वीरेन्द्र यादव का आलेख 'देश-विभाजन और साहित्य'
अंग्रेजों से एक लम्बी लड़ाई के पश्चात भारत अन्ततः 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ। लेकिन यह आजादी हमें विभाजन के पश्चात मिली। इतिहासकार विभाजन के बीज को कई ऐतिहासिक घटनाओं से जोड़ते हैं। लेकिन 20वीं सदी में कुछ ऐसी घटनाएं घटी जिन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की खाई को और चौड़ा किया। आग में घी का काम किया कट्टरपंथियों ने। इसमें हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के कट्टरपंथी शामिल थे जिन्होंने सुलह समझौते की किसी भी स्थिति को असफल साबित कर दिया। इन कट्टरपंथियों ने अंग्रेजों के मन्तव्य को हकीकत में बदल दिया। रचनाकारों ने विभाजन की इस परिस्थिति को अपनी कविताओं , कहानियों और उपन्यासों में सशक्त ढंग से अभिव्यक्त किया है।वीरेन्द्र यादव की किताब 'प्रगतिशीलता के पक्ष में' का एक अध्याय है 'देश विभाजन और साहित्य'। उन्हीं की एक टिप्पणी के साथ हम इस महत्त्वपूर्ण आलेख को आज पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं।
"15 अगस्त 1947 महज इतिहास की एक तारीख भर नहीं है। यह संदर्भ बिंदु है भारतीय समाज की उन नई सच्चाइयों का जो विभाजन के गर्भ से उपजी हैं। यह दुखद है कि विभाजन की यह प्रक्रिया देश के बड़े शहरों से ले कर सुदूर गांव काशन तक आज भी जारी है। विभाजन का यथार्थ स्थूल न रहकर अब अत्यंत जटिल एवं सूक्ष्म हो गया है। आवश्यकता है एक ऐसे सांस्कृतिक हस्तक्षेप की जो विभाजन के घाव को यदि भर ना सके तो कम से कम उन्हें हरा होने से तो जरुर रोके। देश विभाजन के इतने वर्षों बाद आज भी सबसे बड़ी साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चुनौती यही है'।" 'देश विभाजन और साहित्य' शीर्षक से यह लेख अगस्त 1997 में लिखा गया था। अब यह लेख मेरी पुस्तक 'प्रगतिशीलता के पक्ष में' में शामिल है। विभाजन संबंधी लेखन की जानकारी के लिए इसे संदर्भित किया जा सकता है।
वीरेन्द्र यादव
'देश-विभाजन और साहित्य'
वीरेन्द्र यादव
"कौन आजाद हुआ
किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी
मेरे सीने में अभी दर्द है, महकूमी का
मादरे हिन्द के चेहरे पे उदासी है वही
खंजर आजाद है सीनों में उतरने के लिए
मौत आजाद है लाशों पर गुजरने के लिए...."
('फरेब, पन्द्रह अगस्त और उसके बाद' नज़्म से)
सुब्हे आज़ादी को ले कर प्रख्यात उर्दू शायर अली सरदार जाफरी द्वारा व्यक्त किया गया यह संशय भारत विभाजन की उस त्रासदी को रेखांकित करता है, जिसकी स्मृतियाँ भारतीय उपमहाद्वीप में अब भी ताजा हैं। यह महज देश की सीमाओं, सम्पत्ति एवं लेन-देन का ही बँटवारा नहीं था। यह घर, परिवार, दिलो-दिमाग, प्रेम-मोहब्बत, समाज और संस्कृति का भी बँटवारा था, जिसकी कीमत दस लाख से अधिक लोगों ने विस्थापित हो कर चुकाई थी। आजादी के बाद के इस अर्द्धशताब्दी के दौर में तीन-तीन भारत-पाक युद्धों, बंगलादेश के अभ्युदय, सिख विरोधी दंगों, बाबरी मस्जिद का ढहना व पाकिस्तान में मुहाजिरों की दुर्दशा से विभाजन के घाव कुछ और हरे होने लगे हैं। सहज विश्वास नहीं होता कि जिस भारतीय उपमहाद्वीप की सामाजिक बुनावट इतनी गझिन व जटिल हो, सहसा वह तार-तार कैसे हो सकती है।
