विनोद दास का आलेख 'कला की आवाज़'

 

विनोद दास 


हर कला का स्वयं में अपना सामाजिक-राजनीतिक मूल्य और सरोकार होता है। कलाएं सूक्ष्म ढंग से अपने समय और समाज को प्रतिबिम्बित करती हैं। उसमें भी दृश्य कला मसलन चित्र कला का अलग ही महत्त्व है। कहा भी जाता है कि एक चित्र हजार शब्दों के बराबर होता है। चित्र देख कर ही हम सोचने विचारने के लिए विवश हो जाते हैं। कवि विनोद दास कला के पारखी भी रहे हैं। बकौल विनोद दास 'मैं कभी-कभार चित्रकला पर भी लिखता था। यह लेख बहुत पहले शायद 1985 के आस पास लिखा था। शायद वर्तमान साहित्य पत्रिका में छपा था।' आज विनोद दास के इसी आलेख को हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं। यह आलेख उनकी किताब 'सृजन का आलोक' ‌में संकलित है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विनोद दास का आलेख 'कला की आवाज़'।


'कला की आवाज़'



विनोद दास 



कुछ दिन पहले प्रख्यात चित्रकार तैयब मेहता से जब  करोड़ों में बिके उनके एक चित्र के बारे में एक पत्रकार ने उत्साह से पूछा तो उन्होंने काफ़ी झुंझला कर कहा कि मैं रुपयों के लिए चित्र नहीं बनाता। चित्रों की खरीद-फरोख्त और मुनाफ़ा आदि की चिंता मेरी नहीं, विक्रेताओं की है।



कला जगत में ऐसी घटनाएं आम हैं। इसका एक कारण यह है कि समकालीन कला परिदृश्य में ऐसे कला-आलोचकों की बड़ी कमी है जो कलाकृति को सामाजिक-राजनीतिक मूल्यों और सरोकारों के सम्बन्ध में विश्लेषित करते हुए परिभाषित करते हों। कला आलोचना की अनुपस्थिति का ही परिणाम है कि आज एक औसत दरज़े की कलाकृति कला दलालों के चलते लाखों-करोड़ों में बिकती है और एक अच्छी कलाकृति किसी दीवार पर दिखने के लिए ग्राहक को तरसती रहती है। 



लेकिन इसका दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण यह भी है कि एक ऐसा वर्ग है जो कला में स्वायत्तता के नाम पर कला को अपने समय और समाज से निरपेक्ष मानता है। दरअसल यह एक भ्रांत धारणा है कि कला अपने समय और समाज से निरपेक्ष होती है। कोई भी कला अपने समय और समाज से निरपेक्ष नहीं हो सकती। रूपंकर कला भी। इसमें अपने समय और समाज के मूल्य, संघर्ष, चिंताएं और सामाजिक  प्रवृतियां मौजूद होती हैं। अफ़सोस है कि इस दृष्टि से आधुनिक कला को देखने, जांचने-परखने का हमारे यहाँ रिवाज़ कम है। यह कहना कि कलाएं स्वायत्त होती हैं और उनका विचारों से कोई लेना-देना नहीं होता। किसी कलाकृति को सामाजिक कला मूल्यों के निकष पर जांचने की जहमत से छुट्टी दिलाना है और कला को अराजकता के कुएं में धकेल देना है। समकालीन कला में अराजकता और दिशाहीनता को जो रोना अक्सर गाया जाता है, उसके पीछे कहीं न कहीं ऐसी दृष्टि और सोच की भी बड़ी भूमिका है। 


