अनुपम परिहार की कहानी 'बागड़बिल्ला'

 

अनुपम परिहार 


मानव जीवन में रिश्तों की प्रमुख भूमिका रहती आई है। लेकिन जैसे जैसे भौतिकवाद का विकास हुआ सम्पत्ति की अहमियत बढ़ने लगी और रिश्ते नाते इस सम्पत्ति के इर्द गिर्द निर्धारित होने लगे। इसने मानवीय मूल्यों को भी दुष्प्रभावित किया है। अनुपम परिहार प्रतिष्ठित पत्रिका सरस्वती के संपादन से जुड़े हैं और बेहतर कवि हैं। आजकल कहानी लेखन की तरफ मुड़े हुए हैं। अपनी इस पहली कहानी में अनुपम ने जटिल मानवीय सम्बन्धों की पड़ताल करने की सफल कोशिश की है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अनुपम परिहार की कहानी 'बागड़बिल्ला'।


'बागड़बिल्ला'


अनुपम परिहार 

  

उसका असली नाम प्रचंड प्रताप सिंह था, लेकिन गाँव में उसकी उद्दंडता और अलग व्यवहार के कारण लोग उसे बागड़बिल्ला कब कहने लगे, यह उसे भी पता नहीं चला। जल्दी ही लोग उसका असली नाम भूल गए और वह बागड़बिल्ला नाम से ही जाना जाने लगा था। वह अनाथ था। उसके माता-पिता दोनों कब और कैसे मरे, यह बात किसी को भी पता नहीं थी। उसके पास 10-12 बीघा जमीन थी; जिसकी बदौलत उसे खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। उसकी मानसिक स्थिति कुछ ठीक नहीं थी, जिसके कारण लोग उसे पागल समझते थे और  इसीलिए किसी ने अपनी बेटी का हाथ उसके हाथ में नहीं दिया। अविवाहित  रह कर ही उसने अपनी जिंदगी काटी, और एक दिन किसी बीमारी के कारण वह इस संसार से चल बसा। पास पड़ोस की औरतों ने झूठ मूठ का रोना धोना किया तथा गाँव के कुछ सभ्य लोगों ने उसका अंतिम क्रिया-कर्म किया। भला शुद्धि और तेरही का खर्च कौन उठाता? उसकी शुद्धि और तेरही नहीं हुई और शायद इसीलिए बागड़बिल्ला की आत्मा अशांत ही रही।



बागड़बिल्ला की मृत्यु के बाद ही उसकी ज़मीन पर गाँव के होशियार लोगों की गिद्ध दृष्टि लगी थी। कोई उसे अपना भांजा बताता, तो कोई उसे भतीजा सिद्ध करने की कोशिश करता।


 

गाँव के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति ठाकुर जयकीर्ति सिंह की निगाह भी इस संपत्ति पर गड़ी थी। उन्होंने भी यह आधार बना कर एक मुकदमा दायर किया कि बागड़बिल्ला उनका भांजा है। इस दीवानी मुकदमे ने तीन पीढ़ियों तक खिंचाई की, तारीख- पर- तारीख मिलती गई और ठाकुर जयकीर्ति सिंह ने 20-25 वर्षों तक कोर्ट के चक्कर लगाए। उनकी उम्र अब अस्सी पार कर गई थी।  वृद्धावस्था शरीर की गति ही मंद नहीं करती वह हौसला भी पस्त कर देती है। आखिरकार ऊब कर उन्होंने मुकदमा छोड़ दिया।



जयकीर्ति सिंह के थे तो तीन बेटे लेकिन सबसे छोटा 20-21 वर्ष की अवस्था में ही इस संसार से विदा हो गया था। बड़ा बेटा परमार्थदेव  सिंह हमेशा आर्थिक तंगी में रहता था। उसने अपनी छोटी-सी नौकरी में बहनों की शादी की, घर परिवार का भरण-पोषण किया और सामाजिक समारोह व नेवता-हकारी में भी खूब रुपये व्यय किये। यही सामाजिक विधान था।  इससे भला कैसे भाग सकता था?

