प्रचण्ड प्रवीर की कहानी बीस साल बाद'

 

जिन्दगी अपने आप में एक कहानी है। कुछ कुछ पूरी, कुछ कुछ अधूरी। स्मृतियों को रिवाइण्ड कर हम अतीत में बिताए पलों को न केवल याद करते हैं बल्कि उसे मानसिक तौर पर कुछ समय के लिए जी भी आते हैं। प्रचण्ड प्रवीर ने इसी क्रम में एक कहानी लिखी है 'बीस साल बाद'। कहानी अतीत की दो घटनाओं के हवाले से आगे बढ़ती है। दोनों घटनाओं के अलग अलग होने के बावजूद उनमें एक साम्यता यह है कि अन्त में दोनों में बेबसी दिखाई पड़ती है। यह निम्न मध्यम वर्ग की विडम्बना भी है। कुछ पाठकों को भले ही इस कहानी में कथा सूत्र खोजने में दिक्कत हो, लेकिन प्रवीर की यही शैली उन्हें अन्य रचनाकारों से अलग खड़ा करती है। उनके यहां पाठकों के सोचने विचारने के लिए बहुत कुछ होता है। कल की बात शृंखला के अन्तर्गत वे इस तरह की कहानियां लगातार लिख रहे हैं । इस कड़ी में यह 254 वीं कहानी है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रचण्ड प्रवीर की कहानी 'बीस साल बाद'।


कल की बात – २५४


'बीस साल बाद'


प्रचण्ड प्रवीर 



कल की बात है। जैसे ही मैंने मुद्दतों से बन्द पड़े सिनेमा हॉल के पास खस्ताहाल रेस्तराँ में पहुँचा, मनोज मेरा इंतज़ार करता हुआ नज़र आया। मुझे देख कर उसके चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ी। सुबह के ग्यारह बज रहे थे। मनोज इन दिनों हैदराबाद में रहता है और छुट्टियों में मेरी तरह शहर में आया हुआ है, वहीँ जहाँ उसका बचपन बीता था। आमने-सामने बैठ कर हम गिन ही रहे थे कि कितने साल बीत गए। मनोज के होठों से निकला- “बीस साल बाद।“ मैंने कहा, “बीस नहीं, शायद पच्चीस साल हो गए होंगे मिले हुए।“ मनोज ने फीकी हँसी हँसते हुए कहा, “बीस होता तो अच्छा रहता। हम लोग अंग्रेजी सीखने के लिए उन्नीसवीं सदी के अंग्रेजी नॉवेल पढ़ते हैं न, उसमें अधिकतर ऐसा होता है कि कोई वापस बीस साल बाद अपनी पुरानी जगह पर आता है और अपना अधूरा काम पूरा करता है जैसे कि बदला लेना या प्रेमिका से मिलना आदि-आदि।“




“शादी की बाद भी पुरानी प्रेमिका याद आ रही है? बता न!” मैंने मनोज को छेड़ा। वह कहीं खोया हुआ था। उसने कहना शुरु किया, “बीस साल पहले एक अजीब बात हुयी थी। आज की ही तारीख थी, साल और था। उन दिनों मैं कॉलेज में पढ़ता था। क़िस्मत कहूँ या बदक़िस्मती कि मेरी मुलाकात अनुपमा से हुयी थी। हम दोनों सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे थे। एक दिन क्लास के बाद वह एक अंग्रेजी उपन्यास में खोयी हुयी थी। तुम्हें तो पता ही है कि मैं हिन्दी माध्यम से पढ़ा, कितनी अंग्रेजी जानता। लेकिन उन दिनों जोश का जमाना था। मैंने बहुतेरे उपन्यास पढ़ रखे थे। भारी-भरकम शब्द और अर्थ रटे हुए थे। एक छोटी सी अंग्रेजी डिक्शनरी रट रख थी कि अंग्रेजी नहीं आने का कलंक मिटा सकूँ। बात इतने से चल जाती तो क्या बात थी। मुझे वाद-विवाद में अपनी जय प्राप्त करने में बहुत आनन्द आता था। अनुपमा को मैंने पहले भी एक-दो बार देखा था लेकिन कभी बात नहीं हुयी थी। उसके हाथों में आयन रैंड की ‘द फाउंटनहेड’ थी। यद्यपि मैं वामपंथी साहित्य को इतिहास के कूड़े से अधिक नहीं समझता, लेकिन आयन रैंड का व्यक्तिवादी दर्शन मुझे कम-ज़र्फ़ो और कम-अक्लों वाले के लिए ही सटीक जान पड़ता है। इस राय पर मैं आज भी कायम हूँ। मैंने ‘द फाउंटनहेड’ नहीं पढ़ी थी और अनुपमा को कभी ध्यान से नहीं देखा था। उसने अपने सुनहरे बालों को कानों के पास सँवारा और उसके कानों के बालियों में लगे बूँदे की चमक मेरी आँखों पर पड़ी। मैंने गौर से अनुपमा को देखा और देखता रह गया। वह इक्कीस की रही होगी। कमर तक सुनहरे लम्बे बाल थे। आँखों में नीलम था। नाक में हीरे की लौंग। दूध-सा कोमल नर्म बदन और गुलाबी होठ थे। कलाइयों में सोने के कंगन थे। माथे पर सुबह का सूरज था। गालों पर शामों की लाली थी। मैंने अपनी जिन्दगी में न उससे पहले इतनी सुन्दर लड़की देखी थी न आज तक फिर कभी देखी। जैसे भादो की रात में अचानक बिजली कड़कने से क्षण भर का उजाला झिझोंड़ देता है, वैसे ही उसके रूप ने मुझे तोड़ कर रख दिया। मैंने उससे बातें करने की कोशिश की और हिम्मत कर के पूछा, “यह किताब कैसी लग रही है आपको?” वह मेरी आवाज़ से चौंकी। मुझे देख कर आश्वस्त हुयी कि जैसे यही तो है, इससे डरने की क्या बात है। उसने कहा, “पढ़ रही हूँ। अच्छी है।“




