कैलाश बनवासी की नयी कहानी ‘झूलना झूलै मोरे ललना’।
कैलाश बनवासी |
हमारा देश और समाज आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है
जिसे देख कर परेशानी होती है। हमारे समाज में आज कम्युनिस्ट शब्द बतौर गाली के
प्रयुक्त किया जाता है। किसी भी कट्टरपंथी समाज की यही दशा होती है। प्रगतिशीलता
को अपनाना भी सहज कहाँ होता है। एक अरसा पहले जब राजा राम मोहन राय ने जब सती
प्रथा के खिलाफ अपना आन्दोलन शुरू किया था तब उनके घर-परिवार-समाज ने ही उनका घोर
विरोध किया था। कैलाश बनवासी की कहानी ‘झूलना झूलै मोरे ललना’ का ताना-बाना समाज
के इसी संकीर्ण दृष्टिकोण को ले कर बुना गया है। इस कहानी के नायक नवीन भाई के
माध्यम से जैसे वे हमारे समाज का चेहरा पूरा खोल कर सामने रख देते हैं। प्रगतिशील
विचारों वाले नवीन भाई की सांस्कृतिक गतिविधियों को समाज जिस संदेह के नजरिए से
देखता है वह अत्यंत हास्यास्पद है। यहाँ तक कि एस. पी. भी उनसे यही कहता है – ‘हम
आपको सलाह दे रहे हैं, ये सब काम आप छोड़ दीजिए। इस सिस्टम से लड़ पाना इतना आसान नहीं है। आप
अपना पढ़िये-लिखिये, लेकिन सिस्टम की आँख में मत गड़िये।’
सिस्टम जो प्रतिरोध की एक आवाज से घबरा जाता है और उस हलकी सी आवाज को दबाने के
लिए जोरोशोर से जुट जाता है। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं कैलाश बनवासी की नयी
कहानी ‘झूलना झूलै मोरे ललना’।
झूलना झूलै मोरे ललना
कैलाश बनवासी
‘‘मैंने
तो आपको चार दिन पहले ही फोन किया था,’’ नरेश पारख बहुत संजीदगी से कहते हुए
सीधे नवीन भाई को देख रहे थे, ‘‘मैं उस दिन मंत्रालय में ही था, अपने किसी मित्र के काम से। वहाँ एक पी. ए. आया और बताया कि सर, ट्रांसफर की लिस्ट निकल गई है। तभी मैंने चिंता में आपको फोन किया था, कहीं आप प्रभावित तो नहीं हो रहे करके।’’
‘‘हाँ। लेकिन मुझे पता कहाँ था।’’ नवीन भाई ने अपनी मजबूरी बताई, ‘‘अरे भई, ऐसी सब चीजों की जानकारी हम लोगों को
कहाँ रहती है? आप कुछ कर सकें, इसीलिए तो आपके पास आया हूँ।’’
नरेश पारख अपने बँगले की लॉन के एक किनारे लगे
झूले में बैठे-बैठे, आराम से झूलते हुए नवीन भाई से कह रहे हैं, ‘‘यहाँ तो ऐसा है नवीन भाई, कि नोटशीट बनने से पहले ही सब खबर लीक हो जाती है। मुझे डाउट हुआ था।
लेकिन कनफर्म नहीं था। वैसे इस बार सारे आर्डर सी. एम. की टेबिल से ही निकल रहे
हैं, वो अभी किसी मंत्री की भी नहीं सुन रहे हैं। बगैर उनके अनुमोदन के
कोई लिस्ट नहीं निकल रही। कल जेल मंत्री मिले थे तो बोल रहे थे, वो तो खाली अपना चला रहे हैं, हम लोग तो केवल नाम के लिए हैं!’’
नवीन भाई कुछ नहीं बोले। शाम के धुँधलाते-सँवलाते
झुटपुटे में वे अपने में खोए जैसे कहीं और देख रहे हैं। उन्हें लग रहा है, ट्रांसफर में जाना ही पड़ेगा... धुर नक्सली और बीहड़ जंगली इलाका... यहाँ
से 400 किलोमीटर दूर...।
‘‘यदि
इस मामले में आप पहले थोड़ा अलर्ट रहते, या मुझी को टच कर दिये होते, तब शायद कुछ हो सकता था। आर्डर निकलने के बाद की प्रक्रिया बहुत टेढ़ी
है, इसे आप तो जानते ही हो।’’ पारख मुस्कुराया है।
नरेश पारख उनके पुराने परिचित हैं, और प्रकट तौर पर तो काफी मानते हैं। वे कई मंत्रियों के करीबी हैं।
नरेश पारख का दिमाग दो-धारी नहीं,कई
धारियों वाला तलवार है। सरकार किसी की भी हो, उन के कई प्रोजेक्ट एक साथ चलते रहते
हैं-साहित्य, संस्कृति से ले कर उद्योग और हार्टीकल्चर तक। सबको साध के रखा है इसने।
एक मंत्री के पिता के नाम पर वह हर साल साहित्य सेवा के लिए एक पुरस्कार देते हैं, बड़े भव्य आयोजन के साथ, जिसमें मुख्यमंत्री से लेकर कितने ही
प्रतिष्ठित व्यापारी और उद्योगपति शामिल होते हैं। इनका घर नगर के सबसे पॉश कालोनी
में है, जहाँ सारे करोड़पति ही रहते हैं। जबकि ये केवल सेवा सहकारी समिति बैंक
के एक सामान्य कर्मचारी मात्र हैं। साहित्य से जुड़ाव है, इसलिए नवीन भाई को जानते है। अपनी अनियमित लघु-पत्रिका में उन्होंने
इनके कुछ लेख छापे हैं। वह उनकी बौद्धिकता को मानते हैं।
आगे उन्होंने जानकारी दी, ‘‘ऐसा
है, नवीन भाई, उच्च शिक्षा मंत्री तो आज ही अपने गाँव निकल गए हैं, सुबह। उनसे तो अब परसों ही भेंट हो पाएगी। लेकिन एक काम कर सकते है।
उनका भतीजा है आलोक हरमुख। मॉडल टाउन में रहता है। मुझे भी बहुत मानता है, बड़े भइया की तरह। मंत्री जी अपने भतीजे की बात काफी मानते हैं। आप कल
सुबह उनसे भी मिल लीजिए। वैसे वो भी आपको जानता है। थोड़ी-बहुत रूचि है साहित्य
में। मेरे कार्यक्रमों का संचालन तो वही करता है। मैं भी उसे फोन कर दूंगा।’’
इसी सिलसिले में नवीन भाई उन्हें आज की ही बात
बता रहे हैं। अपने कॉलेज की।
...कि आज संयोग से उनके कॉलेज में एक फंक्शन था
जिसमें मुख्य अतिथि राज्य के ग्रामोद्योग मंत्री थे। यह कॉलेज उनके विधान सभा
क्षेत्र में पड़ता है। कार्यक्रम के बाद, चाय-नाश्ते के दौरान उनके कॉलेज के कुछ
स्टुडेंट्स और स्टाफ ने उनसे कहा, कि सर, इनका ट्रांसफर रूकवा दीजिए। ये बहुत अच्छे
आदमी हैं। कॉलेज का नाम है सर इनके कारण। इनको रोकिये, इनको यहाँ से मत हटाइये! मंत्री जी ने कहा बुलवाइये उन्हें। सफेद
झकाझक कुरते के ऊपर नीला वास्केट पहने थुलथुल मंत्री जी ने पहले तो नवीन भाई को
अपनी बड़ी- बड़ी आँखों से घूरा-ऊपर से नीचे तक। उनकी औसत कद-काठी को जाने क्यों बहुत
गौर से देखा, फिर कुछ तो भाँप ही गए होंगे कि कैसा आदमी है। फिर अपनी भारी आवाज
में सबको सुनाते हुए, जैसे उनका इरादा नवीन भाई को शर्मिंदा करने का हो, बोले, ‘‘बड़े
खुशकिस्मत हो यार! कहाँ तो प्यासे को कुएँ के पास जाना पड़ता है, और यहाँ तो कुआँ चल कर तुम्हारे पास आया है!!’’ फिर जोरदार ढंग से हँस पड़े, जैसे अपने ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ की दाद खुद ही दे रहे हों।
नवीन भाई जान गए, साला खुशामद चाह रहा है।
उन्होंने कुछ बेमन से आगे पूछा, ‘‘आप
यहाँ रहना चाहते हैं?’’