शायद यही कारण है कि इस उपमहाद्वीप के साहित्यिकों को जिस एक घटना ने सर्वाधिक विचलित व आन्दोलित किया है, वह भारत-विभाजन ही है। देश, प्रान्त, भाषा एवं विचारधारा की सीमाओं को फलाँगते हुए जितना साहित्य विभाजन को केन्द्र में रख कर लिखा गया है उतना किसी अन्य राजनीतिक-समाजिक घटना को ले कर नहीं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि हिन्दी, उर्दू, बंगला, पंजाबी, सिन्धी व अंग्रेजी में विभाजन पर इतना कुछ लिखा गया है, लेकिन उनमें साहित्यिक रूप से समादृत एक भी ऐसी रचना नहीं है जिसमें पाकिस्तान बनने के तर्क को स्वीकार कर उसका स्वागत किया गया हो या भारत-विभाजन का पक्ष लिया गया हो। भारतीय साहित्य में पाकपरस्ती का अभाव कोई चौंकाने वाली बात नहीं है लेकिन पाकिस्तान में लिखे गये साहित्य के सन्दर्भ में यह तथ्य अवश्य ध्यान देने योग्य है।
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सआदत हसन मंटो |
विभाजन को ले कर लिखे गये साहित्य की अब एक सुदीर्घ परम्परा बन चुकी है। सआदत हसन मंटो, यशपाल, अब्दुला हुसैन, कृष्ण चंदर, राजेन्द्र सिंह बेदी, कुर्रतुल-ऐन-हैदर, ख्वाजा अहमद अब्बास, राही मासूम रजा, भीष्म साहनी, खदीजा मस्तूर, अहमद नदीम रश्दी, तसलीमा नसरीन, अब्दुल बिस्मिल्लाह एवम मंजूर एहतेशाम सहित जाने कितने रचनाकारों के लेखन तक विस्तृत है विभाजन की त्रासदी का दंश। लेकिन इन सभी नामों में जो एक नाम विभाजन की त्रासदी से जुड़े लेखन का पर्याय बन गया है, वह सआदत हसन मंटो का है। अविभाजित भारत के पंजाब प्रान्त में जन्मे और अमृतसर, अलीगढ़, बम्बई और दिल्ली में पले-बढ़े मंटो ने अपने जीवन के अखिरी पाँच वर्ष नव सृजित देश पाकिस्तान के लाहौर नगर में बिताये। तैंतालिस वर्ष की अल्पायु में दिवंगत मंटो के दिलोदिमाग में पाकिस्तान को ले कर गहरी ऊहापोह एवं उदासी थी। विभाजन के दंगों ने तो जैसे उनकी लेखकीय चेतना को स्तब्ध सा कर दिया था। विभाजन पर केन्द्रित उनकी कहानियाँ इस स्तब्धकारी चेतना की मार्मिक अभिव्यक्ति हैं। उनके कहानी संग्रह 'मक़तल' और 'सियाह हाशिये' की कहानियाँ तो जैसे विभाजन की छाया में मानवीय मूल्यों के विघटन की टुकड़ा-टुकड़ा दास्तान हैं। प्रत्यक्ष रूप से कोई राजनीतिक स्वर न अपनाते हुए भी इन कहानियों में विभाजन की त्रासदी जिस मारक वेदना के साथ उजागर होती है, वह मंटो का अपना मौलिक मुहावरा है। उनकी कहनी 'टोबा टेक सिंह' तो जैसे विभाजन का शोक प्रस्ताव ही हो। 'ठण्डा गोश्त', 'खोल दो', 'खुदा की कसम', 'सहाय', 'टेटवाल का कुत्ता' 'गुरुमुख सिंह की वसीयत' आदि उनकी इसी क्रम की कहानियाँ हैं, जिनके बिना विभाजन का कोई भी साहित्यिक-विमर्श अधूरा ही रहेगा।
