शर्मिला जालान द्वारा सुधा अरोड़ा का लिया गया साक्षात्कार

 



सुधा अरोड़ा


सुधा अरोड़ा हमारे समय की अग्रणी कथाकार हैं। अपनी कहानियों में सुधा जी ने समय के सरोकारों को खुल कर व्यक्त किया है। स्त्री सवाल और सन्दर्भ उनके लेखन के मूल में है। महिलाओं पर केन्द्रित लेखों के संग्रह 'औरत की दुनिया' में उन्होंने अपने विचार खुल कर व्यक्त किए हैं। एक दर्जन से अधिक उनके कहानी-संग्रह प्रकाशित हैं, जिनमें ‘महानगर की मैथिली’, ‘काला शुक्रवार’, ‘रहोगी तुम वही’ आदि चर्चित रहे हैं। उनका उपन्यास ‘यहीं कहीं था घर’ शीर्षक से प्रकाशित है। ‘आम औरत ज़िंदा सवाल’ और ‘एक औरत की नोटबुक’ उनके स्त्री-विमर्श-संबंधी आलेखों के संकलन हैं। सुधा जी से एक आत्मीय साक्षात्कार लिया है कथाकार शर्मिला जालान ने। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शर्मिला जालान द्वारा सुधा अरोड़ा का लिया गया यह महत्त्वपूर्ण साक्षात्कार।



सातवें दशक की चर्चित कथाकार 'महानगर की मैथिली' की लेखिका सुधा अरोड़ा कुछ वर्षों पहले जब कोलकाता में थीं उन्हें 'भारतीय भाषा परिषद' में दूर से देखा था। खुलता-खिलता रंग। होंठों पर मृदुल मुस्कान आँखों में तैरता पानी। लाल रंग के बार्डर की साड़ी। उनका यह रूप मन में बस गया।

फिर कुछ साल बाद हाथ में उनकी पुस्तक 'औरत की कहानी' आई। मन में बसे लाल रंग की साड़ी ने रूप बदलना शुरू किया। मानो कहीं कुछ गहरा जल रहा है। लाल-पीली लपटें उठ रही हैं और वायुमंडल में दूर-दूर तक पसर जाना चाहती है। क्या ये लपटें जलाएँगी...?

क्या ये लोहे को सोना बनाने वाली लपटे हैं? इन लपटों से वायुमंडल में चीख व्याप रही है, आर्तनाद। कई चीखों की गूंज, विश्वविख्यात चित्रकार एडवर्ड मूंज ने जब विख्यात पेंटिंग 'चीख' बनाई तब उसमें कई चीखों की अनुगूँज थी। सुधा अरोड़ा की पुस्तक 'औरत की कहानी' में सदियों के हाहाकार और आर्तनाद को सुना जा सकता है। 'औरत की कहानी' में कई चीखों की गूंज है। कई औरतों का अंतरलोक। ओह, मैं भी जल रही हूँ। उनकी आँखों में तैरते पानी में असंख्य कहानियाँ हैं। क्या हैं वे? फिर कुछ ऐसा सुयोग बना कि दीपावली की शाम उनसे मिलना हुआ। वे 20 दिनों के लिए अपने पैतृक घर आई थीं। दीपों से आलोकित दीपावली के दिन मैंने उनके अंदर के तार को छेड़ दिया। क्या होती है औरत की कहानी? रोना-गाना!! और बोरियत!!

बस फिर क्या था, सुधा अरोड़ा का झरना बह पड़ा, सोते फूट पड़े 'मेरे सीने में एक झरना है बस इसी बात का तो मरना है... (नन्दकिशोर आचार्य) व्याकुल हो करुण आँखों से जिनमें ज्वाला भी थी वे बोलीं - "जाके पाँव न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई"


शर्मिला जालान



शर्मिला जालान के प्रश्न और सुधा अरोड़ा के उत्तर...


संवाद चल पड़ा...रूप था साक्षात्कार का। लहजा, जैसे किसी वरिष्ठ और बुजुर्ग की छाया में बैठ कर जीवन के अनुभव सुन और गुन रहे हों..।


आगे उनसे हुए वार्तालाप और संवाद को रखा जा रहा है। जस का तस, ज्यों का त्यों।


ताकि वह 'रस' और 'स्वाद' बना रहे जो उनसे आमने-सामने बात करते हुए मिलता है। उनका 'पन' और 'ठसका' पाठक को भी मिले। उनकी वह 'चीख' जो लाल कपड़ों में व्याप्त है उसे हम सुन सकें। यह भी सुन सकें कि उसमें और कितनी चीखों की गूँज है। पर यह सिर्फ दस्तकारी है प्रश्न और उत्तर की। अगर पाठक को विशिष्ट अर्थ पाना है तो सुधा अरोड़ा के साथ यात्रा पर निकलना होगा। तब उनके अर्न्तलोक का रहस्य अनावृत्त होगा। स्त्री की पीड़ा जाननी है तो समाधिस्थ होना होगा उनके मन में.।


इस साक्षात्कार को दो खंड में रखा जा रहा है :  पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध।


बिल्कुल वैसे ही जैसे उनके लेखन के दो पड़ाव हैं। पहला पड़ाव, लेखन का प्रारम्भ विविध विषयों पर उनकी कहानियाँ। दूसरा पड़ाव जब वे स्त्री समस्या से रू-ब-रू होती हैं और स्वयं को उसी पर केन्द्रित कर स्त्री समस्याओं को हमसे साझा करना चाहती है|

                                  




पूर्वार्द्ध खण्ड 


प्रश्न- अपने बचपन के बारे में बताएँ? कोलकाता से आपका जो जुड़ाव है उस पर कुछ कहें?

उत्तर - मैं तो कोलकाता की ही हूँ मूलतः और बस कोलकाता में पैदा ही नहीं हुई। उसके अलावा सभी कुछ कोलकाता में। स्कूली पढ़ाई, शादी होने तक यहीं थी। कोलकाता के बारे में मैंने बहुत लिखा है। बहुत साक्षात्कारों में भी बात की है।



प्रश्न- आपका लिखना कैसे शुरू हुआ? लिखने की प्रक्रिया... घर में लिखने का माहौल...?

