अरुण देव के कविता संग्रह पर यतीश कुमार की समीक्षा

 




मृत्यु को जीवन का अन्त माना जाता है। हमारे आध्यात्मिक और दार्शनिक परम्परा में इसे नए जीवन का आरम्भ भी माना जाता है। इसी क्रम में आत्मा को अमर बताया गया है। बहरहाल आज भी यह गूढ़ सवाल है कि मृत्यु के बाद होता क्या है। वैसे यह सच है कि जीवन के साथ मृत्यु अटूट रूप से जुड़ी हुई है। मृत्यु जीवन का अंतिम सौन्दर्य है। जहां मृत्यु नहीं, दरअसल वह जीवन ही नहीं। यानी मृत्यु के बिना जीवन संभव ही नहीं। मृत्यु के थपेड़ों से लगातार जूझते हुए जीवन अपनी रौ में चलता ही रहता है। जीवन की खासियत यह है कि हरेक जीवधारी अपने ही समान संतानोत्पत्ति कर जीवन की मशाल अपनी अगली पीढ़ी को थमा देता है। इस तरह मृत्यु का सामना करता हुआ जीवन अमरता के मिथक को सच कर दिखाता है। अरुण देव ने मृत्यु जैसे जटिल मुद्दे पर दार्शनिक अंदाज में विचार करते हुए महत्त्वपूर्ण कविताएं लिखी हैं जो 'मृत्यु कविताएं' संकलन में संकलित की गई हैं। इस संकलन की समीक्षा की है कवि यतीश कुमार ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अरुण देव के कविता संग्रह पर यतीश कुमार की समीक्षा 'स्याह मृत्यु का अहसास'।



स्याह मृत्यु का एहसास


यतीश कुमार


अटके रहने और टपकने के बीच का अंतराल जीवन है। मृत्यु का जो सत्य है वो है शाश्वत और चिरंतनता का ऐसा है जिसे राधावल्लभ त्रिपाठी जी के शब्दों में कहूँ तो “मृत्यु है जिसकी मृत्यु नहीं हो सकती”। इस किताब के प्राक्कथन में ऐसे सुविचारित सूत्रों पर चर्चा है, जो पाठक को इन कविताओं की समझ की पात्रता बनाने और बढ़ाने में मदद करती है। उनका यह कहना कि “सामान्य जन मृत्यु से डरते हैं-कवि और ज्ञानी जन मृत्यु का वरण कर पाते हैं”। यह सूत्र इस ओर भी इंगित करता है कि आख़िर क्यों अरुण देव ने मृत्यु कविता को इस संग्रह का केंद्र बनाया। 


ऐसी कविताएँ लिखते समय आप अपरा से परा की ओर चलने लगते हैं। ग्राहक से साधक बनने लगते हैं। स्वयं कवि अपनी कविता में कहता है “राख से अस्थियाँ चुनने को फूल चुनना कहते हैं” और इन कविताओं को लिखना, राख में साँस फूँकना भी है, साथ ही अंगारों की ताप को महसूस करना भी। कवि की कविता आश्वस्ति से शुरू होती है, और आश्वस्ति भी ऐसी कि भस्म होने से पहले राह पर चलते हुए राह निकालने जैसी।


मुझे लगता है अनिश्वर मृत्यु को पंक्तियों में साधने के लिए आपके भीतर अध्यात्म, चिंतन, मनन एवं पात्रता सभी का संतुलन चाहिए और ऐसे रचनाओं को रचने के लिए उस ट्रांस में जाना होता है जो एकाग्रता और साधना के बेहद करीब है।


यहाँ कविता दृश्यों को रचने का काम भी कर रही है। दृश्य, जिसमें अंतिम यात्रा की लौ को धधकते देखा जा सकता है, जिन्हें किसी विशेष शीर्षक की ज़रूरत नहीं है। रफ़ूगर और रंगरेज़ की मनःस्थिति दुर्लभ पंक्तियों के माध्यम से यहाँ एक आम जन देख पा रहा है। कवि देख रहा है अनदेखा और रच रहा है उस यात्रा को, जिस यात्रा का कोई सहयात्री नहीं।


मृत्यु की अमरता को कवि देख रहा है, फूल-फल-बीज की यात्रा में जो सीधा नहीं चक्रीय है। कवि का यहाँ तात्पर्य बिल्कुल साफ़ है कि एक पेड़ से जन्म लेते हैं हज़ार पेड़ों के बीज। जीवन यूँ ही नहीं चलता रहता, हस्तांतरित होती रहती है ऊर्जा, बिना ख़ुद को क्षीण विनाश करते हुए। 


