संजीव कौशल की कविताएँ



संजीव कौशल

जब भी हम देश की बात करते हैं तो अमूमन हमारा ध्यान देश के मानचित्र पर जाता है. मनुष्य के विकास क्रम में एक अरसा पहले यूरोप में राष्ट्रीय राज्यों का जन्म हुआ और फिर वहाँ से आधुनिक राष्ट्र (जिसे हम देश भी कहते हैं) और आधुनिक राष्ट्रवाद की संकल्पना यथार्थ में परिणत होती दिखाई पड़ती है. राष्ट्र की निर्मिति के साथ शुरू होता है राष्ट्र-प्रेम. पहले जब राजतन्त्र था तब यह राज-भक्ति के रूप में दिखता था. अब यह भी एक सचाई है कि यह राष्ट्रवाद जब उग्र रूप में ढला तो नाजीवाद और फासीवाद में बदल गया जिसने दुनिया को विश्व-युद्ध के भयावह गर्त में डाल कर मानवता के सामने एक अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया. राष्ट्र आज भी एक ऐसा सम्मोहन है जो हमारे मन-मस्तिष्क में तमाम फंतासियाँ रच देता है. इतिहास गवाह है कि धर्म के नाम पर जितना अधिक कत्लेआम इस दुनिया में हुआ है उतना ही अधिक कत्लेआम राष्ट्र की सरहदों को बढाने या उसको सुरक्षित रखने के क्रम में हुआ है. राष्ट्र पर मर-मिटने का दम-ख़म रखने वाले लोग उसके सम्मोहन में कुछ इस तरह से घिरे होते हैं कि राष्ट्र के सामने सब कुछ उन्हें बेमानी लगने लगता है. सोच की इस संकीर्ण परिधि में राष्ट्र तब बिल्कुल उस जाति, धर्म और भाषा के रूप में तब्दील हो जाता है जिसके लिए हम मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं. ज्ञातव्य है कि राष्ट्र की निर्मिति में हमारी जातीय, धार्मिक, वर्गीय और भाषिक एकजुटता ही बड़ी भूमिका निभाती आयी है और दुनिया के तमाम राष्ट्र इसी आधार पर अस्तित्व में आते दिखाई पड़ते हैं. 
  
राजनीतिज्ञों और राष्ट्र प्रेमियों से इतर साहित्यकारों की देश या राष्ट्र की अपनी संकल्पनाएँ हैं. कवि संजीव कौशल ने इस राष्ट्र की संकल्पना में उन मजदूरों, किसानों और आम लोगों को शामिल किया है जिनकी बदौलत कोई भी राष्ट्र अपना अस्तित्व बना पाता है. संजीव ने उन अनाम और अनचीन्हें और निराले लोगों के नजरिए से इसे देखने की कोशिश किया है जिनकी छवियां राष्ट्रवाद के धुंधलके में अक्सर कहीं खो जाती हैं. संजीव कौशल हमारे समय के ऐसे दुर्लभ कवि हैं जो तमाम शोरोगुल और प्रोपेगंडा से दूर रहते हुए चुपचाप अपना लेखन करते रहे हैं. आज पहली बार पर प्रस्तुत हैं संजीव कौशल की कविताएँ.
  
         
संजीव कौशल की कविताएँ 
 

निराले लोग

(जन-आन्दोलनों के सभी जुझारू साथियों के लिए)

मार्क्स की तनी भौंहों सी
खुली रहती हैं आँखें उनकी
हर उस हाथ का रस्ता रोके
उठता है जो हिंसा के लिए

अन्याय कैसा भी हो
हो किसी के भी साथ
करती है प्रतिरोध उनकी आवाज़
दांतों की सारी किलेबंदी को तोड़

ऐसे भी हैं लोग दुनिया में
कि जिनके दिल
गहरे इतने
कि समंदर कई समा जाएं, फिर भी
न मिले थाह
दुनिया से उनकी मोहब्बत की
और इतने निर्मल
कि उतर जाएं
खामोश धड़कनों में सिसकियों की
हर सिम्त समझने के लिए

हर बात के अनकहे शफहे पलटते
हर राज के दिल में उतरते
हर आँख के अंधेरे से गुजरते
कि जो भी हैं परिधियों पे बेदखल
उन्हीं का हौसला बन उतरते हैं
चौराहों पर
इंकलाब की गूँज उठाते हुए

ऐसा नहीं कि डर नहीं लगता इनको
कि आतंक से सहमते नहीं हैं इनके पाँव
मगर धड़कते हों दिल में जब
हजारों हजारों दिल
बाजुएं गुँथीं हों हजार बाजुओं में
तब रुकते नहीं हैं कदम
कि आवाजें लहलहाती हैं फिर
फ़ैज और पाश के गीत
परचमों की तरह
"
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
हम देखेंगे ..."