उत्तर - हाँ, घर में तो बहुत ज्यादा माहौल था। मतलब मेरे पिता जी, मेरे पिता जी तो बहुत सारे लेखकों के मित्र थे। हाँ, एक तो उनके राजेन्द्र जी बहुत गहरे मित्र थे। राजेन्द्र जी ने अपनी आत्मकथा में भी लिखा है न "मुड़ मुड़ कर देखता हूँ।"

मेरे पिता जी में शुरू से ही साहित्य के प्रति बहुत ज्यादा संस्कार थे। उन्होंने 'विप्लव', 'विशाल भारत', 'हंस' इनकी पुरानी प्रतियाँ सब जिल्द मढ़वा कर रखी हुई थी। तो इतना पढ़ते थे।

मेरी माँ ने लाहौर से 'प्रभाकर' पास कर लिया था। विष्णु प्रभाकर जी जो 'प्रभाकर' लिखते थे। प्रभाकर एक डिग्री थी। बी. ए. के इक्वीविलेंट। मेरी माँ ने 'प्रभाकर' पास किया था साहित्य रत्न में। एडमीशन लिया था। पढ़ रही थीं। उस समय उनकी शादी हो गई। 19 साल की उम्र में उनकी शादी। उस समय के हिसाब से थोड़ी लेट हुई। तब तो 16-17 में शादी हो जाती थी। चूंकि पढ़ने में बहुत तेज थीं। मेरी माँ भी कविताएँ लिखती थी। और कविताएँ बटोर कर ले आई। इस पुस्तक 'कम से कम एक दरवाजा' में तुमने कविताएँ पढ़ी होंगी। माँ पर ही है। मेरी माँ कविताएँ लिखती आई थीं। लेकिन उस समय जो माहौल था उस समय इस तरह का कैरियर तो परसू कर ही नहीं सकती थी। ज्यादा से ज्यादा समय, क्रोशिए का काम कढ़ाई- सिलाई बुनाई कर सकती थीं। साड़ी में फॉल लगा सकती थी। साड़ी में कढ़ाई। पर लिखना-विखना एक तरह से वर्जित था ससुराल में। अभी भी बहुत घरों में ऐसा ही है। तो साहित्य संस्कार माँ में भी था। पिता जी में भी था। बहुत ज्यादा था। यहां के 'कृष्णाचार्य जी' मेरे पिता जी के मित्र थे। कमलाकांत द्विवेदी जी के। तो उस माहौल में राजेन्द्र जी का आना-जाना हमारे घर में था। तो बचपन से देखा है यह माहौल।


मैं काफी बीमार रहती थी। मैंने बहुत जगह लिखा है। बार-बार यह बीमारी की बात दोहराना नहीं चाहती। तो उस वक्त मेरी माँ ने मेरे सिहराने एक डायरी रख दी कि 'तू लेटे-लेटे न, डायरी लिखा कर।' मेरे पिताजी ने मुझे किताब दी थी 'उखड़े हुए लोग' राजेन्द्र यादव की। वो किताब रख दी। वो मैंने पढ़नी शुरू की। मुझे कुछ समझ में नहीं आया, क्योंकि उस तरह की किताब तो मैं पढ़ती नहीं थी। मैं 'गुनाहों का देवता' पढ़ती थी, क्योंकि वह समझ में आती थी और रोने का एक बहाना मिल जाता था। अब मुझे लगता है- क्या था 'गुनाहों के देवता' में? ऐसा क्या था? ऐसा कुछ भी नहीं था, पर मेरे पिताजी जैसे ही घर में आते थे मैं 'उखड़े हुए लोग' ले कर बैठ जाती थी। बहुत पढ़ने-लिखने का माहौल था। उसमें मैंने अपनी पहली जो कहानी लिखी वह अपनी बीमारी और मौत पर ही लिखी, बल्कि शुरू की दो कहानियाँ वैसी ही लिखी। मैंने पिता जी को पढ़वायी।

  


प्रश्न- एक बात बताएँ, लिखना जो होता है, हमारे अंदर बहुत कुछ चलता है परिष्कार होता है। आपने लिखना शुरू किया तब बीमारी और मृत्यु को ले कर जो ऑब्शेसन थे वे धीरे-धीरे खत्म होने लगे होंगे?

उत्तर - देखो, शुरू में जिन्होंने मुझे पढ़ा है वे बाद में जब मिलते थे तो कहते थे कि सुधा अरोड़ा क्या लिखती है? खाली मौत। खाली बीमारी। इसी पर लिखती हैं। तो मेरी ये इमेज उसी तरह की बन गई थी, माइंड सेट।

  


प्रश्न- आपकी उम्र क्या रही होगी उस समय? उस उम्र में मौत और मृत्यु को ले कर जो अनुभव थे उसे ले कर आज आप क्या सोचती हैं?

उत्तर- सोलह-सत्रह की उम्र थी। उन दिनों की सोच, आज की सोच में फर्क तो बहुत है। तब की कहानी में और आज की लिखी में। एक 'सेटिमेंटल डायरी की मौत' पढ़ो।

मैंने मौत पर बहुत ज्यादा लिखा है। कविता भी, कहानी भी। एक तरह से 'ऑब्शेसन' रहा है मुझे और बाद में जो कहानी लिखी है कुछ साल पहले 'खिड़की' एक छोटी सी कहानी है। हालाँकि वह भी मौत पर है।

वह उपन्यास की थीम थी। एक तरह से नोट्स थे उपन्यास के। और मुझमें उपन्यास लिखने का धीरज नहीं है। मैंने कहानी छपवा दी। बहुत फर्क है मौत को तब देखने में और आज देखने में।





प्रश्न- उस समय 'मौत' वह आपके अपने परिवार आपसे स्वयं से जुड़ी हुई थी...?

उत्तर- हाँ, एकदम 'निज' से ही जुड़ी हुई थी। पर आज जो है 'मौत' वह बहुत बड़े परिवेश से जुड़ी हुई है। आज जो मौत है वह सिर्फ दैहिक मौत नहीं होती। यह फर्क तो आता ही है न? आज जो कहानियाँ लिख रही हूँ। पचास साल पहले जो लिख रही थी फर्क तो आया ही है। लेखन के कथ्य में ही नहीं, कई (लेवल्स) स्तर हैं जिसमें परिवर्तन आया है। अपने खुद के कथ्य में ही नहीं बल्कि उसे कैसे प्रस्तुत करना है उसमें फर्क आया है।

  


प्रश्न - आप अपनी परिपक्वता, विकास को किस तरह देखती हैं?

