स्वप्निल श्रीवास्तव का संस्मरण 'एक सिनेमाबाज की कहानी-4

 

स्वप्निल श्रीवास्तव

 

शादी व्याह में आने वाली नाच पार्टी के नाच देखने से शुरू हुआ सिनेमाबाज का मनोरंजक सफर वास्तव में सिनेमा देखने से आरंभ हुआ। यह वह समय था जब बॉलीवुड के सिनेमाई परिदृश्य पर राजेश खन्ना का वर्चस्व था और अमिताभ बच्चन उस वर्चस्व को अपने करिश्माई अभिनय से चुनौती देने लगे थे। इसी समय राज कपूर की ऐसी फिल्में आने लगी थी जिन्होंने न केवल अपने गानो बल्कि अभिनेत्रियों के देह प्रदर्शन के बूते धूम मचाई और उसी के लिए आज तक याद की जाती हैं। इस समय से भारतीय सिनेमा में एक बदलाव साफ-साफ परिलक्षित होता है। अब सिनेमा में अभिनेत्रियों के देह प्रदर्शन और मार धाड़ वाले दृश्यों की संख्या बढ़ने लगी। सिनेमा में रुचि रखने वाले सिनेमाबाज जो ब्लैक में टिकट खरीद कर सिनेमा देखने के शौकीन थे आगे चलकर इसी महकमे के अधिकारी बन गए। यहां पर सिनेमाबाज़ उस अधिकारीपने से परिचित हुए जो अपने तमाम दांव पेंचों और अधिकार के प्रदर्शन में मशगूल रहता है। बहरहाल सिनेमाबाज की रूचि साहित्य में भी थी और इस रुचि ने सिनेमाबाज को मनुष्य बनाए रखा इस क्रम में सिनेमाबाज के संस्मरण की अगली कड़ी पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है। तो आइए आज पढ़ते हैं स्वप्निल श्रीवास्तव का संस्मरण 'एक सिनेमाबाज की कहानी-4'

 

 

एक सिनेमाबाज की कहानी - 4

 

 

स्वप्निल श्रीवास्तव

 

 

॥ग्यारह॥

  

सिनेमा मालिक ने मुझे बताया कि किसी जब्बर सिंह ने कमिश्नरी के बास का चार्ज ले लिया है अत: आप स्टेशन से बाहर न जाए, कभी भी चेकिंग हो सकती है। यह नाम मेरे लिए बहुत डरावना था, इस तरह के नाम भिंड–मुरैना के इलाके में मिलते थे। अक्सर इस तरह के नाम डाकू आदि रखते है। मेरे एक मित्र उस इलाके से आते थे, वे आई. ए. एस. हो कर इतने मकबूल हुए उनके नाम श्याम सिंह के पहले लोग डाकू लगाने लगे थे। वे जिस महकमे में तैनात होते थे, उसे उजाड़ कर रख देते थे। उनके भीतर एक योग्य डाकू की प्रतिभा थी। मेरे बास का नाम कम जोरदार नहीं था, मुझे फिल्म शोले के गब्बर सिंह की याद आ गयी।

 

 

शोले के गब्बर सिंह

 

किसी को उनके हुलिए की जानकारी नहीं थी, यह जरूर बताया गया था कि वे बहुत कड़क अफसर हैं किसी को नहीं बख्सते हैं। मैं सावधान हो गया था। स्टेशन के बाहर नहीं आता–जाता था, अपने में सिकुड़ कर रह गया था। नौकरी नयी–नयी थी, वह भी मुश्किल से मिली थी,  पहला काम उसे बचाना था। उसी के दम से यह जीवन चल रहा था, इसी के नाते समाज में प्रतिष्ठा थी, वरना कौन पूछता। बेरोजगारी के दिनों में यह खेल देख चुका था। आप लाख काबिल हो लेकिन जब तक नौकरी नहीं है, आप बाबा जी के ठुल्लू हैं।

 

##

 

सम्भवत: वह अप्रेल का माह था, नून शो शुरू हो चुका था, एक आदमी कोट पहने, गले में मफलर लटकाए, हाथ में छड़ी लिए सिनेमाहाल में प्रवेश किया। उन दिनों शहर में बहुरूपिए खूब आते थे, कभी वे राम के भेष में आते, कभी रावण का रूप धारण कर लेते थे। वे हनुमान की तरह लम्बी पूछ लगा कर हमें चौका देते थे। वे खूबसूरत महिला की तरह साज–सिंगार करके अपनी कला दिखाते रहते थे। एक आदमी उलूल–जुलूल ड्रेस में सिनेमाहाल में आया। अप्रेल के माह में वह कोट पैंट और टाई में था। इस ड्रेस में वह पागल सा लगता था। सिनेमा का गेट बंद था, दरवाजे के पास प्रपत्र – पेटिका लगी हुई थी। वह अपनी छड़ी से पेटिका पर खट–खट बजा रहा था – चीख कर कह रहा था कि मैंनेजर, इसे खोलो, मुझे चेकिंग करनी है। वह इस तरह की हरकत देर तक करता रहा। तब तक दरवाजा खोल कर मैंनेजर बाहर आ चुका  था, डपट कर बोला – यह क्या कर रहा है बे..।