वितान का राग बदल जाता है, जब कवि लिखता है - “मरे हुए लोगों के पास नहीं जाती वह”। 


“जिसे वह हर ले गई 

चींटियाँ कुतर देती हैं” 


यही असली यथार्थ है, यही सबसे बड़ा सच है, जिसे समझने में उम्र बीत जाती है और कवि इस शाश्वत यथार्थ को इतनी आसान भाषा में समेट लेता है। इसलिए वरिष्ठ कवि अरुण कमल लिखते हैं “कभी-कभी कविता इतनी कम जगह घेरती है मानो अंतिम साँस हो” और कवि अपनी हर कविता में यहाँ उन अंतिम साँसों की लड़ी पिरोता नज़र आता है।


किसी-किसी कविता में यहाँ पूरी कहानी रच दी गयी है। 

शब्दों को सहेजते हुए बरतने की कला देख सकते हैं। 


“मेरी माँ से बच्चे की तरह 

भूल-गलती की माफ़ी माँगने के बाद 

पिता ने कहा 

अच्छा अब मैं चलता हूँ 


और चले गए 

मृत्यु की उँगली पकड़ कर”


अभी मैं ऐसी ही कहानियों की बात कर रहा था। कविता कहन में इस अवस्था को पहुँचने और छूने के लिए न सिर्फ़ संवेदना के उच्च स्तर को छूना पड़ता है बल्कि अभिव्यक्ति में कथ्य की उस गली से गुजरना भी जरूरी है, जहाँ सालों का अभ्यास निहित होता है। जीवन रेत समान फिसलते रहता है, पर रेत में बदलने से पहले उसे पूरी तरह ढँकना होता है। जीवन का उजाला वहाँ छिप जाता है उस घुप्प अंधेरे की छाँव में। वह विश्राम लेता है वहाँ और फिर उसी रेत के ढूह पर जनमती दूब बन कर अमरता का रूप धरती है। मौत और जीवन असल में दोनों अमर हैं बस उनकी शक्लें बदलती रहती हैं।


दो-दो पंक्तियों में गहन दृश्य गढ़े हुए मिलते हैं यहाँ, कभी सूरज के अस्त होने का, मुरझाये और सूखते फूलों का, अँधेरे में मन के डूबने का तो कभी घर के भीतर, तो कभी मन के भीतर की मनःस्थिति का दृश्य। इन दृश्यों के बीच अहम् की राख और घृणा की जली टहनियाँ बिखरी हुई हैं और कवि की कविता में एक बूँद आँसू में अस्ताचल होता जीवन दिख जा रहा है। 


एक सुबह उठा

और भूल गया अपना नाम। 


शायद यही नया जीवन है या मृत्यु की पहली भोर। 


“रोज़ उदासी को ब्लेड से कतरता हूँ 


कुछ दुखों का उपचार नहीं 

मध्यांतर भी नहीं”


अंतिम यात्रा पर जाते हुए जो पथरीली राह मिलती है, जहाँ तालू और तलवे दोनों ज़ख़्मी होते चले जाते हैं, उनका विवरण मिलेगा यहाँ। कवि को हरे पत्तों के ज़ख़्मों की पहचान है और वह उसे दर्ज भी कर रहा है। ये पंक्तियाँ असल में सिर्फ़ दुःखों को दर्ज नहीं कर रहीं बल्कि दुःखों का मरहम भी बन जाती हैं। कई बार ऐसा लिख देने से जैसे रिलीफ मिलने का सा एहसास होता है और वैसे लिखे को पढ़ते हुए भी भारी होने के वजाय ख़ुद को हल्का महसूस करता है पाठक। ऐसा ही महसूस कर रहा हूँ अभी इन पंक्तियों से गुजरते हुए। 


अरुण देव 


उस अभिसारिका मृत्यु की बेआवाज़ कदमों की आहट को सुना रहा है कवि अपनी कविता में। उसे जाते हुए कोई देख नहीं सकता, पर जाने का दृश्य उकेरते हुए कवि लिखता है - 


देह थक कर बैठ जाती है

एक दिन अपनी ही गोद में या फिर ज़रा उनसे बात कराइए

तुम्हारे नम्बर पर आती हैं आवाज़ें

यह रात बहुत लम्बी है।


भारी कदमों से जाते हुए दृश्यों के बीच एक उम्मीद है जो अमर है शाश्वत है और कवि उम्मीद को उकेरता है अपनी पंक्तियों में ताकि मृत्यु की अमरता और जीवन की जिजीविषा दोनों का सच बचा रहे। कवि लिखता है - 