आजादी के बाद के दशक में विभाजन को ले कर पाकिस्तान में दो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपन्यास लिखे गये। अब्दुला हुसैन का 'उदास नस्लें' और खदीजा मस्तूर का 'आँगन'। 'उदास नस्लें' की कथा द्वितीय विश्वयुद्ध से ले कर विभाजन तक का कालखण्ड समेटे दिल्ली-हरियाणा के ग्राम्यांचल से ले कर लाहौर तक विस्तृत है। अपने दौर के राजनीतिक घटनाक्रमों की निशानदेही करती यह औपन्यासिक गाथा विभाजन की त्रासदी एवं उपन्यास के नायक नईम के प्रेम एवं विवाह में रची पगी है। पाकिस्तान जाते शरणार्थियों के काफिले में नईम की भटकन महज एक औपचारिक पात्र की भटकन न हो कर एक पूरी नस्ल एवं कौम की भटकन का प्रतीक है। खदीजा मस्तूर का बहुप्रशंसित उपन्यास 'आँगन' उत्तर प्रदेश के एक जमींदार परिवार के इर्द-गिर्द केन्द्रित, विभाजन पूर्व के बीस वर्षों के दौरान कांग्रेस, मुस्लिम लीग एवं कम्युनिस्ट राजनीति की गहमागहमी के बीच पली-बढ़ी नवयुवती आलिया के पाकिस्तान में शरणार्थी बनने की दर्द भरी दास्तान है।
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कुर्रतुल-ऐन-हैदर |
इस दौर में लिखा गया कुर्रतुल-ऐन-हैदर का बहुचर्चित उपन्यास 'आग का दरिया' विभाजन की जड़ों को भारतीय इतिहास के अलग-अलग कालखण्डों में तलाशता हुआ मुस्लिम नियति का एक सांस्कृतिक दस्तावेज सरीखा बन जाता है। उपन्यास का मुख्य मुस्लिम पात्र कमालुद्दीन इतिहास के अलग-अलग कालखण्डों में अलग-अलग रूपों में प्रस्तुत होता है। सैनिक, सूफी, माँझी से ले कर आधुनिक मुस्लिम युवक तक उसके कई अवतार हैं, और अन्ततः वह विभाजन की घटनाओं के प्रवाह में पाकिस्तान जाने को अभिशप्त है। लेकिन उपन्यास की नायिका चम्पा अहमद अपनी पीढ़ी के अन्य लोगों के साथ भारत में ही बसने का निर्णय लेती है। चम्पा का यह निर्णय महज एक काल्पनिक पात्र का निर्णय न हो कर इस देश में ही बसने का निर्णय लेने वाले करोड़ों मुस्लिमों की मनोदशा की सशक्त अभिव्यक्ति है। पाकिस्तान जा चुकने के बाद कुर्रतुल-ऐन-हैदर की पुनः भारत वापसी इसी मनोदशा का परिणाम है। विभाजन उनकी रचनाओं का केन्द्रीय विचार है। उनके बाद के उपन्यासों 'निशांत के सहयात्री', 'चाय बागान' एवं 'हाउसिंग सोसायटी' में भी विभाजन एवं मुस्लिम नियति के प्रश्नों की अनुगूंज सुनी जा सकती है।
विभाजन की पृष्ठभूमि पर भारत में लिखे गये उपन्यासों में यशपाल का 'झूठा सच' एक महाकाव्यात्मक रचना है। दो खण्डों में बारह सौ पृष्ठों से अधिक का विस्तार लिए इस उपन्यास में विभाजन की त्रासदी जिस ऐतिहासिक तथ्यपरकता एवं सूक्ष्म विवरणों के साथ उद्घाटित हुई है, वह इसे विभाजन का कालपात्र सरीखी विश्वसनीयता प्रदान करता है। विभाजन की छाया में पंजाबी समुदाय के लाहौर से उजड़ने एवं दिल्ली में बसने तक का वृत्तान्त समेटे यह उपन्यास विभाजन की त्रासदी को वृहद राजनीतिक एवम एल सामाजिक परिप्रेक्ष्य में रेखांकित करता है। अपनी सम्पूर्णता में यह उपन्यास विभाजन की महज एक शोक गाथा न हो कर विपरीत परिस्थितियों में भी मनुष्य के दुर्दम्य साहस और धैर्य की शौर्यगाथा भी है। निश्चय ही 'झूठा सच' विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी औपन्यासिक कृतियों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