नवीन भाई बोले, ‘‘हाँ, सर। अभी जाना भी नहीं चाहता। आपकी बड़ी कृपा होगी, सर, अगर यह रूक जाए..।’’
तो मंत्री जी ने सभा में मानो घोषणा करते हुए
कहा, ‘‘तो
फिर आप नहीं जा रहे हैं। आपका ट्रांसफर नहीं होगा!’’ इस पर पूरी सभा में जोरदार तालियाँ बजी। मंत्री जी आत्म-गर्व से फूल कर
मुस्कुराते रहे।
मंत्री जी ने कहा, आप हमें लिख कर दे दीजिए। और नवीन भाई ने सादे कागज पर लिख कर दे
दिया। इस बात का बराबर ध्यान रखते हुए कि यह खुशामदखोर नेता उनका लिखा हुआ जरूर
ध्यान से पढ़ेगा, सो उन्होंने उसके अहं को तुष्ट करने
चार लाइन के आवेदन में तीन बार उन्हें महानुभाव जी लिखा। कैसे भी तो रूक जाए उनका
ट्रांसफर!
और वाकई, उनके अनुमान को सच में बदलते हुए
मंत्री जी ने अपना चश्मा लगा कर उनका आवेदन बहुत ध्यान से पढ़ा। नवीन भाई जान गए।
इस गौर से पढ़ने में वह यही गिनती लगाते होंगे कि मुझे माननीय या महानुभाव इसने
कितनी बार लिखा। और मंत्री जी के चेहरे पर आते-जाते भावों से लगा, वे संतुष्ट हुए हैं। उनके बड़े और मोटे-से चेहरे पर, जिनमें अमूमन कठोरता और अहं ही होता है, हल्की स्मित आई थी पल भर को। फिर वह कागज मंत्री जी ने अपने पी. ए.
को पकड़ा दिया था।...
...पूरी बात सुनने के बाद नरेश पारख बोले, ‘‘ठीक
है। अगर वह अपनी तरफ से भी दे दे तो क्या हर्ज है! अच्छा ही है।’’ फिर जैसे उक्त मंत्री की छोटी हैसियत का मखौल-सा उड़ाते हुए बोले, ‘‘वैसे
जान लीजिए नवीन जी,जहाँ तक मैं उसे जानता हूँ, यह काम उसकी क्षमता के बाहर है! अपनी वाहवाही लूटने के चक्कर में भले
ही उसने सरे आम ऐसी घोषणा कर दी हो, लेकिन
मैं जानता हूँ, आपका काम वो नहीं करा सकता।’’ यहाँ एक दबी-सी तिरछी मुस्कान
मुस्कुराए नरेश पारख, ‘‘वो
क्या है कि राजनीति में तो आजकल हर समुदाय को खुश रखना पड़ता है। फिर तो वो ट्राइब
से बिलांग करते हैं, इसीलिए उसे पिछले ही मंत्रिमंडल विस्तार में मंत्री पद दिया गया है-
उसकी जाति को खुश करने की गरज से। ऐसे भी उनको पसंद नहीं करते सी. एम., ये मैं जानता हूँ।’’
पारख की बात से यहाँ की राजनीतिक हल्के में
उनकी गहरी पैठ का अंदाजा उन्हें हुआ। और वैसे भी, सरकार किसी भी पार्टी की हो, पारख का काम कभी नहीं रूकता। ऐसी पकड़
बना रखी है एक नहीं, कई मंत्रियों और मंत्रालयों में। भले ही पीठ पीछे दबी जुबान से कई
लोग उन्हें गालियाँ देते हैं, और इस बात को भी वह बहुत अच्छी तरह से
जानता है। लेकिन पारख इन्हे हँस कर उड़ा देता है- हाथी चले बजार तो कुत्ते भौंके
हजार!
जब नवीन भाई जाने लगे तो वे झूले से उतर कर
उन्हें छोड़ने गेट तक आए। बहुत गहरे लगाव से कहने लगे, आप चिंता मत कीजिए नवीन जी। इस मामले में जो भी हो सकेगा, मैं करूंगा। मैं खुद मंत्री जी से बात करूंगा। वैसे और सपोर्ट के लिए
आप कल उनके भतीजे से मिल लीजिए। मैं उसे फोन कर दूँगा।
क्या करते? बेमन से हाँ-हूँ कर दिया। सोचने लगे, साला वक्त पड़े तो गधे को भी बाप बनाना इसी को कहते है। राज्य के इन
उच्च शिक्षामंत्री को वे जानते हैं, दूसरों के मुँह से सुन-सुन के। कि इनका
मुँह काफी बड़ा है, और मंत्रियों से ज्यादा! अपने किन्हीं मित्रों से पता चला है उन्हें
कि उनके स्थान पर जो महिला ट्रांसफर हो कर आ रही हैं, वो मंत्री जी के विधानसभा क्षेत्र की ही हैं, और ढाई लाख दे कर आ रही हैं! कि उनका
पति एक जज है। अब भला उनके लिए क्या मुश्किल? नवीन भाई ने सोचा, मुश्किल तो साला हम जैसों की है जो इन
दंद-फंद से दूर रहते हैं। दूर ही नहीं रहते, एक तरह से इस सिस्टम के खिलाफ काम करते
हैं। और शायद यही ये लोग नहीं चाहते!
