पंकज पराशर का आलेख 'यह दुनिया कुछ कम अँधेरी होती!'
विनोद कुमार शुक्ल |
कल यानी पाँच अप्रैल को युवा आलोचक एवं कवि पंकज पराशर को देवीशंकर अवस्थी सम्मान से सम्मानित किया गया. पंकज
पराशर को यह सम्मान उनकी आलोचना पुस्तक ‘कविता के प्रश्न और प्रतिमान’ के लिए दिया गया
है. युवा आलोचकों में पंकज अपनी ढब के अलग तरह के आलोचक हैं. आलोचना की भाषा को एक
अलग स्वरुप प्रदान करने में पंकज का अपना एक योगदान है. पंकज पराशर को इस सम्मान
के लिए बधाई देते हुए आज पहली बार पर प्रस्तुत है उनकी सम्मानित कृति ‘कविता के
प्रश्न और प्रतिमान’ का एक आलेख. प्रस्तुत आलेख अपनी तरह के अनूठे कवि विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं पर केंद्रित है.
यह दुनिया कुछ कम अँधेरी होती!
पंकज पराशर
विनोद कुमार शुक्ल अमानुषिकता से मुखामुखम करने वाले सहज मानवीय राग के कवि
हैं। जिनके यहाँ अपने सहज-सरल रूप में भी भाषा एक विशिष्ट प्रकार की निजता और
सौंदर्य से सन्निहित होती है। स्वरों और भावों के साथ उनकी काव्य-भाषा में अनेक
स्तरों पर भाषिक और शिल्पगत वैभिन्य दृष्टिगोचर होता है- जिसे अपने कमाए हुए अनुभव
और जीवन-सत्य की तरह विनोद कुमार शुक्ल ने अर्जित किया है। कविता और गद्य दोनों
में उनकी-सी भाषा, अंदाज-ए-बयां और सहजता हिंदी कविता में कुछ ही कवियों के यहाँ नज़र
आती है। ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ में जिस फैंटेसी की रचना विनोद कुमार शुक्ल करते हैं, उसका दूसरा उदाहरण
प्रकाशन के इतने दिनों बाद भी देखने में नहीं आता। काव्य-भाषा के अलावा अपनी गद्य-भाषा
में भी वे समकालीन जीवन यथार्थ के समानांतर एक यूटोपियाई दुनिया संभव करते हैं, जहाँ
इस आपाधापी में अपनी मंथरता के लिए कुख्यात हाथी का चुनाव वे नायक की सवारी के लिए
करते हैं। होड़ और शोर की इस दुनिया में दुनियादार लोगों को यह देखकर थोड़ी हैरत
होती है कि ये कैसी दुनिया है, जिसमें किसी तरह की कोई हड़बड़ी या जल्दबाजी नहीं
है।
विनोद कुमार शुक्ल की सम्मोहक भाषा और विशिष्ट शिल्प की इतनी तारीफ़ हुई है/हो रही है कि अन्य चीज़ों पर पर्याप्त बातचीत को या तो मुल्तवी कर दिया जाता
है, या बहुत काम बात होती है। उनकी कहन, उनकी शैली और शिल्प-वैशिष्ट्य को ले कर आलोचना
के एक वर्ग में उन्हें दबी ज़ुबान से कला और रूप के प्रति अतिरिक्त झुकाव रखने
वाला ‘कलावादी’ और ‘रूपवादी’ कहा जाता है। इस संदर्भ में यहाँ यह याद करते चलें कि जिन शमशेर की मार्क्सवाद
में आस्था असंदिग्ध रही और जो अपने मार्क्सवाद को ऑक्सीजन की तरह जीवन में जरूरी
मानते रहे, उन शमशेर बहादुर सिंह की काव्य-भाषा को ले कर भी प्रगतिशील आलोचना में एक
प्रकार से असहजता भाव बना रहा। उन्हें रूपवादी रुझानों वाला कवि साबित करने की
बज़िद कोशिशें चलती रहीं। ऐसे में सहज ही यह सवाल पैदा होता है कि क्या कला का
जीवन-विवेक और प्रगतिशीलता से कोई वैर-भाव है? या अनुभव-सत्य में पगे जीवन-सत्य को कलाविहीन
सपाटता में ही ठीक-ठीक व्यक्त किया जा सकता है? प्रगतिशील रचनाशीलता के लिए कला की कितनी आवश्यकता
है? कला में वह कौन-सा तत्व है, जिसकी उपस्थिति प्रगतिशीलता के लिए दीवार बन कर खड़ी
हो जाती है? जिन कवियों को हिंदी आलोचना
ने अपने निकष और मानक के मुताबिक कलावादी और रूपवादी ठहराया है, क्या उनके
मूल्यांकन के समय परीक्षण की इन प्रक्रियाओं से आलोचना गुजरी? दुर्योग से इन प्रश्नों पर विचार किए बिना रचना की
कलात्मकता को लेकर पूर्वग्रहों की निर्मति हुई और यह आलोचनात्मक निकष का स्थानापन्न
भी बनता रहा। यहाँ तक कि समाजवादी रूझान वाले कवि रघुवीर सहाय ने बाकायदा कविता में दर्ज़ किया।
‘कला बदल सकती है क्या समाज?