उत्तर - देखो, जब मैंने लिखना शुरू किया तब तो मैं यह कहूँगी कि कहानी के वक्त में 'शिल्प' का एक बहुत विघटनात्मक दौर था। शिल्प टूट रहा था और अजब-अजब तरह की कहानियाँ लिखी जा रही थीं। ऐसे समय में मैंने कहानी में प्रवेश लिया तो जाहिर है उसका थोड़ा सा तो असर आएगा ही। थोड़ा सा । उसको मैं नेगेटिव ही मानती हूँ। वह नेगेटिव ही प्रभाव था।

वह प्रभाव नहीं होता तो मैं बेहतर कहानियाँ ही लिखती। वह 'अकहानी' का दौर था। उस समय कहानी में नाम नहीं होते थे। 'यह' 'वह' करके पूरी कहानी हो जाती थी। एक 'मैं' तो निजी से हट कर ज्यादा कुछ नहीं लिख सकती थी। हालाँकि वैसे लिखने की बहुत कोशिश की। कोई भी घटना छोटी-मोटी घटनाएँ होती थी। 16-17 वर्ष की उम्र में क्या लिखना होता।

इतनी परिपक्वता तो थी नहीं, जो भी देखा वह लिख दिया। पर लिखने की जो स्टाइल थी उस समय, आज मैं उसे पूरी तरह रिजेक्ट करती हूँ।

वह कोई सही तरीका नहीं था कहानी कहने का। हालाँकि उस वक्त भी मन्नू भंडारी या रेणु थे। तो उनकी कहानी पर उस वक्त के अकहानी का प्रभाव नहीं था। वे अपनी ही तरह से लिख रहे थे। पर मैं उनको पढूँ तो जानूँ ना। हमने उनको पढ़ा नहीं था। हम पढ़ते क्या थे? जो (सिलेबस) पाठ्यक्रम में था वहीं पढ़ते थे और जो हमारी शिक्षिकाएँ थीं। वो जो बताती थीं वही पढ़ते। आस-पास जो कहानियाँ छपीं दिख जातीं तो शिल्प का, एक संरचना का जो एक तरह से नेगेटिव असर पड़ा उस वक्त। इसलिए मैंने अपनी शुरू की कहानियों को पहले संकलन में नहीं लिया। शुरू में जो बीस-पच्चीस कहानियाँ लिखी उसमें दस-पन्द्रह ही ली पहले संग्रह में। बाकी दस-पन्द्रह, वे छूट ही गयीं। अब लेकिन कथा-समग्र में ले रही हूँ।

कमजोर कहानियाँ भी हमने ही लिखी न? वह कहानियाँ उस दौर की बात कहती हैं। हम किस दौर से गुजरे हैं? क्या लिखते-लिखते आज यहाँ तक आए हैं। वह पता तो चलना चाहिए न। और क्या है हर व्यक्ति कमजोर भी लिखता है। मैंने बँटवारा नहीं किया। मैंने सब ले ली है। तारीख के अनुसार।




 

प्रश्न - लिखना क्या होता है? क्या देता है जीवन को? लिखने से मनुष्य का परिष्कार होता है?

उत्तर - लिखना हर व्यक्ति के लिए अलग होता है। ऐसा तो नहीं कहूँगी पर तीन चार लेवल्स होते हैं आदमी के। उस तरह लिखने को आप देख सकते हैं। मैं अपनी बता सकती हूँ कि मेरे लिए लिखना शुरू में एक बहुत बड़ा 'आउट लेट' था। एक अपनी तकलीफ से बाहर निकलने का और ये हमेशा रहा। तो मैं, मेरे लेखन में बिल्कुल नहीं सोचती पाठकों के बारे में।

मेरे लिए लिखना शुरू में एक बहुत बड़ा 'आउट लेट' था। मुझे सिर्फ अपने को अभिव्यक्त करना होता है। और मैं ये जानती हूँ जो मेरा निजी है वह बहुत से लोगों का है। 'निजी'।

जो एक तरह से personal is political धारणा है वह बिल्कुल सही है। आप जो सोचते हो, आपकी जिन्दगी में जो-जो हुआ है, उससे अगर निकलने का जरिया लेखन को बनाते हैं तो जो आप लिखते हैं वह एक बहुत बड़े वर्ग को represent करता है। वो इतना तो बिल्कुल ख्याल रहता है ही। हम हमेशा देखते हैं कि हमारा  निजी ही सिर्फ न आ जाए। वह एक बड़े वर्ग की बात कहता हो तभी वो निजी लिखा जाए। अनुभव तो वही बहुत गहराई से लिखा जाएगा, कहा जाएगा जो आपने देखा। जो आपसे जुड़ा हुआ हो from close quarter आपने देखा। ठीक है। हमारे यहाँ लेखन में एक बहुत बड़ा वर्ग है जो, जिसके लिए लेखन सिर्फ यश का, यशकामी लेखन है। मतलब सिर्फ 'यश' देता है| ठीक है। वो भी ना अपनी तरह से एक प्रक्रिया है और उसमें व्यक्ति लिखता है।

फिर कई लोग शोध कर के लिखते हैं। हम संजीव, मधु कांकड़िया को छोटा लेखक तो नहीं कहेंगे। बड़े लेखक हैं। उन्होंने बहुत रिसर्च करके चीजों को उठाया है जो उनका अपना दायरा नहीं था। मधु कांकड़िया कहाँ-कहाँ नहीं गईं। 'सलाम आखिरी लिखा। उन्होंने ड्रग्स एडिक्ट पर भी लिखा है।

मेरी अपनी कमजोरी है कि मेरी सीमाएँ हैं। मैं वह शोध बाला लेखन नहीं कर पाती। मैंने नहीं किया और मेरा कोई इरादा भी नहीं है वैसा लेखन करने का। जो मैं लिखना चाहती हूँ  अभी पूरा हुआ नहीं है। बहुत सारा बाकी है। कह सकते हैं लोग कि यह बहुत सीमित लेखन है। सिर्फ 'स्त्री' पर लेखन है। पर मुझे लगता है कि नहीं, स्त्रियों की समस्या कोई छोटी-मोटी समस्या नहीं है। बहुत बड़ी समस्या है। बहुत बड़े वर्ग तक है और निचले वर्ग से लेकर ऊँचे वर्ग तक बहुत बड़े वर्ग तक है। सब जगह है। निचले तबके तक उस पर बहुत गहराई से नहीं लिखा गया है और मैं उसी पर केन्द्रित करना चाहती हूँ। और उसमें कितना बड़ा पैरोडोक्स है कि मैंने शुरू के जो बीस साल लिखे। बीस तो नहीं, देखो शुरू के 15 साल उसमें तो स्त्रीवादी लेखन नहीं किया।

मेरा लेखन बिल्कुल ही अलग तरह का था। अलग तरह का यानी और बहुत सारी समस्याओं पर था। सामाजिक समस्याओं पर भी था। राजनीति, उस पर भी लिखा। पर मेरा लिखना जब बंद हो गया उसके बाद 12-14 साल तक मैंने नहीं लिखा तो वह एक तरह से 'ब्रू' होने वाला पीरियड था। 'हाईबरनेशन' में चला जाता है आदमी। तो जब उसके बाद लिखना शुरू हुआ तो can't I help it. मुझसे, मेरे भीतर जो उबल रहा था बाहर निकलना चाहता था, जो मुझसे लिखवाना चाहता था। पर ये भी मैं कहूंगी वह बहुत निजी लेखन नहीं है।

जब बहुत सारे अनुभव एक साथ जुड़ते हैं एक साथ कि यह जो हमारा अनुभव है। वह दो और लोगों का भी हैं।

 




प्रश्न - लिखने से आपके अंदर बदलाव....? लेखन क्या बेहतर इंसान बनाता है?