...नवीन भाई जिले के एक छोटे-से कस्बे के कॉलेज
में हिंदी पढ़ाते हैं। वह जे. एन. यू. के एक प्रखर विद्यार्थी रहे हैं, जिसकी दिलचस्पी ज्ञान को महज अपने कैरियर बनाने तक महदूद कर लेने की
नहीं, वरन उसके और और प्रसार करने की रही है। न ही वे कोई ऐसे निरे
निष्क्रिय बौद्धिक व्यक्ति हैं, जो केवल साहित्यिक-सांस्कृतिक गोठियों
में अपने उद्गार व्यक्त करने तक ही अपनी जिम्मेदारी मानते हों। वे जब से इस कस्बे
के छोटे-से महाविद्यालय में हिंदी प्राध्यापक की नौकरी ज्वाइन किये हैं, तब से ही उनकी सतत सक्रियता बनी हुई है। और उनकी सक्रियता का क्षेत्र
केवल अपना महाविद्यालय मात्र भी नहीं है, वह तो हमेशा अपने विद्यार्थियों के
गाँव-घर तक अपना संपर्क रखते हैं, उनके सुख-दुख में शामिल। यह उनके अथक
लगन और परिश्रम का ही नतीजा है कि वर्तमान अँग्रेजी के चमचमाते भूमंडली कैरियरवादी
समय में, घर के किसी बीमार बूढ़े-सा उपेक्षित हिंदी विभाग आज महाविद्यालय का
आकर्षण और गौरव बन गया है! स्थिति यह है कि उनकी क्लास अटेण्ड करने के ही नाम से
साइंस या कामर्स ग्रुप के बहुत से मेधावी स्टुडेंट हिंदी की तरफ आ जाते हैं...।
और आज उनके महाविद्यालय का हिंदी विभाग न केवल
कॉलेज में, बल्कि पूरे जिले में जाना जाता है!
उन्हें यहाँ दस बरस हो चुके हैं। अकेले रहते
हैं। शादी उन्होंने की नहीं है। कॉलेज में बच्चों को पढ़ा देना मात्र वे अपना काम
नहीं मानते। वह तो इन नौजवानों को जैसे आकाश की सारी ऊँचाई नाप लेने के योग्य बना
देना चाहते हैं। समाज, साहित्य और संस्कृति में दीवानगी की हद तक रूचि रखने वाले और इससे
जुड़ी तमाम बातों की बहुत गहरी और संवेदनात्मक समझ रखने वाले प्रखर बुद्धिजीवी के
रूप में ख्यात हो चुके हैं इन बरसों में। इसके अलावा, वे अपना एक सांस्कृतिक ग्रुप ‘कोरस’ बनाये हुए हैं जिसमें उनके कॉलेज से पढ़ के निकले कुछ ऐसे युवा हैं, जो नाटक, कविता या कहानी वगैरह में रूचि रखते है। जाहिर है, नवीन भाई के लिए साहित्य और संस्कृति केवल अपने घर की चारदीवारी तक
समेट कर रखने का कोई वैसा सजावटी कलाभवन नहीं है जो कला के नाम पर कुछ
चौंक-चमत्कार के आगे नहीं जाता। इस सांस्कृतिक ग्रृप के वे संरक्षक हैं। जनवादी
सरोकारों से लैस उनका ग्रुप पिछले कुछ सालों से आसपास के गाँवों में नुक्कड़ नाटक, जनगीत गायन या कविता पाठ या किसी मौजूदा मुद्दे पर संगोष्ठी करती रही
है। गाँव में उनके लिए जगह की कोई कमी नहीं होती। पंचायत भवन, बाजार चौक या स्कूल प्रांगण या तालाब के पार, कहीं भी...।
इन नौजवानों को गाँवों में हाट-बाजार के दिन, भीड़ के बीच अपना नाटक करते या जनगीत गाते देखा जा सकता है।
वे
जीवन यदु के प्रसिद्ध जनगीत गाते हैं-
राहों पर नीलाम हमारी भूख नहीं हो पाएगी
अपनी कोशिश है कि ऐसी सुबह यहाँ पर आएगी’
या फैज को
‘ऐ
खा़क नशीनों उठ बैठो वह वक्त करीब आ पहुँचा है
जब तख्त गिराये जायेंगे जब ताज उछाले जायेंगे’
यों यहाँ दूसरे तमाम साहित्यिक-सांस्कृतिक
संगठन मौजूद हैं, जिनका कार्य-क्षेत्र प्रायः शहर तक ही सीमित है। नवीन भाई को लगता है, जितनी जल्दी हो, लोगों में जागृति आए, वे भी आज की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक समस्याओं को न
सिर्फ जानें, बल्कि उसकी वास्तविकता को भी समझें। इसीलिए उन्होंने अपना सांस्कृतिक
मोर्चे का रूख गाँवों की तरफ मोड़ दिया है। जिसके चलते यहाँ के अनेक साहित्यिकारों
की भृकुटि उनके लिए टेढ़ी हो गई है।
यहाँ तक कि कभी उनके सहपाठी रहे दूसरे कॉलेजों
में पढ़ाने वाले कवि या बुद्धिजीवियों की भी!
यह कोई साल भर पहले की बात है। उनका ग्रुप
डोंगरगढ़ से रात को लौट रहा था। वहाँ के नाट्य समारोह में अपने ग्रुप के नाटक के
मंचन के बाद। और नाटक को दर्शकों की भरपूर सराहना मिली थी। प्रदर्शन के बाद पात्र
परिचय के समय तो पूरा पंडाल उनकी तालियों से गूँजता रहा था। देर तक। इसलिए
स्वाभाविक था, लौटते हुए वे सारे बेहद खुश थे! सबके चेहरे आत्मविश्वास से खिले हुए
थे, और आपस में हँसी-मजाक और मस्ती चालू थी। और नवीन भाई भी इस सफलता पर
खूब प्रसन्न थे। और जब वे खुश होते हैं, तब यह खुशी उनके पूरे शरीर से वैसे ही टपकने
लगती है जैसे महुए के पेड़ से पके महुए। पैसेंजर ट्रेन के जनरल डिब्बे में वे एक
साथ बैठे थे। फेरी वाले से गरम समोसे और चाय की ट्रीट निबटाई जा चुकी थी। और
डिब्बा ग्रुप के उत्साह से तरंग में था, जोश में था! यह उनकी टीम के पिछले दो
महीनों से पसीना बहा देने वाले कठोर रिहर्सल की सफलता थी। और आगे, छुट्टी के किसी दिन इसे सेलीब्रेट करने
की भी योजना बनाने में लगे थे। ऐसे माहौल में तभी नवीन भाई के एक प्राध्यापक और
कवि मित्र जयंत सिंह का फोन आ गया। रात के साढ़े दस बजे। जयंत सिंह आजकल ग्वालियर
में हैं। उनकी नौकरी भी लगभग नवीन भाई के साथ ही लगी थी। इधर के ही किसी कस्बे
में। लेकिन बमुश्किल तीन साल बिताने के बाद अपने राजनैतिक एप्रोच से उन्होंने अपना
तबादला ग्वालियर करवा लिया था।
नवीन भाई जान गए कि जयंत सिंह इस समय रोज की
तरह वोदका का अपना चौथा पेग खत्म कर चुके हैं, और किसी मित्र से साहित्य-संस्कृति पर
बकबकाना चाहते हैं। क्या-कैसे के बाद जयंत सिंह ने उनसे पूछा, ‘‘क्यों, कहीं बाहर हैं क्या?’’