नहीं, जहाँ बहुत कला होगी, परिवर्तन नहीं होगा।’
(लोग भूल गए हैं, राजकमल प्रकाशन, 1982, पृ.14)
विनोद कुमार शुक्ल की कविता में यदि एक ओर गहन साधना से उत्पन्न कला और सोच के
उच्चतम मानकों के निदर्शन होते हैं, तो दूसरी ओर सहज-सरल भाषा में मानवीय/आदिम इच्छाओं और प्रवृत्तियों की शिनाख़्त भी की जा सकती है। उनकी
अनुभव-संपन्न दृष्टि से ऐसी चीज़ें भी अलक्षित नहीं रहती, जिनकी वज़ह से देश के
अधिकांश आमजन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आततायी सत्ताओं से शोषित और प्रताड़ित
होते/हो रहे हैं। काव्य-कला और
काव्य-भाषा को ले कर आलोचना की अतिवादी दृष्टि के कारण जो दुराग्रह पैदा होता है,
उसके आधार पर की गई व्याख्या अक्सर तथ्यों और तर्कों से परे चले जाती है। इत्तफाक
से विनोद कुमार शुक्ल की काव्य-भाषा और कला पर जितनी बातें हुईं, उतनी अन्य चीज़ों
पर नहीं। जबकि उनकी कविता का क्षितिज इतना बड़ा है कि उसमें जीवन के तमाम रंग अपनी
पूर्णता में विद्यमान हैं। वे कहते हैं,
‘अकेले से अच्छा
किसी को साथ लाना
पूरे मोहल्ले को गोल बाज़ार में आना है
किसानगंज में
ख़रीददार दुकानों में
बरसों के मेहनत को तुरंत घाटे में
मेहनत को मुस्कुराहट में
सोने को बनते हुए ताप बिजलीघर में
जिसकी चिमनी में उगा मधुमक्खी का छत्ता
या दिमाग में डंक मारने वाले विचारों का शहद-छत्ता
डंक मारने वाले विचारों को फैलाना है
जरूरी काम है।’
(सब कुछ होना बचा रहेगा, 1992, पृ.65)
डंक मारने वाले विचारों का शहद-छत्ता के फैलाव को एक
जरूरी काम मानने वाले कवि विनोद कुमार शुक्ल इसके बाद की स्थिति से भी भली-भांति
परिचित हैं।
मनुष्य मरता है, विचार नहीं मरते, इसलिए मनुष्य-विरोधी
सत्ता मनुष्यों से नहीं, विचारों से डरती है और ऐसे विचार जो दिमाग में डंक मारते
हैं, कवि उसे व्यापक रूप से प्रसारित करने की बात करता है। कहना न होगा कि कवियों
की प्रतिबद्धता की वज़ह से सत्ता और कविता का संबंध हमेशा तनावपूर्ण बना रहा/रहता है। विनोद कुमार शुक्ल
जानते हैं कि निहत्थे मज़दूर चाहे कुछ न करें, लेकिन पुलिस जब गोलियां बरसाएंगी तो
सीना इन्हीं निर्दोष मजदूरों का होगा, मारे वही जाएंगे,
‘बढ़ो उघारी छाती ले कर एक साथ सब
ऐसे ही निहत्थे खाली पेट उसी तरफ
जिस तरफ हथियारबंद पुलिस खड़ी है रस्ते पर
तुम पर तब भी गोली चलेगी।’
(कवि ने कहा, 2012, पृ.127)
निहत्थे, निर्दोष पर ही गोली चलेगी, इस बात का
पूर्वानुमान है कवि को, जिसके पीछे है भारतीय पुलिस की संरचनागत आधार और औपनिवेशिक
बर्बर चरित्र। पुलिस की कार्य-शैली ऐसी होने की वजह है गुलाम भारत की दमनकारी हुकूमत
में बुना गया तंत्र है, जिसे उदार लोकतांत्रिक ढांचे में रूपांतरित करने के लिए आज
की कथित लोकतांत्रिक सत्ता भी तैयार नहीं है। ऊपरी आवरण लोकतंत्र का अवश्य है,
परंतु शासन की कार्य-प्रणाली में आज़ादी के इतने समय बाद भी लोकतांत्रिक तत्व का
प्रवेश निषिद्ध-सा ही है। निर्बल, निहत्थों की ओर से कोई और बोले या न बोले, कवि
बोलता है। सत्ता के दमनकारी चरित्र के कारण व्यवहारिक लोग भले चुनी हुई चुप्पी ओढ़
लें, कवि चुप नहीं रहता।
बोलने की उम्मीद उससे होती है जिसके मुंह में ज़ुबान
हो, उससे क्या जो बेज़ुबान हो! जैसे बकौल रामधारी सिंह ‘दिनकर’,
‘क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो!’
‘सबकी तरफ से वह बोलेगा’ कविता में चित्रित दो विडंबनात्मक
चित्रों को देखिए,
‘सबकी तरफ से वह बोलेगा
वही तो!
कुछ बात नहीं की जिसने मुझसे
चाय पीते हम दोनों सड़क पर खड़े रहे चुपचाप।’
वह शख्स जिससे तमाम लोगों को उम्मीदें हैं कि वह सबकी
तरफ से बोलेगा, चिंताओं और दुःखों के समाधान हेतु कुछ प्रयत्न करेगा-उससे तमाम लोग
अपनी व्यथा-कथा बयान करते हैं। मगर विडंबना देखिए कि सबकी तरफ से बोलने की जिससे
अपेक्षा है, उसके मुंह में ज़बान ही नहीं है,
‘जो हमेशा इस तरह होता है चुपचाप
कि अब जोर से बोलेगा अचानक किसी वक्त
पहले भी यही बात थी
अभी भी यही बात है
जबकि पिछले दिनों
कुछ गुंडों ने उसकी ज़ुबान काट दी।’
(दोनों उद्धरण वही, पृ.124)
आज़ादी के बाद बने संविधान में जनता को हासिल बोलने
की आज़ादी के बावजूद सच यह है कि जो भी अन्याय और अत्याचार का विरोध करता है, उसकी
ज़ुबान गुंडे काट देते हैं। ज़ुबान क्या, एक दशक सत्ता-पोषित-समर्थित गुंडों ने
सरेआम हिंदी के कवि मान बहादुर सिंह को दिन-दहाड़े काट डाला था!
विनोद कुमार शुक्ल ने अपनी रचनात्मक यात्रा के आरंभ
में ही पुलिसिया तंत्र की कार्य-शैली को ‘लगभग जयहिंद’ में बिल्कुल सटीक लक्षित किया था। ‘पहचान सीरीज’ के अंतर्गत प्रकाशित ‘लगभग जयहिंद’ की कविताओं ने हिंदी कविता के पाठकों को अपनी ओर आकर्षित
किया था। ‘लगभग जयहिंद’ शीर्षक में सन्निहित विडंबना देखिए कि हिंद की जय लगभग युग्म के साथ है। हिंद
की जय की वास्तविकता की एक तस्वीर देखिए,
‘मेरी पूरी बांह की कमीज उस दीवाल पर फैली थी
कमीज की दोनों कलाई पर कीलें ठुकी थीं
आराम करने के पहले
जिस कील में मैं कपड़े टांगता था।
वह भविष्य नहीं था।
निश्चय ही हमारा भविष्य नमस्कार हो गया।
जाते वक्त जयहिंद था
लगभग जयहिंद
सरासर जयहिंद
एक राजनीतिक नमस्कार भाई साहब!’
(वही, 2012, पृ.58)
इस उद्धरण के अंत में जयहिंद के साथ ‘सरासर’ और ‘लगभग’ जुड़ कर जैसी अर्थ-छवि पैदा
करता है, उसे ध्यान से देखें तो पता चलता है कि इस कविता के माध्यम से कवि ने कैसा
आख्यान संभव किया है!