उत्तर  -हाँ, लेखन बेहतर इंसान बनाता है। जब आप लिखते हैं तो आपमें संवेदना का अंश बहुत ज्यादा होता है। उसको आप जैसे cultivate करते हैं। आपका वह 'कैथारसीस' करता है। आपको भी एक अच्छे इंसान में तब्दील करता है। पर इसके साथ एक बहुत बड़ी चीज यह भी है जिसके साथ लोगों का मतभेद हो सकता है कि एक व्यक्ति एक लेखक जब तक बहुत अच्छा इंसान भी होता है न तभी तक वह बहुत अच्छा लेखन कर सकता है। जब उसमें इंसानी स्वार्थ और महत्वाकांक्षाएँ, लिप्साएँ बढ़ने लगती हैं बाद में तो, उसके लेखन का स्तर धीरे-धीरे घटने लगता है। इस पर गौर किया जाना चाहिए। ये बहुत सारे लेखकों के साथ हुआ है। जब तक आप मासूम और अच्छे-सच्चे इंसान बनें रहते हैं। आप लिखते हैं। जैसे-जैसे आप जिन्दगी की धूर्तताओं में, स्वार्थ में लिप्त होते जाते हैं आपके लेखन का स्तर नीचे आता जाता है। आप बहुत अच्छा नहीं लिख सकते। मैंने एक दो लेखक के बारे में ऐसा लिखा भी था। मैंने देखा है धर्मवीर भारती के साथ ऐसा हुआ है। धर्मवीर भारती ने अपनी सारी क्लासिक रचनाएँ, अच्छी रचनाएँ अपनी पत्नी के साथ रहते लिखी। यहाँ तक कि 'कनुप्रिया' भी। कनुप्रिया जो पुष्पा जी पर मतलब जो अभी पत्नी हैं उनके प्रेम पर जो लिखी थी वह भी कान्ता जी के साथ रहते लिखी। उसके बाद वह कुछ महत्त्वपूर्ण नहीं लिख पाए। जबकि उनकी प्रेयसी, प्रेमिका सब उनके पास आ गईं थी।

पुष्पा जी के साथ उन्होंने बहुत बेहतर remarkable लेखन नहीं किया। इसके लिए लोग दोष देते हैं कि उन्होंने धर्मयुग ज्वाइन कर लिया। धर्मयुग की बहुत सारी जिम्मेवारियाँ थीं। 'वह तो था' पर उसको आवरण के रूप में कुछ भी कह सकते हैं। पर सच्चाई यही है और यह एक लेखक की बात नहीं। एक लेखक के साथ ही ऐसा नहीं हुआ। बहुत से लेखकों के साथ भी ऐसा हुआ है। जब आप शुरुआत करते हैं तब आप बड़ी संवेदना में डूबे हुए होते हैं। आप अच्छा लेखन करना चाहते हैं। आप लोगों को अच्छी चीज पहुँचाना चाहते हैं। पर जैसे-जैसे आप लिखते हैं। जिन्दगी भी आपको अपनी चक्की में पीस लेती है। और उसके बाद आप शिकार हो जाते हैं। और खुद आप उस तरह ही करने लगते हैं। क्या कहते हैं उसको, जोड़-तोड़ करने लग जाते हैं, तो आपका लेखन 'सफर' करता है। होता है। यह किसी भी लेखक के साथ आप देख सकते हैं। क्यों हम कहते हैं कि यह लेखक अब 'चूक' गया है? अब ये अच्छा नहीं लिख रहा है। 'भीष्म साहनी' का लेखन देखो। शुरू से आखिरी तक। अंत तक 'पाँयदार'। क्योंकि भीष्म साहनी बहुत अच्छे इंसान थे। अंत तक अच्छे बने रहे। कमिटेड इंसान बने रहे। इसलिए उनके लेखन में वो पहाड़ की ऊँचाइयाँ और तलहटी की खाइयाँ नहीं आईं। एक स्तर पर उन्होंने बहुत अच्छा लेखन किया है। थोड़ा इधर-उधर होता है, जैसे कि 'मैय्यादास की मांड़ी' बहुत अच्छा था। 'तमस' बहुत चर्चित हुआ लेकिन थोड़ा कम हुआ। सारा लेखन पाँयदार। 

विदेशी लेखकों को देख लो। जितने चर्चित अच्छे लेखक हैं, उन्होंने अपनी जिन्दगी की अच्छी रचनाएँ अच्छा इंसान होते हुए रची और जैसे ही वे इंसान के रूतबे से थोड़ा नीचे आए, लेखन में भी कमी आई। इससे आप जोड़ कर देख लो लेखन क्या करता है। लेखन आपका आइना होता है। वह सिर्फ समाज को आइना नहीं दिखाता। आपका भी आइना होता है। आपके भीतर के इंसान को। आप मेरी किताब पढ़ेंगी तो थोड़ा सा ही पढ़ कर आपको पता चल जाएगा कि ये इंसान कैसी होंगी। लेखन से इंसान का पता चलता है या नहीं? व्यक्तित्व का भी पता चल जाता है। जैसे कुछ लेखक बहुत शिल्प की पच्चीकारी वाला लेखन करते हैं तो आप समझ सकते हो कि उसमें बेल-बूटे काढ़ने की ज्यादा तमन्ना है। बजाए इसके कि आप सीधे सहजता से अपनी बात कह सकें और सहजता में अपने आप कला आती है। वो सहजता से ही गूंथी हुई आ जाएगी उसमें आपको मेहनत नहीं करनी होगी।

एक कहानी, एक दूसरे लेवल पर ही चलती है। कथा का दूसरा रूप होता है। शिल्प भी दूसरे लेवल पर चलता है। पर उसके लिए आपको कोशिश नहीं करनी पड़ती है ज्यादा।

शिल्प तो उसका एक रूप, उसका ऐसा पक्ष होना चाहिए जो अनायास ही आए। सायास तरीके से जब आप खींचने की कोशिश करते हैं तब चीजें टूटती हैं। 



प्रश्न - कई लेखक कलात्मकता पर ज्यादा जोर देते हैं। उनकी रचना में पच्चीकारी की बहुलता हो जाती है। ये लेखक यथार्थवादी या शोध लेखन नहीं करते। शायद उसे पसन्द भी नहीं करते। आप क्या कहती हैं?