  


मझला बेटा स्वार्थदेव सिंह बाहर से देखने में जितना भला, सज्जन, शिक्षित और उच्च विचारों वाला लगता था अंदर से वह उतना ही कुटिल, कपटी और धूर्त था। उसका गोर-भभक चेहरा, जिस पर हमेशा मुस्कान बिखरी रहती थी, सहज ही किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकता था। वह अपनी ऊंची नौकरी के सिलसिले में ज़्यादातर बाहर ही रहता था और अपने परिवार के साथ सुखमय जीवन बिताता था। उसने कभी अपने माता-पिता की कोई सेवा-टहल नहीं की, उसकी निगाह में यह काम बड़े भैया व उनके बच्चों का था। इस पर उसका निजी तर्क यह रहता था कि घर की पूरी ज़मीन तो भैया ही जोत-बो रहे हैं और धान-चाऊर-गेहूं आदि बेच कर मालामाल हो रहे हैं। जबकि बात उसके सोच के उलट थी। ज़मीन खुद कुछ भी पैदा नहीं करती। उसमें मेहनत-मज़दूरी, खाद-पानी, दवा-कीटनाशक सब झोंकना पड़ता है, तब जा कर घर में चार दाने आते हैं। मेड़ की निगरानी भी एक बड़ी समस्या है। थोड़ा भी निगरानी से चूके तो बगल वाला मेड़ कब काट कर उसे अपने खेत मे मिला लेगा, यह भगवान को भी पता नहीं चलता। फिर दौड़-भाग करते रहो कोर्ट-कचहरी और तहसील का। लेखपाल से नकल निकलवाने में ही नानी की नानी याद आ जाती है। लेकिन यह बात भला वह क्यों सोचता? घर-परिवार से उसे कोई मतलब नहीं था। उसके बच्चे व पत्नी ही उसका संसार थे।

   




ठाकुर जयकीर्ति सिंह अपने मझले पुत्र को खूब अच्छी तरह जानते-समझते थे। उन्हें उससे कोई उम्मीद भी नहीं थी। उन्होंने अपने बड़े बेटे से कहा था कि ''मैं अपनी पुश्तैनी ज़मीन का बैनामा तुम्हें करना चाहता हूँ, तुम उसे करा लो" लेकिन परमार्थदेव सिंह ने पिता से कहा कि ' यह असंभव है, वह मेरा छोटा भाई है, मैं उसके साथ नाइंसाफी नहीं करूंगा। बंटवारा जब भी होगा, आधा आधा होगा'.



इधर ठाकुर जयकीर्ति सिंह को विरोधियों से यह सुनने को मिला कि बागड़बिल्ला की पूरी ज़मीन वे लोग हड़प लिए और गाँव में  कोई उनका बाल भी बांका नहीं कर सका। यहाँ तक कि ठाकुर जयकीर्ति सिंह भी पीठ दिखा कर भाग खड़े हुए। 

  


जब यह बात परमार्थदेव सिंह के कान तक पहुंची तो उन्होंने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। उन्होंने अपने पिता जयकीर्ति सिंह से इस पर चर्चा की और मुक़दमें को पुनः शुरू करने का निश्चय किया। पिता की असहमति के बावजूद उन्होंने पुनः मुक़दमा शुरू किया।

   


स्वार्थदेव सिंह जब कभी-कभार गर्मी की छुट्टियों में घर आते, तो परमार्थ सिंह उन्हें बहुत आदर और प्रेम से रखते। उनके खाने-पीने और नहाने तक का इंतजाम खुद करते थे। उन्हें कोई तक़लीफ़ न होने पाए इसका स्वयं व उनके बच्चे बहुत ध्यान रखते थे। दोनों भाइयों के इस पारस्परिक प्रेम को देख कर पड़ोसी जलते और मन-ही-मन कुढ़ते थे ।