राजा रवि वर्मा 



अंग्रेजों के शासन काल में साम्राज्यवादी शक्तियों के प्रतिरोध में राष्ट्र की आधुनिक अवधारणा को और अधिक बल मिला। यह अकारण नहीं है कि उन्नीसवीं शताब्दी के कला परिदृश्य में औपनिवेशिक ताकतों से संघर्ष के दौरान हमारे यहाँ राष्ट्र के आत्म गौरव को सबलता से रेखांकित किया गया। उन दिनों कला में आत्म गौरव ही सबसे बड़ा मूल्य था। इस दृष्टि से राजा रवि वर्मा और बंगाल स्कूल की कला दृष्टि और सरोकारों को तुलनात्मक रूप से देखना जरूरी है। राजा रवि वर्मा को आधुनिक चित्रकला का जनक माना जाता है। हम सब जानते हैं कि उन्होंने तंजौर ग्लास पेंटिंग के अध्ययन से अपने कला-कर्म की शुरुआत की। उनके पोट्रेट बनाने की कला तत्कालीन ब्रिटिश शासकों और अभिजात्य वर्गों की रुचियों के अनुकूल थी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए की वह पहले भारतीय चित्रकार थे जिन्होंने ब्रिटिश कलाकारों की तरह तैल माध्यम में चित्र बनाने की शुरुआत की। रवि वर्मा के चित्रों में राजकुमारियों-राजकुमारों, हिन्दू मिथकों और देवी-देवताओं की चित्रों की प्रचुरता थी। उनके चित्रों के चेहरे ज्यादातर भावहीन होते थे। राजा रवि वर्मा का चित्र चारपाई पर अधलेटी स्त्री अथवा चारपाई पर आराम करती हुई स्त्री का विश्लेषण करना उपयुक्त होगा। एक युवा स्त्री चारपाई पर अधलेटी है। वह गौर वर्ण की सुन्दरी मालकिन लगती है। वह सजी-संवरी गहनों से लदी है। उसके पीछे पंखा झलती हुई श्याम रंग की एक दासी है जिसका ऊपरी हिस्सा खुला और नंगा है। यहाँ राजा रवि वर्मा मुख्य रूप से उस स्त्री को फोकस में रखते हैं जो आभिजात्य वर्ग की है। यहाँ यह याद दिलाना अनुपयुक्त न होगा कि राजा रवि वर्मा को ब्रिटिश सरकार ने कई पदकों से सम्मानित किया था।


राजा रवि वर्मा की पेंटिंग अधलेटी स्त्री


इनके बरक्स अवनींद्र नाथ टैगोर की प्रारंभिक कृतियों में पहाड़ी और राजपूत मिनियचर की परम्परा का संयोग दिखायी देता है। शाहजहाँ के अंतिम दिन चित्र से उन्होंने भारतीय आधुनिक चित्रकला को एक ऐसी नयी दिशा दी जिसमें भावों की अभिव्यक्ति को अत्यधिक महत्त्व दिया गया। बंगाल स्कूल की कला का यह गुण रवि वर्मा के चित्रों में स्वल्प है। यही नहीं, अवनींद्र टैगोर ने राजा रवि वर्मा के यथार्थ के अनुकरण की प्रणाली को अस्वीकार किया और कला को व्यवसायिकता के दायरे से ऊपर उठा कर उसे एक सृजन कर्म के रूप में गरिमा प्रदान की। यहाँ उनके चित्र भारतमाता का स्मरण करना समीचीन होगा। इस चित्र में देशभक्ति और भारत में उन दिनों चल रहे स्वाधीनता की भावना का चित्र मिलता है। केसरिया रंग में वाटर कलर से भारतमाता के रूप में एक स्त्री को चित्रित किया गया है जिसके चार हाथ हैं। एक हाथ में माला, दूसरे में वस्त्र, तीसरे में पोथी और चौथे में अन्न की बालियाँ हैं जो परम्परागत देवी के हाथों में दर्शाये जाने वाले अस्त्रों-शस्त्रों से भिन्न है। इसमें भारत को अध्यात्म, वस्त्र, ज्ञान तथा अन्न से परिपूर्ण होने की कामना व्यक्त की गयी है। इस चित्र में रंगों का प्रयोग भारतीय दृष्टिकोण से किया गया है।


