सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'किसका दुःख, किसकी मुक्ति'

 

सेवाराम त्रिपाठी 



प्रेमचंद ने साहित्य को राजनीति से आगे चलने वाली मशाल की संज्ञा दी थी। अब न प्रेमचंद रहे, न ही प्रेमचंद का जमाना। अब राजनीति का ऐसा प्रभामंडल विकसित हुआ है कि साहित्य राजनीति की चापलूसी करने में हर समय जुटा रहता है। वह अपने उन दायित्वों से मुकर गया है जो कभी उसकी पहचान हुआ करते थे। लिखना हर जमाने में खतरनाक रहा है। लेकिन एक जमाना था जब लोग यह खतरा उठाते थे। अब जबकि सुविधाओं का माया जाल हर जगह फैल चुका है तब खतरे की राह पर चलने की मूर्खता कौन करे। अब तो बच्चे तक पूछते हैं कि लिखने से क्या फायदा होता है। जहां जीवन का हर व्यवहार विशुद्ध फायदे से जोड़ा जाता हो, उसके दिवालियेपन का हम अंदाजा ही लगा सकते हैं। सेवाराम त्रिपाठी अपने आलेख में लिखते हैं 'इस दौर में सबद विवेक का क्षरण निर्लज्जतापूर्वक हुआ है। कबीर में जो व्यंग्य लेखन की धार है वह अनवरत है और जटिल रूपों में भी है। ज़ाहिर है कि सबद विवेक की दुनिया, आत्मा की संयोजन क्षमता और वैभव से संचालित होती है। हर ऐरा-गैरा सबद विवेकी नहीं हो सकता। अब तो जिनके पास कुछ भी नहीं है, वो विवेकवान की श्रेणी में आ गए हैं। सच्चाई को जीवन यथार्थ से काट कर लुगदी चीज़ें घनत्व पाने की मुद्रा में आ गई हैं। और झुट्ठे और गारंटीबाज़ तरह-तरह के ज्ञान छाँट रहे हैं।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'किसका दुःख, किसकी मुक्ति'।


'किसका दुःख, किसकी मुक्ति'


सेवाराम त्रिपाठी


कल से कबीर पर सोच-विचार कर रहा हूँ। कबीर अक्सर मुझे बहुत मथते हैं और बेजा याद भी आते हैं। इतने समय के बाद उनका याद आना एक खास मानी रखता है। कबीर की याद हमेशा हमारे लिए सुहानी बहार या बयार की तरह लगती है। उनकी सोच टूटे हुए, बिखरे हुए समय को समझने का उत्साह भरा आलोक भी हैं और ज़िंदगी को तरतीब से अनुभव कराने का विवेक भी। कबीर जो भी कहते हैं- जीवन विवेक,  संवेदना और सच्चाई के साथ कहते हैं। समय-समाज को लुटा-पिटा और 'झांझर' देखने वाला ही इस तरह की बातें कह सकता है। किसको फुरसत है और किसको वक्त है इस झमेले के बारे में कुछ कहने की। उनके भीतर जितना जीवन विवेक है, उसी के समानांतर सबद विवेक भी है। सबद (शब्द) की गरिमा को समझने-बूझने का गुरुतर बोध भी है उनमें। वे आखर और अर्थ को समन्वित भी करते हैं। एक दोहा है 


'सबद मिलाबा होई रहा अरथ मिलावा नाहिं' 


इसलिए हमें न केवल शब्दों में निहित या समाए हुए अर्थ को समझना चाहिए, बल्कि उस पर अमल या व्यवहार भी करना चाहिए। दिखावे या आडंबर से दूर हुए बिना यह न तो संभव है और न ही मुमकिन। उनके कहे में और दावा करने में हमेशा आत्मविश्वास और सजगता भी बेजोड़ होती है। एक दोहे में वे कहते हैं-


"मैं रोऊं संसार को, मोकौं रोवे न कोइ, 

मोकौं रोवे सो जनां, जो सबद बिबेकी होइ।" 


