शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'
शैलेश मटियानी |
इलाहाबाद के कहानीकारों में शैलेश मटियानी का
नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। कहानी लेखन के साथ-साथ मटियानी जी ने ‘विकल्प’
नामक साहित्यिक पत्रिका भी निकाली जिसने साहित्यिक पत्रकारिता में अहम् भूमिका
निभाई। आज 24 अप्रैल को मटियानी जी की पुण्य तिथि है। इस मौके पर उन्हें नमन करते
हुए हम पहली बार पर पढ़ते हैं प्रख्यात विज्ञानं कथा लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी का यह रोचक
संस्मरण। ज्ञातव्य है कि देवेन्द्र जी को कुछ समय के लिए मटियानी जी का सुखद साहचर्य प्राप्त हुआ था।
पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी
देवेन्द्र मेवाड़ी
सन् साठ के दशक के अंतिम वर्ष थे। एम.एस-सी.
करते ही दिल्ली के भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में नौकरी लग गई। आम बोलचाल में
यह पूसा इंस्टिट्यूट कहलाता है। इंस्टिट्यूट में आकर मक्का की फसल पर शोध कार्य
में जुट गया। मन में कहानीकार बनने का सपना था। ‘कहानी’, ‘माध्यम’ और ‘उत्कर्ष’ जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं में मेरी कहानियां छपने लगी थीं। समय मिलते
ही कनाट प्लेस जा कर टी-हाउस और काफी-हाउस में जा कर चुपचाप लेखक बिरादरी में
बैठने लगा था। पूसा इंस्टिट्यूट के भीतर ही किराए के एक कमरे में अपने साथी के साथ
रहता था। कभी-कभी इलाहाबाद से प्रसिद्ध लेखक शैलेश मटियानी जी आ जाते थे। हमारे
लिए वे जीवन संघर्ष के प्रतीक थे। उनके पास टीन का एक बड़ा और मजबूत बक्सा होता था।
जब पहली बार आए तो कहने लगे, “यह केवल बक्सा नहीं है देबेन, इसमें मेरी पूरी गृहस्थी और कार्यालय है। वे मुझे देबेन कहते थे।
लत्ते-कपड़े, किताबें, पत्रिका की प्रतियां, लोटा, गिलास, लिखने के लिए पेन, पेंसिल, कागज, चादर, तौलिया, साबुन, तेल, शेविंग का सामान, कंघा, सब कुछ।” कमरे में आ कर उन्होंने एक ओर दीवाल से सटा कर बक्सा रखा और बोले, “दरी
है तुम्हारे पास?”
मैंने दरी निकाल कर दी। उन्होंने फर्श पर बीच
में दरी बिछाई और बोले, “मैं
जमीन का आदमी हूँ। जमीन पर ही आराम मिलता है। इन फोल्डिंग चारपाइयों पर तो मैं सो
भी नहीं सकता।” कमरे में इधर-उधर मेरी और मेरे साथी कैलाश पंत की फोल्डिंग चारपाइयां
थीं। उन्होंने बक्सा खोला। उसमें से ब्रुश और पेस्ट निकाल कर बु्रश किया। हाथ-मुँह
धोया। मेरे पास पंप करके जलने वाला कैरोसीन का पीतल का स्टोव और पैन था। उसमें चाय
बनाई। चाय पीते-पीते बोले, “बंबई
जाना है। सोचा, दो-चार दिन तुम्हारे पास रुकता चलूं। यहाँ भी लोगों से मिल लूँगा।”
वे जितनी देर कमरे में रहते, किस्से सुनाते रहते। इलाहाबाद के, बंबई के, अपने जीवन के, तमाम किस्से। सुबह जल्दी निकल जाते और लहीम-शहीम शरीर ले कर दिन भर
पैदल और बसों-रिक्शों में यहाँ-वहाँ साहित्यकारों, मित्रों से मिलते, अपनी साहित्यिक पत्रिका ‘विकल्प’ के लिए विज्ञापन जुटाते। इस भाग-दौड़ के बाद थकान से चूर हो कर शाम को
लौटते। मुझसे बहुत स्नेह रखते थे। एक दिन थके-थकाए लौटे तो दरी में लेट कर बोले, “देबेन, तू मेरा छोटा भाई है। मेरे पैरों में
खड़ा हो कर चल सकता है?”
मैं और मेरा साथी सुन कर चौंके। उस दिन शायद
पैदल बहुत चल चुके थे। मैंने सकपका कर कहा, “इतने बड़े लेखक के शरीर पर मैं पैर रख
कर कैसे खड़ा हो सकता हूँ?”
“अरे, तुम मेरे छोटे भाई हो। बड़े भाई के पैरों में पीड़ा हो रही है। समझ लो
डाक्टर हो, इलाज कर रहे हो। अच्छा चलो, तुम मेरे पैरों में चलते रहो, मैं तुम्हें उस फिल्म की कहानी
सुनाऊंगा जिसके प्रोड्यूसर ने मुझे कहानी के लिए एडवांस भी दे दिया था, कुछ हजार रूपए।”
मैं बहुत झिझकते हुए उनके पैरों पर खड़ा हुआ तो
बोले, “पैरों
को दबाते रहो,” और उन्होंने कहानी शुरू की। कहने लगे, “फिल्म की वह कहानी मैंने अपने उपन्यास ‘हौलदार’ और ‘चिट्ठी रसैन’ को मिला कर लिखनी थी।”
“लिखनी
थी माने लिखी नहीं?” मैंने पूछा।
“कहाँ, बस भाग-दौड़ में ही रहा। फिर बंबई छोड़
कर इलाहाबाद आ गया। कोई बात नहीं, प्रोड्यूसर की रूचि होगी तो अब भी लिख दूँगा।”...
“अच्छा
तो सुनो, फिल्म कैसे शुरू होती है। पर्दे पर
किसी फौजी के पैर और चमड़े के बूट चलते हुए दिखाई देते हैं, पहाड़ी पथरीली सड़क पर। घसड़क.... घसड़क...
घसड़क.....एक धार (छोटी पहाड़ी) में आ कर पैर थमते हैं। केवल धूल से सने बूट दिखाई
दे रहे हैं.....हाँ देवेन, ऊपर पीठ से हो कर गर्दन तक चलो। चलते रहो, शाबास।”
“तो
फिर क्या होता है?”