अवनींद्र नाथ टैगोर 


जहाँ तक कला शैली की बात है, आयरिश कैलीग्राफी, मिनियचर पेंटिंग और जापनी वाश टेकनीक से अवनींद्र टैगोर ने अपनी कला को आकार दिया था। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि उन्होंने बंगाल स्कूल की कला में लोक तत्त्व का प्रयोग किया। यहाँ यह बताना असंगत न होगा कि बंगाल स्कूल की कला जहाँ औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में सामने आयी, वहीं उसने भारतीय सौन्दर्य को प्राथमिकता दी और भारतीय पहचान बनाने के लिए कोशिश की। एंग्लो-यूरोपीय कला रूपों को जानने-समझने और सीखने के बजाय चीनी और जापानी कला शिल्पों में उन्होंने अधिक रूचि ली। यह अकारण नहीं था कि 1876-77 में अंग्रेजों ने 'गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ आर्ट एंड क्राफ्ट' की स्थापना कलकत्ता में की जिसका उद्देश्य औपनिवेशिक हितों और रुचि के अनुकूल की कला को पोषित करना था। यहाँ पश्चिम कला मूल्यों का प्रसार पर बल था जबकि बंगाल कला स्कूल के जरिये भारतीय और एशियाई मूल्यों पर बल दिया जा रहा था। नन्द लाल बोस, व्यंकटेश, असित हालदार, समरेन्द्र गुप्ता और के. मजूमदार ने उदासी और पीड़ा को अपने चित्रों में अभिव्यक्त किया। औपनिवेशिक कला सरंचनाओं से मुठभेड़ के लिए बंगाल स्कूल के कलाकार तरह-तरह के मुद्दों पर आपस में विचार-विमर्श भी करते थे। लेकिन नन्द लाल बोस इस आन्दोलन से उस समय दूर हो गये जब वह शान्तिनिकेतन आ गये। शान्तिनिकेतन प्रवास के दौरान उन पर रवीन्द्र नाथ टैगोर का गहरा प्रभाव पड़ा। वह अपने आसपास के सैरों-व्यक्तियों को यथार्थवादी दृष्टि से दर्शाने लगे।


नन्द लाल बोस


नन्द लाल बोस के लिए राष्ट्रीयता का अर्थ दैनिक जीवन के कार्य व्यापार को अपने चित्रों में व्यक्त करना था। इसका सर्वोत्कृष्ट रूप तब देखने को मिला जब उन्होंने राष्ट्रीय प्रेम भावना से भर कर लगातार तीन सालों तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पैविलियन की साज-सज्जा का काम ज़िम्मेदारी से निभाया। यहाँ की साज सज्जा में कालीकट की पटकला और उड़ीसा की लोक कला का उन्होंने प्रचुरता से प्रयोग किया। जैन मिनिएचर का कुछ प्रभाव भी इनमें था। आधुनिक भारतीय कला का यह एक गौरवपूर्ण प्रसंग है कि स्वाधीनता आन्दोलन में भारतीय कलाकारों ने अपनी भूमिका किस तरह निभाई।


यामिनी राय 


व्यक्तिनिष्ठ होने के बावजूद यामिनी राय ने लोक और आदिवासी कलाओं से प्रेरणा प्राप्त की। बंगाल स्कूल की तरह आँखों, हाथ-पांवों को उन्होंने लम्बोतर आकार में ही चित्रित नहीं किया बल्कि संथाल आदिवासियों की कला की तरह इकहरी रेखाओं और गहरे साफ़ रंगों का भी प्रयोग किया। कृष्ण-राधा, गोपियाँ और गाय ही नहीं, उन्होंने ईसाई मिथकों जैसे मैडोना आदि को भी अपने चित्रों में जगह दी। इनकी कला को 'मॉडर्न प्रिमिटिव्ज़' कहा गया। यामिनी राय का मानना था कि लोक कलाएं अजन्ता की भित्तियों तक सीमित नहीं हैं बल्कि यह एक जीवित सचाई है। यह लोककला के प्रति कोई प्रतिक्रियावादी या रोमेंटिक विचार नहीं था बल्कि यह एक कला भाषा सृजित करने का प्रयत्न था जिसे भारत की जनता समझ सकती थी। यामिनी राय सूती कपड़े का प्रयोग कैनवास के रूप में करते थे जिस पर मिट्टी और गोबर को मिला कर उस पर पहली सतह बनाते थे। फिर उस पर सफ़ेद रंग पोतते थे। वे प्रायः सात रंगों का प्रयोग करते थे। लाल, हरा, सिंदूरी, भूरा, नीला और सफ़ेद उनके प्रमुख रंग थे।।इन रंगों के लिए पत्थरों का चूरा, नील, खड़िया, ढिबरी से कालिख आदि का प्रयोग करते थे।


