख़ुद की कहानियां लिखने की गति रफ़्तार न पकड़ सकी। इस बारे में मुझे एक वाकया याद आ रहा है। जब पिताश्री ने यह घोषणा कर दी कि वह स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले रहे हैं तो भैरव जी ने मुझसे कहा ‘‘शेखर, ऐसा क्यूं कर रहे हैं? क्यूंकि वह तो कभी-कभी लिखते हैं। नियमित लेखक तो हैं नहीं।’’
भैरव जी के प्रश्न का उत्तर किन्हीं अन्य परिस्थितियों मे मौजूद था।
दरअसल वर्ष 1984 तक पिताश्री अपनी सेवा में राजपत्रित अधिकारी हो गये थे, वर्कशाप आफिसर के तौर पर। उनकी नौकरी का स्वरूप ऐसा था कि उसमें सेना के वर्दीधारी अधिकारी भी होते थे और पिताश्री जैसे बिना वर्दीधारी सिविलियन अधिकारी भी।
राजपत्रित अधिकारी होने के पश्चात आफिसर्स मैस की पार्टियों में जाना एक बाध्यता हो गयी थी। पिताश्री दिन भर वर्कशाप में अपना समय बिता कर घर लौटते तो कुछ देर बाद सेना का एक थ्री टनर उनको आफिसर्स मेस में ले जाने के लिये खड़ा दिखता। सेना की इस अधिकारी संस्कृति से पिताश्री की संगति नहीं बन पा रही थी। उनका शाम का जो समय पढ़ने लिखने के लिए सुरक्षित था, वह कार्यालयी संस्कृति को समर्पित हो रहा था। नौकरी से छः वर्ष पूर्व सेवानिवृत्ति में यह भी एक महत्वपूर्ण कारण था।
90 वीं वर्षगांठ मनाते हुए परिवार |
सुबह 7 बजे से शाम 5 बजे की वर्कशाप की नौकरी के दौरान भी वह पढ़ने का वक़्त निकाल लेते थे। इसका तरीक़ा यह था कि उनके झोले में हमेशा एक किताब होती थी। शटल से इलाहाबाद रेलवे स्टेशन से छिवकी तक पहुंचने और फिर लौटने में मिले वक़्त का सदुपयोग वह किताबें पढ़ने में करते थे। सेना की नौकरी से स्वैच्छिक अवकाश के पश्चात पिताश्री का अधिकांश समय लूकरगंज वाले घर पर ही बीता। घर की साफ-सफाई, रसोई में खाना बनाने में ईजा का हाथ बंटाने, स्वाध्याय, मोहल्ले के बच्चों के साथ समय बिताने और समय-समय पर इलाहाबाद से बाहर कहीं रिश्तेदारी में या लेखक सम्मेलनों में जाने में ही समय बीतता । वर्ष 1988 में, मैं आकाशवाणी की नौकरी में आ गया था। संजय भी जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में हिन्दी में परास्नातक की पढ़ाई के लिए चला गया था। बहन कृष्णा एग्रीकल्चर कालेज इलाहाबाद से बी0एस-सी0; गृह विज्ञान, की पढ़ाई के बाद मुम्बई एस0एन0डी0टी0 में परास्नातक (टेक्सटाइल) की पढ़ाई के लिए चली गयी थी। घर में ईजा और पिताश्री ही रह गये थे। पिताश्री अपने समकालीनों में सबसे ज्यादा सद्गृहस्थ थे। नाते रिश्तेदारी की उन्हें काफी चिन्ता रहती। घर में मामा-मामी, मौसियों, ददिहाल के बहुंत से रिश्तेदार समय-समय पर आते रहते थे। इन रिश्तेदारों से घण्टों बातें होतीं। जब तक नाना-नानी जी जीवित थे वह प्रतिवर्ष नियमित रूप से कुछ दिन हमारे घर आ कर बिताते। 1989 के जनवरी महीने में पीलिया से पीड़ित हो कर मैं आकाशवाणी कानपुर से छुट्टी लेकर लगभग एक माह घर में पड़ा रहा। पिताश्री दिन-रात मेरी सेवा करते। पपीता खिलाना, मूली कस कर उसका रस निकाल कर देना जैसे बहुत सारे उपक्रम मेरे स्वस्थ रहने के लिए करते। संभवतः उन्होंने बहुत से व्यक्तियों की पीलिया बिगड़ने से मृत्यु होने जैसी ख़बरें सुन रखी थीं।
