आशीष कुमार का आलेख 'शिनाख्त की सरहदें और भी हैं...!'


आशीष कुमार 



हर रचना में उसका देश काल गहरे तौर पर आबद्ध होता है। इसी तर्ज पर यह कहा जा सकता है कि हर रचना की अपनी राजनीति होती है। राजनैतिक चेतना से सम्पन्न करना वस्तुतः लेखक का महत्त्वपूर्ण दायित्व होता है। जो रचना मनुष्य को उसके अधिकारों और दायित्वों के प्रति जागरूक नहीं कर पाती, वह रीढ़विहीन होती है। यानी वह पाठक पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाती। मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों का धरातल राजनैतिक चेतना से समृद्ध दिखाई पड़ता है। 'इदन्नमम' उनका महत्त्वपूर्ण उपन्यास है। इस उपन्यास के बहाने युवा आलोचक आशीष कुमार ने हिंदी उपन्यास में राजनैतिक चेतना की पड़ताल करने की एक सफल कोशिश की है। आशीष कुमार प्रयोगधर्मी आलोचक हैं। इस आलेख को पत्र शैली में प्रस्तुत कर उन्होंने आलोचना जैसी रूखी विधा को सरस बना दिया है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं आशीष कुमार का आलेख 'शिनाख्त की सरहदें और भी हैं...!'           



'शिनाख्त की सरहदें और भी हैं...!'             

(हिंदी उपन्यास में राजनैतिक चेतना वाया इदन्नमम)                             

                                                 

आशीष कुमार 


डियर मंदा,


पिछले कुछ दिनों से तुम्हारी सोहबत में हूं। सोहबत क्या कहूं, आगोश में हूं। जब से इस चुनावी माहौल का आगाज़ हुआ है। तुम दिलो दिमाग पर छाई हो। इदन्नम अर्थात इदम न मम। यह मेरा नहीं। बऊ, कुसुमा भाभी, सुगना, अभिलाख सिंह और मकरंद। बौखलाए से ये पात्र कब मेरे जेहन में उतरते चले गए, पता ही नहीं चला। धूल, मिट्टी और पसीने से गंधाती मंदाकिनी यानी मंदा। सोच रहा हूं तुम्हें कौन सा तमगा दूं? 'सोनपुरा' का तो कायाकल्प ही कर दिया था तुमने। जागरूकता की यह चिंगारी कैसे जलाई? अभिलाख सिंह के सामने पहाड़ की तरह तन गई थी तुम। मजदूरों के हक की पैरवी करते वकील की तरह। कीर्तन-सत्संग के साथ ही साथ तुमने गांव भर के उद्धार का बीड़ा उठाया था।



अपनी तकदीर को 'सोनपुरा' के साथ जोड़ती-घटाती रही। 'अस्पताल' मिशन हो गया तुम्हारा। गांव के विकास के साथ जिस लोकतंत्र का स्वप्न देखा था तुमने क्या वह साकार हुआ? तुमने तो चुनावी माहौल में खलबली पैदा कर दिया था, आख़िर जनता-जनार्दन की जीत हुई। राजनेताओं के सारे वादे, मंसूबों पर पानी फेर दिया था। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि हमारे अपने वोट की इतनी कीमत होती है। निर्णायक भी होता है अपना एक मत। बरबस याद आ गई 'फैसला' कहानी की 'वसुमती'।