जब स्वार्थदेव सिंह को यह पता चला कि बड़े भैया ने बागड़बिल्ला वाला मुक़दमा फिर शुरू कर दिया है, तो उन्होंने अपनी माँ व बहनों से  यह कहना शुरू किया कि  "मेरा मानना है कि हमें वह ज़मीन नहीं लेनी चाहिए। आख़िर हमारे पास कमी ही क्या है? जिन-जिन लोगों ने उसकी ज़मीन पर नज़र गड़ाई, उनकी संताने पागल हुईं या असमय काल के गाल में समा गईं क्योंकि बागड़बिल्ला एक पागल आदमी था। उसकी ज़मीन शापित है। यदि भैया मुक़दमा जीत भी जाते हैं तो मैं उसमें से एक भी धूर नहीं लूँगा।"



मझले भाई की बात से परमार्थदेव सिंह भी कहीं-न-कहीं सहमत थे। क्योंकि उनके छोटे वाले भाई की मृत्यु ब्रेन ट्यूमर से ही हुई थी। उसका चेहरा आज तक परमार्थदेव नहीं भूले थे। यह छोटा भाई उनकी आंख की पुतली था। लेकिन भाग्य को कौन टार सकता है? उन्होंने यह संतोष कर लिया कि वह इतने दिनों के लिए ही आया था। लेकिन मुक़दमा न लड़ना विरोधियों के पीठ दिखाना था। उन्हें पीठ दिखाना बिल्कुल मंज़ूर नहीं था। आख़िर बात पिता की प्रतिष्ठा से जुड़ी थी!

  


परमार्थदेव सिंह ने मुक़दमे की जम कर पैरवी की, उन्होंने  रात-दिन एक कर दिया। वकीलों की चांदी हो गई। वकील हमेशा उन्हें आश्वत करते कि मुक़दमा अगली तारीख़ पर उसके हक़ में होगा। वकीलों के आश्वासन उन्हें मज़बूत करते और उनकी ज़ेब वकीलों की ज़ेबों को मज़बूत करती।

 




आखिर मुक़दमा लड़ते-लड़ते वह रिटायर भी हो गए, लेकिन मुक़दमा निस्तारित होने का नाम नहीं ले रहा था। 30-35 वषों के बाद उनके जीवन के अंतिम पड़ाव में मुक़दमे का निर्णय उनके पक्ष में आया। परमार्थदेव सिंह की खुशी का ठिकाना नहीं था। उनकी पत्नी दौड़ कर चौरा माई को लड्डू चढ़ा आईं और गाँव भर में प्रसाद बटवाने के बहाने यह संदेश भेज रहीं थीं कि वह मुक़दमा जीत गईं हैं। प्रसाद विरोधियों के घर भी  भेजा गया था।  यह प्रसाद  नहीं, उनके मुँह पर चांटा था। विरोधियों के मुँह उतर गए थे। परमार्थदेव सिंह अपने दिवंगत माता-पिता को याद कर सिहर उठे और मन-ही-मन सोचने लगे कि काश वह ज़िंदा होते और  मेरी मेहनत का फल देख पाते।



लेकिन मुक़दमे का निर्णय अपने पक्ष में होने से वह बहुत खुश थे। कुल मिला कर एक-डेढ़ करोड़ की संपत्ति हाथ लग गई थी।

    


माया बुढ़ापे में ज़्यादा उपद्रवी हो जाती है। स्वार्थदेव सिंह को जब मुक़दमे की जीत की सूचना मिली, तो उनकी लार टपकने लगी।  वह 70-75 लाख एक मुश्त कभी देखे नहीं थे। कल्पना में डूब कर वह सोचने लगे कि ज़मीन कब उनके नाम आए और उसे बेच कर रुपया अपने खाते में रख लें। वह अंदर-ही-अंदर भाई से ईर्ष्या करने लगे। लाखों का बैंक बैलेंस, शेयर, ऊँची पेंशन इत्यादि सब कुछ था उनके पास, लेकिन मुफ्त की लक्ष्मी को कौन ठोकर मारता है? उनका कुटिल मन उन्हीं के आदर्शों को धता बताने लगा था। मन-मस्तिष्क तर्क-वितर्क कर रहे थे। आख़िर माया बुद्धि के सीने पर आलथी-पालथी मार कर बैठ गई। वह बंटवारे की बात सोचने लगे।