अमृता शेरगिल



बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में अमृता शेरगिल ने बंगाल स्कूल की पुनरुत्थानवादी प्रवृति की आलोचना की और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कला के आदान-प्रदान के पक्ष में खड़ी हुई। उनके पिता सिख थे और माँ हंगरी की थी। अमृता शेरगिल ने भारत के ग्रामीण जीवन को अपनी कला का विषय बनाया। इन्होंने बंगाल स्कूल की परम्परा को तोड़ कर सजीव मॉडलों को अपनाया। शेरगिल की कला में यूरोपीय और एशियाई कला मूल्यों का संगम दिखाई देता है। गोगां की कला से वह अत्यंत प्रभावित थीं। गोगां के रूपाकारों और रंगों के प्रति ही उनमें आकर्षण नहीं था, वह उनमें नये और पुराने कला रूपों के सामंजस्य को भी सराहती थीं। गोगां ने जिस तरह मार्टनिक और ताह्ती में अपनी निजता की तलाश की, उसी प्रकार अमृता शेरगिल ने अपनी कला में अपने देश और अपनी अस्मिता की खोज की। इन्होंने भारतीय जीवन के विभिन्न पक्षों को नयी तकनीक में चित्रित किया। उस दौर में कला परिदृश्य में चल रहे मिथकों के प्रयोग और रोमानी भाव-बोध से परे जा कर उन्होंने ऐसे समय में स्त्री रूपाकारों को तरजीह दी जब नारी मुक्ति आन्दोलन के बारे में कोई सोचता भी नहीं था। 'स्नान करती हुई स्त्री' नामक चित्र इसका अच्छा उदाहरण है। इनकी मानवाकृतियों की तिर्यक आँखें, उदास परिवेश, उभरी हुई भौंहें और चौड़े पाँव जैसी विशेषताएं गोगां से प्रभावित लगते हैं। इनकी कलाकृतियाँ में पर्वतीय पुरुष-महिलाएँ, तीन लड़कियाँ और बालिका वधू, ब्रह्मचारी, हल्दी पीसने वाले, केला बेचने वाली, दक्षिण भारतीय ग्रामवासी बाज़ार जाते हुए जैसे चित्र उल्लेखनीय हैं।



इसी बीच 1941 में 8 युवा चित्रकारों ने “कलकत्ता ग्रुप “की स्थापना की। शुभो टैगोर, गोपाल घोष, परितोष सेन, निरोध प्रबोध मजूमदार, पॉल कृष्णा पॉल, रायथिन मैत्रा के अलावा इस समूह में दो मूर्तिशिल्पी प्रदोष दास गुप्ता और कमल दास गुप्ता थे। इन कलाकारों का अभिमत था कि तात्कालिक सामाजिक चिंताओं और सरोकारों की अभिव्यक्ति के लिए दूसरे देशों की कला शैलियों को अपनाना अनुचित नहीं है। बंगाल स्कूल की चित्रकला के नास्टेल्जिक भाव-बोध से इन्होने दूरी बनायी।  पिकासो, मतीस, वॉन गॉग, ब्राक और ब्रान्कुसी के प्रभावों को इनकी कला में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस समूह के कलाकारों की अभिरुचि देवी-देवताओं, महाकाव्यों को इनकी कला में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इनका मानना था कि मनुष्य सर्वोत्कृष्ट है और उसके सौन्दर्य को आंकना ही महत्त्वपूर्ण है।