‘‘हाँ, अभी मैं डोंगरगढ़ से लौट रहा हूँ।’’
‘‘डोंगरगढ़? कैसे?’’
‘‘वहाँ
नाट्य समारोह चल रहा है, और, आज हमारे ग्रुप के नाटक का मंचन था न, इसी सिलसिले में...।’’
‘‘तो
महाराज, आपकी नाच कंपनी चालू है?’’ उधर व्यंग्य से विहँसे थे जयंत सिंह, ‘‘अभी तक आपने कंपनी बंद नहीं की है?’’
इस अपेक्षित व्यंग्य को सह गए नवीन भाई। बोले, ‘‘और
आपकी जानकारी के लिए बता दूँ जयंत जी, आपकी दुआओं से आगे भी बंद नहीं होगी!’’
‘‘बड़ा
भ्रम है नवीन जी आप को, कि इन नाटक-नौटंकियों के भरोसे आप इस देश में सांस्कृतिक क्रांति
करने जा रहे हैं! मुबारक हो कॉमरेड!’’
‘‘जी
नहीं भाई साहब, मुझे कोई भ्रम नहीं है। मैं तो अपने
आपको क्रांतिकारी टाइप की भी कोई चीज नहीं मानता।’’
जयंत सिंह बोले, ‘‘नहीं-नहीं। आप भले न कहते हों, लेकिन आप खुद को बहुत बड़ा क्रांतिकारी
मानते हो और आपको भ्रम है... बहुत बड़ा भ्रम है कि आप समाजवाद ले आएंगे।’’
नवीन भाई ने विनम्रता से ही कहा, ‘‘देखो
जयंत भाई, मुझको ऐसा कोई भ्रम नहीं है। यहाँ की जमीनी हकीकत मैं जानता हूँ। अकेले
मेरे चाहने भर से क्रांति नहीं हो जाने वाली। हम लोग बस अपना काम कर रहे हैं।’’
‘‘हाँ,वो तो मैं देख ही रहा हूँ। पिछले
चार-पाँच साल से देहाती लौंडों को बहला-फुसला कर आप अपना ग्रुप बना लिये हो और
सोचते हो कि बहुत बड़ा तीर मार लिया! क्रांति कर ली! भला क्या उखड़ गया इस सिस्टम का? कुछ कर सके आप इतने बरस में?’’
‘‘चलिए, ठीक है, मैं असफल हो गया। मैंने मान लिया। तो मुझे ज्ञान देंगे प्रभु कि मुझे
क्या करना चाहिए?’’
‘‘अरे, आप साहित्य के आदमी हैं, आपका काम लिखना-पढ़ना है न कि ऐसे गली-गली फिर के नाटक-नौटंकी करना!
कुछ लिखिये-पढ़िये, फिर देखिए आपका कैसा नाम होता है!’’
‘‘पर
महाराज, आपने ऐसा कौन-सा नाम कमा लिया? आप भी तो लिख रहे हैं कविताएँ!’’
‘‘क्यों? हिंदी जगत में मेरा नाम नहीं है क्या? मेरे दो संग्रह छप चुके हैं। वो भी देश के सबसे बड़े, सबसे प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह से! देश के बड़े आलोचकों ने मेरी किताब
पर समीक्षा की है! क्या ये कोई कम बड़ी बात है?’’
‘‘तो
आपने क्या उखाड़ लिया दो कविता संग्रह छपा के?’’ अब
चुप रहना मुश्किल हो गया नवीन भाई को। उखड़ गए, ‘‘कोई
जानता भी है कवि के रूप में आप को? कोई
साधारण पाठक पढ़ता भी है आपकी कविताओं को?’’
‘‘तब
प्रकाशक ने क्या ऐसे ही छाप दिया मेरी किताब को?’’
‘‘देखो
जयंत भाई, मेरा मुँह न खुलवाओ तो ही अच्छा!’’
‘‘नहीं-नहीं, आप बताइये, आप क्या जानते हैं?’’ जयंत सिंह अड़ गए जैसे।
‘‘तो
सुनिए!’’ नवीन भाई ने बहुत स्पष्ट शब्दों में
कहना शुरू किया, ‘‘देखो जयंत जी, मुझे अच्छी तरह पता है, सरकार के संस्कृति मंत्री से आपकी
पुरानी दोस्ती है। और उस प्रकाशक से सरकारी खरीदी की लाखों की डील कराने में आपकी
ही सबसे बड़ी भूमिका रही है। तो वह आपको तो गोद में उठाए-उठाए ही फिरेगा न! वही और
वैसे ही लोग आपको घोषित करेंगे- हमारे समय का सबसे विलक्षण कवि! आपके संग्रह की
कौन कहे, वो तो खड़े-खड़े आपकी ग्रंथावली छाप दे!’’
‘‘देखो
नवीन, इसका मतलब है कि आप कविता नहीं समझते! तो अच्छा है इस पर बात ही नहीं
करो!’’