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भीष्म साहनी |
देश के बंटवारे के दौरान पंजाब की सरहद पर हुए भयानक साम्प्रदायिक दंगों की पृष्ठभूमि पर भीष्म साहनी का उपन्यास 'तमस' विभाजन की नियामक शक्तियों को बेपर्दा करता है। कुल पाँच दिनों के घटनाक्रम पर केन्द्रित यह उपन्यास अंग्रेजों द्वारा साम्प्रदायिकता को हथियार बना कर 'फूट डालो राज करो' की नीति के पर्दाफाश से ले कर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, हिन्दू महासभा एवं मुस्लिम लीग की भूमिका को भी उजागर करता है। इस दौर में कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका का भी उपन्यास में वस्तुपरक विवेचन किया गया है। विभाजन की घटना से अपेक्षाकृत अधिक अन्तराल के साथ लिखे जाने के कारण इस उपन्यास में एक ठण्डापन एवं तटस्थता का भाव बना रहता है। जो इसे कुछ अधिक ही प्रामाणिकता प्रदान करता है।
'झूठा सच' एवं 'तमस' की तर्ज पर सीधे-सीधे विभाजन की कहानी न हो कर भी राही मासूम रजा के 'आधा गाँव' में 'पाकिस्तान-विमर्श' जिस सहज बोध एवं तार्किकता के साथ प्रस्तुत होता है, वह हिन्दी उपन्यास की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इस उपन्यास में न तो साम्प्रदायिक मारकाट है, न लाशों के ढेर और न ही बलात्कार की यातना क्योंकि इसका 'लोकेल' उत्तर भारत का एक ऊँघता सा गाँव है। लेकिन इस गाँव में जो 'आलमे तनहाई' है वह सीमान्त प्रान्तों के विध्वंस से कहीं अधिक मारक है। यह 'आलमे तनहाई' राही मासूम रजा की जुबानी कुछ यूँ है, 'आलमे तनहाई के मानी यह थे कि इकलौता बेटा पाकिस्तान में था और हकीम साहब पोते-पोतियों के साथ हिन्दुस्तान में थे।..... गरज कि आजादी के साथ कई तरह की तनहाइयाँ भी आयीं। बिस्तर की तनहाई से ले कर दिलों की तनहाई तक।' 'आधा गाँव' का महत्त्व इस तथ्य में अन्तनिर्हित है कि पाकिस्तान बनने के औचित्य एवं मुस्लिम नियति के प्रश्न जिस बेबाकी के साथ इस उपन्यास में उपस्थित हए हैं, वह विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखे गये किसी अन्य उपन्यास में उपलब्ध नहीं है। 'आधा गाँव' के हकीम साहब का यह सहज कथन यहाँ दृष्टव्य है - "ई पाकिस्तान त हिन्दू-मुसलमान को अलग करे को बना रहा। बाकी हम त ई देख रहे कि, मियाँ-बीबी, बाप-बेटा और भाई-बहन को अलग कर रहा।" राही की खूबी यही है कि मुस्लिम मनोदशा का विश्लेषण हर कोण से करने के बाद वे बिना कोई निष्कर्ष दिए सहज बोध के सहारे देश विभाजन को अर्थहीन एवं तर्क विरुद्ध सिद्ध करते हैं। इन्हीं अर्थों में विभाजन के विमर्श को समझने के लिए 'आधा गाँव' एक जरूरी उपन्यास है।