  

परमार्थदेव सिंह को उन्होंने बड़ी चालाकी से ख़बर दिला दी कि वह  बागड़बिल्ला वाली ज़मीन का हिस्सा नहीं छोड़ेंगे और आधी ज़मीन ले कर रहेंगे।

  


परमार्थदेव को अपने भाई से यह उम्मीद नहीं थी। वह हँसी-खुशी से अपने मझले भाई को पुश्तैनी ज़मीन देने पर बिल्कुल राजी थे। लेकिन जिस बाड़गबिल्ला की ज़मीन के लिए उन्होंने आकाश-पाताल एक करके उसे मुक़दमे में जीत कर लाये थे, भला वह उसे कैसे देते? उन्हें रातों में नींद न आती। अपने से ही बोलते-बतियायते। मन बड़ा खिन्न रहता। यह ऐसी पीड़ा थी, जिसे पड़ोसियों से भी बांटा नहीं जा सकता था। उनकी रातें करवटें बदल कर कटतीं। आख़िर यह दुःख वह कहते भी किससे? पत्नी को वह हमेशा गंवार व मूर्ख ही समझते रहे। उनकी निगाह में वह आज भी गंवार ही थीं। उनसे बात करने का प्रश्न ही नहीं उठता था। वह इस वेदना को मन-ही-मन में दबाए रहते और कुढ़ते।

  


अंततः 8 माह की लंबी प्रतीक्षा के बाद उन्होंने एक बेहद कड़ा  और अंतिम निर्णय लिया कि वह भाई से सभी संबंध समाप्त कर लेंगे और उसकी आधी ज़मीन उसे दे देंगे। उन्होंने ऐसा ही किया।



वह वकीलों व बहनों से अपने परिश्रम और मुक़दमे के खर्च की बात भाई तक पहुँचवाते, लेकिन निर्लज्ज स्वार्थदेव पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। उसकी निगाह में संबंधों का कोई मूल्य नहीं रह गया था।  राजा हरिश्चंद्र और न्यायप्रियता आदि  की कहानियाँ उसे बकवास लगती थीं। वकील जब उससे मुक़दमे पर ख़र्च आदि की बात करते तो वह मौन हो जाता। उस समय उसके चेहरे पर एक विशेष प्रकार की शांति आ जाती थी। चेहरे की अधिक शांति पापी मन को शांत करने का बलात यत्न है। स्वार्थदेव सिंह ने भी बड़े भाई से अपने सभी रिश्ते तोड़ लिए। बोलचाल तो पहले से ही बंद थी। यहां तक कि एक दूसरे के घर भी आना जाना बंद हो गया। अंततः उन्होंने मुफ़्त की आधी ज़मीन हथिया लिया था। दोनों के बाल-बच्चे स्वस्थ ही रहे, कोई पागल-धागल नहीं हुआ।



परमार्थदेव व स्वार्थदेव को व्यक्तिगत रूप से रुपयों-पैसों की कोई ज़रूरत नहीं थी। वह सुखी व सम्पन्न थे। दोनों की संतानें सुखी व समृद्ध थीं। लेकिन दोनों के अंदर की बैठी कैकेई केश खोले तांडव कर रही थी। दोनों अपनी-अपनी संतानों के लिए, अपने मधुर रिश्ते को खो चुके थे। दोनों की सन्तानें ज़रूर खुश थीं.........। आखिर पिता ने घर बैठे ही उनके लिए एक अच्छी-खासी रक़म का इंतजाम जो कर दिया था।



*बागड़बिल्ला  की आत्मा यह बड़ी बलि लेकर अब शांत हो चुकी थी।*



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)


 

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