सबद के विवेक की गरिमा को समझने-बूझने का गुरुतर साहस भी होना ज़रूरी है, अन्यथा शब्दों की इतनी फेंक-फांक चल रही है कि कुछ कहते नहीं बनता। कबीर के यहाँ इन सभी का भरपूर हस्तक्षेप भी है। वे जीवन मूल्यों, सरोकारों, नैतिकताओं, आचरणों के तत्व को भी समझते थे और उसमें अंतर्निहित तत्ववाद को भी। उनके लेखन में कोई भी चीज़ आयातित नहीं होती बल्कि जीवन संघर्षों की रोशनी में फलित भी होती है। इस दौर में सबद विवेक का क्षरण निर्लज्जतापूर्वक हुआ है। कबीर में जो व्यंग्य लेखन की धार है वह अनवरत है और जटिल रूपों में भी है। ज़ाहिर है कि सबद विवेक की दुनिया, आत्मा की संयोजन क्षमता और वैभव से संचालित होती है। हर ऐरा-गैरा सबद विवेकी नहीं हो सकता। अब तो जिनके पास कुछ भी नहीं है, वो विवेकवान की श्रेणी में आ गए हैं। सच्चाई को जीवन यथार्थ से काट कर लुगदी चीज़ें घनत्व पाने की मुद्रा में आ गई हैं। और झुट्ठे और गारंटीबाज़ तरह-तरह के ज्ञान छाँट रहे हैं।


कुछ चिंताएं मुझे लगातार हैरान और परेशान कर रही हैं, दूसरों की दूसरे जाने। मैं अपनी बातें आप सबसे शेयर करना चाहता हूँ। ज़्यादातर लिक्खाडों को सच्चाई पर चलने का कोई दिन नहीं होता और न ही कोई समय आता। सच्चाई पर न चलना ही उनके गौरव के क्षण हैं। उनकी पक्षधरता सुनिश्चित नहीं है। वे शब्दों को बेवजह भांजते रहते हैं। ज़रूरी है कि कोई चाहे जो कहे हर हाल में उनका कहा मान लिया जाए। यह विडंबना भी है और ऐसे लोगों की नियति भी। दुष्यंत कुमार की भी भरसक याद दिलाई जाती है। दुष्यंत के शेर अच्छे लोग तो रखते ही हैं। अपराधी, हत्यारे और तड़ीपार भी संसद में बेशर्मी से उछाल रहे हैं। यह शब्द और अर्थ की गरिमा का हनन भी है और हत्या भी। ये ही हत्यारी संभावनाओं का लोक है। कोई भी कठहुज्जती से भरी उनकी राजनीतिक, सामाजिक-सांस्कृतिक और जीवन मंशाओं से सहमत नहीं हो सकता।


जो अर्थ की गरिमा और महिमा जानते हैं हम उनकी सच्चाई के हमेशा कायल रहे हैं और उनकी कहन के भी। कैसे-कैसे मंज़र हमारे सामने आज हाज़िर हैं। हमारा जीवन जितना दुःख में है, उतना ही मुक्ति प्राप्ति के लिए तड़पता भी है और घुप्प अंधेरे से बाहर जाने के लिए बेचैन भी है। फिर भी क्या उड़ान भरने की चाह विकसित होती जा रही है? कबीर जैसे विडंबनाओं में भी मस्त हो सकते हैं और वास्तविकता को उजागर करने की अपार क्षमता रखते हैं। वह भी एक अभूतपूर्व उदाहरण है -


"नाचै ताना नाचै बाना, नाचै कूंच पुराना 

री माई को बीनै

कर गहि बैठि कबीरा नाचै, चूहै काट्या तानां

री माई को बीनै" 


जीवन में चाहे जो करते रहो केवल आदर्शों की छौंक लगा कर अपनी हाँकते रहो और गारंटियों के अंबार लगाते रहो। यह पूरी तरह से हाँकने का मौसम है। यह भी एक विशेष किस्म का आग्रह है। हम भले हैं या बुरे हैं, तुम्हें क्या करना है? आपत्ति क्या है आपको।