यह कविता लोकतांत्रिक देश के निम्नवर्गीय जीवन का
पूरा आख्यान रचती है, जिसमें चर्चा के स्तर का निर्धारण भव्यता, आलीशान जैसे
शब्दों से करके कवि कैसी वक्रोक्ति संभव करता है,
‘एक आलीशान आश्चर्य की चर्चा हुई
उसमें भी विस्थापित टिपरिया होटल में
मेरा छोटा भाई तश्तरी-प्याले धो रहा था
मैंने उसे दो लात लगाई और ठीक बाएं मुड़ कर
ब्राह्मण पारा की एक गंभीर मोटी दीवाल से
सट कर चलता गया
रिश्तेदार मुझे दबा कर चलता था।’ (वही , पृ.57)
इस कविता में अभिव्यक्त मनोविज्ञान देखिए कि आलीशान आश्चर्य की चर्चा टिपरिया
होटल में होती है और चूंकि रिश्तेदार उसे दबा कर चलते थे, सो वह अपने से कमज़ोर
कप-प्लेट धो रहे छोटे भाई को दो लात लगाता है। आम-जन की दृष्टि में जो सच हो,
सही-सलामत हो, वही दमनकारी सत्ता की नज़रों में भी हो सही-सलामत हो, यह कोई आवश्यक
नहीं। सो टिपरिया होटल में आलीशान स्वप्न देखने की पृष्ठभूमि वाला आदमी जब सही-सलामत
भी कुछ करता है, तो पूरी चहल-पहल आबादी तक विस्थापित हो जाती है,
‘सही-सलामत होता हुआ, इतना ठहरा हुआ भागा
कि एक पूरी की पूरी
चहल-पहल आबादी
मेरे पैरों से विस्थापति हो गई।’ (वही , पृ.60)
इस कविता में एक वाक्य ख़ास तौर पर ध्यान देने लायक
है, जिसमें वे कहते हैं,
‘क्या! सौम्य भुखमरी थी
कि खानसामा अच्छा खाना बनाता था
मैं नागरिक हो गया
या अनिमंत्रित रह गया।’ (वही , पृ.59)
भुखमरी के साथ सौम्यता क्या ख़ूब चित्रण है! यह परिस्थिति भारतीय समाज
का क्रूरतम यथार्थ है, जो शासन तंत्र की औपनिवेशिक मानसिकता के कारण उसी तरह कायम
है और जहाँ लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों की बात करना लगभग बेमानी है! बावज़ूद इसके कोई
प्रतिबद्ध कवि यदि किसी लोभ या लाभ के कारण चुप रहा/रहता है, तो ऐसे कवियों को सत्ता भले सिर पर बिठा ले, जनता बिल्कुल नहीं पूछती। सत्ता की पसंद और नापसंद को ध्यान में
रखने वाली रचना की उम्र भी कहीं-न-कहीं सत्ता की उम्र से जुड़ जाती है और सत्ता के
पतन के साथ ही वह भी पतित हो जाती है।
मुक्त अर्थव्यवस्था को अपनाना यदि तत्कालीन सरकार की विवशता
थी, तो यह उम्मीद भी उसके साथ जोड़ी गई थी कि इसके बाद देश में समृद्धि आएगी और वह
बिल्कुल धरातल तक पहुंचेगी। लेकिन यह व्यवस्था मलाई को ऊपर-ही-ऊपर ढेर लगाती रही
और एक बूंद भी नीचे की ओर नहीं रिसकर आया। वरना कुपोषण और भुखमरी के मामले में
इतनी बढ़ोतरी न हुई होती। वरना जन से पूरी तरह कट चुके लोकतंत्र के निर्वाचित जन
प्रतिनिधियों की नज़र फटेहाल आमजनों की थालियों पर न होती। जिस लोकसभा के सर्वाधिक
सांसद करोड़पति हों, उस लोकसभा के सांसद एक रूपये से लेकर बारह रूपये में भरपेट
भोजन की बहस में उलझे हुए हैं। ऐसी परिस्थितियों में एक कवि, जिसकी फितरत है जागे
अरु रौवे, वह भला कैसे खुश रह सकता है! विनोद कुमार शुक्ल कहते हैं,
‘हँसने लगा अचानक
फिर भी बात बनी नहीं
नहीं किसी से कोई झगड़ा
फिर भी याद नहीं
खुश होना सचमुच भूला
बहुत कोशिश की याद करूं
तो ऊपर से छोटे-छोटे दुख के
छोटे-छोटे ब्योरे तक
याद आ गए
आखिर मुट्ठी बांध के देखा
क्या यह खुशी-खुशी हुआ
घूंसा तान कर
बहुत गुस्सा हुआ।’ (वही, पृ.125-126)
एक सच्चा और ईमानदार कवि ऐसी स्थितियों में कैसे खुश रह
सकता है!
ऐसे लोग कम हैं जो संबंधों से ऊपर उठ कर सिर्फ मनुष्य
को जानते हैं। जो अपरिचित हैं, वे भी उनके आत्मीय हो सकते हैं-ऐसे जन अब कहां बचे
हैं हमारे इस जनतंत्र में भी? अर्थव्यवस्था
जरूर मुक्त और उदार हुई है, लेकिन मन मुक्त नहीं हुआ है। इस व्यवस्था में मानव मन
निरंतर आत्मकेंद्रित और अनुदार हुआ है। ‘जैसे-जैसे हम विकसित होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे
असुरक्षित क्यों होते जा रहे हैं? क्या इसलिए कि हम घर को खोकर मकान बना रहे हैं, समाज
को खो कर कॉलोनी बसा रहे हैं और मनुष्य को खो कर व्यवस्था बना रहे हैं? अपार्टमेंट बड़े होते जा
रहे हैं, रिश्ते छोटे होते जा रहे हैं, सुरक्षा कड़ी होती जा रही है, असुरक्षा
बड़ी होती जा रही है, संदेह स्वभाव बनता जा रहा है, अविश्वास नियम बनता जा रहा है।’ (प्रियदर्शन, तहलका,
16-31 जुलाई, 2013, पृ.62) अब
एक कवि इस तरह सोच पाता है, एक कवि हैं यह मानता है कि जो अपरिचित हैं, वे भी मेरे
आत्मीय हैं,
‘जो अपरिचित हैं
वे भी मेरे आत्मीय हैं
मैं उन्हें नहीं जानता
जो मेरे आत्मीय हैं
मुझे यह भी नहीं मालूम
कि मैं कितनों को नहीं जानता
सब आत्मीय हैं
सब जान लिए जाएंगे मनुष्यों से
मैं मनुष्य को जानता हूँ।’
(कवि ने कहा, 2012, पृ.11)
जब समाज के अन्य लोगों की दुनिया महज
नाते-रिश्तेदारों तक सिमटती जा रही हो, एक कवि अपरिचित को भी आत्मीय मानता है,
क्योंकि वह संबंधों या नातों को नहीं, मनुष्य को जानता है। कवि को यह नहीं मालूम
है कि वह कितनों को नहीं जानता, लेकिन चूंकि वह मनुष्य को जानता है, इसलिए किसी भी
संबंध के मूल को जानता है। राजनीतिक सत्ता के नीति-नियंताओं की तरह कवि वोट, पक्ष
या प्रशंसा को नहीं, मनुष्य को जानता है। यह अकारण नहीं है कि बांग्ला के संतकवि
चंडीदास कहते हैं,
‘शुनह मानुष भाई
सबारे उपरे मानुष-सत्य
ताहार उपर नाई।’
मनुष्य और मनुष्यता की रक्षा के लिए किसी भी सत्ता से
मुखामुखम करने के लिए प्रतिबद्ध किसी भी सच्चे कवि की दृष्टि में मनुष्य से ऊपर
कुछ नहीं होता। मनुष्यता बचेगी तभी सब कुछ होना बचा रहेगा,
‘जाते-जाते छूटता रहेगा पीछे
जाते-जाते बचा रहेगा आगे
जाते-जाते कुछ भी नहीं बचेगा जब
तब सब कुछ पीछे बचा रहेगा
और कुछ भी नहीं में
सब कुछ होना बचा रहेगा।’ (वही, पृ.12)
मनुष्य को जानने का दावा करने वाला कवि मनुष्य को
विभाजित करके देखने वाली किसी भी परिभाषा को नहीं मानता। इसलिए पृथ्वी के सारे
मनुष्य उसके आत्मीय हो पाते हैं, स्वजन-सरीखे होते हैं, लेकिन युद्ध और जय-पराजय
की भाषा में बात करने वाली सत्ता अब भी मनुष्य की चिंता को दरकिनार कर के वीरान
हुए हिरोशिमा और नागासाकी की तरह पूरी पृथ्वी को बना डालने की बात करती रहती है। चूंकि
सत्ता के स्वप्न और कवि के स्वप्न सर्वथा भिन्न होते हैं, इसलिए सत्ता के स्वप्न
और कवि के स्वप्न में हमेशा से टकराव होता रहा है। अधिनायकवादी सत्ता की निगाह में
जो मनुष्य उनके साथ होता है, वही मनुष्य मित्र या मित्रवत हो सकता है और जो
किन्हीं कारणों से उसके साथ नहीं होता, साथ नहीं देता, वह दुश्मन मान लिया जाता है।
सत्ता इसी तरह स्याह और सफेद में सोचती है, सो लड़ाई भी हमेशा दो सत्ताओं के बीच
होती है, मनुष्यों के बीच नहीं। मनुष्यों द्वारा निर्मित सत्ता ही व्यापक मानवीय विनाश
और धन-जन हानि को नजरअंदाज करके नतीजों को जीत-हार के रूप में देखती है। इसलिए सत्ता
की जीत के बावजूद अक्सर मनुष्यता की हार होती है-कलिंग को जीत कर भी जैसे सम्राट
अशोक मन में जीत का उल्लास पैदा नहीं कर पाता।
इस बारूदी-समय में जब चेतावनी की भाषा में बात करना सत्ता
की फितरत बनती जा रही है, तब एक कवि की यह चिंता ज़ेरे-ग़ौर है,
‘यह चेतावनी है
कि दुनिया है
बची दुनिया में
मैं बचा हुआ
यह चेतावनी है
मैं बचा हूँ
किसी होने वाले युद्ध से
जीवित बच निकल कर
मैं अपनी
अहमियत से मरना चाहता हूँ।’ (वही, पृ.16)
विनोद कुमार शुक्ल धर्म, मोक्ष या ईश्वर में आस्था रखने वाले कवि नहीं हैं,
सबाई ऊपरे मानुष की बात करने वाले हैं, इसलिए पिछले वर्षों में समाज में अचानक
ईश्वरों की संख्या में हुई भारी वृद्धि से वे थोड़े हैरान होते हैं,
‘ईश्वर अब अधिक है
सर्वत्र अधिक है
निराकार साकार अधिक
हरेक आदमी के पास बहुत अधिक है
बहुत बंटने के बाद
बचा हुआ बहुत है
अलग-अलग लोगों के पास
अलग-अलग अधिक बाकी है।’ (वही, पृ.23)
तैंतीस करोड़ देवता तो अकेले सनातन धर्म में हैं, सो कवि-सुलभ हैरानी के साथ
उचित ही विनोद कुमार शुक्ल कहते हैं कि बहुत बंटने के बाद भी बचा हुआ बहुत है! देश के तमाम शहरों और गांवों में विपन्न और बेघर
लोगों की संख्या जिस अनुपात में बढ़ी है, उससे भी अधिक तेज़ गति से देवताओं की
उपस्थिति बढ़ती जा रही है! अब यही नहीं कि हर धर्म के धार्मिक स्थलों की
संख्या में वृद्धि हो रही है, बल्कि एक ही धर्म में कई-कई धाराएं बन रही हैं और
उसमें उनकी आस्था कट्टरता में तब्दील होकर अंततः मनुष्यविरोधी होती चली जा रही है।
विनोद कुमार शुक्ल के पास ऐसी अनेक कविताएं हैं, जिनमें
पूरी पृथ्वी को ही वे अपना घर मानते हैं और पूरे अपरिचित मानव समुदाय को अपना
आत्मीय। इसलिए उनकी छोटी-छोटी कविताओं में भी मानवीय उदात्तता अपने पूरेपन के साथ
अभिव्यक्त होती है। अपनी यूटोपिया में क्रांति का स्वप्न देखने वाली कविताओं के
केंद्र में अंततः मनुष्य और व्यापक मानवीय हित होता है, लेकिन इस हेतु उनका मार्ग
अक्सर हिंसा से हो कर गुजरने में भी गुरेज
नहीं करता। क्रांतिकारियों की यह समझ है कि चूंकि आततायी और मनुष्यविरोधी सत्ता अपने
विरुद्ध उठने वाली आवाजों से निबटने के लिए दमन का सहारा लेती है और विरोधियों को
कुचल देने में यकीन करती है, इसलिए उनके सामने और किसी तरह विकल्प नहीं बचता। राज्य
के पास चूंकि असीम शक्ति होती है और उसकी कार्रवाई कानूनी नुक्ते के हिसाब से भी
वैध होती है, इसलिए सत्ता अपने विरुद्ध उठने वाली आवाजों को पूरी सख्ती से कुचलने
के लिए हर दाव आजमाती है और इस प्रक्रिया में अक्सर क्रांति का स्वप्न देखने वाली
आखों को हमेशा के लिए बंद कर देती है-जो केन सारो वीवा के साथ नाईजीरिया की तत्कालीन
सनि अबाचा की सरकार ने किया।
अपनी कविता में केन सारो वीवा कहते हैं,
‘निर्दय दुखद आदेशों को कार्यान्वित करने के लिए
पागलपन के साथ आपधापी मचा रहे सुरक्षा एजेंट
यह जानते हुए भी अपनी किताब में
सज़ा लिख रहा है न्यायाधीश
कि वह नाजायज़ है
नैतिक जर्जरपन
मानसिक अयोग्यता
तानाशाही को नकली वैधता प्रदान करती है
कायरपन आज्ञाकारिता का नकाब ओढ़
हमारी काली आत्मा में छिपा बैठा है।’ (‘हाशिया’ ब्लाग से साभार)
क्रांतिकारी कवि केन सारो वीवा की मुख्य मांग थी कि नाईजीरिया
के लोगों को आज़ादी दी जाए और तेल की बिक्री से होने वाली आय में स्थानीय लोगों को
हिस्सा मिले और स्थानीय भाषा के प्रयोग करने का अधिकार मिले। लेकिन नाईजीरिया की
तत्कालीन सनि आबाचा सरकार ने दमनकारी रुख अख्तियार करते हुए सन् 1994 की गर्मियों
में तकरीबन तीस गांव के लाखों लोगों को उनके घरों से खदेड़ दिया और दुनिया भर के
लोगों की अपील को ठुकराते हुए 10 नवंबर, 1995 आठ अन्य साथियों के साथ केन सारो वीवा को फांसी
पर लटका दिया।
सरकारें और सत्ता शुरू से ही लोगों को घरों से
खदेड़ती रही हैं, बेघर करती रही हैं, लेकिन विनोद कुमार शुक्ल पृथ्वी पर अपने घर
को लेकर क्या कहते हैं, ज़रा देखिए,
‘जाते-जाते पलट कर देखना चाहिए
दूसरे देश से अपना देश
अंतरिक्ष से अपनी पृथ्वी
तब घर में बच्चे क्या करते होंगे की याद
पृथ्वी में बच्चे क्या करते होंगे की होगी
घर में अन्न-जल होगा कि नहीं कि चिंता
पृथ्वी में अन्न-जल की चिंता होगी
पृथ्वी में कोई भूखा