उत्तर - फर्क है इसमें। जो लेखक बहुत कलावादी लेखक भी है उसमें भी जब तक संवेदना यथार्थ के स्तर पर नहीं जुड़ती है तो वह लेखक नहीं होता। आप निर्मल वर्मा और कृष्ण बलदेव वैद में फर्क कर सकते हैं। निर्मल वर्मा की कुछ कहानियाँ बहुत कलात्मक हैं। पर उनमें संवेदना भी उतनी गहरी है। तभी वह पठनीय होती हैं|

कृष्ण बलदेव वैद की कुछ कहानियाँ अच्छी हैं, आप कह सकते हैं। क्योंकि हमारे यहाँ पाठक भी अलग-अलग वर्ग का होता है। कलावादी लेखन को कुछ लोग बहुत पसंद करते हैं। हो सकता है दूसरे लेखन को मन्नू जी के लेखन को कह देंगे कि एकदम सपाट लेखन है, उसमें कला नहीं है।

सपाट लेखन की अपनी जो खूबसूरती होती है वो भी आपको पता ही नहीं चलती। अपने साथ बहा ले जाती है। वह निर्मल वर्मा तथा कृष्ण बलदेव वैद की तरह दिखाई नहीं देती। पर वह होती है। मन्नू जी की कहानी 'त्रिशंकु' देखें। पूरी कहानी बहुत सहज लिखी हुई है। पर पूरी कहानी में भाषा की बुनावट शिल्प के कसाव पर लम्बी चर्चा की जा सकती है। पर मन्नू जी को हम निर्मल वर्मा की श्रेणी में तो नहीं रखते, और  निर्मल वर्मा जी से कहीं कमतर भी नहीं हैं। या उनकी 'परिन्दे' कहानी और भी बहुत सारी कहानी...।

मैं कलावादी नहीं हूँ। मैं उस तरह की कलावादी नहीं हूँ जहाँ बुनावट पर बहुत ध्यान दिया जाता है। जैसे फिल्म निर्देशक फिल्म बनाता है तो हर एक फ्रेम का एंगल भी तय करना पड़ता है कि कहाँ से लेंगे क्या लेंगे तो कितना अच्छा आएगा। उसी तरह लिखते-लिखते लेखक को आदत हो जाती है। वह परिपक्व हो जाता है। वह अपने लेखन को अपने फ्रेम में देखता है और उसके लेखन में अनजाने में वह कसावट, बुनावट चलती रहती है। कुछ ऐसे लेखक हैं जैसे मन्नू जी हैं। और भी कई। मैं हूँ...।

हमारे लिए उस तरह की सजावट जरूरी नहीं होती। हमें लगता है कि कथ्य हमें इस तरह घेर ले कि सारे लेखन में, कहने में 'कहन' का सौष्ठव आ जाए। अपने आप आ जाए ठीक है। उसके लिए कोशिश करेंगे तो हमारा कथ्य पीछे छूट जाएगा।

 


प्रश्न - तरह-तरह के लेखन होते हैं। किसी में शिल्प पर बल, कहीं यथार्थ ज्यादा, कहीं शोध। कोलकाता में हूँ, रवीन्द्रनाथ की भूमि पर, सो रवीन्द्रनाथ याद आते ही हैं। विशाल विराट लेखन है उनका। क्या नहीं लिखा? पर रिसर्च करके नहीं लिखा और वह मन को छूता है। आप क्या कहती हैं रिसर्च का लेखन मन को छूता है या अनुभूति के स्तर पर लिखा हुआ?

उत्तर - देखो, मैं मैंटल एसाइलम पर लिखना चाहती हूँ, क्योंकि मैंने बहुत देखा है। नर्सिंग होम देखा है। राँची का देखा है। यहाँ कोलकाता का देखा है। किस तरह से मरीज को ट्रीट करते हैं, पर उस पर लिखा नहीं जाता, दिल टूटता है। कलेजे में किरचें चलती हैं। लिखा नहीं जाता।

जब तक उससे मैं एक दूरी नहीं बना पाऊँगी, तटस्थता नहीं बना पाऊँगी, मैं लिख नहीं पाऊँगी। लेकिन वो तटस्थता आने के बाद भी वो शोधात्मक नहीं होगा। वो भावना से जुड़ी हुई चीज होगी और तकलीफदेह चीज यह है कि वे दूसरे लोग जो हैं। जिन्होंने उनको देखा नहीं है, उनसे जुड़े हुए नहीं है, उससे गुजरे नहीं हैं उस तकलीफ को नहीं समझ पाएँगे। अगर मैं शोधात्मक लिखूँ। पन्द्रह चरित्र खड़े कर दूँ नहीं समझ पाएँगे लोग। उसमें आपको संवेदना को ही झकझोरना पड़ेगा तो इंसान में संवेदना जगाने का यह एक जरिया है तो इसके लिए तकलीफ से थोड़ा दूर होना पड़ता है। उसमें आपको संवेदना को ही झकझोरना पड़ेगा। इंसान में संवेदना जगाने का यह एक जरिया है। इसके लिए तकलीफ से थोड़ा दूर होना पड़ता है। यह अपनी-अपनी बात होती है। मैं बहुत सारी चीजें लिख ही नहीं पायी, क्योंकि तकलीफों से दूर हो ही नहीं पाती। दूरी नहीं बना पाती। और जिनसे थोड़ी दूरी बना पायी हूँ वही लिख पाती हूँ। मुझे लगता है कि मेरा जो बचा हुआ समय है , मुझे बहुत सारा लिखना है और मैं कोशिश में हूँ कि उन तकलीफों से दूरी बना पाऊँ। I

 


प्रश्न - आधी शताब्दी आपने देखी है। आधी शताब्दी में हिन्दी में क्या कुछ बदला है? क्या कुछ हिन्दी वालों ने बदला है। पहले किस तरह का साहित्य लिखा जा रहा था उसकी तुलना में आज जो साहित्य रचा जा रहा है वह किस तरह का है? आज के साहित्य के क्या लक्ष्य हैं? आज के साहित्य के क्या मर्म हैं? और कौन सी जमीन आज का साहित्य खोज रहा है?

