मुसाफिर बैठा की कविताएं

 




आमतौर पर लोग लीक पर चलते हुए अपना जीवन बिताते हैं। लेकिन इतिहास में वही दर्ज होते हैं जो अलीक हो कर चलते हैं। ऐसे लोग अलग हट कर सोचते ही नहीं, करते भी हैं। हालांकि यह अलग सोचना या करना आसान नहीं होता। इसकी कीमत भी उन्हें चुकानी होती है। लेकिन जो अलीक चलते हैं, उन्हें कीमतों की परवाह कहां होती है। दशरथ मांझी ऐसे ही अलीक चलने वाले व्यक्ति थे जिन्होंने असम्भव को सम्भव कर दिखाया था। एक मामूली व्यक्ति ने वह काम कर दिखाया था जो शक्तिमान बन बैठे लोगों के वश की बात नहीं। मुसाफिर बैठा ने इस महामानव पर एक कविता लिखते हुए प्रतिमानों को पलट दिया है। 'दशरथ माझी होती हैं चीटियां' शीर्षक से जो कविता लिखी है वह इसका उदाहरण है आमतौर पर कवि चीटियों को अपना प्रतिमान बनाते हैं। मुसाफिर बैठा ने यहां दशरथ मांझी को ही प्रतिमान बना दिया है। यह किसी भी कवि की सफलता होती है। मुसाफिर बैठा दलित शोषित वंचित तबके को अपनी कविताओं के केंद्र में रखते हैं और उन्हीं के हको हुकूक की बात करते हैं। हाल ही में उनका तीसरा कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है जिसका नाम है 'नए मुहावरे का चांद'। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं मुसाफिर बैठा के इस नए संग्रह की कुछ कविताएं।



मुसाफिर बैठा की कविताएं



आंबेडकर मेरे मानसिक मां 


यह देह जैविक जननी की जनी हुई है

बाकी सब आम्बेडकर-माँ का दिया हुआ

शब्द जो मैं बोलता हूँ

तर्क जो तेरे विरुद्ध रखता हूँ

चाय–पानी जो मैं तुम्हारे साथ

करने के अब काबिल हूँ


पानी जिसे तुमने जात में रंग दिया था

वह अपना स्वाभाविक रंग पाने का

फिर से अब अधिकारी हुआ


शिक्षा जो सिर्फ तेरी थी

पा कर उसे अब

अपनी अस्मिता पहचानने

और रक्षा में सतत मैं प्रयत्नरत हूँ


माँ तो तेरी भी दो है मेरी तरह

माँ तो तेरी भी एक पुरुष-माँ है मेरी तरह

जबतक तुम इस ब्राह्मणवादी माँ-मुख से

ब्रह्मा-मुख से जनमते रहोगे

इस मानस-माँ पर निर्भर रहोगे

तुम्हारी देह की जननी

और तमाम जैविक माएं

तेरे होने से कलंकित होती रहेंगी

तुम्हारी पुरुष-माँ

तुझे अमानव बनाती है

जबकि मेरे आम्बेडकर-माँ

तुम्हारे मनुसोच से मुझे लड़ने भिड़ने का

पुरजोर माद्दा देते हैं

सहारे जिनके

तुझे दर्द, दुत्कार और चुनौती देने वाली

हर रचना अब रचने में सक्षम हुआ हूँ!


मुझे

अपनी माओं पर गर्व है

मानसिक माँ पर ख़ास


और

तुझे?



ईश्वर का घर 


किसी चालाक आदमी ने

ईश्वर को बनाया

बनाकर बताया कि हर जगह रहता है वह

लेकिन उसके लिए घर बनाया

उसे आलीशान घर तक में बिठा आया

आलम यह है कि

बेघर लोग भी उसे अपना देवता समझ बैठे!