मंदा, तुम्हें न जाने कितने आलोचकों ने गुना और समझा होगा।लेकिन, वे सब तुम्हारे संघर्ष पर कायल थे। तुम हो ही संघर्ष और स्वाभिमान की मूरत। प्रेम के मामले में थोड़ी सी कच्ची। अनगढ़। अगर थोड़ा रुक जाती तो क्या बिगड़ जाता तेरा! 'मकरंद' से मुलाकात हो जाती, हो सकता था प्रेम की गाड़ी फिर से पटरी पर आ जाती। लेकिन तुम्हारे भीतर तो 'सोनपुरा' दहक रहा था। दर्द को दिल में दफ़न कर प्रेम की नई इबारत लिखी तुमने। तुम्हारे संकल्प के सामने सब कुछ बौना हो गया, मंदा! समझ नहीं पा रहा हूं तुम सर्जक हो या सृजन? मैं तुमसे संवाद करना चाहता हूं।तुम्हारे गांव सोनपुरा की छटा भी निराली है। क्रेशर की घरघराहट और गिट्टी में फंसी जिंदगी। इनके बीच गांव वालों की मजदूरी। तुम्हारे सपने छोटे-छोटे हैं, गम बड़े-बड़े हैं। 'सुगना' को खोने के बाद कौन से लड़ाई लड़ी तुमने? इतने गमों से जूझते हुए अदम्य जिजीविषा कहां से पाती हो मंदा? क्या महाराज को अपना गॉडफादर मानती हो? कैसा मूलमंत्र सिखाया था तुमको। वे कहते थे - "राजनीति का आदमी डाकू, चोर, ठग से भी ज्यादा खतरनाक हो जाता है। क्योंकि इनमें से भी वह किसी एक का पेशा नहीं अपनाता। समय-समय पर तीनों के हथकंडे इस्तेमाल करता है और अपने आपको सबके सामने ऐसा साध-तोल कर परोसता है कि भूले से भी भ्रम न हो उसकी असलियत का।" तुम्हारी तो ज़िंदगी ही बदल गई। सेवा और संकल्प का ऐसा व्रत लिया कि जोगन ही बन बैठी। कहां से लाती हो इतनी आग और ताप अपने भीतर। क्या विद्रोह का सोता फूट पड़ा है? श्रम के संकल्प पर जिजीविषा की कथा को सच कर दिया तुमने। अल्हड़ उमर में कितनी परिपक्व हो तुम। बऊ सही कहती है - "तुम तो बेटा, हमसे बड़ी भई। उमर और पक्की देह से क्या होता जाता है। असल चीज तो अकल और विवेक है। मति-सुमति है। त्याग परकाज है। उसी से झिलमिलाती है रोशनी, कटता है अंधेरा। जोतिवान हो उठता है मनिख। जे कहो आदमी इंसान बन जाता है।" तुम्हारी बोली-बानी में चेतना का ऐसा अक्स झलका कि मैं मुरीद हो गया। यहां मैं तुम्हारे रूप और गुन पर बात नहीं करूंगा।मुझे तुम्हारे भीतर 'राजनैतिक जागरूकता' की झलक दिखायी देती है। अब यह मत कहना कि सावन के अंधे को हर जगह हरा ही हरा दिखता है। भूल नहीं सकता तुम्हारा वह तेवर, कैसे राजा साहब को करारा जवाब दिया - "ऐसा नहीं है कि कुछ भी न मिलता हो। हर वोटर को उसके वोट की कीमत धरते हैं। आपके कार्यकर्ता दो सौ, तीन सौ, चार सौ, और पांच सौ तक में निपटा लेते हैं सौदा। परंतु चुनाव की अवधि तो बहुत लंबी होती है। पांच साल तक की दवा-दारू, इलाज़-उपचार के लिए काफ़ी नहीं रहते चार सौ, पांच सौ। सो क्या करे? अबकी ठान लिया है कि हम 'कहे' की नहीं, 'करे' की परतीत करेंगे। और अगर नहीं तो ऐन खाली उठा ले जावे पेटी आपके आदमी। वोट नहीं पड़ेगा एक भी।" तुम्हारा हल्के से मुस्कुराना भारतीय राजनीति पर व्यंग्य था या कटाक्ष? क्या तुम्हें ये इल्म था कि तुम उस जमाने में नोटा ( NOTA) की बात कर रही थी। चुनाव का बहिष्कार करके राजनेताओं की मिट्टी-पलीद कर दिया। दिखा दिया कि अपने झुनझुने को कही और इस्तेमाल करो। कैसी बिगुल बजायी तुमने। सही कहा गया है कि राजनीति के जनतंत्र में जहां बहुमत की बात मानी जाती है, वही साहित्य के जनतंत्र में एक व्यक्ति की पीड़ा को भी स्थान मिलता है। उसी बहुमत को एकजुट करने का जिम्मा उठाया था, तुमने। 'संगठन की शक्ति है' के तर्ज़ पर गांव वालों को उनकी अस्मिता का भान कराते हुए सोनपुरावासियों को एकसूत्र में बांधने का संकल्प लिया था - "समझा तो ऐन दिया है किसानों को, महीदारों को, मजूरों को, ब्राह्मणों को, बनियों को, लोधे, कुर्मी, यादवों को, चमार, कोरी, नाई और मेहतरों तक को।लेकिन एक सूत्र में, एक तंत्र में बंधे रह पाएंगे सब जाति से आन जाति का, सवर्णों से अवर्णों का, आदमी से आदमी का, पुरा का पुरा से, गांव से गांव का, गांवों से पहाड़ों का, राउतों से सहारियों का, सहारियाें से भीलों का आपस में मतभेद नहीं होगा क्या?" तुम मनुष्यता का कौन सा पाठ पढ़ा रही थी, मंदा? जन और तंत्र का गठजोड़ करने पर आमादा हो गई। बावरी हो गई थी तुम। क्या तुम्हें नहीं पता कि लोकतंत्र में जन की क्या कीमत है? तुम्हीं ने तो कहा था कि - "राजकाज में तेजी लाना अपने हाथ की बात नहीं। वे लोग अपने तरीके से करते हैं हर काम। नौकरशाह और राजनेताओं के हाथ का खिलौना हो गया है हमारा जीवन। यहां प्रजातंत्र नहीं, शोषण तंत्र लागू है।" शोषण के खिलाफ़ अपनी आवाज़ को बुलंद कर रही थी। गांव वालों में राजनैतिक चेतना की चिंगारी को भड़का रही थी। लेकिन क्या अकेला चना कभी भाड़ फोड़ता है? सपना जुनून बन कर सवार हो गया था तुम्हारे ऊपर? होम करते हाथ जलाने की कहानी लिख रही थी तुम। निरे मूढ़ गांव वालों के बीच हौसलों की एक मिसाल बन कर। सोनपुरा के लोगों को यह भी सिखाया कि बड़ी उपलब्धियों के हमें छोटी - छोटी खुशियों का त्याग भी करना पड़ता है। कितनी प्रगतिशील हो गई थी तुम। गांव के विकास के लिए समर्पिता। होलटाइमर।विकास को कितने बड़े संदर्भ में देख और समझ रही थी। तुम्हारी प्रगतिशीलता बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों पर भारी है। अनुभव में तप गई थी तुम। गांव, विकास, खेत-खलिहान को व्यापक परिप्रेक्ष्य में सोच रही थी। कितनी प्रासंगिक है तुम्हारी चिंताएं - "सरकार विकास लाती है, उन्हें विनाश लगता है। किसी का खेत, किसी का बाग, किसी का मेड़, किसी का ताल, किसी का घूरा, किसी का पोखर संकटों से घिरे हैं। हम क्या समझाए कि मूर्खों, इतनी छोटी-छोटी चीजों की परवाह की तो बड़ी-बड़ी प्रगति योजनाएं कैसे लागू होगा? नई-नई तकनीकों को किस स्थान पर प्रयोग करेंगे? देश आगे कैसे बढ़ेगा?