उत्तर - पिछले पाँच दशकों में साहित्य के शिल्प में, भाषा में, कथ्य में, लक्ष्य में हर, तरफ से बहुत ज्यादा बदलाव आया है और मैंने जब साहित्य में प्रवेश लिया 1964-65 में वो एक समय बड़ा दुविधाग्रस्त, संशयग्रस्त समय था। 'नई कहानी' तब चल रही थी और नई कहानी में जो पुरोधा थे- 'राजेन्द्र यादव', 'मोहन राकेश' और 'कमलेश्वर' वे  पुराने  लेखन को ध्वस्त करने में लगे थे। उन्होंने जो लिखा... हम बिल्कुल नई जमीन तोड़ रहे हैं। इसके साथ एक दौर चल रहा था 'अकहानी' का, जिसमें कहानी का तत्व कम हो गया था और कहानी सही रूप में कहानी नहीं रह गई थी। कहानी में कोई नायक नहीं था। कोई नायिका नहीं होती थी। उसमें नायक नायिका की जगह 'यह', 'वह' इस्तेमाल किया जाता था। कहानी 'संज्ञा' विहीन हो गयी थी। 'सर्वनाम' में कहानी लिखी जाती थी। हालाँकि मैंने भी उस दौर में जो कहानियाँ लिखी उसको मैं आज बहुत appreciate नहीं कर पाती क्योंकि मुझे नहीं लगता कि उस कहानी के दौर ने साहित्य को बहुत कुछ दिया। कोई बहुत सकारात्मक दिशा दी हो या साहित्य में बहुत कुछ ऐसा जोड़ा हो।

बल्कि उसके बाद जो कहानियाँ लिखी गई हैं। 80 के दशक से उसमें 'कहानीपन' लौटा है। जो अकहानी का दौर था न 60 के दशक का उसमें कहानी से कहानीपन गायब हो रहा था। हालाँकि ऐसा नहीं है कि उस दौर में अच्छी कहानियाँ नहीं थीं। उसी दौर में रेणु ने कहानियाँ लिखीं। बहुत अच्छी। मार्कण्डेय ने लिखी। शेखर जोशी ने लिखी, मन्नू भंडारी ने लिखी और उन पर 'अकहानी' का कोई असर नहीं था। लेकिन जिन पर अकहानी का असर था जिनमें मैं भी अपने को शुमार करती हूँ। उन कहानियों को मुझे नहीं लगता।.... हो सकता है उन कहानियों को लोग एक प्रवृत्ति की तरह इतिहास में दर्ज करना चाहे। मुझे लगता है वह एक धुंधलका फैलाने वाली स्थिति थी। और 70 के बाद कहानी में कहानीपन ठीक से लौटा है। और राजनीतिक, समझ और सामाजिक सरोकार भी ठीक से लौटे हैं। तो उस दौर में ज्यादा कहानियाँ नहीं लिखी गईं। तो लेखिकाओं में मृदुला गर्ग, नासिरा शर्मा ये सब बाद में आई हैं। रमेश उपाध्याय, महेन्द्र भल्ला, रवीन्द्र कालिया तो अकहानी के दौर से ही आए थे। ममता कालिया ने बहुत अच्छी कहानियाँ लिखी हैं। तो एक बहुत बड़ी पीढ़ी उभर कर आई है। 80 के दशक में और आज तो बिल्कुल ही अलग तरह की चीज दिखलाई पड़ रही है और आज कहानियाँ बिल्कुल अलग-अलग तरह के लेवल पर चल रही हैं। हम एक प्रवृत्ति नहीं गिना सकते कि इस तरह की कहानी लिखी जा रही है। आज एक तो बहुत बड़ी जमात सामने आई है कहानियाँ लिखने वालों की, जिसमें एक तरफ अलका सरावगी भी हैं। जिनको मैं आज भी गिनती हूँ कि वो एक अकहानी वाले दौर की कहानियाँ लिखती हैं जो उन्होंने लिखी है। ज्यादा तो नहीं लिखी है।

दूसरी ओर ऐसी है जैसे मधु कांकरिया की पीढ़ी। फिर अल्पना मिश्र, नीलाक्षी सिंह और तुम्हारी पीढ़ी। तो सबकी अलग तरह की कहानियाँ हैं। एक तरफ तो शिल्प की विविधता भी है। आज के साहित्य को देखो बहुत व्यापक फलक है। पुराने समय से आज के साहित्य का बहुत बड़ा फलक है। लेकिन उसमें मुझे ऐसा लगता है कि कुछ कहानीकार ऐसे हैं जो अपनी महत्त्वाकांक्षा के तहत लिखते हैं और जब यह आग्रह रहता है कि हमें अपनी बात कहनी है तो वो अपने को प्रोजेक्ट करने की कोशिश में रहते हैं। तब सरोकार मद्धिम पड़ जाते हैं। बहुत गहरे सरोकार वहीं दिखाई देते हैं जहाँ लेखक अपने पूरे नजरिये का पहले अपने तईं विश्लेषण करके और फिर उसको पाठकों तक पहुँचाने की कोशिश करे।

                                





उत्तरार्द्ध


प्रश्न - आपके लेखन के दो प्रमुख पड़ाव जो मैंने अध्ययन की सुविधा के लिए किए हैं उस पर कुछ कहें।

उत्तर - मुझे लगता है मैंने बहुत अलग तरह के विषयों को उठाया है। दुबारा जब मैंने 1993 में लिखना शुरू किया उसके पहले का जो लेखन है उसमें स्त्री समस्या को, स्त्री लेखन को उठाया ही नहीं था। वह अलग तरह का लेखन था। मेरे पाठक कहते हैं आपका साहित्य तो इतने बड़े फलक पर था। बहुत बड़े फलक पर। तरह-तरह की समस्या को उठा रहा था।'बलवा' लिखी तो यहाँ की थोड़ी सी राजनीतिक छंद जो थी उनको ले कर लिखी और 'सात सौ का कोट' लिखी तो दर्जी का कैसे शोषण? उसकी कहानी।

1993 के बाद बिल्कुल स्त्री की कहानी। 12-13 वर्ष बाद लिखना शुरू किया तो स्त्री की समस्या पर। उस तरफ मोड़ा और मुझे कोई अफसोस नहीं है कि उस तरफ क्यों मोड़ा। मुझे अपने लेखन को पूरी तरह स्त्री की समस्या की तरफ मोड़ने का कोई अफसोस नहीं है, क्योंकि मैं जब यह देखती हूं कि मेरा पाठक वर्ग कितना ज्यादा identify करता है। उन कहानियों से जो मैंने स्त्रियों की समस्याओं पर ही लिखी जैसे - 'एक औरत के नोट बुक' उसमें दस-ग्यारह, कहानियाँ हैं। सभी स्त्री की समस्याओं पर हैं। तो एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग है जो रिलेट करता है। तो वह समस्याएँ तो हैं, न। तभी वह आपको छूती हैं। 

“अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी" जब मैंने लिखी लोगों ने कहा अरे इतनी निराशाजनक कहानी? लड़की आत्महत्या करने जा रही है और यह आखिरी चिट्ठी लिखती है। अरे! इतनी depressing कहानी। यह कहानी डिप्रेशिंग है, पर इसका मतलब यह नहीं कि आप डिप्रेश हो तो आत्महत्या कर लें। यह संदेश कहानी देती है। समस्याओं के प्रति आपको जागरूक बनाती है कि ये होता है महिलाओं के साथ और ये आपको नहीं करना है।



प्रश्न - सिर्फ स्त्री पर चर्चा कर क्या हम सुन्दर समाज बना सकते हैं? समन्वय से ही स्वस्थ समाज बनेगा। आप क्या सोचती हैं?

उत्तर - मैंने भी कई बार ये सोचा कि मैं क्यों लिखती हूँ स्त्रियों के बारे में! मैं अपने आप को रोक नहीं पाती लिखने से। मुझे उसका सबसे अच्छा जवाब यह मिला कि मेरी एक किताब जो स्त्रियों के लिए ही लिखी गई है जिसका नाम ही है "औरत की एक नोट बुक" उसे जब कोई पुरुष पढ़ता प्राध्यापक, पढ़े-लिखे वर्ग के, अपने क्षेत्र के नामी गिरामी लोग, उसे पढ़ कर जब ये कहते हैं कि आपके इस आलेख को पढ़ कर हमने अपने को 'बदला'। कइयों ने यह बताया। कइयों के नाम भी लिखे हैं उसमें। तो मुझे लगता है कि हम क्या चाहते हैं? अपने लेखन से समाज को बदलना ही तो चाहते हैं। अगर समाज का एक प्रतिशत पुरुष भी उसको पढ़ कर बदल रहा है तो हमारी उससे बड़ी उपलब्धि क्या होगी! हमने तो स्त्रियों के लिए लिखा कि वे जागरूक हो जाएँ। उसको पढ़ कर पुरुष अपने आप को बदलना चाह रहा है। अपने को जिम्मेदार मान रहा है तो यह बहुत बड़ी बात है। उस पुरुष के लिए भी।

मैंने अपने एक साक्षात्कार में यह भी लिखा है कि आखिर वही पुरुष बदलेगा जो बदलना चाहेगा और जो अपने संबंधों में सुधार लाना चाहेगा। जो बदलना नहीं चाहेगा, अपने ‘इगों’ से अहम से ग्रस्त रहेगा, वह कभी बदलेगा ?

 




प्रश्न - स्त्री-पुरुष मिल जुल कर रहें ऐसा समाज कैसे बनेगा? थोड़ा एडजस्टमेंट।

उत्तर - देखो, ऐसा नहीं होता है। चीजों को टालते रहने से चीजें सुधरती नहीं हैं। अगर आप बर्दाश्त करते रहते हैं तो क्या होता है? तालमेल बैठाते रहते हैं तो चीजें कई बार बिगड़ती भी हैं। जो चीजें आपको दस साल पहले करनी चाहिए थी वह आप अब करते हैं।

हमारे पास जो घरेलू हिंसा का मामला, जो आता है न, हम यह कहते हैं पहली बार जब हाथ उठाया उस समय रोको। पहली बार पति ने मारा तुमने रोका नहीं। दूसरी बार फिर रात को मारा और सुबह पैर पकड़ माफी मांग ली, तुमने माफ कर दिया। ये जो है न तालमेल बैठाना, माफ करना, नजरअंदाज करना, चीजों को दबाते रहना, यह चीजों को बढ़ाता है।

आपके घर के लोग इतने संवेदनशील तो हों कि यह महिला जो कर रही है इस बात को समझे। सहानुभूति हो, चिंगारी सी उठे। आप जितना तालमेल बैठाते हैं उतनी चीजें बिगड़ती भी हैं। आपको कहीं न कहीं थोड़ा सा 'अस्मिता' का रूप भी दिखाना पड़ता है। उग्र मैं नहीं कहूँगी। आपको यह बताना पड़ता है कि this is enough. अब और आगे नहीं। सहने की ताकत नहीं है। सहने की जो ताकत है उसकी पुरानी पीढ़ी ने जो सीमा निर्धारित की थी 50 या 60 के बाद पहले वह टूटनी चाहिए। वह अब नहीं चल सकती।

आज की जो पीढ़ी है उसको यह बता देना चाहिए अब ये नहीं चल सकती। हम लोगों की पीढ़ी ने भी 60 साल तक यह बर्दाश्त किया, पर अब ये नहीं चल सकता। सहने से चीजें बदलती नहीं हैं। हमें यह भ्रम होता है कि सहने से चीजें बदलती हैं।

जब मैंने कहानी लिखी थी 'रहोगी तुम वही' और  छपने भेजा तो संपादक ने कहा- 'ये क्या कहानी है? इसमें सिर्फ पुरुष ही बोल रहा है औरत नहीं। तो क्या, औरतें बोलती नहीं।’

उनको यह समझ में ही नहीं आया कि मैं क्या बताना चाह रही हूँ। क्या बोल रही हूँ। उसको फिर 'हंस' में भेजी। राजेन्द्र यादव ने छापी। दिव्या माथुर हैं एक लंदन की। छपने के बाद उन्होंने मधु किश्वर की एक पत्रिका है उसमें छापी। छपने की देर थी फिर तो वह इटैलियन, चैक, रसियन और जर्मन कई भाषाओं में छपी। ‘'स्ट्रीट प्ले' बने उसके। तो यह समस्या केवल भारत की नहीं है। यूनिवर्सल है। वैश्विक स्तर पर है और एकदम होती है और कई पुरुषों ने, लेखकों ने, संपादकों ने कहा कि औरतें बोलती नहीं, क्यों? तो एक कहानी लिखी मैंने 'सत्ता संवाद' उसमें सिर्फ औरतें बोलती हैं। पुरुष पति चुप्पा है। पुरुष कुछ नहीं बोलता, वह सिर्फ झोला उठाता है और चला जाता है। वह कौन सी औरत बोलती है। वही जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है और जिसके हाथ में सत्ता है। सत्ता का ही संवाद हो सकता है। दूसरी कहानी जब लिखी तो उसमें औरत बोलती है। वह बोलती रहती है। 

सत्ता से ही संवाद हो सकता है। पहला कॉलम मैंने लिखा था कि ये 'भिक्षा पात्र विरासत में देने के लिए नहीं है।' हमें जो भिक्षा पात्र मिला है जिसको हमने जिन्दगी भर निभाया कि भिक्षा पात्र में पैसे डालो तो ये घर चलेगा। वह हमें अगली पीढ़ी को विरासत में नहीं देनी। चीजें तो बदल रही हैं और बदलनी चाहिए। ज्यादातर लड़कियाँ आत्मनिर्भर हैं और इसी तरह जी रही हैं। जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होती उनके लिए बहुत मुश्किल है।

खाना परोस कर कामकाजी महिला ही देती है पुरुष को। भारतीय समाज की हालत तो यह है कि आपने मेज पर खाना लगा दिया है। पत्नी आ कर पूछती है खाया नहीं, तो पति कहता है जो तुमने ढक्कन नहीं खोला तो कैसे खाता? दिखा ही नहीं? तो ये बताओ ये स्थिति क्या चलने वाली है? इसको चलाया जा सकता है क्या? इसको तो बदलना ही चाहिए न।

 


प्रश्न - पहले की स्त्रियों के बारे में कुछ कहें। उन्हें पुरुषों का सहयोग मिला या असहयोग?