अब तक की चर्चा में जिन उपन्यासों का नामोल्लेख हुआ है, वे कमोबेश बहुप्रशंसित एवं बहुचर्चित कृतियाँ हैं। लेकिन अपेक्षाकृत कम चर्चित होने के बावजूद बदीउज्जमाँ का उपन्यास 'छाको की वापसी' विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखित एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है। इस उपन्यास की विशेषता यह है कि इसके केन्द्र में अभिजन न हो कर वह सामान्य जन है, जो पाकिस्तान के निहितार्थ को भी नहीं समझता। उपन्यास के मुख्य पात्र 'छाको' को यह अहसास भी नहीं है कि दूसरे मुल्क की नागरिकता का परिणाम क्या होगा। राही मासूम रजा की ही तरह बदीउज्जमाँ भी अपने पात्रों के माध्यम से पाकिस्तान के औचित्य पर जिरह करते हैं। इस उपन्यास के अन्त में पूर्वी पाकिस्तान से अपने वतन को लौटे छाको का यह सवाल कि "हम हियाँ न रह सके हैं, बाबू?" और फिर उसका यह उन्मादी फैसला कि "जेहल दे दे चाहे फाँसी, हम तो छोड़ के न जैबई अपन घरवा।" वतन वापसी की छाको की यह छटपटाहट पाकिस्तान गये उन लाखों लाख मुहाजिरों की विभाजित मानसिकता को अभिव्यक्त करती है, जो अभी पाकिस्तान को ले कर एक दुविधा में है।
'आधा गाँव' एवं 'छाको' की वापसी की तरह सीधे विभाजन की समस्या से मुठभेड़ न करने के बावजूद राही मासूम रजा का उपन्यास 'टोपी शुक्ला', शानी का 'काला जल', मंजूर एहतेशाम का 'सूखा बरगद' एवं अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास 'झीनी झीनी बीनी चदरिया' में भी मुस्लिम अस्मिता के प्रश्न के साथ-साथ पाकिस्तान विमर्श एक अन्तर्धारा के रूप में उपस्थित है। यहाँ यह तथ्य चौंकाने वाला है कि जहाँ मुस्लिम लेखकों द्वारा हिन्दी में लिखे गये इन सारे उपन्यासों में विभाजन की समस्या को कौम के बँटवारे के रूप में प्रस्तुत कर के पाकिस्तान की विचारधारा को ही चुनौती दी गयी है, वहीं गैर मुस्लिम लेखक विभाजन को विस्थापन, पलायन एवम सांप्रदायिक दंगों तक केन्द्रित करते हुए उसकी राजनीतिक परिणतियों को रेखांकित करते हैं। शायद इसके मूल में कहीं यह कारण हो कि पाकिस्तान से विस्थापित होने एवं भारत में बसने के बाद जहां हिन्दू एवं सिख शरणार्थियों के घाव भरने लगे हों, वहीं हिन्दुस्तान से गए मुसलिम मुहाजिरों के दिलो दिमाग पर विभाजन की त्रासदी जब तब नये नये रूपों में कौंधती रहती हो और भारत के मुसलमानों के दिलों में विभाजन का दर्द इसलिए सालता रहता है कि यह उनके लिए महज एक राजनीतिक संकट न हो कर एक सांस्कृतिक व व्यक्तिगत संकट भी है, जिससे मुस्लिम समाज की 'उदास नस्लें' आज तक मुक्त नहीं हो पायी हैं। मंजूर एहतेशाम के 'सूखा बरगद' की रशीदा हो या शानी के 'काला जल' का मोहसिन या फिर नासिरा शर्मा के उपन्यास 'टीकरे की मंगनी' की नायिका ही क्यों न हो, सभी कहीं न कहीं विभाजन का दंश झेल रहे हैं।
उर्दू-हिन्दी के साथ-साथ पंजाबी, बंगला और अंग्रेजी में भी विभाजन को केन्द्र में रख कर काफी कुछ लिखा गया है। अंग्रेजी में लिखित ट्रेन दू पाकिस्तान (खुशवन्त सिंह), आजादी (चमन नाहल), दि रेप (राज गिल), ए बेन्ड इन दि गंगेज (मनोहर मलगाँवकर), दि डार्क डांसर (बालचन्द्र राजन), सन लाईट आन ए ब्रोकेन कालम (अतिया हुसैन), ट्वाइस बार्न ट्वाईस डेड (करतार सिंह दुग्गल), कन्फेशन आफ ए लवर (मुल्क राज आनन्द), दि आईस कैण्डी मैन (बप्सी सिधवा), वी नेवर डाई (डी. एफ. कड्डका) आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। यह अजब संयोग है कि इन उपन्यासों में एकाध अपवादों को छोड़ कर प्रायः अन्य सभी