मैंने कहा, “यह किताब साधारण लोग पर वाक पटुता की विजय से अधिक कुछ नहीं।“ उसने पूछा, “आपने पढ़ी है?” मैंने जवाब दिया, “नहीं। पढूँगा भी नहीं।“ उसने प्रतिवाद किया, “बिना पढ़े आप अपनी राय कैसे कायम कर सकते हैं?” मैंने बताया, “सुना है और इसके बारे में पढ़ा है। राय तो मेरी अपनी है। अगर जो सुना है और पढ़ा है वह गलत नहीं है तो राय बनाना कौन सी बड़ी बात है?” मैंने सोचा कि इसे बातों में हरा कर भी क्या मिलेगा? यहाँ तो मुझे हार जाना चाहिए। अब सोचता हूँ कि अनुपमा जीवन की तरह ही हार-जीत से परे थी।




मनोज अभी बातें बता ही रहा था कि संयोग से डॉक्टर विश्वमोहन वहाँ एक मित्र के साथ नज़र आए। हम दोनों उन्हें जानते थे इसलिए खड़े हो कर उनका अभिवादन करने लगे। डॉक्टर विश्वमोहन गाँव-कस्बे के होमियोपैथिक डॉक्टर थे, जो आम लोग से घुलते-मिलते रहने वाले थे। उन्होंने हमें देख कर कहा, “छुट्टियों में आये हो? क्या बातें हो रही थी?” मैंने कहा, “ऐसी ही बीस साल पुरानी बात याद कर रहे थे। आज कल आप कहाँ प्रैक्टिस करते हैं? गाँव में या यहीं?”
            


डॉक्टर विश्वमोहन ने हमें बैठने का इशारा करते हुए कहा, “गाँव छोड़े बीस साल हो गए। अब यहीं काम-धँधा है।“ मनोज ने पूछा, “गाँव क्यों छोड़ दिया? पैसे की समस्या?” डॉक्टर विश्वमोहन ना में सिर हिला कर बगल की कुर्सी पर बैठ गए। और कहने लगे, “बीस साल पहले एक अजीब बात हुयी थी। आज की ही तारीख थी, साल और था। उन दिनों मैं गाँव में एक बूढ़ी औरत के एक्जिमा का इलाज़ कर रहा था। महीने भर के इलाज के बाद वह औरत अपने बेटे के साथ आयी थी और बता रही थी कि बहुत राहत मिली। उसका बेटा जवाहर कहने लगा – ‘आप के बदौलत यहाँ के लोग की जिन्दगी चल रही है। आप हमें छोड़ कर नहीं जाइएगा।‘ पूरे गाँव में डॉक्टर के नाम पर मैं अकेला होमियोपैथिक डॉक्टर था। शहर के कुछ डॉक्टर के साथ काम कर के मैंने पानी चढाना और साधारण काम सीख लिए थे। अभी बात हो ही रही थी कि मेरी झोपड़ी वाली क्लिनिक में एक घायल को लादे हुए एक दाढी-मूँछ वाला आदमी घुस आया। उसे देखते ही जवाहर एकदम से तन कर खड़ा हो गया और पूछा, “क्या हुआ आनन्दी भैया?” आनन्दी बोला, “मेरे छोटे भाई को रेलवे पुलिस ने टाँग में गोली मार दी है।“ कह कर वह चुप हो गया और मेरी तरफ़ लाल आँखों से देखने लगा। जवाहर ने पूछा, “आनन्दी भैया, अपना डॉक्टर डिब्बा कहा हैं?” आनन्दी ने कहा कि डिब्बा किसी काम से दो दिन के लिए पटना गया हुआ है। डॉक्टर डिब्बा एक झोलाछाप स्वास्थ्य कर्मी था जो गोली निकालने का, मरमह-पट्टी वाला काम करता था। गोली निकालने का काम मैं नहीं करता था। मैं समझ गया कि आनन्दी वही कुख्यात डकैत है जिसे अदब से बात करना भी नहीं आता। जवाहर ने मेरे बहुत हाथ-पाँव जोड़े। मैंने उसे महुआ का सबसे बेहतरीन दारू लाने को कहा। मरीज को मैंने दारू पिलाया और जब उसे नशा चढ़ गया तब मैंने टाँग पर भी दारू उढेली और चाकू घोंप कर के गोली निकाल डाली।“