100, लूकरगंज का हमारा किराये का मकान, इलाहाबाद रेलवे स्टेशन से महज़ ढाई-तीन किमी की दूरी पर था। इसके चलते बहुत से परिचित जन, ट्रेन पकड़ने के क्रम में समय मिलने पर कुछ वक़्त हमारे घर में भी गुज़ारते। नियमित रूप से हमारे घर आने वालों में अमरकान्त जी और भैरव जी थे। इसके अलावा समय-समय पर मार्कण्डेय जी, सतीश जमाली जी, दूधनाथ सिंह जी, शैलेष मटियानी जी आते थे। ज्ञानरंजन जी भी जब अपने मायके लूकरगंज जाते तो कभी-कभार हमारे घर आते। कुछ समय के लिए हमारे मोहल्ले में वीरेन डंगवाल और मंगलेश डबराल भी रहे। उस दौरान वह भी आते रहे। पिताश्री से मन मुटाव के चलते एक लम्बे समय तक अश्क जी हमारे घर नहीं आये। किन्तु 80 के दशक में जब अश्क जी का आना प्रारम्भ हुआ तो फिर वह नियमित रूप से आते रह। नरेश मेहता जी भी लूकरगंज में रहते थे। वह वर्ष में एक दफ़े होली के अवसर पर ज़रूर आते। कभी-कभी ठेठ इलाहाबादी अन्दाज़ में धोती-कुर्ता और मुंह में पान रखे डा. सत्यप्रकाश मिश्र जी के भी दर्शन हो जाते। 1986 के आस-पास नागार्जुन जी भी एक दिन के लिए हमारे घर रुके थे। बाहर से आने वालों में मनोहर श्याम जोशी, विश्वनाथ त्रिपाठी, चन्द्रभूषण तिवारी, डाॅ0 आनन्द प्रकाश, ओम प्रकाश ग्रोवर जी आदि कई ख़्यातिनाम लेखक थे। युवा रचनाकारों में हरीशचन्द्र पाण्डेय जी, बोधिसत्व, बद्री नारायण, अनिल कुमार सिंह, सन्तोष चतुर्वेदी, सुधीर सिंह थे। वर्ष 1988 के मार्च महीने में मैंने नौकरी के सिलसिले में इलाहाबाद छोड़ दिया था। मेरी अनुपस्थिति में ढेर सारे लेखकों का आना जाना लगा रहता था। इसलिए यदि कुछ नाम छूट रहे हैं तो मैं क्षमा चाहूंगा।
पिताश्री की कहानियों में कहीं-कहीं उनके जीवन का अक़्स देखने को मिलता है। जैसे ‘‘ज़िद्दी’’ कहानी का बच्चा- जो अपने मामा-मामी के घर, अपनी माँ की मृत्यु के बाद रहता है और फिर बेहद अन्तर्मुखी हो जाता है। इसमें वह बच्चा, पिता जी के जीवन के यथार्थ के बहुत क़रीब तो नहीं है लेकिन कहीं एक क्षीण रेखा में पिता जी का बचपन चित्रित होता दिखता है।
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पिताश्री की कहानियों से गुज़रते हुए मैंने पाया कि ढेर सारे विविध चरित्रों पर आपने बड़ी खूबसूरती से क़लम चलायी है। ‘‘दाज्यू’’ में होटल में काम करने वाला पहाड़ से आया हुआ एक छोटा बच्चा है तो ‘‘गोपुली बुबु’’ में पहाड़ के एक गांव में रहने वाली अकेली वृद्धा है जिसका जीवन अभावो में ही गुज़रा है। वहीं ‘‘बदबू’’ में यदि कारखाने के भीतर अमानवीय स्थितियों से संघर्ष करता एक नौजवान है तो ‘‘आशीर्वचन’’ का किरदार एक 60 साल का अधेड़ है जो कारखाने में एक लम्बे समय तक की अपनी नौकरी से संतुष्ट है और कारखाने का भविष्य नौजवान पीढ़ी में देख रहा है। ‘‘नौरंगी बीमार है’’ में मज़दूर वर्ग के भीतर बदलते मूल्य बोध का चरित्र ‘‘नौरंगी’’ है तो ‘‘उस्ताद’’ में अपने शिष्य को ग़लतफ़हमी से दूर रखने के लिए आखि़री समय तक प्रयत्न करने वाला उस्ताद है।
होश संभालने के बाद मैं पिताश्री की रचना प्रक्रिया का चश्मदीद रहा हूँ। वर्कशाप के रेजीमेंटेड जीवन में मैंने उन्हें कहानी लिखते हुए तभी पाया जब किसी लघु पत्रिका के सम्पादक की बार-बार चिट्ठी आ रही हो या आकाशवाणी से कहानी के लिए अनुबन्ध पत्र पहुंचा हो। उन परिस्थितियों में पिताश्री वर्कशाप से तीन-चार दिन की छुट्टी ले कर कहानी लिखने बैठते। मैंने उन्हें कभी नौकरी करने के साथ-साथ कहानी लिखते नहीं पाया। साथ ही व्यावसायिक पत्रिकाओं के मुकाबले उन्होंने हमेशा लघु पत्रिकाओं को ही रचना भेजना बेहतर समझा। ‘‘धर्मयुग’’ से धर्मवीर भारती और ‘‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’’ से मनोहर श्याम जोशी के दर्जनों पत्र आये, लेकिन पिताश्री ने कभी इन दोनों पत्रिकाओं को एक भी कहानी नहीं भेजी। अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में एक बार कहीं पिताश्री ने लिखा था ‘‘मैं अपने को लिखने में तब सहज पाता हूँ, जब आस-पास कुछ खेलते हुए बच्चों का शोर हो।’’ नितान्त एकांत में या रात्रि के गहन सन्नाटे में बैठ कर कहानी लिखते मैंने उन्हें कभी नहीं पाया।