‘‘कविता नहीं समझता तब फिर क्यों मुझे
बार-बार फोन करके इसकी समीक्षा लिखने को कहते हो?’’ नवीन भाई का स्वर व्यंग्य में तिलमिला गया ‘‘हाँ, कविता तो खाली अब आप जैसे लोग ही समझते
हैं! क्या हुआ आपके कविता-संग्रह का? उसका हाल मुझसे मत पूछिये! सरकारी
खरीदी के चलते प्रकाशक को पटा के आपकी कविता-संग्रह आती है, दो-चार समीक्षा हो जाती है, वह भी प्रायोजित!! इसमें वही लोग ऐसी
टिप्पणी करते हैं कि निराला-मुक्तिबोध के बाद तो बस आप ही हैं!! यह नेम-फेम आपको
मुबारक!’’ कहते-कहते उनका स्वर क्षोभ से ऐंठ गया था। उन्होंने देखा, कि आवाज की यों तेजी और गुस्से के कारण ग्रुप के लड़के गंभीर हो कर
ध्यानपूर्वक उनको सुन रहे हैं। नवीन भाई ने अपने स्वर को किंचित संयत करते हुए, लेकिन बहुत ठोस अंदाज में
आगे कहा, ‘‘देखिये, मुझको अपने काम को ले कर ऐसा कोई न
भ्रम है, न आकांक्षा! ना ही किसी पद-पुरस्कार का कोई लोभ-लालच है! बल्कि, इधर आप ही के बारे में सुन रहा हूँ, कि आप आजकल लगे हुए हैं एक सृजनपीठ
हथियाने में...।’’ थोड़ा मुस्कुरा पड़े नवीन भाई।
नवीन भाई ने मानो उनकी किसी कमजोर नस में उंगली
रख दी। सुन कर जैसे एकदम उनको काटने को दौड़े, ‘‘देखो, इसका मतलब है तुम कुछ नहीं समझते! न आज के समय के बारे में कुछ जानते
हो! पूरी दुनिया में जिस मार्क्सवाद की भद्द पिट गयी, हद्द है, इसके बाद भी तुम उसके अंधे भक्त बने
हुए हो! कब के नकारे जा चुके लेनिन-स्टालिन का राग अलापते बैठे हो! तुम से तो बात करना ही बेकार
है!’’
‘‘ठीक
है,’’ उन्होंने उनसे आगे बगैर किसी बहस में उलझे कहा, ‘‘तो
आगे से मुझ को फोन भी नहीं करेंगे आप!’’
और फोन कट गया। सारे लोग कुछ देर के लिये
बिलकुल चुप हो गए थे। दौड़ते ट्रेन की खटर-खट्ट खटर-खट्ट का शोर बस रह गया था।
माहौल में अचानक एक गहन तनाव घिर आया था। नवीन भाई भी इस गरमा-गरमी बातचीत से असहज
हो कर थोड़ी देर के लिए खामोश हो गए थे। कुछ पल के बाद, खामोशी तोड़ते हुए बोले, ‘‘अच्छा ही हो गया। साला बेमतलब का उनकी
बकवास सुनने से तो अच्छा है आदमी अपना कुछ लिख-पढ़ ले! जब देखो तब हमारे ग्रुप, या उसके काम को लेकर व्यंग्य करता रहता है। भई, हम तुम्हारी खुशी या पसंद के लिये थोड़ी ये सब कर रहे हैं? हमें लगता है, देश की जो हालत है, सांस्कृतिक मार्चे पर जो किया जाना है, वो ही करने की कोशिश कर रहे हैं। आप
लिखिये न कविताएँ... हमने तो आपकी कविता पर कोई राय जाहिर नहीं की? बल्कि संग्रह भेजने के बाद बार-बार फोन
करते रहते थे कि इसकी समीक्षा लिख दो, मैं इसे लीडिंग मैग्जीन में छपवा
दूंगा! और जब एक कवि की ऐसी सोच है संस्कृति कर्म के प्रति, तो सोच सकते हैं कैसी होंगी उसकी कविताएँ!’’
‘‘तो
आपने लिखी उनकी किताब की समीक्षा?’’ ग्रुप से किसी ने पूछा।
‘‘नहीं, मैंने नहीं लिखी उसकी समीक्षा।’’ धीमे-से बोले वे।
इस पर ग्रुप के लड़के हँस पड़े, जैसे बड़ी देर के बाद उन्हें हँसने का एक बहाना मिल गया हो।
तब दूसरे एक वाचाल लड़के ने बोल ही दिया, ‘‘अरे
भइया, आप से समीक्षा लिखवाने के लिये तो डी. आई.
जी. साहब मरे जा रहा है। वो तो आपके घर पुलिस भेज के आपको बुलवाता है, एक समीक्षा लिख देने के लिये!’’
अब नवीन भाई भी हँस पड़े। बाकी लोग तो एकदम
खिलखिला पड़े!
हाँ, यह सच है। समीक्षा के लिये स्थानीय कवि
से लेकर देश के नामी-गिरामी कवि तक नवीन भाई को फोन करते रहते हैं, अपनी किताबें भेजते रहते हैं। पिछले दिनों खुद डी. आई. जी. साहब ने, जो कवि भी हैं, इधर
के दौरे के दौरान, एक टी. आई. को भेज कर अपने पास होटल
में बुलवाया था...।
लेकिन उनके बहुत आग्रह के बाद भी उन्होंने उनके
कविता-संग्रह की समीक्षा नहीं लिखी।
...तो क्या, इस ट्रांसफर
में उनका हाथ हो सकता है? उनकी नाराजगी...? हाँ, संभव है।
या इसमें और किसी का हाथ है? आसपास का कोई अपना विरोधी...?
...धीरे-धीरे इस क्षेत्र के ऐसे युवा या
बुद्धिजीवी, जो दूसरे सांस्कृतिक संगठनों की
नीतियों, आपसी खेमेबाजी, भाई-भतीजावाद, या एकाधिकारवाद के चलते अपनी उपेक्षा के शिकार थे, उनके ग्रुप के साथ जुड़ गए थे। यह काम
कोई दो-चार महीनों में नहीं हो गया था। समय लगा। लोग धीरे-धीरे उन्हें जानने लगे।
वहीं वे उनकी बेबाकी और वैचारिकी से भय भी खाने लगे।
स्वाभाविक था कि उनके इस अभियान को देख कर उनके
विरोधी या यथास्थितिवादी लोग उनके बारे में में तरह-तरह की अफवाहें फैलाने लगे, कि यह माओवादी है, इसको काम के लिए सीधे चीन से पैसा आता
है, कि यह कभी अंडरग्राउंड रहा पार्टी का पुराना ‘होल टाइमर’ था। एक स्थानीय कथाकार ने
तो जहाँ-तहाँ इस बात को जोर-शोर से प्रचारित करना शुरू कर दिया कि इस मास्टर को इस
भोले-भाले और शांत इलाके में नक्सलियों ने भेजा है! अपना वैचारिक आधार बनाने के
लिए, यहाँ के लोगों को नक्सली बनाने के लिए!