तने  हुए गलों
तनी बाजुओं तनी जँघाओं से
तनने लगती है ज़मीं
और उठने लगता है औंधा पड़ा आसमां
उम्मीद बरसाता हुआ

साथियो उठाओ आवाज़ 
कि सूरज का दमकता लाल चेहरा
दिखने लगा है
अंधेरे कोहरे के पार
नई सुबह काढता हुआ


जिनपे टाँग दें हम अपने पते
                                 

(भाई शम्भू यादव के लिए)
आवारा ख्वाब उतरते हैं
उसकी आंखों में
और वो उनसे भी आवारा
बहता रहता है वक्त की रफ्तारों में
भूत भविष्य वर्तमान
सब जगह एक साथ
वक्त की आंखों में आंखें डाले
छोड़ता रहता है सिगरेट के छल्ले
मिट्टी की खुशबू की तरह
दुनिया भर की तमाम बातों में
वक्त से भी ज्यादा मनमौजी
वक्त सा  दोस्त
उसी सा खरा
उससे भी ज्यादा गमगीन
आम लोगों की आम लड़ाइयों में  लड़ता
पिटता
हाँफता
डटा हुआ
सबका अजीज
खिली धूप सा  मुस्कराता
गले लगाता
आज के मुश्किल दौर में भी बड़ा मौलिक सवाल पूछता
"
कैसा है भाई"
और फिर ऐसे घुल जाता  फिक्र में
जैसे घुल जाती हैं झुर्रियाँ चेहरे में
बारीक से बारीक  हँसी की
थाह लेती  हुईं
ऐसे कितने हैं लोग हमारे आसपास
नरेश सक्सेना की ईंटों की तरह
अव्वल और तपे  हुए
"
कि सात ईंटें चुन लें तो जलतरंग बजने लगे"
ऐसी ईंटें जो घर बनाती हैं
जिनके बाहर
टाँग दें हम अपने पते
लिख कर
"
घरौंदा"
निश्छल मुस्कराहट पर



मच्छर

कान पर एक मच्छर भिनभिनाया
मैंने एक जोरदार थप्पड़ लगाया
वो फिर भिनभिनाया
मैंने फिर एक जमाया

खुद को खुद से पिटवाने के
मास्टर हैं ये

दो थप्पड़ खा कर सोचता हूँ
चूसने देता हूँ अपना खून उसे
कि एक बूँद खून से
बच जाऊंगा आखिर
खुद के हाथों पिटने से

देखिए! खून भी पी गए
और पिटवा भी गए
कितने शातिर हैं भई
मच्छर ये

जब एक छोटा मच्छर है इस क़दर ख़तरनाक
तब बड़ों के बारे में ज़रा सोचिए ज़नाब

सोचिए! वे क्या क्या करवाएंगे
आत्महत्या या
फाँसी लटकवाएंगे
या पेरकर मशीनों में हमें
निचुड़वाएंगे

ज़रा सोचिए!
और क्या क्या करवाएंगे वे
देखिए! वे आये
भिनभिनाते हुए

 
घर बनाने वाले

 
एक ट्रौली इंर्टें चार बल्लियाँ एक टीन
और हो गई जुगाड़ एक घर की
अब चिपक कर चलेंगी ईंटें गारे से
और कुछ दिन बैठी रहेंगी यूँ ही
चुपचाप

एक दूसरे की कमर पे
जैसे बैठी रहती हैं रोटियाँ
कटोरदान में
उतर के चूल्हे से
अब कुछ दिन यूँ ही
खदबदाएगा चावल
पतीले में
और चढ़ेगी दाल
डेगची में
जैसे चढ़ेंगी ईंटें दीवारों पे
सरों के रास्ते होते हुए

और एक दिन
तब्दील हो जाएंगी ये दीवारें एक घर में
उस दिन हटा दी जाएंगी बल्लियाँ टीन और ईंटें
और चल पड़ेंगे चूल्हे
अनजान रस्तों पे बड़बड़ाते हुए
कि गृह प्रवेशों में निषेध हैं ये

मगर बड़े जीवट हैं ये चूल्हे
ये रुकते नहीं हैं कहीं
चलते रहते हैं लगातार
नए डेरों की तलाश में
कि एक दिन फिर से बैठ जाएंगी
ईंटें गारे पे
और खड़े हो जाएंगे पतीले
बेचैन ईंटों पे बुदबुदाते हुए

ईंटों और गारे के खेल में
ये पतीले
चिपकते नहीं हैं कहीं
बस चलते रहते हैं हरदम
हाथों की मानिंद
दीवारों पे
सारी जि़ंदगी






आज़ादी का स्वर्ग

चलाओ हल अपने दिमागों में  मेरे दोस्तों
और जोतो हज़ारों सालों से बंजर होती  ज़मीं
उगाओ कोई पौधे नई
ज्ञान की