घर में भूखा जैसा होगा
और पृथ्वी की तरफ लौटना
घर की तरफ लौटने जैसा।’
(वही, पृ.58)
पूरी पृथ्वी को ले कर कवि की यह सोच अन्य चीज़ों को लेकर भी एक-सी नज़र आती
है। विनोद कुमार शुक्ल की कविता की विशेषताओं में से एक बड़ी विशेषता यह है कि वह
किसी व्यक्तिगत बात या घटना से शुरू हो कर व्यापक संसार से सरोकार में तब्दील हो
जाती है और तब वह व्यक्तिगत सच बहुजन के सच में बदल जाता है। जैसे पीछे मुड़ कर घर
को देखने की बात करते हुए वे पूरी पृथ्वी की चिंता की बात करते हैं, उसी तरह नदी
के किनारे चलते हुए वे इतिहास को याद करने लगते हैं,
‘कलकल बहती ठंडी नदी के जल को
चुल्लू से पी कर
पानी का स्वाद पाता हूँ
मैं नदी के किनारे चलते-चलते
इतिहास को याद कर
भूगोल की एक पगडंडी पाता हूँ
चारों तरफ प्रकृति और प्रकृति की ध्वनियां हैं
यदि मैंने कुछ कहा तो
अपनी भाषा नहीं कहूँगा
मनुष्य-ध्वनि कहूँगा।’
(सब कुछ होना बचा रहेगा, 1992, पृ.14)
आदिम राग की गहन अनुभूति का यह प्रकटीकरण इतने तरीके
से इतनी बार उनके यहाँ हुआ है कि यह विनोद कुमार शुक्ल की कविता का सिग्नेचर
ट्यून जैसा बन गया है।
पृथ्वी के बारे उनकी ऐसी सोच अन्य कविताओं में भी इसी
भाव से अभिव्यक्त हुआ है, जिसमें अपनी कल्पना-शक्ति का विस्तार करते हुए कवि सूर्य
के चारों ओर परिक्रमा करती हुई पृथ्वी के घूर्णन को वे मज़दूर के बच्चे को झूला
झुलाने की तरह की देखता है,
‘डरा रोता धोबिन का बच्चा
मुझे ज़मीन पर नहीं
पृथ्वी पर लगता है
कि पृथ्वी दुनिया के सारे
ग़रीब बच्चों को गोद में लेकर झुलाती है।’
संपन्नता की नई इबारत लिखने वाले इंडिया की चमकती-दमकती
तस्वीरों के बावजूद गांवों-कस्बों में बसने वाले भारत में पहले कई गुना अधिक
करोड़ों बच्चे कुपोषित हैं, जिन्हें पृथ्वी ही झूला झुलाती/झुला सकती है! हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी
इन बच्चों की ग़रीब बेबस माँओं उचित पोषण के लायक न धन है, न झूला झुला सकने का वक्त! उन मांओं का भोजन उनकी वास्तविक स्थिति का चित्र स्पष्ट कर देती
है,
‘पानी डूबा भात बटकी के अंदर
मिर्च हरी गांठ प्याज की पूरी
और नमक देहाती थोड़ा
इतना बस।’(दोनों उद्धरण वही, पृ.75)
कवि जहाँ रहता है, जहाँ जीता है वहाँ यही है संतुलित आहार है आम ग़रीब श्रमिकों
का! इस
तरह के भोजन, जिसमें नकम देहाती और हरी गांठ की प्याज भी है- को देख कर कवि महज
द्रष्टा की भूमिका तक सीमित नहीं रहता।
ये चित्र और चरित्र कवि के मस्तिष्क में खचित हो जाते
हैं और सोच-विचार और स्मृतियों का विस्तार दूर तक चला जाता है,
‘-मेरी स्मृति में अब तक वह गांठ प्याज की
नहीं, मेरे दिमाग में
उठते बार-बार विचार
परतों-परतों में गांठ बनाते
दिमाग में ट्यूमर जैसा-
कैसा जीवन अनुभव
मरणासन्न जीवन को
जीने का तकलीफदेह
पता नहीं कहां
वेल्लूर, वेलिंगटन
जा सकते कितने कौन वहाँ
डीप एक्स-रे थेरेपी, कोबाल्ट, ऑपरेशन
मर जाना निश्चित ऐसी गांठ
अरे! इसका तो इलाज
खात्मा शोषण का
वहीं वहाँ जिससे पनपा।’ (वही , पृ.79)
फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘रसप्रिया’ का पंचकौड़ी मिरदंगिया मोहना के सूखे पपड़ाये होंठों को देखकर पेट में बढ़ी
हुई तिल्ली का अनुमान लगाता है, लेकिन वह मोहना से यह नहीं कह पाता कि तुम पूर्णिया
के किसी बड़े डॉक्टर से इलाज क्यों नहीं करवाते? क्योंकि वह इस यथार्थ से भली-भांति वाकिफ़ है कि मोहना जैसे विपन्न हजारों
लोगों की तिल्ली चिता पर गल पाती है! विनोद जी ऊपर उल्लिखित जिन जगहों का नाम इलाज के
लिए गिनवाते हैं, वहाँ इलाज करवा पाने में असमर्थ अधिसंख्य लोग चिकित्सा के अभाव
में मर जाने को अभिशप्त हैं।
देश में आज भी असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों से लेकर अधिसंख्य किसानों को किसी
तरह की सामाजिक सुरक्षा और सस्ते इलाज की सुविधा प्राप्त नहीं है। बेहतर प्राथमिक
शिक्षा और चिकित्सा दोनों के लिहाज से सरकार ने आम आदमी को निजी क्षेत्र के भरोसे
छोड़ दिया है। जो व्यक्ति निजी अस्पतालों का खर्च बर्दाश्त कर सकता है, आज उसी को
बेहतर चिकित्सा मिल सकती है। ऐसे माहौल में कवि विनोद कुमार शुक्ल ‘सबसे गरीब आदमी की’ कविता में जो स्वप्न देखते हैं, उस स्वप्न का कविता के अंत में जिस यथार्थ से टकराव होता है,
उससे स्थिति की विद्रूपता पूरी तरह सामने आ जाती है। पहले कवि-स्वप्न देखिए,
‘सबसे गरीब आदमी की
सबसे कठिन बीमारी के लिए
सबसे बड़ा विशेषज्ञ डॉक्टर आए
जिसकी सबसे ज्यादा फीस हो
कृतज्ञ हो कर
सबसे बड़ा डॉक्टर सबसे गरीब आदमी का इलाज करे।’
लेकिन कवि का सामना जब चिकित्सा जगत की वर्तमान
स्थिति से होता है, तो उसे लगता है कि यह किसी तईं मुमकिन न होगा, क्योंकि,
‘सबसे गरीब बीमार आदमी के लिए
सबसे सस्ता डॉक्टर भी
बहुत महंगा है।’ (वही , पृ.30)
सरकार से गरीबों के मुफ्त इलाज के नाम पर हासिल किए
गए भूखंड सहित अन्य दूसरी सुविधाओं के बावजूद ये अस्पताल आम आदमी की पहुंच से इतने
दूर हो चुके हैं कि यहाँ के सबसे सस्ते डॉक्टर की फीस भी अब आम आदमी के वश की बात
नहीं।
अपनी बेछप और विशिष्ट अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध
विनोद कुमार शुक्ल एक अलग काव्य-वैशिष्ट्य पैदा तो करते हैं, लेकिन वे किसी
विशिष्टता-बोध से रहित कवि हैं। अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं को वे किसी पर आरोपित
नहीं करते, न थोपते हैं, न उनमें ऊपर से ओढ़ी हुई सज्जनता दिखाई देती है। हर कवि