.. वह बोला - मैं जब्बर सिंह डिप्टी कमिश्नर हूँ।

 

..बहरूपिए साले अपने आप को जब्बर सिंह समझ रहा है, कभी शक्ल आईने में देखी है?

....मैं तुम्हारा चालान कर दूंगा – उस आदमी की आवाज तेज हो गयी – जैसे  उसके भीतर कोई आत्मविश्वास आ गया हो।

  

उसकी वेष-भूषा देख कर कहीं से नहीं लगता था कि वह कोई अफसर हो। मैं सिनेमाहाल के रेस्ट रूम में बैठा हुआ था, आवाज सुन कर बाहर आ गया, उजड्डई से बात करने के लिए मैंनेजर को डाटने लगा।

    

मैं उन्हें ससम्मान मैंनेजर कक्ष में ले गया। बातचीत में मालूम हुआ कि ये कोई बहुरूपिये या जासूस नहीं जब्बर सिंह है। जिस तरह उन्हें मैंनेजर ने उन्हें अपमानित किया था, उसका फल तो मिलना था। उन्होंने लम्बा चालान किया, लाख कहने पर हमारे आतिथ्य को अस्वीकार कर दिया। निरीक्षण पुस्तिका/ प्रपत्र – में जो लिखा था, उसे पढ़ते हुए हमें पसीना आ गया लेकिन उनकी लिपि समझ में नहीं आयी और वे नाराज हो कर चले गये। मैंनेजर ने अगर विवेक से काम लिया होता तो स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती। जब्बर सिंह का जिस तरह से आगमन हुआ, वह कम रोचक नहीं था। सरकारी अधिकारी को कम से कम ठीक ढ़ंग के कपड़े तो पहने रहना चाहिए, किसी जोकर की तरह नहीं दिखना चाहिए। उन्होंने अपनी भेष – भूषा में खुद को हास्यास्पद बना लिया था। इस प्रकरण को देख कर मुझे रूसी लेखक गोगोल की कहानी गर्वमेंट अफसर (आला अफसर) की याद आ गयी। इस  कहानी में अफसर इसी तरह के रह्स्यपूर्ण ढ़ग से आता है और रोब गालिब करता है।

   

मैंनेजर बेहद घबड़ाया हुआ था कि उसके हाल का क्या होगा। मैंने उसे सांत्वना दिया कि पहले नोटिस तो आने दो, जबाब तो मेरा भी तलब किया जाएगा।

     

 

जब्बर सिंह की कद–काठी उनके नाम के प्रतिकूल थी। वे डेढ़ पसली के आदमी थे  बिल्कुल चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी की तरह लगते थे। उन्हें देख कर डर नहीं लगता था, उल्टे वे दया के पात्र थे। पता चला कि वे रिजर्वेशन कोटे से आये हैं, उनकी पृष्टभूमि अच्छी नहीं थी। वे अफसर की जगह जोकर की तरह लगते थे। बहरहाल इस घटना ने इलाके के सिनेमा मालिकों के होश उड़ा दिये थे, लोग सपने में उन्हें  देखते थे। मै सावधान हो गया था।

     

 

बहुत दिनों के लिए मेरी मस्ती बाधित हो गयी थी। बाद में लोगों ने उनकी कुंडली खंगालने की कोशिश की, तो पता लगा कि यह आदमी थोड़ा एबनार्मल है, जबसे उसने क्षेत्रीय मुख्यालय का चार्ज लिया था, दफ्तर के लोग परेशान हो गये थे। वह अपनी गाड़ी छोड़ कर बस से चेकिंग पर जाता था और अपनी पहचान छिपाने की कोशिश करता था। हम जब मीटिंग में जाते थे तो वे उल–जुलूल सवाल पूछते थे। उनके सवाल सही नहीं होते थे इसलिए उसका जबाब देना मुश्किल था। हम लोगो का माथा वह घुमा देता था। हमारी तनख्वाह उनके दफ्तर से मिलती थी, वह भी बिलम्ब से। वे समय से लखनऊ मुख्यालय से बजट नहीं ले पाते थे।

   

 