देखो वहाँ स्वर्ग में उस तरफ
कैसे बढ़ रही है हमारी माँ हब्बा
ज्ञान के वृक्ष की तरफ
सारी व्यवस्थाओं को तोड़ती
नकारती स्वर्ग के सुखों  को
जानते हुए कि निकाल दी जाएगी वो
बाहर स्वर्ग से
बढ़ रही है वो
देवताओं के आदेशों के खिलाफ़
आज़ादी पे पड़े बंधनों को तोड़ती हुई
कि ज्ञान की ज़मीं बेहतर हैं
अज्ञान के स्वर्ग से
कि ज्ञान का फल
मीठा है स्वर्ग के मिष्ठानों से
जहाँ आज़ादी है वहीं है स्वर्ग

इसलिए मेरे दोस्तों
जागो
और देखो कि हज़ारों सालों पहले जागी थी
हमारी माँ
अज्ञानता की नींद से
कि उसी ने बजाया था बिगुल
पहली क्रांति का
अजेय आकाओं के विरुद्ध
मानवता की कहानी रचने के लिए

उठो और भेजो उसे अपने सलाम
आज़ादी के गीत लहराते हुए


घाव
 
(नरेंद्र दाभोलकर, अविजित रॉय और गोविंद पानसरे को याद करते हुए)

चीखों से उबल रहे हैं मेरे कान
हजारों सालों से
सुकरात के पहले
सुकरात के बाद
कोई न कोई कोना
रिसता रहता है दिल का मेरे
और दहाड़े मारती रहती हैं मेरी आँखें

लोग आते हैं
लोग देखते हैं
लोग चले जाते हैं
दरवाजों दीवारों दिलों के पीछे
सिमट के रह जाते हैं मुट्ठियों के दायरे

और पड़ी रह जाती है
एक और लाश
हमारी आँखों में सिमटे
सपनों के लिए लड़ते हुए

न जाने कब से लग रही है खाद
इंसानी खून की ज़मीन में
मगर फसल है
कि उगती ही नहीं
बढ़ती ही नहीं
और जो पक जाते हैं दरख्त
देने लगते हैं फूल और बीज
आंधियों से लड़ते हुए

काट कर फेंक दिया जाता है उन्हें सड़कों पे
ताकि सनद रहे हमें हमारे हश्र की
बस कुछ मौमबत्तियाँ रह जाती हैं हमारे हाथों में
हमारी ही तरह जलती पिघलती हुईं
नाजुक होंठों पे
घवरायी लौ संभालती हुईं

                            


चप्पलें

अपनी चप्पलों पे
अपने निशानों को देख
अपने वज़ूद का अंदाजा हुआ मुझे
और इस बात की तसल्ली भी
कि मेरी चप्पलें अब मेरी हैं
अब काटती नहीं हैं ये
लगातार चलने पे
कि घंटों पहन कर भी
अहसास नहीं होता मुझे
इनके होने का
जबकि ये रहती हैं वहीं
मेरे तलवों के नीचे
लगातार टकराती हुईं
रास्तों के पत्थरों से
कि धारें कुंद पड़ जाती हैं पत्थरों की
इनके होने से

हालाँकि यूँ टकराते हुए
घिस गई हैं ये
और बिगड़ गया है इनका चेहरा
फिर भी करती हैं ये
मेरे पैरों की रक्षा बड़ी मुस्तैदी से
यहाँ तक कि
इनका नाम इनकी पहचान इनका ब्रांड सब
घिसघिस कर निकल गया है
मेरे पैरों से
फिर भी चलती रहती हैं ये
मेरे पैरों को थामे
हर उस जगह
जहाँ जाते हैं मेरे पैर
बिना शिकायत बिना कोई राय रखे
चलते रहने को अपना धर्म समझ

तो इस तरह
ये चप्पलें अब सिर्फ मेरी हैं
कि मेरे पैरों के निशान ही
अब पहचान हैं इनकी
ये बात और
कि ज़रा धँस गए हैं मेरे तलवे इनमें
कि जगह जगह छिल गयी है इनकी खाल
मेरे पैरों के दबावों से
शायद इसीलिए ये चप्पलें
ज़्यादा आराम दायक
ज़्यादा अपनी सी लगती हैं अब मुझे
और इनमें धँसा हुआ मेरा पैर
ज़्यादा खुश रहता है
वहाँ रहने से


ग़ुब्बारे

डंडे से बँधे-बँधे उड़ते
ग़ुब्बारों सी
उड़ रही थी बाहें उसकी
उड़ते बाल
उड़ते साल
उड़ते कदम
उड़ते स्वप्न
सब कुछ उड़ रहा था
टूटे बटनों की शर्ट के साथ

