परांस-5 : सुधीर महाजन की कविताएं
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कमल जीत चौधरी |
ऊंचाई अपने आप में एक तिलिस्म रचती है। यह विडम्बना ही है कि कोई भी ऊंचाई अपना आधार पृथिवी को ही बनाती है। इसी पृथिवी पर रहते हुए हम एक जगह बनाते हैं। यह वह सामान्य जगह होती है जिसे आम तौर पर निचली जगह कहा जाता है। ऊपर से नीचे का ठीक ठीक देख पाना कठिन होता है लेकिन नीचे से ऊपर का सब कुछ दिख जाता है। सुधीर महाजन अपनी एक कविता में लिखते हैं : 'हवाई जहाज़ की खिड़की से/ मेरा घर नज़र आता हो या न आता हो/ मेरे घर की खिड़की से/ हवाई जहाज़ बहुत छोटा-सा नज़र आता है...।' कहने का कवि का अपना तरीका है जिसमें धरती से जुड़े कवि को अपने घर की खिड़की से आसमान में उड़ता हवाई जहाज़ बहुत छोटा-सा नज़र आता है...।' ऐसी दृष्टि एक कवि की ही हो सकती है। उसके लिए ऊंचाइयों का वह मोल नहीं जो जमीन का होता है।
पिछले अप्रैल से कवि कमल जीत चौधरी जम्मू कश्मीर के कवियों को सामने लाने का दायित्व संभाल रहे हैं। इस शृंखला को उन्होंने जम्मू अंचल का एक प्यारा सा नाम दिया है 'परांस'। परांस को हम हर महीने के तीसरे रविवार को प्रस्तुत कर रहे हैं। इस कॉलम के अन्तर्गत अभी तक हम अमिता मेहता, कुमार कृष्ण शर्मा, विकास डोगरा और अदिति शर्मा की कविताएं प्रस्तुत कर चुके हैं। इस क्रम में आज हम पांचवे कवि सुधीर महाजन की कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं। कॉलम के अन्तर्गत सुधीर महाजन की कविताओं पर कमल जीत चौधरी ने एक सारगर्भित टिप्पणी भी लिखी है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सुधीर महाजन की कविताएं।
परांस-5:
घर की खिड़की से हवाई जहाज़, बहुत छोटा-सा दिखाई देता है
कमल जीत चौधरी
सुधीर महाजन; 'परांस' के 'अन्य' कवि हैं। 'अन्य' यानी दूसरे, भिन्न, ग़ैर और साधारण में ग़ैरमामूली कवि हैं। इन्हें 'अन्य' नज़र से देखने के अनेक कारण हैं। एक बात यह है कि इन्होंने तीन दशकों की लेखन-यात्रा में मात्र तीस-पैंतीस कविताएँ ही लिखी हैं। इनके व्यक्तित्व में अचूक धैर्य, एकांतप्रियता, प्रतीक्षा और ईमानदार- स्वीकारोक्तियां कायम हैं। वे लिखते हैं:
'यूँ तो
मेरे घर के पीछे पगडंडी भी है
किंतु
कविता कभी-कभार ही पहुँच पाती है
मेरे घर तक'
××
'क्या करू?
घर छोड़ कर कहीं जा भी नहीं सकता
कविता कभी भी मुझ तक पहुँच सकती है
कभी भी।'
उपरोक्त काव्य-अंश, इनकी 'पगडंडी और कविता' शीर्षक कविता से उद्धरित हैं। यह पूरी कविता रचना-प्रक्रिया की कविता है। यहाँ कबीर का 'यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं', जैसी चुनौती या कठिनाई और 'सीस उतारी हथि रखे', जैसी समर्पण की भावना निहित है। आलोच्य कवि का लेखन एक खुली किताब की तरह है। इसे पाठक को पूरा पढ़ना चाहिए, मगर ज़्यादातर यह हो नहीं रहा। हम जीवन की पंक्तियों को छोड़-छोड़ कर पढ़ रहे हैं। हम नहीं जानते कि बिना पढ़े छोड़ दी गई पंक्तियों में सिर्फ़ कवि का नहीं, हमारा अपना भी सार है। पन्द्रह सेकंड की रील्स के दौर में जब हम लम्बी फिल्मों, पाँच दिनी मैचों, मैराथन जैसे धैर्य से दूर जा रहे हैं, तब सुधीर की कविताओं का पाठ हमें कलात्मक संगीत सुनने जैसा लगता है। हमारा यह कवि अपने होने में पर्याप्त अवकाश व विकल्प रखता है, ताकि कविताएँ इनके जीवन में दर्ज़ होती रहें, इन्हें चुनती रहें। वे अपने घर के पीछे एक पगडंडी को बचा लेने वाले कवि हैं। इस पगडंडी पर कभी-कभी कविताएँ आ जाती हैं। क्या हमारे घरों के पीछे पगडंडियां हैं?
आलोच्य कवि अपने मुहावरे में सहजता के सिद्धहस्त कवि माने जा सकते हैं। बरसों से इन्हें सुन रहा हूँ। इनकी कविताओं पर लिखते हुए भी इनकी सादगी सुन रहा हूँ। जिन्होंने भी इनका काव्य-पाठ सुना है, वे इनकी चिर उदास, आर्द्र व गम्भीर-गिरा को भूल नहीं सकते। इनकी समग्र कविताई के मूल में अग्रउद्धरित कविता की अनुगूंज महसूस की जा सकती है। मेरी दृष्टि में यह कविता; मूलतः इनके लेखन की सूत्र-कविता है। एक हेतु है:
'उसने मेरा गिरेबां नहीं पकड़ा था,
उसने मुझे झकझोरा भी नहीं था,
कोसा भी नहीं था
पर, कुछ था
कुछ था,
जो अन्दर तक चुभ गया
और
आज तक
उस 'कुछ' की चुभन महसूस करता हूँ।'
यह कविता जितनी निजी लग रही है, उतनी सार्वजनिक और बेहद प्रासंगिक भी है। यह समष्टिगत पीड़ा को महसूस करवाती है। इस कविता में व्यंजित 'कुछ' की चुभन बहुत गहरी है। यह चुभन; टीस बन कर दिन-दिन बढ़ती जा रही है। थोड़ी सी नज़र, और दिल रखने वाला कोई भी यह अनभुव करता है कि आज आम आदमी पग-पग पर अपमानित है। उसकी प्रतिष्ठा दुर्लभ है। जैसे सड़क पर लाल-नीली बत्ती वाली गाड़ियों का काफ़िला आते ही आमजन को सीटियों, संकेतों और सायरनों से किनारे धकेल दिया जाता है। उसे बीच रास्ते या किसी भी जगह रोक दिया जाता है। नागरिक-अपमान के लिए एक से बढ़ कर एक प्रबन्ध या आयोजन किए गए हैं। कोई मोटी गाली, एक कुटिल मुस्कान, एक मलिन दृष्टि भी हमारी अदृश्य पगड़ी को उछाल देने के लिए पर्याप्त है। इन सब से परे एक ऐसा 'कुछ' भी है, जो बिना धक्के, गाली, कुटिल मुस्कान या गंदी नज़र के भी बेइज़्ज़त करता रहता है। यह न कहा जाने वाला 'कुछ', सुधीर की कविता में बहुत मुखर हो कर व्यंजित हो रहा है। इसकी चुभन एक संवेदनशील मनुष्य को रात के तीसरे पहर भी भेदती रहती है। 1907 में 'पगड़ी संभाल जट्टा' नामक किसान आन्दोलन हुआ था। यह ब्रिटिश सरकार द्वारा थोपे गए तीन कृषि कानूनों का विरोध करने के लिए शुरू किया गया। इसका नेतृत्व सरदार अजित सिंह, किशन सिंह (शहीदे आज़म भगत सिंह के पिता) और लाला लाजपत राय जी ने किया था। यह नारा किसानों के आत्मसम्मान और प्रतिष्ठा का प्रतीक बना। इस नारे को जाति-विशेष से जोड़ कर न देखें तो यह बेहद प्रासंगिक नारा है। हिन्दी कविता को इस आलोक में भी देखना चाहिए कि इसकी कौन सी लीकें; आम जन की प्रतिष्ठा, उसके सम्मान की रक्षा करती आई हैं? कर पा रही हैं? क्या यह कवि को भी गिरने से बचाए रख सकती हैं? सुधीर ऊपर इंगित 'कुछ' की चुभन को बचाते हुए; बहुत कुछ बचा लेने वाले, मज़बूती से खड़े कवि हैं।
इनकी कविताएँ पढ़ते हुए मुझे यह श्लोक याद आया-
"मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधी: काममोहितम्।।"
यह श्लोक; आदि कवि वाल्मीकि के मुख से अनायास फूटा; उनका पहला श्लोक था। इस श्लोक में हत्यारे के विरुद्ध क्रोध और क्रौंच पक्षी के लिए शोक अभिव्यक्त हुआ है। यहाँ प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा की बात है। हत्यारे को कतई प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो सकती, न होनी चाहिए। गुंडा सड़क-चौराहे पर किसी की हत्या कर देता है। अपना छुरा साफ करते हुए चला जाता है। जिन्होंने हत्या देखी है, वे डरे हुए लोग हैं। उन्होंने गुंडे का सामना नहीं किया। वे गवाही भी नहीं देते। मगर उनके मन में उस गुंडे के लिए घृणा ही फूटती है। वे क्रोध और शोक से भर जाते हैं। यह लोग कवि नहीं हैं। शोक, क्रोध या अन्य स्थाई भावों को प्रतिभा, व्युत्पत्ति या अभ्यास की आवश्यकता नहीं होती। कवियों की प्रतिभा या शक्ति; उसके स्थाई भावों के पुष्ट और सघन होने पर श्रेष्ठ को प्राप्त होती है, और व्युत्पत्ति और सतत अभ्यास से यह और सुन्दर; और प्रखर होती है। आलोच्य कवि की प्रतिभा; शोक, निर्वेद और वात्सल्य से निखरी है। इनकी अधिकतर कविताओं की नींव में करुणा है, इस नींव पर मानवीय-दुख, खालीपन और तलाश की ईंटों से एक घर सम्भव हुआ है। इसके दरवाज़े और खिड़कियां खुली हुई हैं। दरवाज़ों से कोई भी पाठक, किसी भी समय आ-जा सकता है, और खिड़कियों का आलम तो यह है:
'हवाई जहाज़ की खिड़की से
मेरा घर नज़र आता हो या न आता हो
मेरे घर की खिड़की से
हवाई जहाज़ बहुत छोटा-सा नज़र आता है...'
इनका जीवन-फलसफा, जीवन-अनुभवों से अर्जित है। यह आधे खाली को नहीं, आधे भरे गिलास को देखता है। इनकी सुन्दर दृष्टि में कांटों को फूलों का, गमलों को मिट्टी का, रिश्तों को कविताओं, हिचकोलों को जीवन का सानिध्य प्राप्त है। 'ऊँट की सवारी' जैसी कविताएँ; जीवन-दर्शन की कविताएँ हैं। यह जीवन के रास्ते में अवरोधक बन कर खड़ी नहीं होतीं। यह जानती हैं:
'ज़िन्दगी तो ऊँट की सवारी है दोस्तों
जितना हिचकोला आगे है
इतना पीछे की तरफ भी है
इस उथल-पुथल की आदत
डाल ही लीजिए
ऊँट तो अपनी चाल से ही पहुँचेगा
मंज़िल तक।'
हिन्दी कविताओं में रिश्तों पर भी खूब लिखा गया है। सुधीर की कविताएँ इस परम्परा में भी अपना एक अवदान देती हैं। यह रिश्तों के उदात्त-भाव-भंगिमाओं की कविताएँ हैं। 'तो' और 'दृष्टिकोण', सुन्दर प्रेम कविताएँ हैं। यह हमें कवि की रूह तक ले जाती हैं, जिसकी जड़ें फूलों के हक़ में गमले की मिट्टी बन गई हैं।
यह 'रिश्तों के होने, न होने' और इनके न होने में होने, होने में न होने' की आशा और विवशता को अलहदा तरीके से दर्शाती हैं:
'यह एहसास कितना सुखद है
कि मैं भी एक मुड़ा तुड़ा पुराना कागज़ बन कर
किसी न किसी बटुए में संभाला जा रहा हूँ...
दोस्त तो बटुए में रखे कागज़ की तरह होते हैं।'
माँ और दोस्तों पर लिखी इनकी कविताएँ; स्मार्ट फोन से पहले यानी एस. एम. एस. युग में वायरल हुई थीं। इन्हें यह बात तब भी पता नहीं थी। इन्हें अब भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता जबकि सच यह है कि इस दौर में तो इनकी अनेक-अनेक काव्य-पंक्तियाँ वायरल हो सकती हैं। आख़िर यह हिन्दी कविता का पोस्टर-काल/ शॉर्ट-काल/ पेज़-काल/ पोस्टर- बॉय संपादक-काल है। मगर आलोच्य कवि का रास्ता अलग है। इन चीज़ों से इन्हें कोई मतलब नहीं है। इनका मानना है कि बहुत प्रसिद्धि भी एक नशा है, और नशा कोई भी श्रेयस्कर नहीं है। इस तरह अपने स्वभाव और टेक-सेवी न होने के कारण; आलोच्य कवि सोशल नेटवर्किंग से अधिकतर दूर रहते हैं। यह दूर रहना, अलग तरह से इन्हें अपने पास रहने का अवकाश देता है। ऐसा पास रहना दुर्लभ है।
'सिगरेट की आत्मकथा', 'दोस्त', और 'जाने क्यों' जैसी कविताएँ; क्रमशः मिटने की, जीवन की गोधूलि की और चले जाने की बात करती हैं। दरअसल यह हमारे चले जाने, अकस्मात चले जाने और कहीं न कहीं बचे रह जाने के सत्य और विश्वास को बिंबित करती हैं। यह कविताएँ चले जाने और बचे रहने की दीर्घ तैयारी के लिए प्रेरित करती हैं। अज्ञेय की प्रसिद्ध कविता 'नाच' के दो सिरे; सुधीर के 'नेपथ्य' में आ कर दो पर्दे या दो दुनियाएँ बन जाती हैं, जहाँ यह पर्दे या दुनियनाएँ मिलते हैं, वह केन्द्र है। मुलाकात के बाद पता चलता है कि इस केन्द्र में कोई भी नहीं है, जो उनके साक्षात्कार के लिए ताली बजा सके। फिर सवाल उठता है कि यह मिलन या साथ; केन्द्र में क्यों? या फिर ज़रूरी ही क्यों? एक दूसरे को जान लिया जाए, इतना पर्याप्त नहीं है? हाशियों पर रहा जाए, रह कर जीवन को देखा जाए, यह अधिक ज़रूरी है। इनकी कविताएँ ऐसी हैं कि हमारे ठीक सामने रह जाती हैं। इनसे जब साक्षात होता है तो यह हमें; हमसे वाकिफ़ करवाती हैं। कवि का यह विश्वास कि अकस्मात चले जाने के बाद 'बहुत ढूढ़ा जाऊँगा', 'बहुत चाहा जाऊँगा' दरअसल उनका अपना नहीं, उस पूरी दुनिया का विश्वास है, जो सच्चे अर्थ में जीवन से प्यार करते हैं। कवि को जीवन के होने पर इतना विश्वास है कि वह कह उठता है:
'पेंसिल से लिखा भी
रह जाता है
सालों तक
कागज़ के किसी कोने पर,
तो यह तय है :
जो मिटने के लिए ही बना है
वह भी, मिटते-मिटते,
मिटेगा।'
सिगरेट के जलते टुकड़े को बुझा दिया जाता है। इस डर से कि कहीं आग न लग जाए। मगर यहाँ सिगरेट को सिर्फ़ सिगरेट समझ लेना ठीक नहीं होगा। जो सिगरेट मुँह में लगा रहा, पीने वाले के द्वारा उसे नीचे फेंक कर जूते से कुचल देना, हमें कभी ग़लत नहीं लगता। लेकिन 'सिगरेट की आत्मकथा' पढ़ने के बाद सिगरेट, सिगरेट नहीं रहता। इसका सरलीकरण नहीं किया जा सकता। यहाँ किसी को इस्तेमाल करके; उसे ख़त्म करने की बदचलनी का मार्मिक चित्रण किया गया है। कवि इस पीड़ा की चरमसीमा को इस तरह लिखता है:
मैं,
खुद ही
बुझ जाता
तुम, अगर मुझे न भी कुचलते तो।
इतनी देर तक होठों से लगा रहा हूँ
कि धूल की आदत,
पड़ते-पड़ते,
पड़ेगी।
इनका लेखन; जीवन के अधिकतर को परिभाषित करते हुए इसके थोड़े का भी प्रतिनिधित्व करता है। सुधीर की कविताएँ उनकी हैं, जो दिखाई देना और सुनाई देना बंद हो गए हैं। ऐसी कविताई, उसे चुनती है, जो पद-प्रतिष्ठा, पुरस्कार और कीर्ति-अपकीर्ति से ऊपर उठ जाता है। यह कविताई; कवि-विचार को किसी पाठक पर नहीं थोपती। यह कहीं भी उपदेशक बनकर विशेष दिशा में जाने का इशारा नहीं करती। सुधीर महाजन की कविताएँ पढ़ते हुए विनोद कुमार शुक्ल याद आते हैं। यह याद आना इनकी कविताई को प्रतिष्ठित ही करता है। वस्तुतः आलोच्य कवि; पद्य में आत्मकथा लिखते हुए एक जीवनी लिख रहे हैं। यह जीवनी जन की है। यह जन; अवरोध बनकर खड़ी प्रतिकूलताओं को पार करने की कला जानता है। कवि के इन भावों से अपनी बात को विराम देता हूँ:
'जब समय दीवार बन कर खड़ा हो जाता है
तो मैं भी, छिपकली बन कर
उस पर चिपक जाता हूँ।'
सुधीर महाजन इसी तरह अपनी 'परांस' लगाते रहें। वे एक न एक दिन मेड़ तक अवश्य पहुँचेगे। खूब शुभकामनाएँ!
सम्पर्क:
मोबाइल : 09419274403
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सुधीर महाजन |
कवि परिचय:
सुधीर महाजन का जन्म 1 मई 1966 को जम्मू में हुआ। वे केमिकल इंजीनियर हैं। मुम्बई में पन्द्रह साल नौकरी करने के बाद अपरिहार्य कारण से नौकरी छोड़नी पड़ी। 2003 में जम्मू लौट आए। उन्हीं दिनों जम्मू में प्ले वे स्कूल खोलकर शिक्षक हो गए। कविताएँ लिखने की शुरुआत प्यार होने पर हुई। आज भी प्यार में हैं, और यक़ीनन रहेंगे भी। फिलहाल कोई कविता संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ है। साझे संग्रहों, 'मुझे आई डी कार्ड दिलाओ' (2018 में, स. कमल जीत चौधरी) और 'तवी जहां से गुजरती है' (2010 में, स. अशोक कुमार) के अलावा कुछ पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और समीक्षाएँ प्रकाशित हुई हैं। विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ाव रहा है। 2015 से साहित्यिक संस्था, 'राइटर फोरम जम्मू' के अध्यक्ष हैं।
सुधीर महाजन की कविताएं
जाने क्यों
जाने क्यों
ऐसा लगता है कि
जब जाऊँगा
तो यूँ ही चला जाऊँगा अकस्मात!
बहुत ढूँढ़ा जाऊँगा
बहुत चाहा जाऊँगा
हम उन्हीं चेहरों को ढूँढ़ने लगते हैं
जो दिखाई देना बंद हो जाते हैं।
उन्हीं लोगों को आवाज़ देने लगते हैं
जो सुनाई देना बंद हो जाते हैं
जाने क्यों
ऐसा लगता है...
कुछ की चुभन
उसने मेरा गिरेबां नहीं पकड़ा था,
उसने मुझे झकझोरा भी नहीं था
मुझे कोसा भी नहीं था
पर कुछ था,
कुछ था
जो अन्दर तक चुभ गया
और
आज तक
उस 'कुछ' की चुभन महसूस करता हूँ...
नेपथ्य में कोई नज़र नहीं आ रहा था
मुझे तो
कदाचित,
तुम्हारा ही साथ चाहिए था
यह तो रास्तों के मोड़ थे
जो नेपथ्य के पात्र बदलते रहे
और
दूर कहीं, परदे की रस्सी पर टँगा, मेरा अस्तित्व,
नाटक ख़त्म होने का इंतज़ार करता रहा
और
फिर जब
दूसरे कोने की रस्सी पर लटके हुए
तुम मुझसे आ मिले
तो नाटक समाप्त हो चुका था
नेपथ्य में कोई नज़र नहीं आ रहा था...
ऊँट की सवारी
ज़िन्दगी तो ऊँट की सवारी है दोस्तो
जितना हिचकोला आगे है
इतना पीछे की तरफ भी है
इस उथल-पुथल की आदत
डाल ही लीजिए
ऊँट तो अपनी चाल से ही पहुँचेगा
मंज़िल तक।
सिगरेट की आत्मकथा
मैं,
खुद ही
बुझ जाता
तुम, अगर मुझे न भी कुचलते तो।
इतनी देर तक होठों से लगा रहा हूँ
कि धूल की आदत,
पड़ते-पड़ते,
पड़ेगी।
तो यह तय है
पेंसिल से लिखा भी
रह जाता है
सालों तक
कागज़ के किसी कोने पर,
तो यह तय है :
जो मिटने के लिए ही बना है
वह भी, मिटते-मिटते,
मिटेगा।
समर्पण
मेरा समर्पण तो खुली किताब की तरह था
जिसे वो पढ़ भी सकता था
और पढ़ कर भूल भी सकता था
किन्तु न जाने क्यों
वो कुछ पंक्तियाँ पढ़े बिना आगे बढ़ता गया
फिर पूरा अध्याय छूट गया
फिर वह वही पन्ना पढ़ने लगा
जो उसे गुदगुदाता था
वह कहाँ जानता है
जो पंक्तियाँ बिना पढ़े
वह छोड़ आया है
शायद वही तो थी मेरा सार
...
खुशनसीब होती हैं वे किताबें
पाठक जिसे पूरा पढ़ और समझ लेता है...
पगडंडी और कविता
यूँ तो
मेरे घर के पीछे पगडंडी भी है
किंतु
कविता कभी-कभार ही पहुँच पाती है
मेरे घर तक
शब्दों के जंगल में भटक जाती है
दिशा विहीन हो जाती है
संवेदशीलता का श्रृंगार अस्त-व्यस्त हो जाता है,
हताश-निराश!