का अनुभव-सत्य और कवि-स्वभाग अलग होता है। जो काम में लगे हैं, जिनके पास इतना समय
नहीं कि वे लोगों से मिल-जुल सकें, जो कवि के घर कभी नहीं आएंगे, कवि उनकी सुविधा
और भावनाओं का सम्मान करते हुए ख़ुद ही घर-घर जाम कर मिलने की बात करता है,
‘जो लगातार काम में लगे हैं
मैं फुरसत से नहीं
उनसे एक जरूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा-
इसे मैं अकेली आखिरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा।’ (कवि ने कहा, 2012, पृ.20)
जब देश के नीति-नियंताओं की आंखों में व्यापक मानवीय
हित के लिए स्वप्न, सरोकार और सुधारों के लिए कोई संघर्ष नहीं नज़र आता है, तब कवि
विनोद कुमार शुक्ल की आंखों में अनेक तरह के स्वप्न पलते हैं।
विनोद कुमार शुक्ल की विशिष्ट ‘कला’ को ले कर जिस तरह की बात की
गई, लगभग उसी तरह का भाव हिंदी आलोचना में संस्कृत को लेकर भी रहा है। संस्कृत को बार-बार ‘संसकिरत है कूप जल भाखा
बहता नीर’ दोहरा कर निंदित किया जाता रहा है। इस भाषा को
प्रगति और आधुनिकताविरोधी ठहराने के लिए पर्याप्त तर्क और तथ्य पेश किए जाते रहे
हैं। जबकि भारतीय राजनीति की विडंबनाओं, नेताओं और पूंजीपतियों के गठजोड़, देश की
दारुण स्थितियों को किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा की कविता के समानांतर संस्कृत भाषा
में भी प्रभूत कविताएं आती रही हैं। संस्कृत के कवि-आलोचक-अनुवादक राधा वल्लभ
त्रिपाठी अपनी एक कविता में कहते हैं,
‘साम्राज्यवाद शिशिरः कुणपोन्तरासावतड.कवादखलता च बहिर्निदाघः/
उत्कायमान उभयोरिह चांतराले व्यक्तिं प्रयातु कथमेष वसंतकालः!’
-(लहरीदशकम, प्रतिभा प्रकाशन, दिल्ली, 2003, पृ.11)
नए विश्व में साम्राज्यवाद और आतंकवाद दोनों की ओर
संकेत करते हुए कवि राधा वल्लभ त्रिपाठी कहते हैं कि मनुष्यता का वसंत इन दोनों
ऋतुओं-शिशिर और ग्रीष्म के बीच दबा पड़ा है। यह अभिव्यक्ति किसी मायने में
परंपरागत है? कोई भाषा आधुनिक या पारंपरिक नहीं होती, बल्कि उसे
बरतने वाले आधुनिक या पारंपरिक होते हैं। बहुत संभव है कि किसी आधुनिक भाषा में परंपरागत
और मनुष्यविरोधी कविता हो और हजारों साल पुरानी भाषा में आधुनिक और सफल
काव्याभिव्यक्ति संभव हो रही हो। इस संदर्भ में संस्कृत के एक और आधुनिक कवि की
कविता को देखना अप्रासंगिक न होगा। डॉ. हर्षदेव माधव अपनी कविता ‘यातुधानीव दिल्ली’ में कहते हैं,
‘देशोशेषो विपणिविसृतः पण्यमेवास्ति सर्वं/
धर्मोन्यायो विजयविभवः प्रीतयोनीतयश्च।/
दिल्ली पीना स्वकृत वचनं विस्मरंती जनेषु/
स्वस्मिन्लीना जटिलसमये भावहीना विभाति।।’
-(बुद्धस्य भिक्षापात्रे, प्रतिनिधि कविताएं, परिमल पब्लिकेशंस, दिल्ली, 2009,
पृ.72)
अर्थात् पूरा देश एक विशाल बाज़ार है और धर्म, न्याय,
विजय, वैभव, प्रेम और नीति सब कुछ बिकने और खरीदने वाली चीज़ें और स्थूलकाल दिल्ली
लोगों के प्रति किए गए अपने वादे को बार-बार भूलती हुई अपने में मगन इस जटिल समय
में भी भाव-शून्य लगती है। ऐसी दिल्ली को देखकर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने कहा था,
‘वैभव की दीवानी दिल्ली
कृषक मेघ की रानी दिल्ली
अनाचार, अपमान व्यंग्य की
चुभती हुई कहानी दिल्ली।’
समर्थ कवियों ने साबित किया है कि भाषा, भाव और छंद कुछ
भी हो, आधुनिक दृष्टि और सोच के बिना आधुनिक कविता संभव नहीं हो सकती। यदि सोच
आधुनिक और दृष्टि मानवीय हो, तो भाषा, जो कि भावों के प्रकटीकरण का माध्यम होती
है, किसी तरह आड़े नहीं आती। व्यवस्था चूंकि सवालों से परेशान होती है, इसलिए वह चाहती
है कि उसकी तमाम वंचनाएं अनावृत्त न हों, लेकिन विनोद कुमार शुक्ल सवाल करने से चूकने
वाले कवि नहीं है। वे कहते हैं,
‘बरसात बस इतनी हुई
कि रंगीन इंद्रधनुष के टुकड़ों की पट्टियों से
सिले हुए झोले के अंदर
केवल तीन किलो चावल गुरमटिया
बासमती, बादशाह भोग, चिन्नोर
किसके बोरे में चला गया?’ (कवि ने कहा, 2012, पृ.122)
ये चीज़ें पैदा हालांकि देश का आम आदमी ही करता है, लेकिन व्यवस्था की
दुरभिसंधियों के कारण उसी को ये चीजें सुलभ नहीं होती जिनके कारण ये चीजें पैदा होती
हैं।
ग़रीबों को जीने के लिए छोटी-छोटी चीज़ों के लिए भी बहुत मेहनत-मशक्कत करनी
पड़ती है। इस वज़ह से जान से अधिक कीमती वे चीज़ें हो जाती हैं। पानी के भयंकर
संकट से जूझ रहे बुंदेलखंड के लोकक्षेत्र में औरतें गाती हैं,
मटकी न टूटे चाहे खसम मरि जाए।
एक-एक चीज़ जुटाने के लिए, एक-एक घड़े पानी के लिए औरतों को बेहद विकट
स्थितियों से जूझना पड़ता है। विनोद कुमार शुक्ल के यहाँ भी कुछ ऐसी ही तस्वीर है
जिसमें एक बाप अपनी बेटी की महज इस वजह से बहुत पिटाई करता है कि उसकी पोटली से
प्याज की एक गांठ कहीं गिर जाती है,
‘बाप ने
उसकी पीठ पर मारे घूंसे
गालों में चांटे
बाल पकड़ कर खींचे कई बार
टोली की दूसरी औरतों ने रोका
नहीं तो सच में वह
लड़की को मार डालता
पर ऐसा क्यों जबकि वह
अपनी बेटी को बहुत प्यार करता।’ (वही , पृ.78)
व्यवस्था ने उस बेबस गरीब बाप की ऐसी हालत बना दी है कि वह प्याज की एक गांठ
के गिर जाने से बौखला जाता है। जबकि वह उस लड़की से बहुत प्यार करता है और लड़की
भी इतनी समझदार है,
‘भात वही पकाती
मां के मरने के बाद
पानी भी नहीं छलका कभी
सिर पर रखे लोटे से
पर आज, गिर पड़ी कहीं
गांठ प्याज की पोटली से
क्या उसको इतनी मार पड़ गई इसलिए।’ (वही)
स्थितियां खुद एक बयान की तरह उपस्थित हैं कि इतनी मार महज एक गांठ प्याज के
लिए क्योंकर पड़ी!
