शिव प्रकाश त्रिपाठी का आलेख मैनेजर पांडेय का साहित्य और इतिहासबोध 

मैनेजर पांडेय




हर विधा एक दूसरे से जुड़ कर अपने को समृद्ध करती है। वैसे भी यह समय अंतर्विषयक विधाओं का है जिसमें विभिन्न अनुशासनों को एक दूसरे से जोड़ कर पढ़ा देखा जाता है। क्योंकि सारे अनुशासन एक स्तर पर आ कर एक दूसरे से जुड़ जाते हैं और एक विशाल संस्कृति के निर्माण में सहयोग देते हैं। इस तरह आज का समय कई मायनों में पहले से काफी अलग है। कल्पना के नाम पर तर्क की तिलांजलि नहीं दी जा सकती। इसी क्रम में इतिहास बोध की बात सामने आती है। यह इतिहास बोध रचनाकार की दशा दिशा को तय करने का काम करता है। प्रोफेसर मैनेजर पाण्डेय की आलोचना में इतिहास बोध की भूमिका अहम है। इसी दम पर वे साहित्य की नई प्रस्थापनाएं विकसित करते हैं। आज प्रोफेसर मैनेजर पाण्डेय का जन्मदिन है। उन्हें जन्मदिन की बधाई देते हुए आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं युवा कवि आलोचक शिव प्रकाश त्रिपाठी का आलेख 'मैनेजर पांडेय का साहित्य और इतिहासबोध'।



मैनेजर पांडेय का साहित्य और इतिहासबोध 

 


शिव प्रकाश त्रिपाठी



मैनेजर पांडेय अपने समय के बहुपठित और बहुविज्ञ आलोचक हैं। जितना अधिकार वह हिंदी साहित्य में रखते हैं उतना ही वह इतिहास, समाजशास्त्र और दर्शन में भी रखते हैं। मैनेजर पांडेय साहित्य को विभिन्न अनुशासन के साथ जोड़ कर देखने वाले आलोचक हैं। फिर चाहे इतिहास का क्षेत्र रहा हो, समाजशास्त्र का रहा हो या फिर इनसे इतर दूसरे अनुशासन, उनकी दृष्टि पूरी तरह से तर्क सम्मत रही है। क्योंकि सारे अनुशासन एक स्तर पर आ कर एक दूसरे से जुड़ जाते हैं और एक विशाल संस्कृति के निर्माण में सहयोग देते हैं। साहित्य समाज के सापेक्ष होता है जिसमें समाज की प्रतिध्वनि मौजूद होती हैं। समाज उस समय के साहित्य में प्रतिबिंबित होता है तब साहित्य और समाज के अन्तर्सम्बन्धों का बोध मैनेजर पांडेय किसी भी साहित्यकार के लिए जरूरी मानते हैं। अपने समय का इतिहास बोध जरूरी है। यही कारण है कि मैनेजर पांडेय की आलोचकीय दृष्टि ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय रही। इसी से मैनेजर पांडेय की साहित्येतिहास दृष्टि विकसित होती है। प्रो. पांडेय यह मानते हैं कि जब भी साहित्य में कैनन निर्माण या भी साहित्येतिहास का विभाजन हो तब समाज के उस दौर को भी उसमें दर्शाया जाना चाहिए जिससे साहित्य पढ़ के उस समय के इतिहास का बोध हो सके। यह प्रोफेसर पांडेय की अपनी इतिहास दृष्टि है वह अपने लेख 'रीतिकाल की कविता और इतिहास बोध' में साहित्य के नामकरण पर बात करते हुए लिखते हैं कि "हिंदी साहित्य में एक काल आदिकाल है। आदिकाल कहने से समाज के इतिहास के प्रसंग में ऐसा अर्थ निकलता है कि जैसा कि यह तब का काल होगा जब हम लोग यानी भारत का समाज जंगलों में रहता होगा। ऐसा नहीं है। यहां आदिकाल शुद्ध साहित्य से जुड़ा हुआ आदिकाल है।" (पृ. 116, शब्द और साधना, मैनेजर पांडेय)


             