उत्तर - ज्योतिबा फूले और सावित्री बाई फूले। सावित्री बाई फूले कुछ नहीं होती अगर ज्योतिबा फूले उनको ऊपर नहीं लाते तो। है न? अपनी सुभद्रा कुमारी चौहान। लक्ष्मण सिंह चौहान अगर उनको नहीं बढ़ाते...। बेचारी जब चली जाती थी जेल में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान तो वे बच्चों को संभालते थे। लेकिन उनको कभी नहीं रोका कि ये नहीं करो। लिखती रही लगातार। स्वाधीनता संग्राम में भी भाग लेती रही लगातार। पहले की जो औरते थीं न सौ साल पहले की वे अपने पतियों के सहयोग से आगे बढ़ीं। आज की जो स्त्रियाँ हैं वे पतियों के असहयोग से आगे बढ़ती हैं, क्योंकि उनका जो रवैया है इतना सख्त हो जाता है तब उसको छोड़ कर वे आगे बढ़ जाती हैं। तो पहले सहयोग बढ़ाता था स्त्रियों को। आज असहयोग बढ़ाता है।

 




प्रश्न - रवीन्द्र नाथ की स्त्रियों के बारे में आशापूर्णा देवी के नारी पात्रों की कुछ चर्चा...।

उत्तर - रवीन्द्र नाथ की तो बात ही अलग है। उनके साथ आप आशापूर्णा देवी को नहीं रख सकते। उनकी जो अंतर्दृष्टि थी न वह अपने समय से बहुत आगे की थी। अब देखो उन्होंने 'घरे बाइरे', 'चारुलता' लिखी उसमें उन्होंने एक स्त्री की स्वतंत्र चेता व्यक्तित्व को दिखाया। चारुलता का शादी से बाहर लगाव दिखाया। उसे अपने जीवन से  बोरियत होती है। तब  दूसरे के प्रति आकर्षित होती है। हालाँकि बहुत मर्यादा में, पर चाहना तो दिखाई न।

रवीन्द्रनाथ का स्त्री के प्रति जो नजरिया है, 'स्त्री पात्रों में' मृणाल को देखो । वह ट्रेन से पत्र लिखती है। अद्भुत है न...।

 


प्रश्न - वह 'तेज' क्या आजकल की स्त्रियों में नहीं है?

उत्तर - नहीं। ऐसा नहीं है। आजकल की स्त्रियाँ भी अपना विद्रोही स्वरूप तो दिखाती ही हैं। देखो, आज मुझसे एक कॉलेज की प्राध्यापिका मिलने आई थीं। उसने बताया कि वह शादी के बाद संयुक्त परिवार में गई थी। पढ़ने में इतनी तेज थी, पर बीच में शादी कर दी गई।

यह तो गनीमत थी कि उसके ससुर ने उसको पढ़ते हुए देखा...। ऐसे परिवार में गई थी जहाँ पढ़ने की वैल्यू ही नहीं थी, पर उसने पढ़ाई की। तेज था न…………।



सुधा अरोड़ा से संवाद चलता रहा। इस प्रक्रिया में कई और प्रश्न रखे गए और उनको सुना, पर एक प्रश्न जो अनकहा था कि आखिर वे कौन सी स्थितियाँ परिस्थितियाँ बनी जिसके कारण सुधा अरोड़ा ने एक लम्बे अंतराल के बाद जब कलम उठायी तो वह कलम सिर्फ और सिर्फ स्त्री की दशा-दुर्दशा और स्त्री मुक्ति की चिंता की दिशा में ही चली।

इसका उत्तर हमें सुधा अरोड़ा से नहीं स्वयं से और इस समाज से पूछना होगा। वहीं तलाशना होगा कि एक लेखिका जब लेखन की शुरुआत करती है तो जीवन-जगत के कई प्रश्न उसके मन में कुलबुलाते हैं और वह उन विषयों को समझने की प्रक्रिया में कुछ सीखती है, कुछ रचती है वही लेखिका जीवन के दूसरे पड़ाव पर महिलाओं के दुःख, दर्द, पाड़ा, शोषण, उत्पीड़न पर अपने को केन्द्रित कर देती है।

 आखिर क्यों?



शर्मिला जालान



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ई मेल

sharmilajalan@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. यह साक्षात्कार महत्वपूर्ण है। संयोग है कि पिछले कुछ दिनों से सुधा अरोड़ा जी को पढ़ रहा हूँ। इनके लेखन में ऐसा कुछ है जो अंतर्दृष्टि देती है। यहाँ केवल स्त्री विमर्श ही नहीं एक जीवन दर्शन है जो पुरुषों के लिए भी उतना ही उपादेय है।
    ललन चतुर्वेदी

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अन्तर्दृष्टि देता है-पढ़ा जाए।

      हटाएं
  2. मै यह साक्षातकार पढ़ कर
    आपके(शर्मिला जालान) औरमधु जी के संवेदनशील स्वभाव को सलाम करता हूँ।
    बहुत कुछ सीखने जानने को मिला, मधु जी का लेखन स्त्रियों के मुद्दों पर रहा है, मगर पुरुषों के लिए भी बहुत कुछ प्रेरित करना वाला है।
    जब वे महात्मा ज्योतिबा फुले को माँ शावित्रि बाई फुले का जनक कहती हैं और वही सुभद्रा कुमारी चौहान की बाबत तो कोई पुरुष तो जागेगा कि मै भी यह मानवीय काम कर लूँ, तभी तो इंसान बनने की डगर राही बन पाऊँगा?
    बहुत ही अच्छा साक्षातकार दोनों विद्वानों को नमस्कार जय मानव धन्यवाद।

    महिपाल मानव हिसार हरियाणा

    जवाब देंहटाएं
  3. ओह मै गलती से सुधा अरोड़ा जी को मधु लिख गया माफ़ी चाहता हूँ
    महिपाल मानव

    जवाब देंहटाएं
  4. इस संवाद ने स्त्री विमर्श को नई दृष्टि दी है।सुधा अरोड़ा मैम ने लेखन के भी कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर बात की। बहुत कुछ सीखा समझा जा सकता है इस संवाद से।
    विनीता बाडमेरा
    अजमेर, राजस्थान

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    उत्तर
    1. बहुत आभार।
      शर्मिला जालान।

      हटाएं

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