जनकवि बाबा नागार्जुन ने अपनी एक संस्कृत कविता में देश
में व्याप्त विपन्नता और भुखमरी का जो चित्र खींचा था, कमोबेश आज भी देश में स्थितियां
उसी तरह की हैं। लेकिन संस्कृत भाषा पर आरोप यह है कि इसमें समकालीन जीवन की दारुण
परिस्थितियों की अभिव्यक्ति नहीं होती,
‘अद्याशनं शिशुजनस्य
बलेनजातं
श्वो वा कथं नु भवितेति विचिंतयती।
इत्यश्रु पातमलिनीकृतगंडदेशा
नेच्छेद्दरिद्रगृहिणी रजनीविरामम्।।’
रात के भयानक अंधकार में जागती हुई यह दरिद्र स्त्री
सोचती है कि आज तो जैसे-तैसे बच्चों को दिये हैं दो-दो निवाले। कल क्या होगा? वह सोचती जाती है और रोती जाती है। लगता है कभी खत्म
ही नहीं होगी यह काली और अंधेरी रात! इस तरह की काली और अंधेरी रात का सामना करने
वाली नागार्जुन की संस्कृत कविताओं में अनेक स्त्रियां हैं, जो बच्चों और पति के लिए भोजन जुटाने की हरसंभव कोशिश
करके भी न खुद जिंदा रह पाती है, न बच्चे और न परिवार को बिखरने से बचा पाती है। कला
और भाषा की शास्त्रीयता कवियों को आकर्षित तो करती है, लेकिन मानवता और मानवीयता
से अधिक नहीं।
कविता और कला मनुष्य को उदात्त बनाती है और यह उदात्तता
संपूर्ण मानव जाति से इसके सर्जकों/पाठकों को जोड़ती है। विनोद कुमार शुक्ल किसी व्यक्ति
को जानने की जगह मनुष्य को जानते हैं और संपूर्ण मानव जाति को आत्मीय कहते हुए वे पूरी
पृथ्वी को अपना घर मानते हैं। इसलिए भाषा और शैली-शिल्प की बारीकियों को साधते हुए
भी वे मनुष्य से शतधा आबद्ध हैं और मानवता के प्रति गहराई से प्रतिबद्ध। वे सभ्यता
और असभ्यता के झूठे दंभ और कथित मानदंडों को लेकर बहुत सहजता से प्रश्न उठाते हैं,
‘जितने सभ्य होते हैं
उतने अस्वाभाविक
आदिवासी जो स्वाभाविक हैं
उन्हें हमारी तरह सभ्य होना है
हमारी तरह अस्वाभाविक।’ (कविताकोश)
कौन सभ्य है और कौन असभ्य, इसका पैमाना हर देश और हर
समाज में अलग होता है। किसी के लिए जो सभ्यता है, वह दूसरे के लिए लिए भी सभ्यता
के दायरे में ही आता हो, यह कतई जरूरी नहीं। लेकिन नागर समाज अपनी सभ्यता की
कसौटियों पर आदिवासियों की जीवन-शैली को असभ्यता मान लेता है। इन वज़हों से भी अपने
समाज में बेहद हँसमुख और मिलनसार आदिवासी समुदाय नागर समाज में आते ही अंतर्मुखी
हो जाता है। चुप्पी लगा जाता है! जंगल से बाहर निकलकर वह शहर तभी जाता है, जब अपनी
आवश्यक चीज़ों के लिए जाना निहायत जरूरी हो,
‘कोसाफल ले कर जंगल के घने से
आदिवासी अपनी नग्नता में
शाखाओं, पत्तियों और हवा का
घना स्पर्श पाते हुए
लौटने लगते हैं बाज़ार की तरफ
अनेक कालों के बाद
हमारी इस सभ्यता के बाज़ार से
कोसाफल के बदले नमक पा लेने
या आने वाली किसी सभ्यता के बाज़ार से
कोई वस्त्र कपड़ा।’ (कवि ने कहा, 2012, पृ.81)
उपहास की मुद्रा में जिस संस्कृत ले कर ‘देववाणी संस्कृत’ की व्यंग्योक्ति की जाती
है, उस संस्कृत में बाबा नागार्जुन ने जैसी भयावह विपन्नता का चित्रण किया है,
लगभग वैसी ही भयावह स्थिति का चित्रण करते हुए अपनी विशिष्ट काव्य-कला के लिए
प्रशंसित और अनेक बार व्यंग्यविद्ध विनोद कुमार शुक्ल कहते हैं,
‘दम घुट गया उस नन्हीं बच्ची का
पेड़ के नीचे जो मरी पड़ी है
उसके हाथ में जो बड़ा-सा फुग्गा है
यद्यपि अभी कुछ पिचक गया है
फिर भी फुग्गे में शुद्ध हवा तो थी
बस उतनी ही हवा और होती उसके फेफड़े में तो
चार कदम आगे जाकर वह मरती।’
यानी मरती वह जरूर, जैसे मरना ही उसकी नियति थी।
फुग्गे भर और हवा यदि उसके फेफड़े में होती तो बच्ची वहाँ की बजाए चार कदम और आगे चल
कर मरती! लेकिन
फुग्गा लिए-लिए ही बच्ची मर जाती है और उस फुग्गे में जिसकी फेफड़े से निकली हुई
हवा अब तक भरी हुई है, वह उस बच्ची का पिता है और वह भी मर चुका है। मृत शरीरों की
उपस्थिति के साथ जीवित रहते समय फुग्गे में भरी हुई हवा उस मृत बच्ची के हाथों में
सुरक्षित है, जिसे अब लूट-खसोट और शोषण की इस दुनिया में किसी सुरक्षा की चिंता
नहीं। विनोद कुमार शुक्ल आगे कहते हैं,
‘पिता ने फुलाया था उसका फुग्गा-
मृत पिता की सांस
अभी तक फुग्गे में सुरक्षित है
मृत बच्ची के पास!!!