उपर्युक्त कथन से मैनेजर पांडे की इतिहास दृष्टि परिलक्षित होती है कि वह समाज के इतिहास के विभाजन और साहित्य के इतिहास के विभाजन को अलग-अलग नहीं देखते हैं। यही कारण है कि साहित्य के मध्य काल के नामकरण पर सहमति जताते हैं क्योंकि वह इतिहास का भी मध्य काल माना जाता है। मैनेजर पांडे 2016 में एक महत्वपूर्ण पुस्तक का संकलन एवं संपादन करते हैं जिसका नाम है 'मुगल बादशाहों की हिंदी कविता' जिसमें वह अपने इसी इतिहास दृष्टि के आधार पर बात करते हुए लिखते हैं कि "भारतीय समाज के इतिहास का जो मुगल काल है वह हिंदी साहित्य के इतिहास का भक्ति काल एवं रीतिकाल है। ……...रीतिकाल के लगभग सभी कभी किसी ना किसी दरबार में थे इसलिए मुगल दरबार में हिंदी कविता की खोज का अर्थ है मुगल दरबार से रीतिकाल के कवियों के संबंध की खोज।" (पृ. 15, मुगल बादशाहों की हिंदी कविता, संकलन एवं संपादन- मैनेजर पांडेय) 

 


 


इसीलिए मैनेजर पांडे एक अच्छे आलोचक को एक अच्छे इतिहासकार के रूप में भी देखते हैं। हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘शब्द और साधना’ में एक जगह लिखते हैं कि “एक अच्छा आलोचक एक अच्छा इतिहासकार भी होता है। इतिहासकार के मेरे लिए दो अर्थ है आलोचक को साहित्य का इतिहासकार और समाज का भी इतिहासकार बनना पड़ता है। (पृ.112, शब्द और साधना, मैनेजर पाण्डेय)  



उपर्युक्त कथन में प्रो. पाण्डेय सफल आलोचक के कर्तव्यों के आधार बिन्दुओं पर बात करते हैं| वह इसलिए कि जब कोई आलोचक किसी कृति का मूल्यांकन करता है तो उसके मूल्यांकन के साथ-साथ उसे यह भी देखता है  कि वह किस ऐतिहासिक परम्परा से जुड़ी हुई कृति है। तो यदि आलोचक में इतिहास बोध होगा तो वह कृति को उस परम्परा से जोड़ते हुए उस ऐतिहासिक परम्परा से उसका मूल्यांकन करेगा। कृति अपनी परम्परा से कितनी बेहतर है इसका पता तभी चलेगा जब उसके ऐतिहासिक परम्परा के साथ साथ सामाजिक परिवेश का भी बोध हो, क्योकि साहित्य का इतिहास समाज के इतिहास से पृथक नही हो सकता। मैनेजर पाण्डेय इस दृष्टि में एक सफल आलोचक ठहरते हैं। क्योकि उनमे गहन इतिहासबोध के साथ-साथ एक अच्छे समाजशास्त्री के भी गुण हैं। इतिहास दर्शन पर बात करते हुए कमला प्रसाद जी लिखते हैं कि “साहित्य का इतिहास लेखन तो काफी पहले से होता रहा है पर सामाजिक इतिहास की संगत में साहित्य के इतिहास की मीमांसा नई है।” (पृ. 174, आलोचक और आलोचना, कमला प्रसाद)


            

मैनेजर पांडेय जब रीतिकालीन साहित्य पर बात करते हैं तो उपर्युक्त सिद्धांत के आधार पर वह इसे देखते हैं। मध्यकालीन साहित्य के दूसरे हिस्से मतलब रीतिकाल पर बात करते हुए वह केशवदास, भूषण और पद्माकर को चुनते हैं। तो उनकी रीतिपरक कविताओं के अलावा यह जांच पड़ताल करते हैं कि उनके साहित्य में उनके वर्तमान समाज और उसकी घटित घटनाएं साहित्य में प्रतिबिंबित होती हैं कि नहीं। इनमें इतिहासबोध दिखाई देता है कि नही। रीतिकाल को देखने कि उनकी यह अपनी दृष्टि है। केशव के 'वीर सिंह देव चरित', भूषण के तीनों ग्रंथ- 'शिवराज भूषण', 'शिवा बावनी' व 'छत्रसाल प्रकाश' और पद्माकर के वह पद जिनमें अपने समय का इतिहास बोध सुरक्षित है उसका उल्लेख करते हुए रीतिकालीन कविता को भक्ति कालीन कविता से अलग करते हैं। भक्तिकालीन कवि के किसी भी कविता में उनके समय का इतिहास उन्हें नहीं दिखाई देता है।

      