हम देखना नहीं चाहते, अनुभव नहीं करना चाहते अन्यथा रोशनदान भर नहीं हैं। एक खुला हुआ भरा-पूरा विस्तृत आकाश भी है। लेखक के पास शऊर नहीं है तो कोई क्या करे? उसके पास ज़मीर ज़िंदा नहीं है तो कोई क्या करे? वे भी राजनीतिबाजों की तरह सुविधाओं का सुरमा आंजने के काम में मुस्तैदी से लगे हैं। सभी को अपनी ओर झुकाने में लगे हैं। बड़े-बड़े दरवाज़े हैं और खुला हुआ आसमान भी है। लेखक का दिल मजबूत है और उसके अंदर साहस है तो जूझने का हौसला आ ही जाता है। कोई सत्ता- व्यवस्था के चरणों में समर्पित है लेकिन जन कल्याण की हाँक लगाए हुए हैं। बंद जीवन के सिलसिले में लीलाधर जगूड़ी की एक कविता पर बरबस ध्यान गया- 


"हर दिशा की ओर

घुमाई नहीं

जा सकती खिड़की

इसलिए मैं छत पर खड़ा हूं।" 


तात्पर्य यह है कि जो स्वतंत्र विचारों की छत पर आ गया, वह असमंजस में नहीं रहता। उसका काम खिड़की भर से नहीं चलता। उसे खुला आसमान और विस्तृत संसार भी चाहिए। क्योंकि आसमान के विस्तार में वो जी रहा है।





जनता की गंभीर समस्याओं के साथ लेखक के जुड़ाव होते हैं। कुछ लेखक प्रतिबद्धता से जबरन चिढ़ते हैं। जन संबद्धता का कहीं ज़िक्र आया तो उन्हें इससे मितली भी आती है। कमिटमेंट को अपने लिए बाधा जैसा अनुभव करते हैं। भई,, जनता से संबंद्धता और जुड़ना ही तो प्रतिबद्धता है। विदकते क्यों हैं? वह उनकी संबद्धता भी है। उनके प्रति हमारा समर्पण भूचाल ला देता है।  कुछ तो 'फ्री थिंकर्स' का घोंटा लगा कर खुदफहमी का गणित लगाते हैं। क्या करिएगा जब संबद्धता या सरोकर की बात आती है तो वे बिलबिला उठते हैं या  एकदम औंधे हो जाते हैं?


तथाकथित महान लोग बहुत उम्दा बातें रखने लगे हैं। किस प्रकार से भरमाते और घुमाते हैं कि आप नाहक हलाकान हो सकते हैं? सच है कि उनकी बातें ठेके से बहती हैं। नीचता कहने से जी नहीं भरता। साहित्यकार बंधु अपनी वास्तविकता, औकात और भूमिका भूल रहे हैं। अपने दायित्त्वों से मुँह मोड़ रहे हैं। जनतंत्र और आज़ादी के साथ मनुष्यता का लगातार क्षरण हर संवेदनशील आदमी को बेचैन कर रहा है। जैसे गाँव-समाजों में अकर्ताओं के खाने को खाना नहीं 'भकोसना' कहते हैं, उसी तरह तथाकथित लेखक छपा-छपउल में फंस चुका होता हैं। और जी भर कर न जाने क्या-क्या लिख कर गाँज रहा है। तब वह लिखता नहीं लिखाई की रस्म अदायगी करता है। वो किताबें छपाने और पुरस्कार की टकसाल ज़माने में भिड़ा रहता हैं। स्वार्थ अभी उनको कितना पटकेगा और उसे किस अनुपात में हुमकेगा, ठीक-ठीक कुछ नहीं कहा जा सकता। वे तटस्थ नहीं हैं। हाँ, तटस्थ होने का स्वांग रचते रहते हैं। जब किसी न किसी को वोट डालते हैं तो काहे के तटस्थ। फिर भी तटस्थता का बाना धारण किए हुए हैं। हत्यारे को वोट देते हो या डकैत को वोट देते हो या तड़ीपार को या डोमा जी उस्ताद को। आख़िर वोट देते तो हो। तटस्थता तो उनका नाटक है या स्वाँग। वे आदर्शों के बाहर जाकर प्रदर्शन कर रहे हैं। फिर भी जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ? कवि धूमिल की तरह हम यह भी नहीं कह सकते कि हमें अपनी कविताओं के लिए दूसरे प्रजातंत्र की तलाश है। बहरहाल क्या कहा जाएगा। कहना ज़रूरी मानते हैं तो कहते हैं। लिखना चाहते हैं तो लिखते हैं। कोई क्या कर सकता है? लिखना-पढ़ना लगा रहेगा। किस प्रकार की प्रतिबद्धता और किस प्रकार का लोक कल्याण?