अब यह किसी की शिकायत थी, या विरोधियों की चालाकी, या फिर नवीन भाई के द्धारा चलाए जाते
सांस्कृतिक अभियान की ताकत और इलाके के युवाओं में इसका फैलता असर, कि एक रात उनके घर में पुलिस की रेड पड़
गयी...।
इसके पहले इधर के किसी बुद्धिजीवी पर ऐसी
कार्यवाही़ नहीं हुई थी।
इस शहर में एक कवि ऐसे हैं, जो किसी कस्बे में आयोजित कवि-सम्मेलन में अपनी सांप्रदायिकता विरोधी
कविता-पाठ के दौरान उग्र हिंदूवादियों द्वारा मंच पर किये गए पत्थरबाजी के कुछ
पत्थर कई साल तक अपने घर के शो-केस में किसी कीमती सजावटी वस्तु की तरह संभाल कर
रखे रहे- अपनी प्रतिबद्ध धर्मनिरपेक्षता के सबूत के तौर पर; और घर आने वाले वाले हर छोटे-बड़े कवि
या आलोचक को ये पत्थर दिखा कर वाहवाही बटोरते रहे। ये अलग बात है कि कुछ साल बाद, जब राज्य में भाजपा की सरकार बनी, तो
वे बाकायदा पंडाल लगा कर, बड़े प्रचार-प्रसार के साथ, अपने
पूरे कुनबे सहित भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए। या, यहीं के दूसरे जाने-माने कवि को उनके
मकान मालिक ने मकान खाली न करने के कारण
धमका दिया। यह विवाद मारपीट में बदल गया। मकान मालिक ने इनके खिलाफ मारपीट का
मामला दर्ज करवा दिया। और थाने में इसी बाबत उन्हें बुलाकर कड़ी पूछताछ की गई। इसी
दौरान एक सिपाही ने उन पर दो-तीन बेंत जमा दिए। संभव है उस सिपाही को मकान मालिक
ने खिला-पिलाकर ऐसा ही कुछ करने को कह रखा होगा। कवि महोदय ने इस मसले को अपने
राष्ट्रीय साहित्यिक संगठन का केन्द्रीय मुद्दा बना दिया और घटना के विरोध में
साहित्यकारों ने जुलूस निकाल कर कलेक्टर को ज्ञापन सौंपा, और आगे उग्र आंदोलन की चेतावनी दी। कवि
महोदय ने येन-केन प्रकारेण मीडिया को भी साध रखा था। वे हर अखबार में थाने में
अपने बुलौव्वे, कड़ी पूछताछ और बेंत-प्रहार के चोटों के
सचित्र रिपोर्ट प्रकाशित करवाने लगे, और
मकान मालिक सहित पुलिस के खिलाफ माहौल बनाने लगे। संयोग से उन दिनों राज्य में
साक्षरता अभियान जोरों पर था और कलेक्टर इसके प्रमुख होते थे, और उन्हें इस अभियान को गति देने के लिए लेखकों-कवियों का सहयोग लेना पड़ता था। लिहाजा
कलेक्टर इन कवि महोदय को अच्छे से जानते थे, क्योंकि
कुछ ही दिनों पहले इनकी देशभक्ति पूर्ण गीतों के कैसेट का विमोचन उन्होंने अपने
कर-कमलों से किया था। सो उन्होंने अपनी पहल पर इस मामले को किसी तरह शांत करवाया।
कवि महोदय तो आज भी इस वाकये को बहुत गर्व से बखानते फिरते हैं कि मामला बहुत
गंभीर था, कि हमारे उग्र आंदोलन की धमकी के कारण
कलेक्टर-एस.पी. को सुलझाना पड़ा। ये और बात है कि उन्हें ज्यादा अच्छे से जानने वाले
उन दिनों दबी जुबान से कहते फिरते थे- साले ने उंगली कटा के शहीदों में नाम लिखवा
लिया!
...पर नवीन भाई उस रात को भला कैसे भूल सकते
हैं? वह मई के शुरूआती दिन थे, और गर्मी देर रात तक बेचैनी पैदा करने
वाली। रात के साढ़े दस बजे की बात होगी। वह घर में अपने टेबिल में बैठे कुछ लिख रहे
थे, या लिखने की सोच रहे थे... कल के किसी सभा में बोलने की तैयारी। वे
बिना पूरी तैयारी के किसी सभा-संगोष्ठी में नहीं जाते। वह जहाँ भी बोलने जाते हैं, पूरी तैयारी के साथ जाते हैं, चाहे सभा छोटी ही क्यों न हो। यह उनकी
आदत में शामिल हो चुका है।
....सहसा वे आ धमके थे। उन्होंने अपने घर के
बाहर कुछ गाड़ियों के तेजी से ब्रेक मारने की तीखी चिंचिंयाहट सुनी थी, जैसे उन्हें बेहद हड़बड़ी हो। और अगले ही
क्षण उनकी बूटों की धमक से नवीन भाई के किरायेवाले क्वार्टर की साधारण फर्श काँपने
लगी थी। वे दनदनाते हुए सीधे भीतर घुस आए थे- दस-बारह कद्दावर और मुस्तैद जवानों
की पूरी फौज। बिजली गुल नहीं थी, इसके बावजूद कुछ के हाथों में टार्च
थे- बेहद तेज रोशनी वाले, आँखों को बिलकुल चुँधिया देने वाले। नवीन भाई को ‘कैसे? क्या?’ की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ी। उनके पास
राज्य सुरक्षा कानून की मजबूत आड़ थी जिसमें उन्हें यह अधिकार था कि वे कहीं भी
अचानक छापामारी कर सकते हैं। महज शक के आधार पर भी। आते ही दो जवानों ने बहुत
मजबूती से उनके हाथ पीछे कर के कसके पकड़ लिये थे, इस अंदेशे से कि हाथ ढीला करते ही अगला
कहीं कोई हथियार न चला दे। अगले-पिछले सभी दरवाजे-खिड़कियों को तुरंत भेड़ कर बंद कर
दिया गया। फिर भड़ाभड़ उनके कमरे की चीजों को उलटा-पल्टा जाने लगा। सबसे पहले
उन्होंने दीवान का पल्ला भड़ाक् से उलट दिया। उन्हें छिपा कर रखे गए हथियारों के
मिलने की सबसे ज्यादा संभावना यहीं लगी थी। उनका पूरा घर मानो पुलिसिया खौफ के गहन
सन्नाटे में था। कोई उनके लाइब्रेरी की तरतीब से जमाई किताबों को बेदर्दी से
उलट-पलट रहा था, कोई किचन में अनाज के ड्रमों को खंगाल रहा था, तो कोई टेबिल पर रखी उनकी डायरी पढ़ रहा था। नक्सली लोगों से उनके
संपर्क-सूत्र तलाशे जा रहे थे। डायरी में मिल रहे कुछ नामों के बाबत उनके सामने
खड़े दो वरिष्ठ अधिकारी बहुत सख्ती से पूछताछ कर रहे थे।
नवीन भाई अब तक भाँप चुके थे, उनका भविष्य दाँव पर लग सकता है... कुछ
भी हो सकता है! और ये खाली हाथ नहीं जाने वाले! उन्हें अपने लिए किसी पुख्ता सबूत
की तलाश है। पुलिसिया रेड के इन पलों में सहसा तो उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था। चुपचाप
देखने के अलावा वह कर भी क्या सकते थे।
इससे उबरने में उन्हें कुछ समय लगा था।
‘‘सर, ये देखिए!’’ एक सिपाही उनकी फाइलों में से एक पत्र
निकाल कर लाया था, ‘‘सर, इनको
किसी ने कॉमरेड लिखा है!’’