घूर


गांवों में

शहराती गांवपंथियों के बीच में

घूर लग जाता है

सबेरे-सकाल

सूरज उगकर भी

नहीं उगता या उगता है देर से

अक्सर इन कुहासा भरे शीत दिवसों में


ऊष्मादायी जिंदा घूर को

शीत के सांघातिक संघनन के

अनुपात में कम या अधिक काल तक

खिंचना होता है इस दरम्यान


भले हो अन्न का अकाल

जुटाना बाक़ी हो दो जून की रोटी 

इस भोर से उगे दिन को

अपना दिन बनाने के लिये

अपना दीन कम से कम

एक दिन के लिए छांटने के लिए

ख़ुद और परिवार के लिए

घूर के लिए जुगाड़ा जा चुका होता है पर्याप्त

राशन-पानी पिछले दिनों ही


घर और बाहर

टोले–मुहल्ले से

घूर के गिर्द जो बना घेरा होता है दूरे पर

स्त्री पुरुष

बच्चे युवा अधेड़ और वृद्ध का

हर लिंग-उम्र को समेटे

आग से ताप और ऊर्जा पाने के लिए होता है 

जबकि बनना इस घेरे का

गँवई संबंधों के बीच बची ऊष्मा का

सुबूत होता है


कहिये

भूत से संभलती आई ऊष्मा

बचती संवरती दिखती है जिनकी बदौलत

घूर भी वैसी ही एक परम्परा पोषित 

कालातीत होती जा रही दौलत है!






औरत की हँसी 


कोई औरत यदि हँस रही है

तो जरूर कोई मार्के की बात होगी, अच्छी बात होगी

यह औरत के पक्ष की बात हो सकती है

मर्द पर उनकी जीत की

जरूरी अभिव्यक्ति भी हो सकती है

हो सकती है यह

गैरजरूरी स्त्री-शर्म को हँसी में उड़ाने की

हँसी भरी स्वच्छंद अभिव्यक्ति

इस अभिव्यक्ति में वे

खुदमुख्तारी का मुनादी करती और परचम लहराती हो सकती हैं


मगर जब वर्णोपरि कोटि की स्त्रियां हँस रही हों

आपस में हँस रही हों

या कि अपने मर्दों के साथ हँस रही हों

तो

अच्छी बात नहीं भी हो सकती है जबकि

कि उनकी यह बात किसी स्त्री विरुद्ध बात भी हो सकती है बेशक!


एक पुरुषसत्तात्मक मर्द से कम मर्द नहीं होतीं बाज औरतें

दलित–वंचित स्त्रियों को बरतते हुए।



घर 


फुटपाथ ही जिनका घर है

कहने को घर

वे बच्चे ईंट से ईंट सजाकर

घर बनाना खेल रहे हैं

मां बाप उनके

इन्हीं ईंट के भट्ठे के मालिक का

घर बनाने के काम में

मजदूरी खट रहे हैं


अपने अपने बचपन में

घर घर खेला होगा

इन मजदूर मां बापों ने भी जबकि


मां बाप देख रहे हैं

घर घर खेलते अपने बच्चों को

फुटपाथ का घर अगली पीढ़ी को सौंपते

और दूसरों का घर बनाते

पता नहीं पर

क्या क्या पर कुतरे सपने

घर कर रहे होंगे

इन बेघरों के मथते मन में!



उधार की धार


जो कुछ बुरा है अपने जीवन में

किया-धरा नहीं अपना वह

उनने धरा दिया जबरन और अनधिकार


उनके जीवन में

जो भी दिखती है धार

वह सब है बहुजनों से छीना छल कपट वाला

ले उधार नहीं

धोखा दे हमारे लोहे से

बना ली उनने अपनी धार


जबकि जो भी है अपने जीवन में लोहा सोना

जिस भी ऐक्शन में अपने लगते हैं सान औ' धार

बुद्ध, कबीर, रैदास, फुले, बाबा साहेब जैसे पुरखों से उनके जरूर से जुड़ते हैं तार


लाख चुकाओ चुक नहीं सकता एक भी कतरा 

बाबा साहेब एवं उन जैसों से पाए ऋण का

जो उनसे मिला उधार!