हर तरह की सत्ताओं-व्यवस्थाओं की इतनी नृशंस मूर्खताओं से भरी कार्रवाईयाँ हैं कि आप गिनती नहीं कर सकते। उसे किसी तरह कूत नहीं सकते। कुछ भी नहीं कर सकते। उनका जलवा छलकाने का अंदाज़ा ही अलग है। जो अपने समय के यथार्थ से टकराएगा वह बच-बचा कर नहीं लिखेगा। वह लाभ-लोभ का किसी भी सूरत में गुंताड़ा नहीं लगाएगा। सत्ता, संस्थान और उनकी हाँ में हाँ मिलाने वाले दुभाषिए किस नीचता तक उतर सकते हैं, इसका सहज ही अंदाज़ा भी नहीं लगाया सकता। तानाशाहियत का रकबा दिन-रात चौड़ा हो रहा है। अभिमानों के शिखरों पर चढ़ कर वे कुछ भी कर सकते हैं। इन आँख के अंधों और गाँठ के पूरों को आप कितना समझाएंगे। वे सत्ता के सिंहासन को हर हालत में पकड़े रहना चाहते हैं। उनसे लाभ-लोभ की अखंड साधना करना चाहते हैं। नीचताएं उनके लिए कोई मायने नहीं रखतीं। लोक-कल्याण, लोक-कल्याण चिल्लाते हुए वे सार्वजनिक रूप से निर्लज्जताओं के अजीबो-गरीब खेल-खेल रहे हैं। साहित्य-संस्कृति और मनुष्यता की मालाएं जप रहे हैं। कबीर ने चेताया था कि-


"माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।" 


कभी मन का फेर जाएगा भी नहीं? जा ही नहीं सकता।


गुरु शिष्य सम्बंध ही दाव पर नहीं लगे। गाँव-समाज के रिश्ते भी अपनी अंतिम सांसें गिन रहे हैं। जाहिर है कि हमारे घर-परिवार अभी भी जीवन की विराट इकाइयाँ हैं। जिससे हमारी संबद्धता अखण्ड है। यह हमने कोरोना काल में घर-परिवारों की गाँव वापसी में अनुभव किया है। लोकतन्त्र और आज़ादी लहूलुहान है। मानवीय मूल्यों को गटरों में फेंक दिया गया है। शासन-सत्ता के अभिमान और गुमान का तुर्रा चढ़ा है। इन समूची वास्तविकताओं को और जटिलताओं को किसी हँसी में नहीं उड़ाया जा सकता। व्यंग्य को हम तमाशबीन स्टाइल में छुपम-छपाई में खेल रहे हैं। एक-एक कर हर चीज़ मुल्तवी की जा रही है। समाज और संस्कृति का और राष्ट्र के मुद्दों का और विकास के मॉडल का एक पुख़्ता नक्शा हमें तैयार करना चाहिए। कहना ज़रूरी है कि इस दौर में हमारे लेखकों में अस्वीकार का साहस बेहद कम हो गया है। लेखक किसको ठग रहा है? कबीर ने लगातार चेताया था -


"कबिरा आप ठगाइए और न ठगिए कोइ"