सिपाही यह बताते हुए बहुत खुश था, ‘‘सर, कॉमरेड लिखा है, इसका मतलब ये नक्सली है!’’
उनके बॉस ने वह चिट्ठी अपने पास रख ली।
कि तभी एक सिपाही लाइब्रेरी वाले कमरे से मारे
रोमांच के चीखा- ‘‘सर...मिल गया! सर, मिल गया!’’ और किसी छुपे खजाने को खोज लेने के-से
उत्साह और उत्तेजना में हाँफते हुए वह तुरंत आया, और अधिकारी को एक किताब दिखाया, ‘‘सर, ये देखिये! ...ये किताब नक्सलियों की
किताब है!’’
नवीन भाई भी एकदम घबरा गए। लेकिन देखा, तो कुछ राहत मिली, वह अभय कुमार दुबे की राजकमल प्रकाशन
से प्रकाशित पुस्तक थी- ‘भारत में नक्सलवाद और उनकी समस्याएं।’
अधिकारी ने एक लम्बी ‘हूँ’ के साथ इसे भी अपने पास रख लिया। इस विश्वास के साथ कि उनको इनके
खिलाफ अब यह सबसे बड़ा सबूत मिल गया है।
उनका उलटना-पलटना जारी था। कि एक सिपाही ने
किसी पत्रिका के फ्रंट पेज पर छपा एक फोटो ला कर दिखाया, ‘‘सर, ये देखिए!.. इस आदमी की फोटो... फ्रंट
पेज पर!... सर, ये आदमी मुझको पक्का इनका लीडर है लगता है!’’
नवीन भाई की भी एक क्षण के लिए साँस रूक गई। उनके
कमरे में कई क्रांतिकारियों की तस्वीरें टंगी है - भगत सिंह से ले कर मार्क्स, लेनिन, स्टालिन से लेकर चेग्वेरा तक। ये पता नहीं किसकी फोटो ढूँढ लाया।
लेकिन जब फोटो देखा तो अजीब राहत मिली। बल्कि इस भय में भी वे मुस्कुरा पड़े
थोड़ा-सा।
वह फोटो डॉ. नामवर सिंह की थी।
गनीमत थी कि सामने खड़े अधिकारी उन्हें पहचानते
थे। बोले, ‘‘अरे नहीं-नहीं,ये इनके लीडर नहीं हैं। हम इनको जानते
हैं। ये हिंदी के बहुत बड़े विद्वान हैं। जाओ रख दो।’’
सिपाही कुछ निराश हो कर लौट गया।
रात को वे उन्हें सीधे एस. पी. के पास ले गए। आगे
की पूछताछ करने। नवीन भाई इस पूरे लाव-लश्कर से आरंभ में जो थोड़े भयभीत हो चले थे, अपने भीतर के तल से अपने लिए साहस बटोर लाए। क्योंकि जान चुके थे, ये इतनी आसानी से छोड़ने वाले नहीं हैं। तो ठान लिया, पूरी निर्भीकता से इसका सामना करेंगे। जो होगा, देखा जाएगा! जब उनके इरादे में कोई खोट नहीं है, तो क्यों डरें? और ऐसा कौन-सा गलत या कानून विरोधी काम
कर दिया है उन्होंने? उनसे लगातार पूछा जा रहा था, आप का किन-किन लोगों से मिलना-जुलना है? आपके यहाँ साथी और कौन-कौन हैं? आप पढ़ाने के अलावा और क्या-क्या करते हैं? नवीन भाई बहुत खुल कर, पूरी स्पष्टता, निर्भीकता और आत्म-विश्वास के साथ उनके
सवालों का जवाब दे रहे थे।
एस. पी. ने पूछा, ‘‘आप दिल्ली से पढ़े-लिखे हैं, तो इतनी छोटी जगह में आप क्या कर रहे हैं? आप तो किसी बड़ी जगह में भी हो सकते हो
बड़ी आसानी से। फिर यहीं क्यों?’’
‘‘यह सवाल आप मुझसे क्यों पूछ रहे है?’’ नवीन भाई ने बहुत तल्खी से कहा, ‘‘यह आप अपने सिस्टम से पूछिए! मेरे ही
साथ पढ़े मेरे कुछ साथी बस्तर, झारखंड
या उड़ीसा के दूर गाँवों में काम कर रहे हैं। और ये उनका कोई चुनाव नहीं है। जीविका
की मजबूरी है!’’
‘‘देखिये, आप एक सरकारी अधिकारी हैं, और आपको इन चीजों से दूर रहना चाहिए?’’
‘‘इसका
क्या मतलब हुआ? हम अपनी आँख के सामने कैसा भी अत्याचार
होते देखते रहें और चूँ तक न करें? माफ
कीजिए, न मेरी शिक्षा-दीक्षा ऐसी हुई है, न मैं ऐसी शिक्षा पर विश्वास करता हूँ।
मैंने अपनी पढ़ाई-लिखाई केवल घर चलाने के लिए नहीं की है। हम समाज को आगे बढ़ाना चाहते
हैं, उनकी चेतना का विकास चाहते हैं, उनके भीतर पसरे हुए अँधेरे को थोड़ा
छाँट देना चाहते हैं... जैसे कोई अपने घर-परिवार की तरक्की चाहता है, वैसे ही हम समाज की...।’’
‘‘इन
सबसे आखिर आपको क्या मिल जाता है?’’
‘‘कुछ
नहीं। लेकिन एक संतोष तो मिलता है कि कुछ कर रहे हैं। और इससे बढ़ कर कुछ नहीं है
मेरे लिये।’’
‘‘आप
मार्क्सवादी हैं?’’