नए मुहावरे का चाँद 


नीम रौशनी चाँद की

शीतल होती रात की


नीम अंधेरा चाँद का

गहना सा है धरती का


नीम रौशनी और अंधेरा

दुन्नो मिल जब डाले डेरा

धरती जाती सँवर ग़ज़ब

चाँद का इतराना इस पर

लागे भला भोरा करतब


चाँद धरा से दूर न अब

पुए पकते न गुड़ के अब

सूत न काटती अब बुढ़िया

पानी गर मिल जाए वहाँ तो

धरती सी हो जाए चंदा की दुनिया


धरती सा चाँद का होना ठीक नहीं

कि धरती की दुनिया ठीक नहीं


नादां बच्चे भले अब भी ठगे जाएं

चाँद कहानियां अब भी सुनी जाएं

चाँद कथाएं रहें भले अब भी

बच्चे भी फुसलाये जाएं सही


सगरे रस्मी ज्ञान अब चांद के फीके

विज्ञान ने खोल डाले जब रहस्य समूचे


चांद सा रौशन चेहरा जब बोलो

सोचो समझो और तर्क पर तौलो

छुपे गड्ढे ज्यों चाँद के चेहरे के पीछे

रौशन चेहरे का यूँ मतलब क्या

जबतक उसके पीछे के दाग न रीते।



प्रेम पत्र बचाने के शब्द–व्यापारी 


वह घोषित रूप से

प्रेम पत्र बचाने के एजेंडे पर है

प्रेम पत्र बचाना जबकि

उसका ध्येय हो नहीं सकता कतई

उसके पुरखों ने कब की है

प्रेम पत्र की रखवारी

कब बचाया है प्रेम

प्रेम पत्र से उसने

कब रखा है प्रेम का वास्ता


उधार खाते के प्रेम पर

अक्षत प्रेमपत्र सिरजन सम्भव है क्या

बोल बोल

अरे दिल खोल बोल

दिल के अपने कपट कपाट

खोल बोल

ऐ प्रेम पत्र बचाने के शब्द-व्यापारी?


प्रेम को जो खाते आया है

प्रेम को जो घटाते आया है

प्रेम की जगह जो

जात का ऊँच नीच घटाते आया है

वह क्या बचाएगा प्रेम पत्र!

वह बचाएगा क्या प्रेम पत्र?

वह क्यों बचाएगा प्रेम पत्र?



दशरथ मांझी होती हैं चीटियाँ


मेरे आवास परिसर में चीटियों ने

बालू का एक ज़खीरा खड़ा कर रखा है

जो उनके

कद एवं अनथक अप्रतिहत श्रम के हिसाब से

कम नहीं है एक पहाड़ बनाने से!

इस गरज से

दशरथ मांझी होती हैं चीटियाँ!

फर्क है मगर

चींटियों के दशरथ माँझी होने में

और साबुत दशरथ माँझी होने में


चींटियाँ तो सभी होती हैं दशरथ मांझी

मगर स्वार्थ में, स्वभाव में

जबकि दशरथ माँझी ने

स्वार्थ से चलकर परमार्थ गढ़ा

दैहिक प्रेम से आगे बढ़कर

समाज प्रेम में पर्वत से टकराया वह

उत्तुंग सम्बल संकल्प लिए

उसे ढाने का

ढा कर रास्ता बनाने का


अथक श्रम करती चीटियाँ

लीक पर चलती हैं

जबकि अलीक चले दशरथ मांझी

लीक बनाई इक नई


पहाड़ से ऊंचा संकल्प

कोई भरसक ही करता है

करता भी है तो

सदियों में सिर्फ एक होता है

पहाड़-प्रश्नों को जमींदोज कर

अपने संकल्पों को

जमीं पर उतारने वाला

दशरथ मांझी।



आए गए महान 


आए गए बुद्ध

फिर भी समाज की सही न सेहत, आबोहवा अशुद्ध


आए गए महावीर

फिर भी समाज तोड़क औ’ हिंसक ही बन रहे पीर


आए गए नानक

फिर भी उनके बताएं गए रास्ते पर चलने में हम हैं बालक


आए गए कबीर

फिर भी बंट रहा समाज, जात धर्म दुर्भाव हुआ अमीर


आए गए रैदास

फिर भी सत्य है दुख और हिंसा, बेगमपुरा की दूर है आस


आए गए पेरियार

फिर भी बदस्तूर संकीर्णता होती रही समृद्ध, ठहरे रहे वैज्ञानिक सोच विचार


आए गए फुले दंपती

फिर भी स्त्री हित शिक्षा की न गुणवत्ता वाली सन्तोषदायक गति


आए गए संत गाडगे

फिर भी अन्याय और अंधविश्वास न समाज से भागे


आए गए अंबेडकर

फिर भी बंदरबांट, अघाए नित सवर्ण, उनके सताए दलित हैं लूजर


आए गए गुजराती गांधी

फिर भी वहीं से चल रही देश में अंधी सांप्रदायिक आंधी


आए गए महान

फिर भी वही ढाक के तीन पात

हर सत्ता शक्ति शीर्ष पर बैठा बेईमान।







सम्पर्क 


मोबाइल : 7903360047

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