रीतिकाल के संबंध में उनका जो मानना है कि उसमें सिर्फ श्रृंगारिकता ही देखी गई है और कालांतर में उसी परिपाटी पर बात हुई है, इसके लिए वह रामचंद्र शुक्ल को दोषी मानते हैं। वह उन्हें इसलिए भी दोषी मानते हैं कि उन्होंने उसमें सिर्फ रीतिकाल में एक ही तरह की कविताओं के आधार पर पूरे 'रीतिकाल को कविता में बंधी नालियों' में बहने वाला घोषित कर दिया। मैनेजर पांडेय एक ढंग से उन विशेषताओं पर भी बात करते हैं जो अभी तक लगभग उपेक्षित रहे हैं। हिंदी आलोचना में एक ऐसी भी परंपरा देखने को मिलती है जो पूर्व के आलोचकों मानकों को ही संपूर्णता दृष्टि मान कर चलते हैं। यही कारण रहा कि जो आचार्य शुक्ल ने लिख दिया उसी लकीर को पीटते रहें। किन्तु प्रो. पांडेय लीक पर चलने से परहेज करने वाले आलोचक रहे हैं। उन्होंने अपनी आलोचना दृष्टि विकसित की और आलोचना को बदलते परिदृश्य के साथ विकसित किया। नई दृष्टि दी। 

   


प्रोफेसर पाण्डेय हिंदी आलोचना के एक मात्र ऐसे आलोचक हैं जो साहित्य, समाज और इतिहास के समन्वित चिंतन परम्परा को जन्म देते हैं। सांकेतिक रूप से भले ही हमें यह चिंतन आचार्य शुक्ल से ले कर के रामविलाश शर्मा में देखने को मिलता हो किन्तु मुखर हो कर नयी चिंतन पद्धति का श्रेय प्रो. पाण्डेय को ही जाता है। प्रोफेसर पाण्डेय के व्यावहारिक आलोचना में भी हमें यह चिंतन अनवरत देखने को मिलता है। उनके यही सैद्धांतिक आलोचना के मानक उनके व्यावहारिक आलोचना की कसौटी बनते हैं और साहित्य को नवीन दृष्टि से देखने की एक पद्धति विकसित करते हैं। उदाहरणस्वरुप हम उनकी पुस्तक ‘साहित्य और इतिहास दृष्टि’ को देखे या फिर उनके लेख ‘रीतिकाल की कविता और इतिहासबोध’ को। मैनेजर पाण्डेय के अनुवादों और संपादन कार्यों में भी इनकी इतिहास दृष्टि देखने को मिलती है। यदि इनके सम्पादन कार्य को गौर से देखे तो पता चलता है कि इतिहास को वह साहित्य में पूरी गंभीरता के साथ लेते हैं और समग्र इतिहास को अपने बोध का विषय बनाते हैं। मैनेजर पाण्डेय जिस तरह साहित्य के साथ-साथ समाजशास्त्र में भी एकाधिकार रखते हैं उसी प्रकार इतिहास में भी वह महत्वपूर्ण दख़ल रखते हैं।

        


जब पाण्डेय जी अपनी सम्पादित पुस्तक ‘मुगल बादशाहों की हिंदी कविता’ में मुगल शासकों की कविताओं पर बात करते हैं तब वह सिर्फ उनकी कविताओं पर ही बात नहीं करते अपितु समस्त राजवंश उनके समय के समाज, संस्कृति और उनके द्वारा किये गये संघर्ष पर भी नजर डालते हैं। किसी भी विषय से बच कर निकलने की प्रवृत्ति मैनेजर पाण्डेय में देखने को नही मिलती। जब वह कोई कार्य करते हैं तो पूरी तन्मयता के साथ करते हैं। यही बात ऐतिहासिक कृतियों पर भी लागू होती है। अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति की पड़ताल वह अपनी सम्पादित पुस्तक ‘लोकगीतों और गीतों में 1857’ में करते हैं तो आगे स्वदेशी आन्दोलन में बंगभंग विभाजन के समय समाज व राजनीतिक परिदृश्य की लम्बा विमर्श छेड़ते हुए ‘देशेर कथा’ पुस्तक की भूमिका लिखते हैं। मुगल राजवंश से ले कर अंग्रेजी सत्ता तक वह क्रमबद्ध ढंग से इतिहास की चर्चा करते हैं तथा हिंदी साहित्य में लगभग हाशिए में रहे ऐसे विषयों को केंद्र में लाने का सफल प्रयास करते हैं।

 

 


सम्पर्क                    

शिव प्रकाश त्रिपाठी 

असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी)

बुंदेलखंड कालेज, झाँसी                            

उत्तर प्रदेश

                                                              

मोबाइल - 8960580855

 

  

 

                                                               


                                             


टिप्पणियाँ

  1. बहुत बहुत बधाई शिव भाई को, उन्होंने ठीक लक्षित किया है। हमारे समय के महत्वपुर्ण आलोचक मैनेजर पांडेय के आलोचना कर्म पर एक सम्यक दृष्टि है।

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  2. शानदार लेख त्रिपाठी जी ।।।।

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  3. बहुत सुन्दर व्याख्या

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