“चलते चलते मैं जहाँ पहुँचा 

एक पत्ते का गिरना जरा-सा अटका था 

न जाने किसके भरोसे”


“कौन-सा होगा बुरे दिन का अंतिम दिन” 


एक पंक्ति का वितान कितना लम्बा हो सकता है। अर्थ कितना गूढ़ और संदर्भ कितना व्यापक। अगले विश्व युद्ध की कगार पर खड़े हम इमारतों, अस्पतालों को ढहते देख रहे हैं। देख रहे हैं मनुष्यता को और गिरते हुए। रूठे वसंत का आना टलते और इन सब के बीच कवि के पास सिर्फ़ एक पंक्ति है जो इन सब को बयां कर दे रही है।


“मलबे से निकल रहे हैं फूल जैसे बच्चे” 

और हम सब स्याह के चँदोआ में डूब गए। 


वो स्याह मृत्यु का एहसास ही तो है। 


कवि जब लिखता है, एक फल के स्वाद में/ असंख्य मृतकों का खाद है तब वह हमारी निर्मति के नेपथ्य और नींव की बात कर रहा होता है और स्मृतियों के पीछे की भूली हुई स्मृतियों को याद दिलाने की बात भी । वह मिट्टी और पत्थर के बनने की बात करता है, क्योंकि अंततः हम सबको तो यही बनना है न!


इस संग्रह में मृत्यु की अलौकिकता और दर्शन तो है ही, पर यहाँ क्रांति का स्वर भी विद्यमान है। बागी आवाज़ की हुंकार भी दर्ज है, जिन्होंने मृत्यु को गले लगाया हँसते मुस्कुराते। 


“मेरी जेब से अगर मिलती है आत्महत्या की परची 

इसे मेरी हत्या समझना 

मृत्यु नहीं"


कविताओं में विद्रोह के साथ क्षमा भाव भी है। विकास का रथ अपनी ही उँगलियों को जिस तरह कुचल रहा है, उस दर्द की आवाज़ भी दर्ज है। 'और चाहिए' के विरुद्ध एक संदेश और छिले तनों पर हम्द का मलहम भी है। बह जाये जल का दुख मेरे ही साथ, ऐसी प्रार्थना करते हुए कवि लिखता है - 


“मुझे जरूरत भर ही लेनी थी सूखी टहनियाँ" 


फिर आगे लिखा गया है - 


“अग्नि मुझे क्षमा करना 

मैली है मेरी चादर”


एक स्वीकारोक्ति की ध्वनि है, जिसमें पछतावे की चाप का स्वर तीव्र हो गया है। सोचता है कवि कि आख़िर मीनमेख निकालने वाला लगाव भी भला किसको आवाज़ दे। वो नम्बर वो मोबाइल तो अब सदा के लिए बंद हो गया है। परंतु इतने पर भी रुकता नहीं वो और फिर पछतावे की धुन में रिसने को आकार देने की कल्पना करता है।आम की गुठली से पेड़ बनाने की यही बात तो इस किताब को अलग बनाती है। इस किताब की आत्मा में सकारात्मकता की जान है।


इन कविताओं में मृत्यु के प्राय: सभी आयामों, पक्षों और मृत्युजनित भावों का समावेश है। इन कविताओं में कोई बनाव-श्रृंगार नहीं है बस एक अहसास है, मनोभाव की साफ़बयानी है जो बिना शोर के कही गयी है। पिता, माँ, दादी सब की स्मृतियों का अवशेष मिश्रित है पंक्तियों में। एक पल में निजी और दूसरे ही पल में सार्वजनिक होती इन्हीं पंक्तियों में सहेजा गया है मिट्टी को, हिम को, बादल को, जल को और इन्हीं के साथ भावनाओं के बवंडर से उमड़े आँसुओं के सैलाब को भी। भंगुर को छूने और पढ़ते हुए बह जाने की पूरी संभावना है यहाँ। 


तो क्यों न एक बार गूढ़, संवेदनशील, मृत्यु को लक्षित इन कविताओं में बह कर देखा जाए।



मृत्यु कविताएँ- अरुण देव 

राजकमल पेपरबैक्स 

नई दिल्ली 



यतीश कुमार



सम्पर्क 


मोबाइल : 8420637209

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