हमारे ननिहाल में पिताश्री की छवि बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति की रही। यद्यपि पिताश्री अपने बचपन में कुछ वर्ष हमारे ननिहाल में रहे, क्योंकि हमारे नानाजी और पिताश्री के मामा जी एक ही मकान में रहे। लेकिन शादी के बाद समय-समय पर अपनी आपत्तियों को वह ससुराल वालों के समक्ष दर्ज कराते रहे। इसीलिए एक मामा हमेशा मज़ाक में कहते ‘‘जोशी जी की लम्बी नाक।’’ बावज़ूद इसके सभी मामा-मौसियों से पिताश्री को बेहद आदर- सम्मान मिलता रहा। आज भी अगर पिताश्री को कोई हल्की सी बीमारी हो जाय तो डाक्टर मामा एवं डाक्टर मौसी हर तरीके की सहायता के लिए खड़े रहते हैं।
वर्ष 2012 अक्टूबर में ईजा के देहावसान के पश्चात पिताश्री का एक स्थाई साथी कम हो गया। ईजा और पिताश्री कुछ समय के लिए एक ही घर में पले-बढ़े थे, इसलिए उनका आपस का परिचय विवाह से बहुत पहले का था। पिताश्री के 52 वर्षों के वैवाहिक जीवन में ‘‘दि एण्ड’ आ गया था। कुछ दिन पिताश्री इस अकेलेपन को झेलते रहे। ईजा की मृत्यु के पश्चात् ज़्यादा समय उन्होंने हमारे साथ लखनऊ की रेडियो कालोनी में बिताया। रेडियो काॅलोनी के सामुदायिक वातावरण ने उन्हें नितांत अकेलेपन से उबारा। यह हम लोगों के लिए सुखद आश्चर्य का विषय था कि जिस लेख की रफ़्तार को उन्होंने अपनी मध्य वय में मंथर गति प्रदान कर रखी थी, 2014-15 के पश्चात् उसमें एक तेज़ी परिलक्षित होने लगी। लेकिन इस लेखन के केन्द्र में अब कहानी नहीं थी। वहां कविताएं थीं, संस्मरण थे, कुमाऊंनी बोली में प्रकाशित होने वाली विभिन्न पत्रिकाओं के लिए टिप्पणियां और लेख थे। बावजूद एक आंख की रोशनी चले जाने के, घण्टों कुर्सी पर एक ही स्थिति में बैठ कर मैग्नीफाइंग ग्लास से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ना और शाम को रेडियो पर समाचार और अन्य कार्यक्रम सुनना, पिताश्री की जीवन चर्चा का नियमित अंग हो गये।
पिताश्री को इस सुदीर्घ जीवन में बहुत से सम्मान प्राप्त हुए। बहुत सी कहानियों पर नाटक खेले गये। दूरदर्शन ने ‘‘कोसी का घटवार’’ कहानी पर एक टेलीफिल्म बनाई तो ‘‘चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी आफ इंडिया’’ द्वारा ‘‘दाज्यू’’ कहानी पर 1989 में फिल्म बनी। स्थानाभाव के कारण इन सम्मानों और अन्य उपलब्धियों की चर्चा मैं नहीं कर रहा हूँ, लेकिन इनसे जैसे किसी भी लेखक का मनोबल बढ़ता है, वैसे ही पिताश्री का भी बढ़ता रहा। यहां यह बात रेखांकित की जा सकती है कि उपरोक्त कार्य-कलापों के लिए पिताश्री ने कभी किसी से पैरवी नहीं की और मिलने पर बहुत उत्साह भी प्रदर्शित नहीं किया।