छटपटाने लगती है
मुझ तक तक पहुँचना चाहती है
मैं इस ओर से चिल्लाता भी हूँ
उसका ध्यान आकृष्ट करता हूँ
अस्तित्व खो देने के भय ने
उसे जड़वत कर दिया है
क्या करू?
घर छोड़ कर कहीं जा भी नहीं सकता
कविता कभी भी मुझ तक पहुँच सकती है
कभी भी।
तो
तुम नहीं थी
तो किसी ने गमलों में पानी नहीं दिया
गोया फूल ही नहीं खिले
तुम नहीं थी
तो किसी ने ड्योढ़ी में लगा मकड़ी का जाला
साफ़ ही नहीं किया
तुम नहीं थी
तो किसी ने भी
खिड़की खोल, धूप अन्दर ही न आने दी
अब तुम हो
तो लगता है
हवा का एक ठंडा झोंका तो आएगा
खिड़की से आती धूप एक मिठास तो लाएगी
दृष्टिकोण
तुम्हारे प्रति मेरा दृष्टिकोण
मुझे गुदगुदाए रखता है
अपने अच्छा होने की प्रेरणा दे जाता है
गमले की मिट्टी
फूल खिलाने को आतुर है
और फूल खिलेंगे ही...
जब समय दीवार बन कर खड़ा हो जाता है
यह अच्छा है कि मेरी ज़रूरत,
सबसे ज़्यादा
खुद मुझी को है
बहरा बन कर बच पाया हूँ
गूंगों के इस शहर में
जब समय दीवार बन कर खड़ा हो जाता है
तो मैं भी, छिपकली बन कर
उस पर चिपक जाता हूँ।
दोस्त
दोस्त तो
बटुए में रखे पुराने कागज़ों की तरह हैं
जिन्हें न जाने कितने सालों से संभाले हूँ
कुछ मुड़-तुड़ गए हैं
जीर्ण हो चुके हैं
अपना सफेदपन भी खो चुके हैं
कुछ की तह इतनी सावधानी से खोलनी पड़ती है
कि लेशमात्र कठोरता इन्हें फाड़ देगी
मैं जानता हूँ इन कागज़ों पर लिखी गईं
धूमिल हो गई पंक्तियों के मायने
जो गुदागुदा जाती हैं
यद-कदा रुला जाती हैं
कितने ही पुराने चेहरों से मिलवा जाती हैं
सच कहूँ तो मुझे मेरे पास बैठा जाती हैं
जीवन की इस गोधूलि बेला में
यह अहसास कितना सुखद है कि
मैं भी
एक मुड़ा-तुड़ा कागज़ बन कर
किसी न किसी बटुए में संभाला जा रह हूँगा
संजोया जा रहा हूँगा
दोस्त तो...
दृष्टि
हवाई जहाज़ की खिड़की से
मेरा घर नज़र आता हो या न आता हो
मेरे घर की खिड़की से
हवाई जहाज़ बहुत छोटा-सा नज़र आता है...
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क:
लेन नम्बर-22
ग्रेटर कैलाश, जम्मू
मोबाइल नम्बर: 9419137610
सुन्दर रचनाएं
जवाब देंहटाएंसाथी, हार्दिक धन्यवाद!
हटाएंसरल, सहज जैसे कोई दबे पांव कविता की दुनिया में प्रवेश करता है और फिर कविता की सुंदरता से हतप्रभ...और पढ़ने को लालायित हो उठा मन
जवाब देंहटाएंमैडम, सादर प्रणाम! आप 'परांस' पढ़कर हमेशा प्रतिक्रिया भी देती हैं। आपकी टिप्पणियां अनमोल हैं। साथ-स्नेह बना रहे। हार्दिक धन्यवाद व शुभकामनाएँ!
हटाएं~ कमल जीत चौधरी