15 अगस्त 1947 को अंग्रेज़ी शासन से स्वतंत्र होने के साथ नए राष्ट्र के रूप में भारत के निर्माण की आधारशिला रखी गयी। इसी के साथ स्वतंत्र गणराज्य के तौर पर भारतीय संस्कृति के नये टेक्सचर बनने की शुरुआत हुई जिसमें समता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्म निरपेक्षता और न्याय जैसे मूल्य अंतर्ग्रंथित हैं। हालांकि इसकी पूर्वपीठिका आजादी के संघर्ष के दौरान साम्राज्यवादी शक्तियों के प्रतिरोध में राष्ट्रीय अस्मिता और स्वचेतना के भाव के रूप में पहले तैयार हो रही थी लेकिन इसका औपचारिक रूप संविधान के रूप में आया.आजादी के बाद आधुनिक चित्रकला परिदृश्य में तीन प्रवृतियां प्रमुख रूप से मौजूद थीं। 



कलाकारों का एक ऐसा वर्ग था जो पश्चिमी यथार्थवाद से प्रेरित था। दूसरे वर्ग  के चित्रकार ऐसे थे जो भारतीय और एशियाई परम्परा और स्त्रोतों से अपनी कला सामग्री जुटा रहे थे। तीसरे ऐसे कलाकार थे जो कला में नए-नए प्रयोगों को आजमाते हुए रचनात्मक जोखिम उठा रहे थे। लेकिन इन सभी की कोशिश जहाँ एक ओर स्थानीय पहचान को बनाये रखने की थी, वहीं, दूसरी ओर वैश्विक परिदृश्य में अपने प्रवेश और स्वीकृति को ले कर थी।


फ्रांसिस न्यूटन सूजा 



गोवा के साधारण परिवार में जन्में फ्रांसिस न्यूटन सूजा ने 1947 में “प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप” की स्थापना बम्बई में की। इस ग्रुप में मकबूल फ़िदा हुसैन, सैयद हैदर रज़ा सरीखे युवा कलाकार जुड़े थे। सूजा ने इस ग्रुप के मैनीफेस्टो में प्रोग्रेसिव शब्द को व्याख्यायित करते हुए लिखा था कि प्रोग्रेसिव का अर्थ है -आगे बढना। सूजा ने यह स्पष्ट किया था कि इस समूह के कलाकारों की दृष्टियाँ अलग-अलग हैं लेकिन इनका उद्देश्य अपने फॉर्म की तलाश करना है। सूजा कैथोलिक ईसाईं थे लेकिन उन्होंने अपने चित्रों में पादरियों के दिखावे और पाखंडों को उजागर किया। सूजा ने चर्च और उससे जुड़े पतनशील मूल्यों को ले कर अपनी चित्रकला में उसका क्रिटिक तैयार किया। उनकी मानवाकृतियों में जहाँ गरीबों की व्यथा कथा को नयी भाव मुद्राओं में व्यक्त किया गया है, वहीं इनमें शक्तिशाली और अमीरों की अमानवीयता को रेखांकित किया।


मकबूल फ़िदा हुसैन


मकबूल फ़िदा हुसैन ने अपने देश की परम्पराओं और स्रोतों को समकालीन समय से जोड़ कर उसे नये अर्थ दिए। उन्होंने अपने कैनवास में ग्रामीण सम्वेदना और भारतीय मिथकों को जगह दी। उनकी मानवाकृतियों में भारतीयता का स्पर्श था। हुसैन की कला में गाँव की लालटेन, घोड़े के मोटिफ प्रचुरता से मिलते हैं।


सैयद हैदर रज़ा



सैयद हैदर रज़ा इन दिनों पेरिस में रहते हैं। इनकी कला में राजस्थानी और पहाडी मिनिएचर की विशेषताएं देखने को मिलती हैं. इनकी पेंटिंग में लाल बिंदु ई खास प्रभाव पैदा करता है। लाल बिंदु सूर्य सरीखा शक्ति का प्रतीक दीखता है। इनके चित्रों की अमूर्तता में तन्त्र और ज्यामितीय आकारों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। यह उल्लेखनीय है कि इस समूह के ये तीनों चित्रकार भारत के अल्पसंख्यक समुदाय के थे। इसी समूह में कलाकार ए. एस. एच. के. आरा दलित थे। 