उड़ते ग़ुब्बारों के बीच ठहरी
उसकी आँखों का रंग भी
उड़कर
छितर गया था
रंगीन ग़ुब्बारों पर
एक रुपए में एककी
आवाज़ में उड़ उड़ कर
 

फेरी वाला

सड़कें बधीं रहती हैं
मेरे पैरों में
और खुलती जाती हैं दूरियाँ
मेरे कदमों की आहट से

और चलता रहता हूँ मैं
एक सड़क से दूसरी सड़क
कि रास्ते खत्म ही नहीं होते
मेरे लिए
कि तमाम रास्तों से गुज़रता
एक रास्ता बन गया हूँ मैं
और गुज़र रही है
उम्र
मुझमें होती हुई
पता नहीं
जाने कहाँ



 



हंडे वाले

अपने सरों पे लादे रहते हैं ये
हंडे रोशनी के
फिर भी
कितने ओझल हैं इनके चेहरे
कि ये दिखते ही नहीं
एक से लगते हैं सभी
चेहरे अँधेरे के

कहने को सर पे है
मगर नहीं छलकती
कोई बूँद रोशनी की इनके चेहरों पे
कि चलते रहते हैं ये गुमसुम
खुशी के गीतों में छूटे सुरों की तरह
बारातियों के साथ-साथ
दमकते चेहरों पे
रोशनी मलते हुए

जैसे धो कर निखारी हो रात
हंडों के शीशों की तरह
ऐसे पेरते हैं रोशनी रात भर
फिर भी कितने काले हैं इनके हाथ
जैसे आई हो हिस्से में इनके
काली सूखी रात


देश प्रेम के मायने

जब सोचता हूँ
सम्मान और कृतज्ञता से भर जाता हूँ
कि कैसे बनता है मेरा एक एक दिन
हज़ारों हाथों से बुना हुआ

ये मकान जिसे घर बुलाता हूँ मैं
जो दुनिया में मेरे होने का पता है
किसने बनाया था मुझे याद नहीं
ये सड़क जिस पर चलता हूँ मैं
जो बाँधती है सारी दुनिया से मुझे
किसने बनायी थी कुछ पता नहीं
ये सब्जियाँ  दालें अन्न और फल
जिनसे जिन्दा हूँ मैं
मैंने नहीं किसी और ने उगाए हैं मेरे लिए
ये शर्ट ये पैंट ये स्वैटर
जिन्हें पहन हर मौसम से जीत जाता हूँ
न जाने किन हाथों ने सिले हैं मेरे लिए

ये किताबें जिन हाथों ने छापी होंगी
उन्होने ही सोखी होगी सारी कालिख
जादूई शब्दों की
रात-भर जाग कर
उन्हीं हाथों ने लगाया होगा खेतों में पानी
थापी होंगी ईंटें, बटे होंगे धागे, चलायी होंगी कैंचियाँ
हथोड़े बजाए होंगे, तोडे़ होंगे पत्थर
दोपहरी भर नंगे सर
उतरे होंगे नालियों में वही
उठायी होगी पूरी दुनिया की गंद
दबे होंगे वही खदानों में, जले होंगे वही कारखानों में
उन्हीं ने निखारे होंगे सोने चाँदी हीरे जवाहरात
गलाया होगा लोहा बंदूकों तोपों के लिए
बनाया होगा बारूद दहकते सपनों से
बिना किसी पेटेंट, किसी कॉपी राइट के

लाखों हैं चीजें जिन्हें गिन कर बता सकता हूँ मैं
जो मैंने नहीं किसी और ने बनायी हैं
और जिन्होंने बनायी हैं
उनसे मिला तक नहीं  हूँ मैं
यहाँ तक कि कभी सोचा भी नहीं है उनके बारे में

अगर, मैं बनाता तो क्या बना पाता
घर?
मगर कहाँ से लाता ईंटें, बालू, बदरपुर सीमेंट, रोड़ी, सरिया, औजार
सौ हाथ और सदियों  का हुनर
अगर न होते ये लोग
और न करते वे हजारों हजारों काम
जीना सम्भव नहीं होता एक भी दिन
चाहे हम कोई भी होते, कितने ही तुम्मन खाँ
ये लोग ही हैं जिन्होने बनायी है सारी दुनिया
यही हैं जो बनाते हैं गाँव शहर देश
यही हैं देश मेरे लिए
कि इनके बिना कोई देश सम्भव नहीं
अगर करना है तो इन्हीं से करो प्रेम
कि देश प्रेम के असली मायने यही हैं
कि इनके बिना खोखला और झूठा होगा कोई भी देश प्रेम

संपर्क-
मोबाईल- 09958596170
ई-मेल sanjeev.kaushal@yahoo.co.in

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं