जनार्दन की कविताएँ
जीवनवृत
नाम- जनार्दन
शिक्षा- B.SC,
M.SC, B.A. M.A.,M.PHIL, Ph.D. PGEMFP MSW।
अध्ययन क्षेत्र-आदिवासी
साहित्य, सिनेमा-संस्कृति,दलित एवं
स्त्री साहित्य एवं अनुवाद कार्य।
लेखन- आदिवासी सत्ता,
इंडिया न्यूज, दलित
अस्मिता, पूर्वग्रह,
इस्पातिका एवं मीडिया विमर्श, हंस, अखड़ा, परिकथा, समकालीन भारतीय साहित्य, और वर्तमान साहित्य आदि जैसी पत्रिकाओं में लेख एवं
कहानियां प्रकाशित। आदिवासी साहित्य,संस्कृति
एवं भाषा पर दो पुस्तकें प्रकाशित।
सम्प्रति- सहायक प्राध्यापक हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज उत्तर प्रदेश।
विकास भला किसे अच्छा नहीं लगता? विकास वस्तुतः हरेक जीव की नियति होती है। लेकिन विकास की इस प्रक्रिया से चाहे अनचाहे प्रकृति प्रभावित होती है। अभी तक ऐसा रास्ता नहीं खोजा जा सका है जिसमें विकास तो हो, पर प्रकृति को कोई नुकसान न पहुंचने पाए। विडंबना है कि प्रकृति से ही समस्त जीवधारियों का अस्तित्व है। और अपने विकास के क्रम में हम अपनी प्रकृति, अपने वातावरण को बेतहाशा नुकसान पहुंचाए जा रहे हैं। जनार्दन एक सजग कवि हैं। अपने समय की इस विडम्बना पर उनकी पैनी नजर है। उनकी एक कविता है 'काली रौशनी का लूटता पहाड़'। यह कविता विकास के अर्थ को उस रूप में देखती है, जिसको देखने, सुनने, पहचानने के आम तौर पर हम आदी नहीं हैं। विकास लारियों के जरिए पहाड़ांचल में प्रवेश करता है और होने लगता है बड़ी तेजी से जंगलों का सफाया। होने लगता है पहाड़ों का सर्वनाश। कवि अपनी इस कविता में लिखते हैं : 'आधी रात को हजारों लारियॉ/ दाखिल होती हैं पहाड़ाचंल में ऐसे/ दाखिल होता है ज़हर धमनियों में जैसे/ और रचता है मौत का जाल।' कवि का अपना अलग अंदाज-ए-बयां है। इस पोस्ट के जरिए पहली बार पर कवि जनार्दन का आगाज हो रहा है। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं जनार्दन की कुछ नई कविताएं।
आज भी
तलाश सकते हो तुम
उस ओदी
को,
उस रंग
को
हुई थी
जो बिरसा के खून से ओद
हुई थी
जो बिरसा के खून से लाल।
आज भी
तलाश सकते हो तुम
धरती
के उस टुकड़े को
जो
यहीं कहीं पड़ी हुई है
थाती
की तरह पृथ्वी की कोख में।
धरती
की कोख में
धरती
का वह टुकड़ा पड़ा है
झक्क
टहक्का लाल, जैसे टटका गुलाब।
बीज की
तरह -
किसी न
किसी दिन उगेगा बिरसा
इस बार
छायादार पेड़ बन कर
पूरी
धरती को छाया देने के लिए।
आज भी
तलाश सकते हो तुम
बिरसा
की हुंकार
और
जन गीतों को
जो
हजार आवाज बन कर
आकाश
मे गीतों को बो रही है।
जैसे
रोपता है किसान खेतों को
और
धरती हरी-सुनहरी हो जाती है।
आबा की
हुंकार गूंजती है -
डोंबारी
बुरु के पीठ पर बैठे कागा की बोली में
खामोश
पेड़ों की शाखों पर बैठे
परिंदों
की बोली में।
मौन
झुकी टहनियॉ
आज भी
हिल-मिल कर
टूंहूं
टूंहू रो पड़ती हैं
जैसे
रोई थीं बिरसा पलटन की औरतें
हलाक
होने से पहले।
आज भी
तलाश सकते हो तुम
बिरसा
के कदमों की आहट को
सांस
की गर्माहट को
जो
पगडंडियों सहित कफ़न हो गई हैं
जो
अधूरे अरमानों सहित दफ़न हो गई हैं।
‘बिरसा राजपथ’ के कई
पोरसा नीचे
बे-कफ़न
दफन हुए पुरखे,
कब्रों
में खामोशी से धधक रहे हैं
तुम
देखोगे और जरूर देखोगे
जब एक
न एक दिन
बिरसा
फिर पलटेगा
खामोश
आवाजें फिर मुखर होंगी
कफ़न
हुई पगडंडियों पर
खामोश
हवाओं का कोरस उगेगा
इन्ही
रास्तों से निकलेगा मशालची
इन्ही रास्तों से निकलेंगी उलगुलान की पलटनें।
काली रौशनी का लूटता पहाड़
कोहरे
में कैद जहान सारा
सारी
धरती और आकाश सारा
रौशनी
से नहा रहे नगर
और रोज
– रोज जंगलों का
खट-खटर-पटर-चिर्र-चिर्र
पिर्र-पि्र्र-घिर्र-घिर्र
चक्कर
घिन्नी सी डोलती लारियॉ
अहर्निश
करती धरती की कोख सफाई
जैसे
असमय पेट गिराती दाई
दिन-रात
चलता रहता है
पों
पां बजता रहता है
हर्र
हुर्र होता रहता है
जंगल
में जबसे
हुआ है
लारियां का शोर दाखिल
परिंदों
ने छोड़ दिया है गाना।
आधी
रात को हजारों लारियॉ
दाखिल
होती हैं पहाड़ाचंल में ऐसे
दाखिल
होता है ज़हर धमनियों में जैसे
और
रचता है मौत का जाल।
खेप
जर्रा जोर से
छपाक-छपाक, तपाक-तपाक
कोयले
की सिल्लियॉ
गैता
फावड़ा और गोनियॉ
काले
कोयले में कैद रोशनी
लाद ली
जाती है बड़ी खामोशी से
मुंह
बाए मुखर लारियों में
जैसी
लादी जाती हैं खामोश कौमों की लाशें।
शहर की खामोश आवाजें आवाज देती हैं!