किसको फुरसत है सही बातें सुनने की। अब तो ठगा-ठगी की दुनिया है।


प्रशंसा और स्वीकार में झूलने वाले तथाकथित महान पुण्यात्मा लेखकों की तादाद कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ी है। इस प्रशंसा और स्वीकार में ही वे अपने विकास के तमाम मानक तलाशते हैं। भक्ति काल के निर्गुण कवियों में अस्वीकार का अपार साहस था। कबीर इसके अप्रतिम उदाहरण हैं। रीतिकाल में भी ज्यादातर प्रशंसा के घने-घने साए थे। लेकिन छांटिए-फटकिए तो  वहाँ भी कुछ न कुछ निकल ही आएंगे? इस दौर में भी निकलते ही हैं। कबीर ने किसे बेनकाब नहीं किया? परसाई ने क्या किसी को छोड़ा? रिटायर्ड भगवान की आत्मकथा की किश्तें पढ़िए तो समझ में आएगा। रचनाकारों में आत्मगौरव निरंतर क्षीण ही हुआ है। हम भूल गए कि भूषण की पालकी महाराजा छत्रसाल ने उठाई थी। कुछ तो केवल आत्मछल करते हैं या प्रशंसकों के समूह बनाते हैं। लेखकों  में एक रीढविहीन पीढ़ी का हैरत अंगेज आविर्भाव हुआ है। अक्खड़ता जो कबीर में थी। आधुनिक युग में उसके दर्शन नागार्जुन में हुए और व्यंग्य की दुनिया में हरिशंकर परसाई में मिलते हैं। 


मैथिली और हिंदी के एक लेखक हुए हैं हरिमोहन झा। उनकी 'खट्टर काका' नामक क़िताब पढिए। आपकी आँखें खुल जाएंगी। संकीर्णताओं की हवा खिसक जाएगी। एक उदाहरण प्रस्तुत है।" खट्टर काका हँसी-हँसी में भी जो उल्टा-सीधा बोल जाते हैं, उसे प्रमाणित किए बिना नहीं छोड़ते। श्रोता को अपने तर्क-जाल में उलझा-कर उसे भूल-भुलैया में डाल देना उनका प्रिय कौतुक है।... आदर्शों के चित्र कार्टून जैसे दृष्टिगोचर होते हैं। वह ऐसा चश्मा लगा देते हैं कि दुनिया ही उल्टी नज़र आती है। वह अपनी उन बातों के जादू से बुद्धि को सम्मोहित कर उसे शीर्षासन करा देते हैं।" (खट्टर काका - पृष्ठ 09)


राहुल सांकृत्यायन का साहित्य पढ़िए। वे अपने लेखन से ही ततेर देते हैं। 'दर्शन-दिग्दर्शन' या 'वैज्ञानिक भौतिकवाद' पढ़ें। कबीर तो साहस की ज़िंदा मिसाल थे। यह अक्खड़ता कबीर को योगियों से मिली थी। बाद में उसी का विकास हुआ। सामाजिक गतिरोध और राजनैतिक गतिरोध को तोड़ने का साहस अब निरन्तर विरल और दुर्लभ हो चला है। इस दौर में तथाकथित लेखकों में प्रासंगिकता का प्रमाद बढ़ा है। अपनी पीठ थपथपाने की क़वायद भी बढ़ी है। अब कुछ लेखक तो विचारों से डरने लगे  है। वे साहस से बहुत दूर भागते हैं। वे सत्ता के चारण होने से कोइ गुरेज़ नहीं करते। यह एक नया मोड़ है। तथाकथित लेखकों का एक समूह कछुआ धर्म में काबिज़ हो रहा है। उनके समूचे नकाब खुल चुके हैं। सच तो यह है कि इस दौर में चाटुकारिता के समूचे रिकॉर्ड तोड़े जा रहे हैं। 


ज़्यादातर लेखकों ने स्वाभिमान खोया, ज़मीर खोया और अवसरवाद के राजमार्ग पर चल पड़े। सच है कि वे भूल गए कि हम सआदत हसन मंटो, चेखव, प्रेमचंद, निराला और रवींद्रनाथ टैगोर के वंशज हैं। बेशर्मी इतनी बढी है कि न तो कहते बनता, न सुनते। शमशेर जी ने भले ही लिखा है कि -


"बात बोलेगी 

हम नहीं

भेद खोलेगी 

बात ही" 