प्राय: पूर्वाधिकारी एक दो महीने में निरीक्षण के लिए आते थे लेकिन वह माह में दो बार टपक पड़ते थे। अपनी चेकिंग में कोई न कोई नुख्श निकाल देते थे। उसे सिनेमा हाल के मालिको को परेशान करने में मजा आता था। अपनी इन कारस्तानियों से वह बेहद अलोकप्रिय हो रहा था।

 

 

बारह    

 

हमारी जिम्मेदारी यह भी थी कि टैक्स बढ़े और निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति हो, इसलिए सिनेमा मालिक को अच्छी फिल्म लगाने की सलाह दिया करता था। अच्छी फिल्मों का अर्थ यह कि ज्यादा लोग फिल्में देखे और टैक्स में बढोत्तरी हो। कभीकभी बेहद वाहियात फिल्में खूब चलती थीं और अच्छी फिल्में जल्दी उतर जाती थीं। सचमुच की अच्छी फिल्में जैसे – घर’, गृहप्रवेश’, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है?’, ‘मंथन’, ‘अंकुर’, ‘जुनूनव्यवासायिक रूप से अच्छी फिल्में नहीं थीं। ये सब क्लासिकल फिल्में थीं, मास की फिल्में नहीं थी। दो तरह की फिल्में थीं एक वह जिसे पढ़ा-लिखा समाज देखता था, दूसरी वे फिल्में जिसमें खूब मसाला, डांस, सेक्स मारधाड़ हो। लेकिन ये फिल्में मंहगी होती थी, अगर खतरा उठाकर सिनेमा–मालिक अपने हाल में नहीं लगाते थे। नयी उम्र के दर्शक मसालेदार फिल्में देखते थे।

 


  

बाज सिनेमा मालिकों ने बीच का रास्ता निकाला था, यदा-कदा एडल्ट फिल्में लगा देते थे, ये फिल्में नियमित नहीं लगायी जाती थीं। बस स्वाद बदलने के लिए इन्हें लगाया जाता था। इस तरह की फिल्में अन्य फिल्मों की अपेक्षा सस्ती मिलती थीं, घाटा नहीं उठाना पड़ता था। ऐसी एक फिल्म का नाम ब्लू लगूनथा, वह अपने समय की हाट फिल्म थी। हफ्ते भर पहले शहर में फिल्म के उत्तेजक पोस्टर लगा दिए। टिकट के एडवांस बुकिंग के लिए प्रचार कार्य शुरू हो गया था। फिल्म के प्रदर्शन के पहले के दो दिन के शो की टिकटे बिक चुकी थीं। जिस दिन शो शुरू हुआ उस दिन जितने लोग अंदर थे। इन दर्शको में अंग्रेजीदां लोग नहीं सामान्य लोग थे जिनका कभी इस भाषा से पाला नहीं पड़ा था। उनके चेहरे लम्पट लग रहे थे। दरअसल लोग फिल्म देखने नहीं अपनी मानसिक–रति को शांत करने आये थे।

 

   

मैं लुत्फ उठाने के लिए उनके बीच था। जैसे फिल्म शुरू हुई लोगों के आंखों की परिधि फैल गयी थी। वे परदे की ओर उचक–उचक कर देख रहे थे कि कहीं कोई दृश्य गफलत में छूट न जाय। इंटरवल तक चुम्बन और प्रगाढ़ आलिंगन के कई दृश्य दिखाये गये थे लेकिन भूखे दर्शको का पेट इससे कहाँ भरने वाला था, वे तो कुछ और देखने की इच्छा रखते थे। फिल्म खत्म हो गयी और वे अपनी अधूरी इच्छाओं के साथ बाहर निकल रहे थे। अगले शो के दर्शक उनसे पूछ रहे थे और वे जबाब दे रहे थे कि फिल्म में कुछ नहीं है – पैसा डाड़ हो गया यानी टिकट खरीदना व्यर्थ हो गया।

     

 

फिल्म का पैसा वसूल हो चुका था। बड़ी से बड़ी फिल्मों में इतना हाउसफुल नहीं हुआ था, इस फिल्म ने तो रिकार्ड ही तोड़ दिया था। टिकट बिकने के बाद भी निरंतर दर्शक कम होते गए – वजह वहीं कि फिल्म वह सब कुछ नहीं है जिसकी वे लालसा रखते थे।

     

 