अपनी बच्ची को एक फूला फुग्गा दे कर
मैं कुछ बुरा सोचता हूँ।’ (दोनों उद्धरण वही, पृ.86)
कवि का यह बुरा सोचना ही इस सोच को जन्म देता है कि यदि उसका भी शोषण इसी
बच्ची के पिता की तरह होता तो वह भी उसकी स्थिति में हो सकता था और उस बच्ची की
स्थिति में उसकी बच्ची भी हो सकती थी।
विनोद कुमार शुक्ल पूरी दृढ़ता से अपनी बात कहते हुए
भी अधिक ‘लाउड’ होने से बचते हैं। मनुष्य को उसकी संपूर्णता में जानने
की बात करने के बावजूद उनके काव्य-व्यक्तित्व में किसी प्रकार की आक्रामकता का
निदर्शन नहीं होता। उनकी एक कविता है ‘जीने की आदत’। जीते तो सब हैं, लेकिन अपने जीने की आदत को लेकर एक
कवि की तरह सब लोग नहीं सोच पाते। वे कहते हैं,
‘थोड़े-थोड़े, भविष्य से
ढेर सारे अतीत इकट्ठे करता हूँ
बचा हुआ तब भी ढेर सारा भविष्य होता है
ऐसे में ईश्वर है कि नहीं की शंका में
कहता हूँ मुझे अच्छा मनुष्य बना दो
सबको सुखी कर दो।’ (कवि ने कहा, 2012, पृ.102)
अगर दुनिया में ऐसा आदर्श स्थापित हो जाए, तो एक कवि को बंदूक की तरह बोलने की
कोई आवश्यकता भला क्यों होगी? वे कहते हैं,
‘ग़लत पर घात लगा कर
हमला करने के सन्नाटे में
मेरा एक चुप-
चलने के पहले
एक बंदूक का चुप।’ (कविताकोश)
उनकी चुप्पी बंदूक की-सी चुप्पी है, जो हर वक्त आवाज़
नहीं करती है और मानव समाज के लिए यही ठीक है कि वह अधिक से अधिक चुप ही रहे।
अपनी कविता के बारे में बात करते हुए विनोद कुमार
शुक्ल ने लिखा है, ‘कोई कविता वैसे पूरी नहीं होती पर उसके लिखने का अंत
है। कुछ लिखना बचा हुआ प्रत्येक कविता के अंत के साथ रहता है। लिखने के इस छूटे
रहने के साथ कविता पूरी होती है। प्रत्येक कविता का लिखना बचा हुआ, अभिव्यक्ति का
बचा हुआ भी होता है जो पाठक की समझ से पूरा होता है।’ (कवि ने कहा, 2012, पृ.5) यह पाठकों की समझ के कारण
ही होता है कि क्लैसिक्स की कोटि की कविताओं की व्याख्या हर समय का पाठक अपने समय,
अपनी समझ और अपने कमाए हुए सत्य और मूल्य की रोशनी में करता है। इसलिए कबीर की
कविता की समझ आज वही नहीं है, जो समझ आज आठ-नौ दशक पहले प्रस्तावित की गई।
तुलसीदास, कालिदास या भवभूति से लेकर आधुनिक कवियों मसलन मीर, ग़ालिब तक की कविता
की समझ अपने-अपने समय के पाठकों की समझ से पूरी हुई /होती
रही हैं। मल्लिनाथ की समझ से जुड़ कर कालिदास की कविता का जैसा आस्वाद
काव्य-रसिकों को प्राप्त हुआ वह कालिदास के लिख देने बाद पूरा नहीं हो गया। रीतिकालीन
कवि घनानंद की कविता समझने के लिए कहा जाता है,
‘भाषा प्रवीन सुछंद सदा रहै सौ घनजी के कवित्त बखाने।’
इतनी चीजें यदि किसी व्यक्ति में न हो तो वह घनानंद की कविता का बखान ठीक से
नहीं कर सकता!
किसी भी रचना के साथ अपने जीवनानुभवों और जीवन-सत्य को
मिला कर पाठक उस रचना को पढ़ता है और इसलिए किसी पात्र के साथ अपने को जोड़ कर वह उस
रचना के चरित्र के दुःख से दुःख और चरित्र के सुख से सुख की अनुभूति करता है। कवि
रच तो सकता है, लेकिन अभिव्यक्ति का बचा हुआ पाठकों का तक पहुंचा नहीं सकता। उसे
पाठक ही पूरा करता है! इस संदर्भ में उनकी यह कविता विशेष रूप से ध्यान
आकर्षित करती है,
‘इस भरपूर जीवन में
मृत्यु के ठीक पहले भी मैं
एक नई कविता शुरू कर सकता हूँ
मृत्यु के बहुत पहले की कविता की तरह
जीवन की अपनी पहली कविता की तरह
किसी नए अधूरे को अंतिम न माना जाए।’ (कविताकोश)
गहन निराशा भरे इस ग़ैर रचनात्मक समय में कवि की
आस्था रचना और जीवन के प्रति यदि निरंतर दृढ़ है, तो इसके पीछे उनकी यह पहचान है
कि वे मनुष्य को जानते हैं और दुनिया में जितने भी अपरिचित हैं, वे उनके आत्मीय
हैं। ऐसे आत्मीय जो कवि के घर कभी नहीं आएंगे, लेकिन कवि उनसे मिलने एक जरूरी काम
की तरह जाएंगे! जिनके लिए पूरी पृथ्वी ही उनका घर है, उनके लिए
संसार में कुछ भी अपरिचित और अनास्थापूर्ण नहीं। जिनकी आंखों में मानवता के लिए कई
स्वप्न पलते रहते हों, वह कवि किसी भी समीकरण, कला और शास्त्रीयता के बंधन से
मुक्त होता है-विनोद कुमार शुक्ल की इन अर्थों में भी हिंदी कविता में उपस्थिति एक
विरल उपस्थिति है। हिंदी काव्य-संसार में जिनकी कोई प्रतिकृति संभव नहीं हो सकती!
पंकज पराशर |
सम्पर्क-
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी
विभाग,
अलीगढ़ मुस्लिम
विश्वविद्यालय,
अलीगढ़-202002 (उत्तर
प्रदेश)
मोबा. 9634282886.
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