“फिर
कैमरा धीरे-धीरे ऊपर उठता है। फौजी की वर्दी और साइड फेस से होता हुआ कैमरा सामने
रुकता है। वहाँ कांसे का एक बड़ा भारी घंटा लटक रहा है, दो मजबूत खम्भों पर। कैमरा घंटे का क्लोज-अप दिखाता है। उस पर उकेर
कर लिखा गया है - यह घंटा बाड़ेछीना के ठाकुर खड़क सिंह वल्द गुमान सिंह ने अपने
बेटे सूबेदार हयात सिंह के नाम पर इस मंदिर को भेंट किया।....और, इसके साथ ही फौजी का मजबूत गठीला हाथ आगे बढ़ता है, घंटे के राले को पकड़ कर जोर से टकराता है - टन्न्न्!.... हाँ, कंधों पर चलते रहो।”
“उसके
बाद कैमरा घूमता है। मंदिर में लटकी सैकड़ों छोटी-छोटी घंटियां और विभिन्न आकार के
घंटे दिखाता है। फिर चीड़ के पेड़ों से होकर नीचे नदी किनारे के चौरस खेतों में पहुँच
जाता है।”
“यहाँ
फिल्म में हीरोइन गोपुली का प्रवेश होता है। वह अपनी तमाम सहेलियों के साथ मंडुवा
(रागी) की पकी हुई फसल के खेतों में खड़ी है। बगल में मादिरा (ज्वार) की फसल पक कर
तैयार है। पृष्ठभूमि से पहाड़ी संगीत उभरता है। हीरोइन और उसकी सहेलियों के हाथ में
दरातियां हैं। वे इस तरह हवा में हाथ उठा कर...”
कंधों में तो मैं पैर रख कर खड़ा था। हाथ कैसे
उठाते? हाथ नहीं उठे तो बोले, “अच्छा अब पैरों पर चलो।” तब उन्होंने दाहिना हाथ उठा कर कहा- इस तरह हवा में दराती के साथ हाथ
उठा कर वे गाती हैं....
ओ ओ ओ, आ आ
आ!
मंडुवा बाला टिपि दिना कन
मादिरा बाला टिप!”
(मंडुवा की बालियां काट दो ना, मादिरा की बालियां काट दो)
बोले, “ये गीत के टेक की लाइनें हैं। गीत आगे
बढ़ता है और बीच में टेक सुनाई देती रहती है- मंडुवा बाला टिपि दिना कन, मादिरा बाला टिप!”
“बस
इसी तरह कहानी आगे बढ़ती जाती है। किसी दिन लिखूंगा इसे।...अच्छा, हो गया अब। तुम भी खड़े-खड़े थक गए होगे, “कहते हुए वे उठ कर बैठ गए। बोले, “अब आराम मिल रहा है। असल में आज पैदल
बहुत चलना पड़ा। इस दिल्ली में कहीं आना-जाना बड़ा मुश्किल काम है।”
एक दिन शाम को लौटे तो हाथ में खरौंच थी। पूछा
तो कहने लगे, “मामूली
चोट है। थोड़ा बंद चोट लग गई।”
“क्यों
क्या हुआ?” मैंने पूछा।
“अरे
कुछ नहीं। रिक्शा पलट गया था। लेकिन, रिक्शे वाले की कोई गलती नहीं थी।
सामने से गाड़ी आ गई। अंसारी रोड वैसे ही संकरी है, ऊपर से गाड़ी, रिक्शा, टैम्पो की भीड़। रिक्शे वाला बचाता रहा, लेकिन एक जगह गड्ढा था। रिक्शा पलट
गया। उसकी वास्तव में कोई गलती नहीं थी। लेकिन, राजेंद्र यादव अड़ गए। कहने लगे- रिक्शे
वाले की गलती थी। मैंने कहा, बिना देखे कैसे कह सकते हो कि रिक्शे वाले
की गलती थी?”
मैंने पूछा, “क्या राजेन्द्र यादव भी आपके साथ थे?”
“नहीं।
मैं उनसे मिलने गया था, उनके ऑफिस में।”
“तो
उन्हें क्या पता?”
“वही
तो। लेकिन, वे नहीं माने। यही कहते रहे कि रिक्शेवाले की गलती थी। जब मैंने कहा, “कैसे? तो राजेंद्र यादव ने उत्तर दिया- उसने इस भारी-भरकम ट्रक की सवारी को
अपने रिक्शे में बैठाया ही क्यों? उसी की गलती थी!” कह कर मटियानी जी हँसने लगे।
रिक्शे वाले की बात करते-करते उन्हें कुछ याद आ
गया। कहने लगे, “मैंने
इलाहाबाद में भी रिक्शे देखे, लेकिन सबसे अधिक रिक्शे बनारस में
देखे। वहाँ रिक्शे वाले बड़ी सफाई से हर चीज से बचाते हुए रिक्शा निकाल ले जाते
हैं। वहाँ तो सड़कों और गलियों में रिक्शा भी, तांगा भी, कार, स्कूटर, गाय, सांड़, आदमी, बैलगाड़ी और साइकिलें सभी एक साथ चलते रहते हैं। कोई बोरियां लाद कर
ले जा रहा है, तो कोई सब्जियां, कोई सामान के बंधे हुए पैकेट, आगे-आगे फुंकारता सांड़, उसके पीछे रिक्शे में बैठी सवारियां, आड़े-तिरछे चलते घंटी टुनटुनाते साइकिल वाले...”
“एक
बार तो बहुत ही मार्मिक दृश्य देखा मैंने,” उन्होंने कहा, “उसे
कभी भूल नहीं सकता।”
“कैसा
दृश्य?” मैंने पूछा।
जिंदगी और मौत साथ-साथ। “बहुत दुख हुआ उसे देख कर। रिक्शे, तांगों और गाड़ियों की उस भारी भीड़ में एक आदमी पीछे साइकिल के कैरियर
पर बांध कर कफन में रस्सी से कस कर लपेटा हुआ एक शव ले जा रहा था। इससे पहले वह
आदमी ज़िंदा रहा होगा। शायद मेहनत-मजूरी करता होगा। प्राण पखेरू उड़े तो इतने बड़े
शहर की, हजारों की भीड़ में बस एक वही साइकिल वाला संगी-साथी रह गया, घाट तक पहुँचाने के लिए। सड़क पर भीड़
चली जा रही थी। किसी का किसी से कोई मतलब नहीं। मरने के बाद साइकिल पर लदा
आदमी.....बहुत दुखदायी दृश्य था। पता नहीं घाट पर जा कर उस संगी-साथी ने उसका दाह
संस्कार कराया होगा या कौन जाने पैसों के अभाव में शव गंगा में प्रवाहित कर दिया
हो। साइकिल के कैरियर पर खत्म हो गई थी उस आदमी की जीवन यात्रा। उस घटना ने मुझे
झकझोर कर रख दिया था और कई दिनों तक मन बहुत अशांत रहा। याद आने पर मन अब भी हिल
जाता है।
उनके संघर्ष की लंबी दास्तान मैं विद्यार्थी
जीवन में उनकी ‘मेरी तैंतीस कहानियां’ की तैंतीस पृष्ठ लंबी भूमिका में
रोते-सिसकते पढ़ चुका था। लंबे संघर्ष में से निकले उस स्वाभाविभानी लेखक को देख कर
बड़ी प्रेरणा मिलती थी। मुसीबतों से मुकाबला कर के किस तरह हिम्मती बना जा सकता है, यह उनकी जीवन-गाथा से सीखा जा सकता था। उनके स्वाभिमान के कई किस्से
कहे जाते थे।
एक बार उन्होंने एक और किस्सा सुनाया। बोले, “एक
बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा का पत्र मिला। उसके साथ एक
चैक भी था। पत्र में विषय लिखा था, ‘आर्थिक रूप से पीड़ित लेखकों की
सहायतार्थ अनुदान।’ आगे कुछ इस तरह लिखा था कि शासन को ज्ञात हुआ है, प्रदेश में कुछ लेखक आर्थिक रूप से पीड़ित हैं। इनमें आपका भी नाम
शामिल है। आपको जान कर प्रसन्नता होगी कि उक्त विषय के अंतर्गत आर्थिक सहायता के
रूप में आपको यह धन राशि प्रदान की जा रही है।....”
कहने लगे, “सच
पूछो, उस चैक और पत्र को देख कर मैं सोच में
पड़ गया। सोचने लगा, आखिर यह कैसी सहायता है? कुछ हजार रूपयों का चैक था। मुझे लगता
है गिरिराज किशोर ने लेखकों की मदद का कोई सुझाव दिया होगा। दफ्तरशाहों ने उसे ऐसा
रूप दे दिया होगा।”
“तो
सुनो, मैंने मुख्यमंत्री को तुरंत उत्तर लिखा और अपने पत्र के साथ उस चैक
को नत्थी कर के वापस भेज आया।”
“आपने
क्या लिखा उन्हें?” मैंने पूछा तो हँस कर मटियानी जी ने कुछ यों कहा, “यही कि आदरणीय मुख्यमंत्री महोदय, अब तक मैंने बाढ़ पीड़ितों, सूखा पीड़ितों आदि को सरकार से मिलने
वाली आर्थिक सहायता के बारे में तो सुना था लेकिन ‘आर्थिक रूप से पीड़ित लेखक’ श्रेणी
के बारे में पहली बार सुना। हो सकता है, कुछ लेखकों को इस प्रकार की आर्थिक
सहायता स्वीकार्य भी हो, लेकिन मेरे लिए इसे स्वीकार करना संभव नहीं है। आशा है, आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे। महोदय, इसका कारण यह है कि जिन परिस्थितियों
को आप आर्थिक रूप से पीड़ित करने वाली मान रहे हैं, वे मेरी स्वयं की बनाई हुई हैं। मैं
स्वयं को आर्थिक रूप से पीड़ित नहीं मानता क्योंकि यही वे परिस्थितियां हैं, जो मुझे लेखक बनाती हैं। वे मुझे रचनात्मक ऊर्जा देती हैं, अन्यथा मैं नौकरी या कोई कारोबार करता। सरकार द्वारा भेजी गई इस
आर्थिक सहायता से मेरे लेखक बने रहने की परिस्थितियों को नुकसान पहुँच सकता है।
इसलिए मैं यह चैक आपकी सेवा में वापस भेज रहा हूँ।”
कहते थे, चैक तो उन्होंने उन दिनों एक मासिक
पत्रिका (‘कादम्बिनी’) में छपी कहानी के पारिश्रमिक का भी लौटा दिया था। वे तब बहुत तंगी
में चल रहे थे। पत्रिका के संपादक ने कहानी मांगी। मटियानी जी ने पारिश्रमिक
मांगा। पारिश्रमिक की 75 रू. राशि की बात तय हो गई। कहा गया, वह नियमानुसार कहानी छपने के बाद मिलेगा। छपने के काफी समय बाद 50
रू. पारिश्रमिक का चैक आया जो तय की गई राशि से कम था। उन्होंने संपादक से बात की।
उनका जवाब मिला, नियमानुसार इतना ही पारिश्रमिक मिल सकता है। तब मटियानी जी ने अपने
पत्र के साथ चैक पत्रिका के मालिक को भेज दिया।
उन दिनों मटियानी जी श्रीनिवासपुरी में मित्र
स्वरूप ढौंढियाल के घर पर रह रहे थे। परिवार साथ था। बेटी बुखार में तप रही थी।
जेब में पैसे नहीं थे। स्वरूप जी के घर पर अखबार और पुरानी पत्रिकाओं की रद्दी जमा
करके कबाड़ी को बेची गई। उन पैसों से बिटिया के लिए दवाई लाए।
उधर पत्र पाते ही पत्रिका के मालिक आग बबूला हो
गए। पूछा होगा कि ऐसा क्यों हुआ? बात करो, मनाओ। मटियानी जी ने कहा, “मुझे
राजेंद्र अवस्थी का फोन आया। उनसे तो मित्रता थी ही। उन्होंने कहा, “शाम
को कनाट प्लेस के फलां रेस्टोरेंट में आइए। मुझे मिलना है, बात करनी है।” तो, गया मैं शाम को। वहाँ राजेंद्र अवस्थी के साथ संपादक जी भी बैठे थे।
मैं मामला समझ गया। पूरी बात पता लगी। अवस्थी जी ने मामला सुलझाया। मैंने साफ कहा -
अगर कहानी लेते समय यह कहा गया होता कि पारिश्रमिक नहीं मिलेगा, लेकिन कहानी चाहिए तो भी मैं कहानी दे
देता। लेकिन, पारिश्रमिक की बात तय हो जाने के बाद पलटना, नियमों की दुहाई देना छल है। मेरी क्या परिस्थिति थी, वह मैं जानता था। खैर, बातचीत के बाद मामला सुलझ गया।”
इसी सिलसिले में उन्होंने कमलेश्वर और ‘सारिका का भी किस्सा सुनाया। कहने लगे, “कहानी तो एक बार मैंने कमलेश्वर से भी
वापस ले ली थी, बंबई में। ‘सारिका’ के लिए वह कहानी कंपोज हो रही थी। सच
बताऊं देबेन, तब मेरे पास इलाहाबाद लौटने के लिए जेब में एक पाई भी नहीं थी। मैंने
कमलेश्वर से कहा, “मुझे
मेरी कहानी का पारिश्रमिक दे दो।” कमलेश्वर ने कह दिया, ”वह
तो कहानी छपने के बाद मिल ही जाएगा।” मैं तो सिहर उठा। मैंने कहा, “मेरी
कहानी वापस कर दो।”
उन्होंने कहा, “कहानी वापस नहीं हो सकती। कंपोज हो रही
है।”
“कोई
कंपोज-वंपोज नहीं। मुझे कहानी वापस चाहिए, अभी। इसी समय। मैं यहीं बैठा हूँ। तब
तक नहीं जाऊंगा जब तक कहानी वापस नहीं मिल जाती। कमलेश्वर आश्चर्य से मुझे देखते
रहे। मैं भी उन्हें देख कर सोचता रहा कि मेरे दोस्त हैं ये। मेरी कहानी ‘दो दुखों का एक सुख’ का अर्थपूर्ण शीर्षक इसी कमलेश्वर ने दिया। इस से पहले भी इन्होंने
मेरी मदद की है। लेकिन, आज क्यों नहीं समझ पा रहे हैं? संपादक तो ब़ड़ी हस्ती होता है। ये कह सकते थे कि मटियानी जी, ये रहे इलाहाबाद जाने के पैसे। कहानी छपने के बाद हिसाब कर लेंगे।”
लेकिन, ऐसा
कुछ नहीं हुआ। मेरे जोर देने पर कमलेश्वर ने फोन किया और कंपोजिंग से कहानी मंगा
ली। उन्होंने फिर भी कहा कि कहानी अगले अंक में छप रही है। मैंने कहा, “नहीं, अब नहीं छपेगी। मैं कहानी ले कर बाहर आ
गया और सोचता रहा कि अब इलाहाबाद जाने के पैसे मुझे कौन देगा?”
मैंने उनसे कहा, “आपकी तो इतनी किताबें छपती हैं -
उपन्यास, कहानी संग्रह। प्रकाशक तो पैसे देते होंगे?”
बोले, “देते हैं। किताब की पांडुलिपि ले कर
जाता हूँ। वे मोल-भाव करते हैं। जो पैसा मिलता है, ले कर आ जाता हूँ। अच्छा पैसा मिल गया
तो घर आते समय बच्चों के लिए कपड़े, जूते, किताबें, मिठाई और बढ़िया गोश्त ले आता हूँ। उसे
खुद पकाता हूँ।”
“इतनी
चीजें एक साथ, एक दिन?”
वे बोले, “हाँ। एक मनोविज्ञान होता है। सच कहता हूँ
देबेन, बचपन के अभावों को आदमी जीवन भर नहीं भूलता। वह भूख कभी नहीं मिटती।
कभी भी नहीं। समझ रहे हो?”
मैं समझ रहा था। उनकी एक-एक बात समझ रहा था।
लेकिन, उस सच को सुन कर क्या कहता?
उन्हें जैसे कुछ याद आ गया। कहने लगे “और हाँ, जहाँ तक प्रकाशक की बात है, तुम्हें
एक किस्सा सुनाता हूँ।.... दिल्ली के एक प्रकाशक का। नाम मत पूछना। जान कर क्या
करोगे? फिर हँसते हुए कहने लगे, “एक
बहुत लोकप्रिय लेखक थे, युवाओं को भावनाओं में बहा कर रूलाने वाले उपन्यास लिख रहे थे- एक के
बाद एक। लाखों प्रतियां बिक रही थीं उनके उपन्यासों की। अंग्रेजी वाले शायद ऐसे
लेखकों को ‘बिग मनी राइटर्स’ कहते हैं। तो, हुआ क्या कि उस बड़े प्रकाशक ने एक भव्य समारोह का आयोजन किया, उस लेखक को सम्मानित करने के लिए। उसमें लेखक को भेंट करने के लिए एक
चमचमाती कार भी रखी गई थी। बड़े सम्मान के साथ लेखक को मंच पर बुला कर सम्मानित
किया गया। जब लेखक से दो शब्द बोलने का अनुरोध किया गया तो वे माइक के सामने गए और
बोले, “अपने
इस सम्मान के लिए मैं आपको बहुत धन्यवाद देता हूँ। लेकिन, इस अवसर पर मैं उस दिन को भी नहीं भूल पा रहा हूँ, जब मैं पहली बार अपने एक उपन्यास की
पांडुलिपि ले कर यहाँ आपके पास आया था। जून की तपती दोपहर थी। मैं किसी तरह जूते
घिसते हुए, पसीने में लथपथ यहाँ पहुँचा था। मैंने
अपनी पांडुलिपि दिखाई थी जिसे उलटने-पलटने के बाद आपने मुझे यह कह कर लौटा दिया था
कि इस तरह की पुस्तकें हम नहीं छापते। मैं उस अस्वीकृत पांडुलिपि को ले कर उसी
हालत में वापस लौट गया था। समय किस तरह बदल जाता है, वह आज अपनी आंखों से देख रहा हूँ। आज
मैं उसी जगह सम्मानित हो रहा हूँ और भेंट में मुझे कार भी दी जा रही है। मैं
प्रकाशक जी का हृदय से आभारी हूँ।”
एक रविवार को उन्होंने कहा, “चलो
तुम्हें आसपास घुमा लाता हूँ। कुछ लोगों से तुम्हारी भेंट करा दूँगा पटेल नगर में।
गया मैं उनके साथ। सबसे पहले उन्होंने जिस घर के दरवाजे की घंटी बजाई, उसकी नाम-पट्टिका पर लिखा था - डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल। उस दौर के
बहुत चर्चित कथाकार, उपन्यासकार थे। उन्हीं दिनों मैंने उनका लघु उपन्यास ‘बड़ी चंपा, छोटी चंपा’ पढ़ा था। ‘धर्मयुग’ में तब साहित्यकारों से जुड़े छोटे-छोटे
गुदगुदाने वाले चुटकुले भी छप रहे थे और उनकी चर्चा भी हो रही थी। डॉ. लाल पर भी
एक चुटकुला चल निकला था। वे हिन्दी पढ़ाते थे। चुटकुला कुछ यों था कि डॉ. लाल एक
दिन छात्रों को कक्षा में शब्दों के उच्चारण के बारे में पढ़ा रहे थे। उन्होंने
छात्रों को बोर्ड पर लिख कर बताया कि देखो, ‘स’ तीन प्रकार के होते हैं, तालव्य
‘श’, दंतव्य ‘स’ और मूर्धन्य ‘ष’।
इनका उच्चारण है: स, स और स!
चुटकले को किसी ने और आगे बढ़ा दिया। वह भी ‘धर्मयुग’ में छपा कि डॉ. लाल ने जब ‘धर्मयुग’ में चुटकुला पढ़ा तो उन्होंने छात्रों से कहा, “हमारे
उच्चारण पर चुटकुला छपा है। अब बताओ, क्या हमें यह भी नहीं मालूम कि ‘स’ तीन तरह के होते हैं- ‘स’, ‘स’ और ‘स’!
दरवाजा डॉ. लाल ने खोला। मटियानी जी को देख कर
बहुत खुश हुए। बोले, “आपने
बहुत अच्छा किया कि आप हमारे घर पर आए। कब आना हुआ?”
मटियानी जी ने उन्हें बताया। मटियानी जी ने
मेरा परिचय कराया, “यह
देवेन है। कहानियां लिखता है।”
मैंने विनम्रता से नमस्कार किया। वे कुछ देर
घूरते रहे। फिर पूछा, “कहाँ
काम करते हो?”
मैंने कहा, “पूसा इंस्टिट्यूट में मक्का की फसल पर
रिसर्च का काम करता हूँ।”
“तुम्हें
किस बेवकूफ ने रिसर्च में भेज दिया? तुम
तो थिएटर के लिए बने हो। वही नाक-नक्श, वही
कद-काठी।” मैं लंबा, दुबला, पतला लड़का था उन दिनों। जींस और चैक की शर्ट पहनता था।
फिर मटियानी जी से बोले, “इन्हें
शनिवार को मेरे पास भेजिए। मेरे नए नाटक की रीडिंग शुरू हो रही है। पात्र चुने
जाएंगे।”
मटियानी जी तुरंत बोले, “यह
तो बहुत अच्छा हो जाएगा। इसकी कोई प्रेमिका भी नहीं है। लड़कियों से शरमाता है।” फिर मुझसे कहा, “वहाँ नाटक की रिहर्सल में लड़कियों से
घुल-मिल जावोगे और तुम्हारा संकोच दूर हो जाएगा। यह ठीक रहेगा।”
डॉ. लाल ने रिहर्सल की जगह का नाम बताया था। उन
दिनों दिल्ली में उनके नाटकों की धूम मची हुई थी। मैं सकुचाते हुए बैठा रहा। चाय
पी कर बाहर निकले। चलते-चलते मटियानी जी ने फिर कहा, “यह बड़ा अच्छा विचार है देबेन, रंगमंच पर काम करने का। तुम शनिवार को
वहाँ जरूर जाना।” मुझे पता था, डॉ. लाल के नाटकों की खूब चर्चा थी। बी. एम. शाह भी अपने एक पात्र के
नाटक की तैयारियों में जुटे थे। नाटकों में काम करने का मेरा मन तो बहुत होता था
लेकिन लगता था, मंच पर मेरे पैरों तले से जमीन खिसक जाएगी, जुबान लड़खड़ा जाएगी। फिर भी मैंने मटियानी जी के सुझाव पर हामी भरी, हालांकि मुझे पता था, वहाँ अपरिचितों के बीच में शायद ही
जाऊं।
उसके बाद दो-एक लोगों से और मिले। एक घर की
बरसाती से चाय पी कर निकले तो वे सीढ़ियों तक छोड़ने आए। सहसा उन्होंने मटियानी जी
से पूछ लिया, “मटियानी
जी, क्या मैं भी कभी आपकी तरह एक प्रतिष्ठित लेखक बन सकूंगा?” मटियानी जी ने चौंक कर कहा, “अरे, यह क्या कह रहे हैं आप? आप तो अच्छा-खासा लिख रहे हैं, चर्चा में भी हैं। अच्छा, अब चलता हूँ,
नमस्कार।”
सीढ़ियां उतर कर नीचे आए तो उन्होंने क्षण भर
रुक कर कहा, “देखो
देबेन, उन्होंने कैसा अजीब सवाल पूछा। उनके भीतर इतना संशय क्यों है? यह संशय लेखक के मन में कभी नहीं होना चाहिए। यह तो कमजोरी है। लेखक
बनने वाले व्यक्ति में यह आत्मविश्वास होना चाहिए कि उसे जीवन में लेखक बनना है।
यह उसका संकल्प होना चाहिए। इसलिए उनका सवाल सुन कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ।” बाद में मटियानी जी बस पकड़ कर शहर में निकल गए और मैं कमरे में लौट
आया।
मैं अक्सर उनसे अपने एक मित्र की चर्चा किया
करता था कि वह आत्महत्या की बहुत बातें किया करता है। कहता है, क्या है जीवन में? निराशा के अलावा कुछ भी तो नहीं। हम
क्यों जीएं? यह भी कहता है कि वह कई बार आत्महत्या के प्रयास कर चुका है लेकिन न
जाने कैसे हर बार बच जाता है। मटियानी जी शांति से मेरी बात सुनते रहे। जब मैं बोल
चुका तो हँस कर उन्होंने कहा, “खतरा तुम्हें अधिक है।”
मैंने आश्चर्य से पूछा, “मुझे
क्यों?”
“इसलिए
कि ऐसे लोग अपनी बात सुनने के लिए ‘शिकार’ की टोह में रहते हैं। शिकार मिल जाने
पर उसे धीरे-धीरे अपने निराशा के जाल में उलझाते जाते हैं। शिकार श्रोता बना रहता
है और समझ ही नहीं पाता कि वह निराशा के पाश में फंसता जा रहा है।.... तुम बचना इस
स्थिति से। सदैव सोचना कि जीवन जीने योग्य है और जीवन में बहुत कुछ करने लायक है।”
फिर बोले, “असल में, यह मेरी एक आने वाली कहानी का विषय भी है। उसे जल्दी ही लिखूंगा।
मेरी कहानी में चर्च का एक सीधा-सादा, शरीफ पादरी है जो लोगों को जीवन में आस्था
का उपदेश देता रहता है और बताता है कि प्रभु ईशु दुखों से मुक्ति दिलाते हैं। उनके
सम्मुख अपने पापों को स्वीकार क,रो वे तुम्हें शांति देंगे। एक दिन एक युवक आता
है। पादरी के सम्मुख अपने गुनाहों का कंफैशन करता है और विस्तार से समझाता है कि
वह जीवन से ऊब गया है, निराश हो गया है। पादरी उसे समझाने की
हर संभव कोशिश करता है, लेकिन अपने तर्क से वह पादरी को विश्वास दिला देता है कि फादर, जीने का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए वह अपना जीवन समाप्त कर लेगा। सुबह
चर्च का घंटा बजता है...टन! टन! टन! टन! वहाँ शांति छाई रहती है। बाद में लोग आते
हैं तो पता लगता है - पादरी ने रात को आत्महत्या कर ली है।”
“इसीलिए
कह रहा हूँ, अपने मित्र की बातों से बच कर रहना। तुम भावुक आदमी हो। सदा
सकारात्मक सोचना चाहिए और कठिनाइयों से संघर्ष करना चाहिए।” “एक
बात और”, उन्होंने मेरी ओर देख कर कहा, “तुम
सौ रूपए का स्टाम्प पेपर ले कर आओ। मैं उस पर लिख कर दे दूँगा कि तुम्हारा वह
मित्र कभी आत्महत्या नहीं करेगा। वह तुम्हें हर बार संयोग से बच जाने की कहानियां
सुनाता रहेगा लेकिन कभी आत्महत्या नहीं करेगा। तुम बच कर रहना,” उन्होंने गंभीरता से कहा।
एक बार वे आए और उन्होंने बताया कि वे अपनी
साहित्यिक पत्रिका ‘विकल्प’ का बृहद कहानी विशेषांक निकाल रहे हैं। उसके लिए कहानी भेजनी है।
इलाहाबाद में तब बटरोही और अमर गोस्वामी सहायक संपादक की हैसियत से ‘विकल्प’ के संपादन में सहयोग दे रहे थे। ‘कहानी’ और ‘माध्यम’ जैसी पत्रिकाओं में मेरी कहानियां प्रकाशित हो रही थीं। ‘विकल्प’ के कहानी विशेषांक में कहानी भेजने के लिए मैं बहुत उत्साहित था।
मैंने अपनी शैली में एक अपेक्षाकृत लंबी कहानी लिखी जिसका शीर्षक ‘मौसम बदलते थे’ जैसा कुछ था। हाथ से कहानी लिख कर मैंने विकल्प को भेज दी। कुछ दिन
बाद कहानी सहायक संपादक के इस पत्र के साथ वापस लौट आई, “प्रिय देवेन, मैं जानता हूँ तुम इससे बेहतर कहानियां लिखते हो। तुरंत कोई दूसरी
कहानी भेजो।”
मुझे आघात-सा लगा। कभी उस पत्र को देखता, कभी कहानी के पन्नों को पलटता। उस रात सो नहीं सका। मस्तिष्क में
द्वंद्व चलता रहा कि मुझे क्या करना चाहिए? तुरंत
नई कहानी लिखना संभव नहीं था। तब उस रात मैंने निर्णय लिया कि अब मैं कुछ ऐसा
लिखूंगा जिसे मैं ही लिख सकता हूँ। मैं विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ और साहित्य
से मुझे अगाध प्रेम है। इसलिए अब मैं साहित्य की कलम से विज्ञान साहित्य लिखूंगा।
हर विधा में- विज्ञान गल्प, लेख, नाटक, संस्मरण, जीवनी, यात्रा वृत्तांत.... सब कुछ। और, तब
से मैं विज्ञान साहित्य रचने लगा।
काफी समय बाद मटियानी जी से भेंट हुई तो कहने
लगे, “विकल्प के लिए अपनी कहानी भेजना। इधर
लिखी कोई कहानी?” मैंने कहा, “नहीं।” तब उन्होंने कहा, “तुमने विशेषांक के लिए कहानी भेजी थी।
उसे लौटाने की बात सुन कर मैंने कहा था, दूसरी कहानी इतनी जल्दी कैसे लिखी
जाएगी? इसे लौटाना मत। यह तो हमारे पास है ही। फिर भी दूसरी कहानी के लिए
लिखना ही है तो लिख दो। मैं विज्ञापन जुटाने के लिए बाहर चला गया था। लौट कर आया
तो पता लगा कहानी लौटा दी है। तुमने फिर कोई कहानी भेजी भी नहीं?”
“लिखी
ही नहीं” मैंने कहा। वे भी चुप हो गए। उसके बाद जब भी मिलते, यह जरूर कहते कि कहानी लिखते रहना। गाहे-बगाहे उस घटना का भी जिक्र
कर देते। विज्ञान के मेरे लेख ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक
हिंदुस्तान’, ‘नवनीत’ आदि पत्रिकाओं में छपने लगे थे। कुछ
वर्ष बाद ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में मेरी उपन्यासिका ‘सभ्यता की खोज’ प्रकाशित हो गई। मैं विज्ञान कथाएं
लिखने लगा।
वे कई बार यह भी कहते थे कि तुम व्याख्यान जरूर
देना। तुम्हारी कद-काठी और हाव-भाव व्याख्यान देने के लिए बहुत उपयुक्त हैं।
तुम्हें संकोच छोड़ कर बोलने का अभ्यास करते रहना चाहिए। लेकिन, मैं हकीकत जानता था, इसलिए हर जगह चुप्पा श्रोता ही बना
रहा।
मिलने पर वे सदा कहा करते थे- “निरंतर लिखा करो। देखो, पहले तक लोग कहते थे कि कठिन तपस्या करने से एक दिन सिद्धि मिल जाती
है। ऋषि-मुनियों को इसी तरह सिद्धि मिलती थी। जानते हो, क्या थी वह सिद्धि? बिना
डिगे लगातार की गई तपस्या का फल। लेखन भी ऐसी ही तपस्या है, सरस्वती की तपस्या। मन और लगन से लगातार लिखते-लिखते एक दिन सिद्धि
मिल जाती है। सरस्वती प्रसन्न हो कर कलम को छू लेती हैं, अपना वरदान दे देती हैं। फिर जो लिखा जाता है, उसे पढ़ कर कई बार स्वयं को ही आश्चर्य होने लगता है कि क्या यह मैंने
लिखा है?... और, फिर तो ऐसा होता है कि विचार आया और उसे कलम ने शब्दों में ढाल दिया।
मूड, जगह किसी का कोई महत्व नहीं रह जाता। मुझसे अभी कहो, एक कहानी लिख दो। मैं कागज, कलम लेकर बैठूंगा और अभी लिख दूँगा।...
इसलिए, देबेन, सदा लिखते रहना चाहिए। लेखक बनना है तो इस तपस्या से डिगना नहीं
चाहिए, निरंतर लिखना चाहिए।”
वे यह भी कई बार कहते थे कि मुझे एक महाउपन्यास
लिखना है। मन में तैयार है। बस समय मिले तो कागजों पर उतार दूं। मेरी सभी कहानियों
और उपन्यासों से वह कहीं आगे की एक बड़ी रचना होगी। हिन्दी में सबसे बड़ा उपन्यास
होगा वह।”
मैं अगस्त 1969 में दिल्ली की नौकरी छोड़ कर
पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय में चला गया। वे सन् 1976 के आसपास वहाँ आए जब
विश्वविद्यालय के कुलपति श्री शिव प्रसाद पांडे थे। तब उन्होंने तराई विकास निगम
के ‘पंतनगर बीजों’ का विज्ञापन पाने की कोशिश की थी। आई. ए. एस. पांडे जी शायद उन्हें
पढ़ते और मानते थे। मटियानी जी घर पर आए। बैठक में सामने दीवार पर लगी सलीम की
हिमालय की पेंटिंग की प्रशंसा करते हुए बोले, “इसे देख कर लगता है, मैं पहाड़ में आ गया हूँ। बहुत शांति मिलती है इसे देख कर।” बाद में एक बार फिर आए तो दीवार पर वह पेंटिंग न देख कर बोले थे, “यहाँ
हिमालय था, वह क्या हुआ? कहाँ गया?”
मैंने बताया, “जिसकी पेंटिंग थी, उसने किसी के हाथ वापस मंगा ली। मेरे पास उतने पैसे नहीं थे जितने
उसने बताए थे। मैंने कहा था, किस्तों में चुका दूँगा लेकिन उसने
पेंटिंग वापस मंगा ली, हालांकि चित्रकार ने वह पेंटिंग जब स्वयं यहाँ लगाई थी तो पैसे की
कोई बात नहीं की थी।” उस बातचीत ने जैसे एक बार फिर मेरा वह घाव छू दिया था।
उन दिनों वे उत्तर प्रदेश आवास विकास परिषद् से
आवंटित अपने एम. आई. जी. फ्लैट के दर्द की कहानी भी सुनाते थे। कहते थे, वह कॉर्नर का फ्लैट है और उसके साथ थोड़ी-सी बची जमीन भी है। उस जमीन
को फ्लैट का ही हिस्सा मानने के लिए उन्होंने परिषद को कई बार लिखा। पर वे माने
नहीं। मटियानी जी ने किस्तें देनी बंद कर दीं। वे इलाहाबाद और लखनऊ के चक्कर काटते
रह गए। लेकिन यह समस्या नहीं सुलझी। बल्कि उन्हें और उनके परिवार को डराने के लिए
गुंडे भेजे जाने लगे। कहते थे, मुँह के सामने तो वे कुछ कहते नहीं थे, लेकिन पीछे-पीछे गालियां और धमकियां देते थे कि ‘आज तो साले की टांगें तोड़ देंगे’, ‘किसी
दिन फ्लैट से निकाल कर सामान बाहर फैंक देंगे’ वगैरह। बताते थे, जब बर्दाश्त से बाहर हो गया तो एक दिन मैंने ललकारा उन्हें। वे चले
गए वहाँ से। मटियानी जी कहते थे उस फ्लैट के कारण बहुत परेशानी झेलनी पड़ रही है।
फिर भी, उनकी लड़ाई जारी थी।
जब मैं पंतनगर में था तभी उन्होंने एक बार वह
पुस्तिका ‘अमेठी के दिन बहुरे’ भी दिखाई थी,
जिसने आगे चलकर उनके जीवन में तूफान ला
दिया था। उस पुस्तिका के अंतिम कवर पर छपे एक फोटो में रवीन्द्र कालिया, मार्कंडेय, सत्यप्रकाश और शैलेश मटियानी अमेठी में जायसी की समाधि पर
श्रद्धांजलि देते हुए दिखाई देते हैं। उससे ठीक ऊपर छपे फोटो में संजय गांधी अपने
साथियों संग श्रद्धांजलि देते हुए दिखते हैं। दोनों चित्र अलग-अलग समय के थे, लेकिन उन्हें एक षड्यंत्र के तहत एक साथ छापा गया था ताकि लगे कि ये
लेखक भी संजय गांधी के प्रचार और प्रशस्ति में लगे हैं। इसकी समीक्षा ‘धर्मयुग’ में छपी तो मटियानी जी बौखला गए।
इस मामले में उन्होंने मानहानि का केस दायर
किया।
साधनहीन होते हुए भी लेखकीय सम्मान के लिए लोअर