बाद के वर्षो में एडल्ट फिल्मों का बाजार बहुत गर्म हुआ। एडल्ट फिल्मों के बीच में ब्लू फिल्मों की रील जोड़ दी जाती थी। यह काम सम्बंधित अधिकारियों और पुलिस से मिल कर किया जाता था। झांसी, महराजगंज और फैज़ाबाद के प्रवास में ऐसे कई मामले हमने पकडे थे, इन मामलो में लोगो को जेल हुई थी और मुश्किल से जमानत मिली थी। फिल्में आदमी को बदलती रहती हैं। वयस्क फिल्मों ने न केवल दर्शको को बदला है बल्कि उन्हें लुच्चा बना कर रख दिया था। ज्यादातर फिल्में विदेशों से आयात होती थीं और उन्हीं के तर्ज पर दक्षिणी भारत में बनती थीं। वे हिंदी में डब की जाती थीं। दर्शकों का भाषा से कोई सरोकार नहीं होता था, वे तो वर्जित और मजेदार दृश्यों को देखने जाते थे।

 


 

 

ब्लू लगूनफिल्म के बाद सिनेमा मालिक ने ऐसी फिल्म लगाने से तौबा कर ली थी। शहर में उसकी कम बदनामी नहीं हुई थी। लोग कहने लगे थे कि पैसा  कमाने के लिए इतना पतित होने की क्या जरूरत है? सिनेमा मालिक शहर के बड़े रईस थे। इस फिल्म के प्रदर्शन से उनकी साख कम हो गयी थी। इस पाप को धार्मिक फिल्म लगा कर धोया गया।

 

 

कुछ लोगों ने सिनेमाहाल को गंगाजल से पवित्र करने के साथ यह सलाह दी कि सिनेमाहाल में अखंड रामायण का पाठ कराया जाए। शहर के बुजुर्ग बिरादरी के लोग बहुत खफा थे। उनका बस चलता तो उनका हुक्का-पानी बंद कर देते। सिनेमा मालिक बहुत दिनों तक मुंह छिपा कर घूमते रहे।

 

       

॥तेरह॥

    

हापुड़ पिलखुआ से 12 कि.मी. दूर था। कभीकभी उसका चार्ज मिल जाता था। हापुड़ मंडी ही नहीं थी, वहाँ लेखको की बसावट थी, वहाँ हिंदी की मुख्यधारा के  लेखक और प्रकाशन संस्थान थे जिसकी दूर–दूर तक कीर्ति थी, वहाँ पश्यंतीनाम की पत्रिका प्रकाशित होती थी। सुदर्शन नारंग, अशोक अग्रवाल, प्रभात मित्तल नफीस आफरीदी, महेंद्र मित्तल, अमितेश्वर, अवधेश श्रीवास्तव, डा. अजय गोयल  मुख्य लेखकों में थे। अजय गोयल लेखक के साथ डाक्टर भी थे और हमारी नाशाद तबियत को दुरूस्त करते रहते थे। महेंद्र मित्तल ने तो फिल्मों पर पी-एच. डी. की थी। बहुत दिनों तक फिल्मी दुनिया में अपनी राह खोजते रहे। फिल्मी पत्रिका माधुरीके वे नियमित लेखक थे। वे असफल हो कर हापुड़ लौटे थे। हापुड़ में पिलखुआ की अपेक्षा नयी फिल्में लगती थीं और मैं अपने लेखक मित्रों के साथ देखता था। वे मेरे जीवन के अच्छे दिन थे। हापुड़ में मेरी मुलाकात बाबा नागार्जुन, विनोद कुमार शुक्ल, जितेंद्र कुमार, पंकज सिंह, राजेश जोशी, अनिल जनविजय से हुई थी। 

 

बाबा नागार्जुन

 

अच्छे दिन स्थायी नहीं होते, उनके ऊपर ग्रहण लग जाता है। सबसे बड़े ग्रह तो जब्बर सिंह थे, उन्होंने हमारा जीना हराम कर दिया था। वे सप्ताह में एक बार भेष बदल कर टपक जाते थे और हमें खोजवाते थे, तमाम तरह से जिरह कर मेरा माथा चाट जाते थे। उनकी बातें अब्सर्ड होती थी – न कोई सींघ न पूंछ। वे किस तरह के व्यक्ति हैं, यह समझने में मैं नाकाम था। न जाने उनके भीतर किस बात को ले कर कुंठा थी।

 

 

पिलखुआ में रहते हुए एक दिन जनपद के दूसरे कस्बे गढ़मुक्तेश्वर में तबादला हो गया था। यह कैसे और किस हालात में हुआ, यह जानने में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी। मैं तो इस बात से प्रसन्न था कि मैं एक नयी जगह जा रहा हूँ, वह गंगा नदी के तट पर बसा हुआ कस्बा था। गंगा नदी पर बसे हुए जिन नगरों का उल्लेख किया जाता है, उसमें गढ़मुक्तेश्वर प्रमुख नगर था। यहाँ कार्तिक का विराट मेला लगता था जिसमें दूर–दूर से धार्मिक यात्री आते थे, वहाँ सर्कस और टूरिंग टाकीज लगते थे। कस्बे में मिड–नाइट शो चलते थे। जो लोग मेले में आते थे, वे फिल्म देखने का वक्त निकाल लेते थे यानी धर्म और मनोरंजन साथ–साथ चलता था।

  

 

मेरे पास एक टीन की संदूक, होल्डाल, कुछ किताबें और पत्रिकाओं के अलावा कोई जायदाद नहीं थी, उसे कंधे पर लाद कर इस कस्बे के एक अधबने कमरे में दाखिल हुआ तो मेरे पास छोड़े गये शहर की कुछ स्मृतियां थी। कस्बे में रिहाइस की बहुत किल्लत थी। किसी तरह एक कमरे का इंतजाम हुआ। यह कमरा धूल भरी सड़क के किनारे स्थित था, जहाँ थोड़ी सी हवा चलने पर धूल के बवंडर उठने लगते थे। दीवारों पर ठीक से प्लास्टर नहीं लगे थे। मेरे बगल के कमरे नेगी नाम के एक बैंककर्मी रहते थे, वे गढ़वाल के रहने वाले थे – उनके पास पहाड़ों के  जीवन की अनन्त कहानियां थीं। मैं उन्हें फिल्में दिखाता था, बदले में वह मुझे किस्से सुनाते थे। वे गज़ब के किस्सागो थे। उनका एक किस्सा मुझे नहीं भूलता . सुनिए...।

    

 

वे बैंक की नौकरी के पहने जूतों के एजेंट थे। वे फुटवेयर की दुकानों से आर्डर  लेते और उसकी पूर्ति करते थे। उन दिनों उनका क्षेत्र जौनसार – बावर का इलाका था जो देहरादून का चकराता क्षेत्र के सुदूर में स्थित था। जूते का आर्डर लेते समय शाम हो गयी थी, देर होने के कारण कोई साधन नहीं मिल पा रहा था। दुकानदार ने कहा – आप चिंता न करें, मेरी दुकान में ठहरने की जगह है। आप यहाँ रूक जाइए, मैं सुबह यहाँ आ जाऊंगा। शाम होते ही लोग दुकान बंद कर अपने गांव चले जाते थे, सड़क पर सन्नाटा छा जाता था। वहाँ जो कुछ उपलब्ध था, उसे खा कर अपनी क्षुधा मिटाई। चांदनी रात थी, झींगुरों और रात के पक्षियों की आवाज उनके अकेलेपन को भंग कर रही थी। उन्हें उल्लुओं की आवाज डरावनी लग रही थी, पहाड़ों पर दूर तक चांदनी बिखरी हुई थी।

  

 

रात के आठ बजे उन्हें घुंघुरूओ की आवाज सुनाई दी, आवाज सुन कर वे डर गए। उन्हें लगा कि जरूर कोई चुडैल होगी, उनके प्राण संकट में थे। यह क्या घुंघुरूओं की आवाज उनके बिल्कुल पास आ गयी थी। अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई, उन्हें हिंदी के जासूसी फिल्मों की याद आ गयी, इसी तरह प्रेतात्माएं अपना रूप बदल कर हमें सताती हैं। उनके पास दरवाजा खोलने के अलावा कोई चारा नहीं था। दरवाजा खोलने के बाद वे दंग रह गये – सामने पचीस साल की अत्यंत सुंदर  युवती खड़ी थी, उसके सिर पर गठरी थी। क्या है? उन्होंने हड़बड़ाहट में पूछा ..? बापू ने आप के लिए खाना भेजा है..। इस जबाब से उनके सांस में तनिक सांस आयी लेकिन वह पूरी तरह मुतमईन नहीं हो सके थे, कुछ उनके अंदर अटका हुआ था। उन्होंने जल्दी–जल्दी खाना भकोसा और उस युवती से कहा - अब तुम जाओ।  

   

मुझे कहाँ जाना है, आपके साथ ही रहना है, यह हमारी मेजवानी का तरीका है।

बीच में टोक कर उनसे पूछा  - तो आपने क्या किया?

...मैंने एक अच्छे मेहमान का फर्ज निभाया.. यह कहते हुए उनके ओठों पर मुस्कान खेल गयी थी।

   

नेगी ने मुझे बताया कि जौनसर-बावर इलाके के लोग अपना सम्बन्ध पांडवों से  जोड़ते हैं, यहाँ बहुपति प्रथा प्रचलित है। कुछ कबीलों में लोग अपने मेहमानों के स्वागत में अपने परिवार की स्त्रियों को हाजिर कर देते थे।

  

यह किस्सा बेहद रोमांचक था जिसे सुन कर मेरे जैसे जवान आदमी की नींद गायब हो गयी थी।

 

##

  

गढ़ के चौपले पर अनेक ढ़ाबे थे जिसमें गढ़-दिल्ली रोड के ड्राइवर–कंडक्टर भोजन करते थे। उनके लिए खाना एक जश्न की तरह होता था। वे लहीम–सहीम कद के होते थे, खाने के पहले वे वाइन पीते थे और चिखने में फ्राइड चिकन और दर्जनों अंडों के आमलेट उड़ा जाते थे। बोतल खत्म होने पर मुख्य भोजन पर उतरते थे। उनकी खुराक देख कर गश आ जाता था। खाने के बाद वे लम्बी डकार लेते थे और हम उसे सुन कर डर जाते थे - जैसे कोई भेड़िया गुर्रा रहा हो। भोजनोपरांत वे फिल्म देखने हाल में चले जाते थे। हाल में अधिक संख्या उनकी  ही होती थी, बाकी छोटे–मोटे दुकानदार और ठेले वाले होते थे - वे कम टुन्न नहीं होते थे। सिनेमाहाल वाइन की खुशबू से महकता रहता था। रोमांटिक दृश्यों पर वे सीटी बजाते थे और कभी-कभी नाचने लगते थे।

 

गढ़मुक्तेश्वर

 

  

एक बार की बात है जब खूब बारिश हुई, सड़कें पानी से भर गयी थीं। पानी से सिनेमाहाल का परिसर भर गया था। नाइट शो खत्म होने के बाद लोग जल्दी जल्दी सिनेमाहाल से बाहर निकल रहे थे। गेटकीपर हाल मुआयना करने के बाद गेट बंद कर निकल ही रहा था कि उसे कुत्तों के कूं-कूं-कूं की आवाज सुनाई दी। उसने नजर डाली, उसे कुछ भी नहीं दिखाई दिया। फिर उसने टार्च से देखना शुरू किया। उसने देखा कि दो मरघिल्ले लड़के सीट के नीचे छिपे हुए हैं और कूं-कूं की आवाज निकाल रहे हैं। गेटकीपर बलिष्ट था, उसने दोनों की गर्दन पकड़ी और उन्हें खींचते हुए बाहर ले आया और भद्दी सी गाली देते हुए मुख्य गेट के बाहर झम्म से पानी में फेंक कर गेट बंद कर दिया।

  

रविवार का दिन था, मैं नेगी से पहाड़ की कहानियां सुन रहा था। रात के 11 बजे मैंनेजर बदहवास दौड़ता हुआ आया, मैंने पूछा- क्या हुआ? उसने बताया कि जब्बर सिंह आए हुए हैं, वे हमसे बिना बताए हाल के भीतर लोगो से टिकट मांग कर चेकिंग कर रहे थे। एक ड्राइबर से टिकट मांग रहे थे, इससे उसे देखने में खलल महसूस हुई सो उसने उन्हें कूट दिया – वे अपमानित महसूस कर रहे हैं। कह रहे  हैं कि एफ. आई. आर. दर्ज  कराई जाए।

   

मैं जब गया तो वे लुटे–पिटे बैठे हुए थे। उनकी कमीज फटी हुई थी, पैंट के पायचें अपनी जगह नहीं थे। वे जासूस की तरह आये और हाल में घुस गये थे। वे मैंनेजर रूम में आ कर मैंनेजर को अपने साथ ले कर जाते तो ऐसी स्थिति नहीं होती। मैंने उन्हें यही बात बताई और कहा कि ये लोग पी कर आते हैं और अपने  होश में नहीं होते हैं।

 

...नहीं नहीं। इनके  खिलाफ एफ. आई. आर. दर्ज कराओ नहीं तो मैं सिनेमा हाल के खिलाफ कार्यवाही करूंगा।

   

मैंने थाने में उक्त स्थिति बताते हुए फोन किया, तुरंत दरोगा के साथ दो सिपाही आ गये। वे अंदर से उस आदमी को बाहर ले आये लेकिन उसके पीछे उसके पक्ष में दर्जनों लोग आ गये। जब उससे पूछा गया कि तुम लोगों ने डी. सी. साहब के  साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया।

...ये  डी. सी. हैं- मैंने समझा कोई ग़ेटकीपर है।

... तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।

.. साहब, हम टिकट खरीद कर फिल्म देख रहे थे, ये लोगों के टिकट देख रहे थे।

..यह उनकी ड्यूटी है - चलो माफी मांगों

   

उन्होंने औपचारिक रूप से माफी मांगी और बड़्बड़ाते हुए हाल में चले गये। जब्बर सिंह बजिद्द थे कि उन्हें थाने में बन्द किया जाय और उनके खिलाफ कार्यवाही की जाय। दरोगा ने कहा, इनके मालिक दबंग लोग हैं, कुछ किया जाएगा तो थाना और सिनेमाहाल घेर लेंगे ..

   

ऐसा कह कर दरोगा ने अपना पिंड छुड़ाने की कोशिश की और कहा कि अगर आप को कभी नाइट शो चेक करना हो तो आप थाने को सूचित कर दें, आप को पुलिस फोर्स मिल जायेगी।

किसी तरह हिल-हुज्जत के बाद मामला शांत हुआ।

      

 

॥चौदह॥

 

गढ़मुक्तेश्वर बेतरतीब बसा हुआ कस्बा था। उसकी जमीन ऊंट के पीठ की तरह थी, कहीं ऊंची तो कहीं नीची। सावधानी से न चलो तो पांव बिचुक जाये। वे जवानी और छलांग भरने के दिन थे। पैर में चक्कर और दिल में आवारगी थी। बहुत सी रातें बृजघाट गढ़मुक्तेश्वर में गुजर जाती थीं। हमारी प्रकृति के दो तीन दोस्त मिल गये थे, वे हमसे भी दो हाथ आगे थे। नयी जगहों की योजनाएं  बनाते रहते थे। कस्बे हम चार दोस्त जहाँ जाते थे, साथ ही जाते थे, वह सिनेमाहाल हो या गंगा मंदिर। गंगा नदी में तो हमारे प्राण बसते थे। नदी के बीच बने द्वीप में घंटों बैठे रहते थे। नावों को आते-जाते देखते रहते थे। शाम को मंदिर की घंटियां और घडियाल बजते तो हम झूमने लगते थे। मंदिर से आ रही गीत की ध्वनियां फिल्म के गानों की नकल थी। यानी फिल्में हर क्षेत्र में दखल कर रही थी।

   

 

दोस्तों में एक मेरा बंगाली दोस्त आशीष सरकार था, वह रेलवे स्टेशन का  सहायक स्टेशन मास्टर था। वह रेलवे के क्वार्टर में रहता था। वहाँ मेल ट्रेनें कम रूकती थी। स्टेशन पर सन्नाटा छाया रहता था। पेड़ों के पत्ते खामोशी से गिरते रहते थे, वे जब हल्की हवा में उड़ते थे तो लगता था कि कोई नन्हीं सी चिड़िया उड़ रही हो। आशीष के मकान के पास एक लड़की रहती थी, उसके पिता रेलवे के कर्मचारी थे। वह कोयले की अंगीठी जला कर खाना बनाती थी। जैसे ट्रेन आती वह तेजी से दौड़ जाती था और थोड़ी देर में खुश हो कर लौटती थी। मैंने उसे अनेकों बार देखा था। एक दिन मैंने आशीष से पूछा - वह ऐसा क्यों करती है – उसने जबाब दिया कि वह रेल के डिब्बे गिनती है, रेल के यात्रियों को ट्रेन से उतरते और चढ़ते देखती है। वह छूटे हुए टिकट जमा करती है और उससे रेल बनाती है। जीवन का यह बिम्ब बहुत अच्छा लगा था। मैंने एक कविता लिखी –

 

रोज तड़के उठ कर अंगीठी

सुलगाती है लड़की

और रेल से 

उतरते हुए यात्रियों को उत्सुकता से देखती है ...

जब प्लेटफार्म खाली हो जाता था

लड़की प्लेटफार्म पर छूटे हुए

टिकटों को इकट्ठा करती है

उन्हें मूल्यवान चीज की तरह

सजा कर ताखें पर रखती है ..

लड़की घर से बाहर निकलना चाहती है

वह चाहती है, उसके पांव

लोहे के पहिये में बदल जाय।

 

##

 

जब सुमन कुमारी सुदूर गोरखपुर से मुझसे मिलने आयी थी तो उसने मेरा कमरा देख कर कहा था  - तुम इस जगह पर कैसे रहते हो, तुम मुझे यहाँ कैसे रखोगे?

 

मुझे उसकी इस बात से शर्म आयी। मैंने उससे कहा - यहाँ मकानों की बड़ी कमी है, तुम आओगी तो कोई अच्छा सा इंतजाम कर लेंगे।

   

मैं उसे ले कर आशीष मोशाय के यहाँ ले गया लेकिन उसके परिचय को बदल कर कहा – ये मेरी मौसेरी बहन हैं – दिल्ली गयी थी, लौटते समय यहाँ उतर गयी हैं।

 

आशीष मेरे झूठ को ताड़ गया था लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, मन ही मन मुस्कराता रहा। जब आशीष किसी काम से बाहर गया तो मैंने सुमन कुमारी से  एक चुम्बन की फरमाइश की तो उसने साफ इनकार करते हुए कहा - मैं तुम्हारी  मौसेरी बहन हूँ इसलिए यह आग्रह अनुचित है।

मैं कहाँ मानने वाला था, मैंने उससे चुम्बन चुरा लिए थे।

  

कहानियां सिर्फ फिल्मों में नहीं होतीं, इन्ही कहानियों से हमारा जीवन बनता है। कहानियों को इस जीवन से निकाल दिया जाय तो कुछ नहीं बचता है।

  

गढ़मुक्तेश्वर में मन नहीं लगता था इसलिए सोचा क्यों न हापुड़ में रिहाइश बना ली जाए सोचा, वहाँ दोस्तों की संगत मिल जाएगी। आने-जाने के लिए रेलवे का पास बनवा लिया जाएगा, किसी इमेरजेंसी में बस से आया–जाया जा सकता है। जब जी चाहेगा तो गढ‌ में रूकने की सहूलियत थी ही। मित्रों के सौजन्य से कमरे का इंतजाम हो गया था। मैं गढ़ दोपहर के बाद जाता और शाम को लौट आता था। हम लोगों का साहित्य का केंद्र सम्भावना था, उसके संचालक अशोक अग्रवाल  मेरे मित्र बन गये थे। हमारी जोड़ी मशहूर थी – जहाँ हम जाते तो साथ–साथ जाते। हिंदी के कवियों–लेखकों का वहाँ आना–जाना था। वहाँ खूब बैठकें जमती थीं जिसमें साहित्य के समाचारों के साथ अफवाहों की चर्चा होती थी। दिल्ली दूर नहीं थी इसलिए वहाँ का आना–जाना लगा हुआ था। सुबह जाते और शाम को लौट आते थे।

    

हम सम्भावना में बैठे हुए थे कि एक दिन हिंदी के एक कवि वहाँ आए, वे विदेश में घूम चुके थे। वे अपने कविता संग्रह की पांडुलिपि के साथ आये थे। हम बातचीत कर ही रहे थे कि वे उठ कर छत पर चले गये, थोड़ी देर के बाद लौट आये। आधे घंटे के बाद उन्होंने यह क्रिया दोहरायी, जब वे तीसरी बार छत की ओर जाने लगे तो मुझे शक हुआ कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। मैं बचपन से ही जिज्ञासु रहा हूँ।

 

मैं जासूस की तरह उनके पीछे गया तो देखा कि वे दीवार की ओट में सिगरेट से तम्बाकू निकाल कर कोई तत्व मिला रहे हैं, मुझे देख कर वे चौक गये। यह क्या है? मैंने उनसे पूछा, उन्होंने होठ पर उंगुली रख कर चुप रहने का संकेत दिया। मैंने धीमे से उनसे कहा – यह क्या चीज है? वे बोले यह चरस है। चरस मेरे लिए नया शब्द था लेकिन अपनी साधारण बुद्धि से यह जान गया था कि यह कोई नशे की चीज है अन्यथा कोई इतनी गोपनीयता क्यों बरतता। मुझे भी चाहिए ..मैंने उन्हें ब्लैकमेल करने के अंदाज में कहा। हाँ, क्यों नहीं- लेकिन किसी को बताना नहीं। मैंनें उन्हें यकीन दिलाया कि मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगा। मैंने उनके साथ चरस के सुट्टे लगाये और थोड़ी देर के लिए तबियत हरी हो गयी, मैं सातों आसमान की सैर करने लगा।  

   

इस तरह मैं नशे की इस दुनिया से वाकिफ हुआ। दिल्ली में जे. एन. यू. के  आसपास इस तरह की कई दुकानें थीं जहाँ यह बनी–बनाई सिगरेट मिलती थी। दिल्ली में यह नशा बहुत लोकप्रिय था। सिगरेट की आदत तो पहले थी अब यह आदत भी साथ जुड़ गयी थी। मैं तेज आंधी में सिगरेट जला लेता था। मैं फिल्टर की सिगरेट पीता था लेकिन एक मित्र को जब मैंने यह सिगरेट आफर किया तो उन्होंने साफ मना करते हुए कहा कि मैं सिगरेट और होठ के बीच फिल्टर की  दीवार पसंद नहीं करता। मैंने सिगरेट का फिल्टर तोड़ कर उन्हें सिगरेट थमा दिया और वे खुश हो गए।

 

 

 

सम्पर्क

 

स्वप्निल श्रीवास्तव

510, अवधपुरी कालोनी -  अमानीगंज

फैज़ाबाद – 224001

 

मोबाइल -09415332326

 

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'