अब तो 'छपास’ बोल  रही है। बहुतों की 'कहास' बोल रही है। बहुतों की पदम पुरस्कारों की पिपिहरी बज रही है। लेखकों की आत्मा का कल्पतरू श्रीहीन हो रहा है। सत्ता के प्रति मोह इतना बढा है कि हमने रास्ते बदल दिए हैं। कभी धूमिल ने लिखा था -


"ईमानदारी का एक चोर दरवाज़ा है

जो संडास की

बगल में खुलता है" 


अब न जाने वह सत्ता के दरवाज़े में खुलता है या विचारहीनता  के कवच-कुंडलों में कर्ण की तरह। कभी चोर दरवाजों से कभी वैधानिकता की दुहाई दे कर हम सब कुछ हासिल करना चाहते हैं। मुक्तिबोध के शब्द याद आ रहे हैं-


"बुरे अच्छे बीच के संघर्ष

से भी उग्रतर

अच्छे व उनसे अधिक 

अच्छे बीच का संग" 


दुखद पक्ष यह है कि हमारा मनोविज्ञान बीमार हो चला है। अपने चेहरे में डामर या कोलतार पोत कर भी बहुत कुछ पाने की फ़िराक में हैं। हमें इस बात की चिंता नहीं है कि आगे आने वाली पीढ़ी हमसे क्या ग्रहण करेगी? स्वाभिमान को हमने बेच खाया है और अपने लेखन के बाज़ार को निरंतर चौड़ा रहे हैं। हमें चाटुकारिता का भयानक बुखार चढ़ा है। ऐसे तो हम नहीं थे। प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए हम लेखकों ने अपने आप से छल किया है। अपने आपको धोखा दिया है। मुक्तिबोध ने एक साहित्यिक की डायरी में सच ही लिखा था- "हम नहीं कह सकते कि हमारे द्वारा निर्मित साहित्य, समाज तो जाने दीजिए, हमारे व्यक्तित्व का भी सच्चा प्रतिनिधित्व करता है या नहीं। यदि केवल साहित्य से, कोई हमारे व्यक्तित्व का अनुमान करने बैठे तो वह धोखा खा जाएगा। हमने संस्कारवश, एक खास ढंग का कंडीशंड  साहित्यिक रिफलेक्श, साहित्यक भाव तथा उसकी अभिव्यक्ति की याँत्रिक उत्तेजना बना रखी है। यह कहाँ तक उचित है।" इस पर हमें विचार भर नहीं करना बल्कि गंभीर हो कर पुनर्विचार भी करना है।     


हम अच्छे लोगों की सलाह सर माथे पर लेना चाहते हैं। सच्चाई साहित्य में तरह-तरह की समस्याएं होती हैं। लेखक को अपनी पक्षधरता सुनिश्चित करनी होती है। लेखन कोई धौल-धुप्पल का धंधा नहीं है। इधर मैं देख रहा हूं कि ज्यादातर लेखकों का रवैया परम संकीर्णतावादी हुआ है और गैर जिम्मेदाराना भी। हम सभी को पूर्व से ही पता है कि बुद्धिजीवी कायर, मतलबपरस्त और अवसरवादी होते हैं। उनका अवसरवाद स्वार्थों के बहाव के साथ होता है लेकिन असली चिंता व्यंग्य की दुनिया में आए भयावह बदलाव के बाद ज़्यादा सघन हुई है। व्यंग्य ही क्या समग्र लेखन में एक तरह की अराजक स्थिति का निर्माण हुआ है। जाहिर है कि साहित्य की दुनिया में सभी तत्त्व समान रूप से परिवर्तनशील नहीं हुआ करते। राम विलास शर्मा जी ने सूचित किया है कि- "युग बदल जाने पर जहां विचारों में अधिक परिवर्तन होता है, वहां इंद्रिय-बोध और भाव-जगत में अपेक्षाकृत स्थायित्व रहता है। यही कारण है कि युग बदल जाने पर भी उसका साहित्य हमें अच्छा लगता है।" (स्वाधीनता और राष्ट्रीय साहित्य) 