‘‘जी
हाँ, मैं मार्क्सवादी हूँ। और यह सिर्फ मेरे
काम का नहीं है, आप के भी काम का है। आप भी पढ कर देखिये, हमारी आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था कैसी है, कितना शोषण है, आपको पता चल जाएगा और आप भी मेरे जैसा
सोचने लगेंगे।’’
‘‘इंट्रेस्टिंग!’’ थोड़ा मुस्कुराए एस. पी. साहब, ‘‘भई
मुझे तो ये सब न बनना है न करना। फिर भी हम आपको सलाह दे रहे हैं, ये सब काम आप छोड़ दीजिए। इस सिस्टम से लड़ पाना इतना आसान नहीं है। आप
अपना पढ़िये-लिखिये, लेकिन सिस्टम की आँख में मत गड़िये। अभी
तो हम आपको छोड़ दे रहे हैं। जरूरत होने पर बुलवाया जाएगा।’’
जब छोड़ने लगे, तो उनकी बुद्धि थोड़ी सतर्क हुई। नवीन
भाई बोले, ‘‘मेरे
घर से जो किताबें लाए हैं,
मुझे दे दीजिए।’’
‘‘अरे, अभी हम को उनकी जाँच करनी है। उन्हें
हम आपको भिजवा देंगे, आप उसकी चिंता मत कीजिये।’’ एक
ने टालने की गरज से कहा।
‘‘ठीक
है। लेकिन मेरे घर से जो किताबें लाई गईं हैं, उनकी लिस्ट मेरे सामने बना कर दीजिए।’’
पुलिस पहले तो इसके लिए तैयार नहीं थी। जब नवीन
भाई अड़ गए तब कहीं माने। उन्हें अंदेशा था कि कल को इन किताबों में कहीं कोई ऐसी-वैसी
किताब डाल देते हैं तो उनके लिए भारी मुसीबत हो जाएगी! तब उनके पास अपनी बेगुनाही
सिद्ध करने का अवसर भी नहीं रहेगा। उन्होंने फिर कहा, मुझे अभी हाथों-हाथ लिस्ट बना कर
दीजिये!
उनके सामने किताबों की लिस्ट बनाई गई। जिसकी एक
कॉपी उनको दे दी गई।
गाड़ी में उन्हें छोड़ने लौटते हुए एक अधिकारी ने
बताया, ‘‘प्रोफेसर साब, यह बात हमको आपसे कहनी नहीं चाहिए, लेकिन सच यही है कि आपकी शिकायत आपके ही किसी साहित्यिक साथी ने की
है। इसलिये हमें छापा मारना पड़ा।’’
नवीन भाई भला क्या कहते? किसका नाम जेहन में आता? यहाँ तो विरोधियों की लंबी सूची है।
उनके मुहल्ले में इसको लेकर बड़ी चर्चा थी। बाद
में उन्हें मुहल्ले के टपरेवाले होटल- जहाँ वे खाना खाते थे- के मालिक अन्ना ने
बताया, इधर लोग-बाग बोल रए थे, अरे भई, इतना रात को इनको उठा कर पोलिस क्यों ले गया? जरूर कोई सीरियस मैटर होएंगा! ये माट्साब् तो भौत सीदा-सादा आदमी!
किसी लफड़े में भी नइ रैता! फिर किसी ने बोला, अपने गेसिंग से, अरे, आजकल इनवरसिटि का पेपर भौत लीक हो रा है! हो सकता, पेपर आउट कराने में माट्साब् का भी कोई
हाथ हो! मय उनको बोला, अरे नइ अन्ना, अपना माट्साब् वैसा आदमी नइ। भले इसका पूछताछ के वास्ते ले गया
होएंगा...।
नवीन भाई ने हँसते हुए उनकी गेसिंग पर अपनी
सहमति दे दी।
गनीमत थी कि उनका वह मामला किसी तरह सुलट गया। कुछ
हुआ नहीं। लेकिन कुछ भी हो सकता था...।
नवीन भाई आज तक नहीं जान पाए कि यह शिकायत
किसने की थी। अब किस पर शक करें, जब पूरे कुएँ में ही भाँग पड़ी हो...।
अपना ट्रांसफर रूकवाने के सिलसिले में वे दूसरी
सुबह मंत्री जी के भतीजे के यहाँ गए। वह भी अपने बरामदे में लगे झूले में बैठे
अपना दरबार सजाए थे। लोग अपनी समस्या या फरियाद लेकर इनके दरबार में पहुँचते है।
नवीन भाई की बात को भी उन्होंने झूला झूलते-झूलते सुना। फिर कहा कि मैं मंत्री जी
से जरूर बात करूँगा। लेकिन नवीन भाई को अपनी किसी छठी इंद्री से आभास हो गया, कि इनका दरबार वास्तव में मंत्री जी का ‘कलेक्शन सेंटर’ है। यह भतीजा इसका इंचार्ज है। जान गए
यहाँ काम होगा, लेकिन फीस पूरी देने के बाद।
इसी बीच उनको लोक कला के विशेषज्ञ प्रोफेसर अखिलेश तिवारी का ध्यान
आया। वह भी मुख्यमंत्री का करीबी हैं। कारण यह कि मुख्यमंत्री की धर्मपत्नी उनके
गाँव की है। इस नाते वे मुख्यमंत्री को ‘भांटो’ (जीजा
जी) कहते हैं। और संस्कृति विभाग के सहयोग से लोककला और लोकभाषा संरक्षण के नाम पर
हर साल बहुत भव्य कार्यक्रम करवाते आ रहे हैं। नवीन भाई उनसे मिलने पहुँचे तो
संयोग से वे भी अपने आँगन में लगे झूले पर बैठे झूल रहे थे। ऊँचे कद के झक सफेद
कुरता-पायजामा पहने, लम्बे, झूलते सन-से चमकीले सफेद बालों वाले तिवारी जी ने उन्हें गजब के
आत्मविश्वास से आश्वस्त किया कि ये कोई बड़ी बात नहीं है, और भांटो से वह खुद बात करेंगे। और
उनको चिंता करने की जरूरत नहीं है, उनका काम हो जाएगा। और अपने आगे की
योजना पर बात करने लगे, कि राज्य में लोक-कला और लोक-भाषा के संरक्षण के लिए एक परिषद का गठन
होना है, जिसका अध्यक्ष बनने के लिए कई लोग लगे हुए हैं। और आप तो जानते ही
हैं, लोक-कला पर जितना काम मैंने यहाँ किया है, उतना तो किसी ने नहीं! इसलिए स्वाभाविक रूप से पहला हक मेरा ही बनता
है। मैं लगा हुआ हूँ। इसमें प्रोफेसर साहब, मुझे
आपकी भी मदद की जरूरत रहेगी। मैं आगे आपसे संपर्क करूंगा ही। और वैसे भी मैं आपको
यहाँ से हिलने नहीं दूँगा, इतना भरोसा तो मैं आपको दिलाता हूँ।
वे राजधानी से लौट आए।
इन कुछ दिनों में वे यह अच्छी तरह से जान गए थे
कि उनको यहाँ से जाना ही पड़ेगा। वे अपना बोरिया-बिस्तर यहाँ से बाँध लेने की
तैयारी में जुट गए। और उन्होंने सोचा, यह कोई उनकी हार नहीं है, एक तरह से देखा जाय तो यह उनकी जीत ही है।
सहसा उनके कदम अन्ना होटल की तरफ बढ़ गए।
आज उनकी सिगरेट पीने की तबियत हुई है, बहुत दिनों के बाद।
सम्पर्क-
कैलाश बनवासी,
41, मुखर्जी
नगर,
सिकोलाभांठा,
दुर्ग (छ.ग.)
मो. - 9827993920
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
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