रामकुमार के चित्रों में सामाजिक व्यवस्था से उत्पन्न अकेलेपन और विषाद को दर्शाया गया है जो असमानता और निर्धनता से पैदा हुआ लगता है। इनके यह करुणा और समानुभूति है लेकिन भावुकता नहीं दिखती है। उनकी मानवाकृतियों के चेहरों में खुरदरापन और उनकी आँखों में भावहीनता परिलक्षित होती है। यही नहीं, उनके चित्रों में उदासी का आलम छाया रहता है। उनकी मानवाकृतियों के होंठों पर न तो कोई मुस्कान दिखती है और न ही उनके हाव-भाव में कोई प्रतिरोध का भाव दिखता है। इनके कुछ लैंडस्केपों में टूटी-फूटी दीवारें, छतें, अधखुली खिड़कियाँ और दरवाज़े, टेढ़ी-मेढ़ी गलियाँ एक ऐसा परिवेश रचते हैं जो मनुष्य के सपनों का खंडहर लगता है। रामकुमार के शुरुआती चित्रों में आकृतियाँ होती थीं। बाद में वह अमूर्तन की दिशा में मुड़ गये। आकृतिमूलक दौर में उनकी वाराणसी सीरीज काफी लोकप्रिय हुई। वाराणसी को कई रूपों में उन्होंने चित्रित किया। इन चित्रों में अंकित घाट, सीढ़ियाँ, गलियाँ और खिड़कियां एक ऐसा परिवेश रचते हैं कि वह लम्बे समय तक हमारी स्मृति में दर्ज़ रहता है।



समय के साथ विचार बदलते हैं और कला भी। 1947 में हुए विभाजन के बाद लाहौर के विस्थापित कलाकारों ने “दिल्ली शिल्पी चक्र” नामक एक समूह की स्थापना दिल्ली में की। इस समूह ने विस्थापन की पीड़ा और यातना को अपनी चित्र भाषा में व्यक्त किया। इन कलाकारों ने राष्ट्रीय शैली ईज़ाद करने के लिए स्थानीय शिल्प कलाओं से प्रेरणा ली। इस समूह में धनराज भगत, वी. सी. सान्याल आदि प्रमुख थे। इसी परम्परा का विकास के. जी. सुब्रह्मण्यम, सतीश गुजराल, शान्ति दवे आदि में दिखाई देता है।



यहाँ यह उल्लेख करना असंगत न होगा कि निजी क्षेत्र में पहली कला धूमीमल थी। इस गैलरी के कारण कलाकारों को कलाकर्म के लिए कुछ बुनियादी सुविधाएँ मिलीं। पांचवें तथा छठे दशक के दौर में बड़ौदा में कला गतिविधियों का केंद्र बना। 1957 में एम्. एस. विश्वविद्यालय में स्थापित ललित कला संकाय की स्थापना ने इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। 1950 से 1960 के दौरान सरकार द्वारा कला को संरक्षण देने की प्रक्रिया शुरू हुई। दिल्ली में ललित कला अकादमी और राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय की स्थापना हुई.हालाँकि ये संस्थान सरकारी विभागों की तर्ज़ पर काम करते हैं जिससे कला की रचनात्मकता पर इनका कोई गहरा असर नहीं देखने को मिला लेकिन कुछ अर्थों में इन्होंने कला को पोषित किया।



हंसा मेहता, एन. एस. बेन्द्रों, शंखों चौधरी तथा के. जी. सुब्रह्मण्यम का प्रभाव तत्कालीन कला परिदृश्य पर काफी समय तक छाया रहा। जयराम पटेल, जगदीश स्वामीनाथन, ज्योति भट्ट, हिम्मत शाह जैसे कुछ कलाकार छठे दशक में योरोपीय सौन्दर्य के बजाय इतालवी और स्पानी  सौन्दर्य के प्रति आकर्षित हुए। इन्होंने 1963 में “ग्रुप 1890“ नामक एक प्रदर्शनी आयोजित की जिसका कैटलाग जगदीश स्वामीनाथन ने लिखा और प्रख्यात कवि आक्तवियो पॉज़ ने उसका परिचय लिखा।