'सर्वे भवन्तु सुखिन, सर्वे भवन्तु निरामय' के मूलमंत्र को अपने जीवन में उतार रही थी। तुम्हारा जीवन ही संघर्ष का पर्याय हो गया था। मंदा! क्या तुम्हारे भीतर कभी राजनीति में प्रवेश का विचार नहीं आया? क्या सरपंच बन कर सोनपुरा के विकास के लिए नहीं लहलहाया तेरा मन? सच-सच बताना, तुम्हें मेरी सौह। वोट बैंक की राजनीति क्यों नहीं कर पाई तुम? क्या सृजन की प्रक्रिया में मनुष्य स्वयं का संधान करता है? कितना उद्वेलित कर दिया 'इदन्नमम' की नायिका तुमने! तुम नायिका हो या वीरांगना? क्या हिंदी उपन्यास में जब कभी नायिकाओं का शाहनामा लिखा जाएगा, तब तुम्हारी गिनती की जाएगी? तुम्हारा स्थान ठीक बीचों-बीच में होगा या हाशिए पर? वैसे भी, मर्दों के वजूद को ठेंगा दिखा कर अपनी सत्ता बनाने वाली स्त्रियों को हाशिए पर ही रखा जाता है। क्या स्त्री जीवन की यही अति और नियति है? लेकिन तुम घबराना मत मंदा, कभी-कभी बहुत महत्वपूर्ण चीजों को याद रखने के लिए हम उसे हाशिए पर टांक देते हैं। फिर आचार्यों ने भी तो कैसा दोहरा रवैया अख्तियार किया है। नायकों को धीरोदात्त, धीरललित, धीरप्रशांत से वर्गीकृत किया और नायिकाओं को मुग्धा, प्रौढ़ा और अभिसारिका के रूप में। स्त्री के संदर्भ में यह दोहरा मानदंड  'मनुस्मृति युग' की याद ताजा करता है। मंदा! मैं व्रत, त्योहार, सजने-संवरने को बुरा नहीं मानता। अगर आपको अपने और दूसरों के हक की बात समझ में आती है। अपने कम्फर्ट जोन में जीवन बिता देना और लंबी डींगे हांकना आसान है, लेकिन बहुत कठिन है कुछ ऐसा करना जिससे दूसरों के जीवन में बदलाव आए। दरअसल, अपने कंफर्ट जोन से बाहर निकल कर दुनिया भर में तमाम मुद्दों पर स्टैंड लेती हुई स्त्रियां ही बदलाव लाती है। लेकिन फिर वही सवाल कि आख़िर कितनी स्त्रियां अपने हक़-हकूक को जानती हैं? और कितने पुरुष हैं जो स्त्रियों को ज्ञान की दिशा में ले जाते हैं? तुम्हें लिडिया एविलोव की याद है? मंदा! तुम्हें 'देह' और 'मस्तिष्क' दो खंडों में बांट दिया जाए, यह हमें गवारा नहीं। तुम लोक से निरंतर दूर होते तंत्र और जनसरोकार को नकारती सत्ता के विरूद्ध जन के प्रतिरोध का प्रतीक हो। तुम्हारा व्यक्तित्व हमें न्याय, सत्ता और राजनीति से संघर्ष की शक्ति प्रदान करता है।

                                                       तुम्हारा स्नेही

                                                         एक पाठक


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