शारीरिक व्याधियों के लिहाज़ से पिताश्री की 90 वर्ष की जीवन यात्रा इतनी आसान नहीं रही , जितनी किसी भी बाहरी व्यक्ति को लगेगी। वर्ष 1968 में पिताश्री का हाॅर्निया का पहलाा आपरेशन हुआ था जो बिगड़ गया था। इसके चलते हमारे परिवार को दो महीने इलाहाबाद के एक अस्पताल में रहना पड़ा। फिर 2001 के आस पास प्रोस्टेट का आपरेशन लखनऊ में हुआ। 2011 में सिर में खून के थक्के जम जाने के कारण सिर का आपरेशन हुआ लखनऊ के विवेकानन्द अस्पताल में। इस आप्रेशन से जुड़ा एक मज़ेदार किस्सा है। आपरेशन के लिए पिता जी के बाल मुण्डा दिये गये थे। जब वह आपरेशन थिएटर में जाने लगे, मैंने एक-दो मित्रों से कहा
‘‘पिता जी अपने तो बाल मुड़वा लिये हैं, हम लोगों के न मुड़वायें।’’ ख़ैरियत रही, आपरेशन सफल रहा। फिर 2020 के शुरुआती महीनों में पीठ से लगभग ढाई लीटर पानी निकाला गया। 2020 के नवम्बर में एक बार फिर हार्निया का आपरेशन हुआ। 2021 की अप्रैल में गाज़ियाबाद़ प्रवास के दौरान कोविड की चपेट में आ गये थे। उसस वक़्त कोविड पूरे देश में चरम अवस्था में था। डाक्टर मामा और संजय के परिवार के चलते, इस महामारी से जैसे-तैसे जीवन बचा। वर्ष 2008 से आँख की बीमारी से लगातार परेशान रहे। मंहगे इंजेक्शन की लगभग 25 इकाईयों के पश्चात एक आँख की रौशनी किसी तरह बच पाई है। अभी हाल में अगस्त 2022 के शुरुआती दिनों में छाती में संक्रमण के चलते, पूना के एक अस्पताल में पाँच दिन भर्ती रहे। लेकिन अपनी अद्भुत जिजीविषा के चलते पिताश्री ने हम सबको यह अवसर दिया कि हम लोग पूरे जोश और उत्साह के साथ कह पा रहे हैं ‘‘हैपी बर्थ डे फादर’’। आपको 90वीं वर्षगांठ मुबारक। यह दिन हम लोगों को आगामी वर्षों में लगातार दिखाते रहिए ताकि हमारा बचपना बना रहे और आपके लेखन में श्रीवृद्धि होती रहे।
मोबाईल : 8736968446
प्रतुल जी, आपने कमाल कर दिया है|अपने पिताश्री के जीवन सार को इतने सुंदर ढंग से चित्रित किया है कि मन वाह वाह कर उठा|आपके पिताश्री शतायु हों यही मंगल कामना है|
जवाब देंहटाएंThanks
हटाएंबहुत खूब
हटाएंSo nice....Came to know so much about uncle....Would meet him once he is here...@ Kaushal Kishor
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया आलेख है। लगता है किसी साहित्यकार के बेटे ने ही नहीं एक परिपक्व रचनाकार ने लिखा है
जवाब देंहटाएंनव्बे वर्षों का सार एक सांस में कहने का हुनर जता देता है कि साहित्यिक परिवेश में पल्लवित पुष्पित होने के वास्तविक मायने क्या होना चाहिए
जवाब देंहटाएंThanks
हटाएंबहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंफूफाजी के जीवनकाल की स्मृतियों का आपने इतने सुंदर ढंग से वर्णण किया है कि बार बार पढ़ने के पश्चात भी..."यह दिल मांगे मोर" कहने को उतावला हो उठा है। बहुत ही बढ़िया आलेख है दद्दा। फूफाजी की शतायु होने की मंगलकामना करता हूँ🙏🏽
जवाब देंहटाएंBeautifully written Pratul !! I was remembering my visits to 100 Lukergunj !! I feel proud that my eyes have seen such a illustrous person !! Proud of you my friend !!
जवाब देंहटाएंI am going to witness Deh Daan of late Shekhar Joshi ,a step which very revolutionary !!
जवाब देंहटाएंपिता श्री आदरणीय शेखर जोशी के जीवन पर बहुत बेहतरीन और विस्तृत आलेख आपने लिखा है । ऐसी सामग्री एक योग्य पुत्र के अलावा अन्य किन माध्यमों से उपलब्ध हो सकती थी ? साधुवाद है प्रतुल जी आपको। पढ़कर स्मृतिशेष शेखर जोशी जी के बारे में बहुत कुछ से ज्यादा जैसे सबकुछ जान लेने जैसा अभ्यास हो रहा है ।
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