हर शहर
में कुछ आवाजें
खामोशी
से इंतजार करती हैं
रात
होने का, शोर थमने का,
जैसे
बेरोजगार लड़का करता है
रहता
है इंतजार अपनी बारी का
और बीत
जाती है सारी उम्र।
मगर
शहर की खामोश आवा़जें
शहर के
अंधेरे कोने के सहारे
जिंदा
रहती हैं कयामत तक
इस
इंतजार में कि कयामत के दिन
दर्ज़
किया जाएंगे उनके बयान
और हर
एक कत्लेआम का हिसाब लिया जाएगा
इस
इंतजार में निर्जन रात के बखत
कभी –
कभी खामोश आवाजों का कोरस
लगता
है बजने समूह गान की तरह
बड़े
बुजुर्ग कहते हैं –
खामोश
आवाजें जब अंधेरे से
कब्र
में जाती हैं तब ऐसी आवाजें गूंजती हैं
हम पूछ
बैठते हैं –
दादा, तब तो पूरा शहर खामोश आवाजों के
कब्र
पर खड़ा हुआ होगा
दादा
कुछ कहते नहीं बस देखते रहते हैं
उनकी
पुतलियों में खामोश आवाजों का कोरस
धीरे-धीरे
उमड़ने लगता है....
पत्थर का आदमी और जिंदा कौमें
प्यार-मुहब्बत की बात करता
हंसता-मुस्कराता ऑख नचाता
गुदगुदा कर नश्तर चलाता
पत्थर का आदमी भाई देखो
कैसे – कैसे है नाच नचाता।
पत्थर का आदमी भाई पत्थर का आदमी
सौ-सौ सवाल करता जिंदा कौमों से
वह पत्थर की ऊंगुली
जिंदा कौमों के सीने पर रखता
जिंदा कौमों की धड़कन नापता
सांसों की गिनती के बाद
जिंदा कौमों को पत्थर होने का फरमान सुनाता
पत्थर बनने की लाभ-हानि समझाता
जिंदा कौमें तो जिंदा ठहरीं
कब तक पत्थर के आदमी को सुनतीं
घन छेनी से प्रहार करने लगीं
और पत्थर का आदमी धूल में मिल गया।
जिंदा कौमें फिर से ताजा हो गईं और
धरती-आसमान गीतों से भर गया।
आदिवासी मजूर जोड़ा
ढलती शाम और
रात की संधि रेखा पर खड़ा
दिन भर के परिश्रम से थका
गल्ले की दुकान से आटा-आलू
नमक खरीदता
आदिवासी मजूर जोड़ा दुनियॉ का
सबसे खूबसूरत परिवार नज़र आता है।
साईकिल के पीछे कैरियर पर नमक आटा आलू लादे
साईकिल के आगे पत्नी को बैठाया
रात की पहले पहर में झोपड़ी की ओर
बढ़ता आदिवासी मजूर दुनियॉ का
सबसे स्नेहिल प्रेमी और योद्धा नज़र आता है।
पहर रात गए चांदनी रात में
जंगल में डोलती छायाएं
दुनियॉ की सबसे सुंदर छवि नजर आती हैं।
आधी रात के पहले पहर झोपड़ी
की ओर बढ़ता और गुनगुनाता जोड़ा
दुनियॉ का सबसे सुंदर गीत
गाता नजर आता है।
आधी रात के बखत रोटी सींझती औरत
दुनियॉ की अन्नदाता नजर आती है
जिसके सामने भूख भी सिर झुकाए
बा-अदब खड़ी नज़र आती है।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
जनार्दन
सहायक प्राध्यापक
हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज
मो.नं.9026258686
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