कोर्ट से लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी। वे कहते थे, वकील रखने के लिए पैसे नहीं थे इसलिए अपने केस की जिरह मैंने खुद की।
कई किस्से भी बताते थे कि किस तरह उन्होंने न्यायाधीश के संमुख अपने तर्क प्रस्तुत
किए।
उन्होंने बताया, “एक बार न्यायाधीश महोदय ने पूछा- क्या
संजय गांधी के प्रचार से आपका कोई संबंध था? तो मैंने कहा, “महोदय, संजय गांधी तो संजय गांधी, अगर महात्मा गांधी भी चुनाव लड़ते तो
मैं कभी उनका भी साथ न देता।”
एक किस्सा कुछ यों सुनाते थे कि हाईकोर्ट में
न्यायाधीश महोदय ने पुस्तिका में छपे फोटो को देख कर कहा, “इससे
भला आपकी मानहानि कैसे हो गई?” “मैंने
कहा- माननीय न्यायाधीश महोदय को मैं एक उदाहरण देना चाहता हूँ। मान लीजिए एक
पुस्तिका छपती है- ‘इलाहाबाद के गुंडे। महोदय, उसमें इसी तरह फोटो छपे जाते हैं। किसी
राजनेता और उसके समर्थक गुंडों के साथ माननीय न्यायाधीश महोदय का फोटो छापा जाता
है। तो, आप ही बताएं,
उससे आपकी मानहानि होगी कि नहीं? मैं जानता हूँ, मेरे ये तर्क न्यायाधीश महोदय को पसंद नहीं आए होंगे लेकिन सच तो यही
था।”
यह अदालती लड़ाई वह जीत तो नहीं पाए लेकिन कहते
थे- मैंने न्यायपालिका का असली पतनशील चेहरा अपनी इस लड़ाई में बहुत नजदीक से देख
लिया है।
उस दौरान उन्होंने हस्ताक्षर करके मुझे अपनी
कुछ पुस्तकें भी स्नेह के साथ भेंट कीं : आकाश कितना अनंत है’, ‘बावन
नदियों का संगम’, ‘डेरे
वाले’, ‘सवित्तरी’, ‘रामकली’, और ‘जनता और साहित्य’।
वे अपनी हर पुस्तक ऐसे व्यक्ति को समर्पित करते
थे जिसने किसी-न-किसी रूप में उनकी मदद की हो। लगता था, अपनी कृति के समर्पण के रूप में जैसे
वे कोई ऋण चुका रहे हों या हृदय से आभार व्यक्त कर रहे हों। ‘बावन नदियों का संगम’ उन्होंने ‘राजेंद्र यादव को, ‘आकाश
कितना अनंत है’ सेवाराम शर्मा, ‘सवित्तरी’ दामोदर दत्त दीक्षित, ‘रामकली’ ओ.पी. श्रीवास्तव, छिद्दा पहलवान वाली गली’ बी. पी. मिश्र और ‘भागे हुए लोग’ भाई गोपेश जी को सादर समर्पित की थीं। वे कहते थे, “मैंने
अंग्रेजी और विदेशी भाषाओं का साहित्य बहुत कम पढ़ा है। इसका मुझे कोई अफसोस नहीं, बल्कि इसका मुझे फायदा ही मिला है।
मैंने जो भी लिखा है, वह विदेशी साहित्य से प्रभावित नहीं
है। जो लिखा है, वह शत-प्रतिशत मेरा है। मेरे अपने
अनुभवों पर आधारित है। कोई नहीं कह सकता कि मेरे लेखन पर किसी की छाप है।
मार्च 1982 के अंत में मैं पंतनगर छोड़ कर लखनऊ
आ गया। वहाँ बैंक की नौकरी करने लगा। मटियानी जी लखनऊ आते और प्रायः लेखक गोपाल उपाध्याय
जी के यहाँ ठहरते थे। अशोक मार्ग पर मेरे आफिस में मिलने आते थे। एक रोज मिलने आए
और कहने लगे- विज्ञापन लेने आया हूँ। देखो, कहाँ-कहाँ
से मिलता है। मैंने कहा, सहकारिता विभाग से भी तो मिल सकता है। आजकल उसके प्रमुख आर. एस.
टोलिया, आइ. ए. एस. हैं। हमारे सहपाठी थे डी. एस.
बी. कालेज, नैनीताल में। बोले, चलो चलते हैं उनके पास।
हम विधान सभा मार्ग पर टोलिया जी से मिलने
सहकारिता भवन तक गए। वहाँ उनके पास नाम की पर्ची भिजवाने से पहले बोले, “हम
केवल मिलेंगे। तुम विज्ञापन की बात मत छेड़ना। बात करते हुए अगर मुझे लगा कि उनसे
विज्ञापन के लिए कहा जा सकता है, तभी
कहूँगा। अन्यथा मिल कर बाहर आ जाएंगे।” मैंने कहा, “ठीक
है।”
पर्ची भेजी। टोलिया जी ने हमें तुरंत भीतर बुला
लिया। उन्होंने अपनी सीट पर से उठ कर मटियानी जी का स्वागत किया। मटियानी जी ने
कहा, “मैं
शैलेश मटियानी।” टोलिया जी बोले, “आपको
कौन नहीं जानता? हम लोग आप जैसे बड़े लेखक पर गर्व करते हैं।” उन्होंने चाय मंगाई, खूब बातें हुईं। टोलिया जी ने कहा हम
लोग तो आपको पढ़ते आ रहे हैं। मटियानी जी ने अपनी पुस्तक और पत्रिका भेंट की।
विज्ञापन के लिए कहने की जरूरत नहीं पड़ी। टोलिया जी ने ही कहा, “पत्रिका निकालना तो बड़ा कठिन काम है।
आप कैसे निकाल रहे हैं? हमारा विज्ञापन भी छापिए उसमें।” उन्होंने विज्ञापन जारी करने के लिए
आदेश कर दिया।
मिल कर बाहर आए तो मटियानी जी बोले, “ये तो बड़े अच्छे आदमी हैं। सभी लोग ऐसे
नहीं होते। मैं तो विज्ञापनों के लिए कहाँ-कहाँ नहीं जाता रहता हूँ। लेकिन, गलत बात के लिए समझौता नहीं करता। एक बार एक सेठ ने कहा, पत्रिका के कवर पर मेरे तंबाकू का पूरा विज्ञापन दे दो। मैं तुम्हें
दस-पंद्रह हजार रूपए दे दूँगा। मैं उनको हाथ जोड़ कर चला आया। बताओ, एक साहित्यिक पत्रिका के कवर पर तंबाकू
के ब्रैंड का विज्ञापन! मुझे पैसों की जरूरत तो है, लेकिन ऐसे पैसों की नहीं।”
लखनऊ में ही उन्होंने मेरी बेटियों को अपनी बाल
साहित्य की दो पुस्तकें दीं- ‘योग-संयोग’ (बाल कहानियां) और ‘भरत मिलाप’ (बाल
एकांकी)। मुझे ‘छिद्दा पहलवान वाली गली’ कहानी संग्रह दे गए। वहाँ एक बार नीला मटियानी भाभी जी के साथ वे घर
पर भी आए और साथ में खाना खाया। मैंने कहा, “मुझे
पता है, आपको तो मांसाहार बहुत पसंद है, भाभी जी के लिए शाकाहारी भोजन बनाया
है।” मेरी पत्नी लक्ष्मी ने नीला भाभी से पूछा, “आपने
मीट कभी भी नहीं खाया?”