                






मनोज ने पूछा, “फिर क्या हुआ? इससे गाँव छोड़ने का क्या सम्बन्ध?” डॉक्टर विश्वमोहन ने कहा, “आनन्दी और उसके भाई के जाने के बाद जवाहर ने मुझसे अकेले में कहा कि अब आप यहाँ मत आइए। यह इलाका छोड़ दीजिए। कभी काम पड़े तो दिन में आइए और शाम होने से पहले निकल लीजिए वरना रात को कुछ भी हो सकता है। बॉस की नज़र में आप खटक चुके हैं।“ 




मैंने हैरानी जतायी, “आपने उसके भाई की गोली निकाली और तब भी आनन्दी ने आपको गाँव छोड़ देने के लिए कहा?” डॉक्टर विश्वमोहन ने कहा, “यह हम नहीं कह सकते कि उसने मुझे गाँव छोड़ने को कहा या उसका इरादा मुझे गोली मारने का हो गया था। संयोग से आज से ठीक बीस साल पहले उसी रात में पुलिस ने मेरी झोपड़ी वाली क्लिनिक के सामने आनन्दी का इनकाउण्टर कर दिया। उसी रात मुझे अपेन्डिक्स का तेज दर्द उठा और मैं पूरे तीन महीने बिस्तर पर पड़ा रहा। चौथे महीने आपरेशन के बाद मैंने क्लिनिक को हमेशा के लिए बन्द कर दिया और यहाँ शहर आ गया। गाँव वालों को कह दिया कि चार किलोमीटर बहुत नहीं होते। आ जाया करना।“




कोल्ड ड्रिंक का बिल चुका कर हम दोनों बाहर निकले। मैंने मनोज से पूछा, “अरे अनुपमा वाली बात तो अधूरी रह गयी थी। क्या हुआ आगे?” मनोज ने बहुत बहाना बनाया कि वह आगे नहीं बताना चाहता है। पर मैंने जिद पकड़ ली। उसने थक-हार कर कहा, “बीस साल पहले के उस तीसरे पहर में मैंने बहुत सी बातें की। अनुपमा की आँखों में मेरे लिए प्रशंसा और सराहना दिखने लगे। तभी मुझे लगा कि यह क्या हो रहा है? इतनी सुन्दर लड़की मुझ अकिंचन से जुड़ेगी भी तो कैसे? यह तो लक्ष्मी है और मैं दरिद्र। वह ऐश्वर्य से भरी-पूरी और मैं रंग-रूप-धन-यश हर तरह से निर्धन। इस मृग मरीचिका से मिलेगा क्या? यह रास्ता दु:ख ही देगा और कुछ नहीं। यह सोच कर मैंने अनुपमा से कहा, “मैं आपके विवाह में मेहमान बन कर शामिल होना चाहता हूँ।“ यह सुनते ही उसका चाँद-सा चमकता चेहरा फक्क से बुझ गया। उसने अपनी किताब मोड़ी और कोमल हथेलियों से बैग में रख लिया। हमारी डेढ़-घण्टे की यादगार बातचीत इस वाक्य से खत्म हुयी- “मेहमान...! आप मेहमान बन कर क्या करेंगे? हो सकता है लोग की भीड़ में आप मुझसे मिलने आये तो मैं आपको पहचानूँगी भी नहीं।“




मनोज की आँखे भर आयी और उसने तपती दोपहर में अपने चेहरे को रूमाल से ढँक लिया। मैंने बात बदलते हुए उससे घर वापस लौटने की इजाजत माँगी। दो मिनट तक हम इधर-उधर की बात करते रहे। मैंने बिछुड़ने से पहले आखिरी सवाल किया, “अनुपमा से फिर कभी मिलना हुआ?” मनोज एकदम चुप हो गया जैसे उसने कुछ सुना ही नहीं। मैंने फिर नहीं पूछा। मुझे जवाब मिल गया था।



            मेरा गीत मेरे दिल की पुकार है १

            जहाँ मैं हूँ वहीं तेरा प्यार है

            मेरा दिल है तेरी महफ़िल

            ज़रा देख ले आ कर परवाने

            तेरी कौन सी है मंज़िल

            कहीं दीप जले कहीं दिल


             ये थी कल की बात !

          

दिनांक : १८/०६/२०२४





संदर्भ



१.       गीत-  शकील बदायूँनी, चित्रपट – बीस साल बाद (१९६२)






(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग कवि विजेन्द्र जी की है।)




टिप्पणियाँ

  1. कुछ कहानियां जीवन में इस तरह की भी घटती हैं। अच्छी कहानी है।

    विनीता बाडमेरा
    अजमेर, राजस्थान

    जवाब देंहटाएं
  2. कहानी अच्छी है, पात्र दिलचस्प हैं, और लेखन शैली प्रभावशाली है।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत अच्छी कहन शैली!
    "ये थी कल की बात!" और इसमें कितनी कितनी बात ..

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'