जगदीश स्वामीनाथन



आधुनिक दौर में स्त्री अस्मिता की पहचान और उनकी विडम्बनाओं को कई स्त्री चित्रकारों ने अपने कैनवास में रेखांकित किया है। अर्पिता सिंह, नलिनी मलानी, माधवी पारेख और नीलिमा शेख इनमें अग्रणी हैं। इनकी रचनात्मकता में स्त्री की दबी हुई भावनाएं और देह को ले कर कशमकश दिखता है। अर्पिता सिंह की 'शिशु हत्या' चित्र इस दृष्टि से विशेष रूप से उल्लेखनीय है। गोगी सरोज पॉल के चित्रों में स्त्री को उत्पीड़ित चरित्र के रूप में दिखाया गया है। उनके चित्रों में माँ अपने शिशु को सुरक्षित रखने की दृष्टि से अपने घेरे में रखती है।



कुछ चित्रकार रूपवादी भी हैं। जगदीश स्वामीनाथन उनमें एक रहे हैं। गुलाम मुहम्मद शेख की तरह वह कला के बारे में सोचने-समझने वाले कलाकार रहे हैं। इनके चित्रों में पहाड़,चिड़िया और पेड़ स्थायी भाव की तरह बार-बार  आते हैं। वह अपने कैनवास में स्पेस का अपूर्व उपयोग करते हैं और अपने चटख और तेज रंगों से प्रकृति से एक नया सम्वाद रचते दिखाई देते हैं। कुछ अन्य चित्रकारों के कार्य अपनी ओर ध्यान खींचते हैं। इनमें परेश मैती भी एक हैं। परेश मैती की एक पेंटिंग में माँ काली की तीन आँखें हैं। नीचे एक राक्षस ज़मीन पर गिरा हुआ है जिसकी ग्रीवा पर भाले की नोक टिकी हुई है। पंखा, शंख, कमल, सांप, हंसिया, कतार, ढोल, धनुष बाण हवा में तैर रहे हैं। यह चित्र मिथकीय है लेकिन इसका पूरा ट्रीटमेंट आधुनिक है। इस चित्र की पृष्ठभूमि लाल रंग में है। 


गणेश पाइन


गणेश पाइन बंगाल की वाश तकनीक से प्रभावित चित्रकार रहे हैं। इनके चित्रों में अँधेरा, मृत्यु और भी प्रबल रूप में आते हैं। आग, पंख और हड्डियाँ मोटिफ की तरह बार बार इनके यहाँ देखने को मिलते हैं। विकास भट्टाचार्य ने सत्तर के दशक में नक्सल सरीखे आन्दोलन के दौर की विडम्बना को अपनी गुड़िया सीरीज द्वारा व्यक्त किया। इनका मानना है कि मैं समाज से कट कर नहीं रह सकता। मैं अपने चित्रों के माध्यम से समाज से सवाल पूछता हूँ। उनके कैनवास में वेश्याएं भी हैं और भद्रलोक की सजी-धजी महिलाएं भी। कृष्ण खन्ना ने अपनी ट्रक सीरीज के चित्रों के माध्यम से श्रम के महत्त्व को प्रतिपादित किया। ट्रक पर लदे सामान और बोरों पर लेते मजदूरों की आकृतियों को इन्होंने  अत्यंत सम्वेदनशीलता से दर्ज़ किया है। इनके अलावा ए. रामचंद्रन, रामेश्वर बरूटा, अकबर पद्मसी, जहांगीर सबाबाला, लक्ष्मा गौड़, अंजलि इला मेनन जैसे अनेक कलाकार अपने निजी मुहावरों में काम करते हुए समकालीन कला परिदृश्य को समृद्ध कर रहे हैं और मनुष्य बोध को और अधिक विस्तृत ,ऐन्द्रिक और अर्थ पूर्ण बना रहे हैं। कहना न होगा कि भारतीय कला परिदृश्य काफी भरा-पूरा और रंगारंग है।




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