उन्होंने कहा, “द हो, कभी नहीं। एक बात बताऊं? “शादी
के बाद पहली बार इनके घर गई तो मांसाहार तो वहाँ देखा। सब लोग चील-कव्वों की तरह
शिकार चचोड़ रहे थे!” उस दिन काफी घरेलू बातें भी हुईं। मटियानी
जी बेटी की शादी के लिए बहुत चिंतित थे। उन्होंने कोई उपयुक्त लड़का सुझाने के लिए
कहा। मैंने सुझाया भी। बाद में पता लगा, बात बनी नहीं।
उनकी रचनाएं पढ़ने की सदैव ललक बनी रहती थी।
लखनऊ छोड़ कर दिल्ली आने के बाद फिर उनसे भेंट नहीं हुई। मेरा भी नौकरी का सबसे
विकट व्यस्ततम और तनावपूर्ण दौर शुरू हो गया। फिर चंडीगढ़ तबादला हो गया। वहीं खबर
मिली कि मटियानी जी विदा हो गए। मन में संजोई उनकी यादों को याद करते हुए उन्हें
नमन करके विनम्र श्रद्धांजलि दी। याद आया, विद्यार्थी
था तो कभी उनका पत्र आया था- “देवेन, जीवन में सदैव किसी पेड़ की तरह बढ़ना, जो आंधी-तूफान आने पर भी अपनी जड़ों पर
मजबूती से खड़ा रहता है। उस बेल की तरह नहीं जो किसी ठांगर (सहारा) के साथ खड़ी रहती
है और आंधी-तूफान आने पर उसी के साथ धराशायी हो जाती है।” मेरे लिए यह मेरे जीवन का मूलमंत्र बन गया।
लेखक परिचय
वरिष्ठ लेखक तथा विज्ञान कथाकार श्री देवेंद्र
मेवाड़ी उन विरल साहित्यकारों में से हैं जो विज्ञान और साहित्य दोनों क्षेत्रों से
अभिन्न और आत्मीय रूप से जुड़े हैं। एक ओर, जहां वे विगत पचास वर्षों से आम-जन के
लिए विज्ञान लिख रहे हैं, वहीं दूसरी ओर अपनी विज्ञान कथाओं और मार्मिक संस्मरणों से
साहित्यिक रचनाधर्मिता में सक्रिय हैं।
उनके आत्मकथात्मक संस्मरण ‘मेरी यादों का पहाड़’ ने जहां एक बड़े पाठक वर्ग के हृदय को
स्पर्श किया है, वहीं
उनके दीर्घकालीन सक्रिय विज्ञान लेखन ने समाज में विज्ञान की जागरूकता फैलाने में
अपूर्व योगदान दिया है।
श्री मेवाड़ी के ही शब्दों में, “वे साहित्य की कलम से विज्ञान लिखते
हैं,” जिससे
उनका लिखा विज्ञान सरस होता है और आमजन को किस्से-कहानी की तरह रोचक लगता है।
इन्होंने विविध शैलियों में विज्ञान लेखन किया है ताकि पाठकों तक हर संभव लेखन
शैली में विज्ञान पहुंच सके। लेखन के इन प्रयोगों को इनकी इन प्रमुख कृत्तियों में
बखूबी देखा जा सकता है- ‘विज्ञान और हम’, ‘विज्ञाननामा’, ‘मेरी विज्ञान डायरी’, ‘मेरी प्रिय विज्ञान कथाएं’, ‘फसलें कहें कहानी’, ‘विज्ञान बारहमासा’, ‘विज्ञान जिनका ऋणी है’, ‘सूरज के आंगन में’, ‘सौरमंडल की सैर’ आदि।
श्री मेवाड़ी ने कई विज्ञान पत्रिकाओं और
वैज्ञानिक पुस्तकों का संपादन और अनुवाद भी किया है। प्रिंट मीडिया के अलावा
इन्होंने रेडियो-टेलीविजन जैसे इलैक्ट्रॉनिक मीडिया और डिजिटल मीडिया के लिए भी
निरंतर स्तरीय विज्ञान लेखन किया है।
इनके स्तरीय विज्ञान लेखन के लिए इन्हें अनेक
राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है जिनमें केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा का प्रतिष्ठित आत्माराम पुरस्कार; हिन्दी अकादमी दिल्ली का ‘ज्ञान-प्रौद्योगिकी सम्मान’; विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार का राष्ट्रीय विज्ञान
लोकप्रियकरण पुरस्कार; भारतेंदु राष्ट्रीय बाल साहित्य पुरस्कार आदि शामिल हैं।
देवेन्द्र मेवाड़ी |
सम्पर्क –
सी-22, शिव भोले अपार्टमेंट्स,
प्लाट नं. 20, सैक्टर-7
द्वारका फेज-1, नई दिल्ली- 110075,
फोनः 9818346064
E-mail: dmewari@yahoo.com
(आलेख में प्रयुक्त किये गए शैलेश मटियानी के सभी चित्र गूगल के सौजन्य से.)
देवेन मेवाड़ी के पास स्मृतियों का खजाना है, सबसे बड़ी बात यह कि उनका पेश करने का अंदाज निराला है. उनकी चर्चित किताब 'यादों का पहाड़' इसका नमूना है. उन्हें अब अपने सारे संस्मरणों को इसी मजेदार अंदाज में लिख लेना चाहिए. ये संस्मरण इस विधा की अमूल्य धरोहर होंगी. हिंदी में इतनी जीवन्तता के साथ लिखे गए संस्मरण मेरी जानकारी में नहीं हैं, हालाँकि होंगी अवश्य.
जवाब देंहटाएंBhut Badhita rachna hai
जवाब देंहटाएंदेवेन जी के संस्मरणों में बांध लेने की अद्भुत क्षमता है। यह सच्चाई का ताप है
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