उपन्यास एक तरह की फार्मूलाबद्धता के शिकार हैं। इन उपन्यासों में विभाजन के पूर्व का देशकाल अमन-चैन एवं साम्प्रदायिक सौहाद्र से परिपूर्ण है और विभाजन इस सुख-शान्ति के वातावरण को भंग करने वाले खलनायक के रूप में उपस्थित होता है। इन सभी उपन्यासों में विभाजन की त्रासदी को प्रेमकथा की चाशनी में पाग कर प्रस्तुत किया गया है। यहाँ यह तथ्य भी अत्यन्त रोचक है कि इन सभी प्रेम प्रसंगों में प्रेमिकाएँ मुस्लिम हैं, जबकि प्रेम करने वाले युवक हिन्दू या सिख।
मूल बंगला में लिखित ज्योतिर्मयी देवी का उपन्यास 'ए पार गंगा-ओ पार गंगा' (अंग्रेजी में 'दि रिवर चर्निंग' शीर्षक से प्रकाशित) देश के बंटवारे की त्रासदी को एक नारीवादी विमर्श के रूप में प्रस्तुत करता है। साम्प्रदायिक दंगों के दौरान पूर्वी बंगाल में एक हिन्दू युवती के साथ बलात्कार और फिर विभाजन बाद के 'धर्मनिरपेक्ष' भारत में घर-परिवार और समाज से उनके अलगाव के ताने-बाने के गिर्द रचा-बुना यह उपन्यास राजनीति एवं पुरुष प्रधान समाज के प्रभुत्वकारी मूल्यों पर प्रश्नचिह्न लगाता है। राजेन्द्र सिंह बेदी की कहानी 'लाजवन्ती' भी काफी कुछ इसी पृष्ठभूमि की कहानी है। भारतीय भाषाओं एवं अंग्रेजी में भारत-विभाजन की पृष्ठभूमि पर इतना कुछ लिखा गया है कि सभी का नामोल्लेख भी यहाँ सम्भव नहीं है। फिर भी सहज रूप से याद रह जाने वाली कुछ रचनाओं में कृष्ण चंदर के उपन्यास 'और इन्सान मर गया' के साथ-साथ कुछ कहानियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन कहानियों में प्रमुख हैं- मलबे का मालिक (मोहन राकेश), अमृतसर आ गया है। (भीष्म साहनी), परमिसर सिंह (अहमद नदीम कासमी), सर्द लाश का सफर (अमर जलील), शरणदाता (अज्ञेय), चारा काटने की मशीन (उपेन्द्र नाथ अश्क), जड़ें (इस्मत चुगताई), सिद्ध किया हुआ साँप (इलियास अहमद गद्दी), मेरा वतन (विष्णु प्रभाकर), गड़रिया (अशफाक अहमद), नमक (रजिया सज्जाद जहीर), सिक्का बदल गया (कृष्णा सोबती), एक शहरी पाकिस्तान का (रामलाल) आदि। विभाजन पर लिखित इतनी विपुल साहित्य सम्पदा के बावजूद अब भी विभाजन की त्रासदी के कई मानवीय पहलू अनजाने रह गये हैं। जरूरत है इन अनजाने पहलुओं को नये सृजनात्मक सन्दर्भ देने की। यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि पन्द्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस महज इतिहास की एक तारीख भर नहीं है, यह सन्दर्भ बिन्दु है भारतीय समाज की उन नई सच्चाइयों का जो विभाजन के गर्भ से उपजी हैं। यह दुखद है कि विभाजन की यह प्रकिया देश के बड़े शहरों से ले कर सुदूर गाँव कस्बों तक भी जारी है। विभाजन का यथार्थ स्थूल न रह कर अब अत्यन्त जटिल एवं सूक्ष्म हो गया है। आवश्यकता है एक ऐसे सांस्कृतिक हस्तक्षेप की जो विभाजन के घावों को यदि भर न सके तो कम से कम उन्हें हरा होने से तो जरूर रोके। देश-विभाजन के इतने वर्षों बाद आज भी सबसे बड़ी साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चुनौती यही है।
(अगस्त 1997)
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