इधर हम अपठनीयता के संकट के साथ, वैचारिक ऊहापोह और जन जीवन के अंदरूनी सरोकारों से भी भाग रहे हैं। स्वार्थ की पालकियों में सवार हो कर पता नहीं क्या हासिल करना चाहते हैं। जैसे राजनीतिबाज और तड़ीपार इरादे देश में कुछ भी घटा रहे हैं, घटा सकते हैं। वे ही राहें यहां भी किसिम-किसिम से फूट रही हैं। हिटलर-मुसोलिनी के मनोविज्ञान और फासीवादी शक्तियों के बढ़ते प्रभाव और इरादों ने बेशर्मी और ढिठाई से हर कठोर यथार्थ को गप्प में बदल डाला है। उसी तरह लेखकीय इरादों ने बेशर्मी के तंबू तान दिए हैं। लेखकों का रिश्ता लोक जीवन से लगभग ख़त्म-सा हो गया है। इतिहास का मूर्खतापूर्ण प्रहसन जारी है और दृष्टिहीनता का अपार वैभव शांति, सद्भाव और भाईचारे को नफ़रत की ओर ठेल रहा है। लेखन से ग्रामीण इलाकों का जीवन लगभग गायब हो गया है। लोक को गाहे-बगाहे स्मरण कर लिया जाता है और परम आधुनिकता और उत्तर संरचनावादी ऐश्वर्य बाज़ार में उतारा जा रहा है?  फ़िल्मों और सीरियलों में ग्रामीण जीवन ढूंढते रह जाओगे। व्यंग्य में तो ग्रामीण क्षेत्रों का और वहां की ज़िंदगी का कहीं अता-पता तक नहीं है? इधर सामाजिक सांस्कृतिक गतिरोध भी बढ़ा है। लेखकीय मंसूबों में आरोपित टुच्चापन भी बढ़ा है और एक विशेष किस्म का लुच्चापन भी। लेखकों का जन जीवन की सामान्य धारा से संवाद भी विछिन्न हुआ है। कहना न चाहते हुए भी कहना पड़ रहा है कि एक विशेष किस्म की कछुआ प्रवृत्ति का भयानक विकास हुआ है। हैरत है कि इतिहास अट्टहास कर रहा है और वर्तमान परिदृश्य अपना सिर धुन रहा है। यथार्थ को गप्प लड़ाते हुए किसी ने देखा है? नहीं न? अब कायदे से देखिए-भोगिए। संकीर्णताओं के चहले में देश भर नहीं फंसा बल्कि समूची दुनिया फंसी हुई है। भारत हिंदू पुनरुत्थान की छाया तले अपनी शव साधना में तल्लीन है। इसलिए सामाजिक सरोकारों उम्मीदों और लक्ष्यों से हमारा वर्तमान पछाड़ खा रहा है।

      

सच्चाई यही है कि अभी भी कबीर, निराला, मंटो, मुक्तिबोध और परसाई जैसे लोगों की अविछिन्न और अटूट परंपरा है। सच है कि कम ही लोग हैं लेकिन साहसी, खतरा उठाने वाले, मूल्यवान लोग अभी भी जीवंत हैं। ऐसे लोग कभी झुकते नहीं, टूट जाना उन्हें स्वीकार है लेकिन, किसी हालत में झुकना नहीं। समूची दुनिया में ऐसे न जाने कितने लेखक और संस्कृतिकर्मी हैं जो अभी भी मिसाल बने हुए हैं। पतन के इस दौर में राजनीति के पतन की पराकाष्ठा है। कोई सीमा ही नहीं रह गई? कोई कब तक अपने कुकर्मों को छिपा पाएगा? सामाजिक, आर्थिक चीज़ों के पतन की लीला जारी है। वह निरंतर बेनकाब भी हो रही है। लिखना सचमुच बहुत जिम्मेदारी का काम होता है। मेरी नज़र में  लेखन घाऊ-घुप्प होना या पल्ला झाड़ना किसी भी तरह नहीं है। लेखक को अपने एक-एक शब्द के लिए, अपनी हर पंक्ति के लिए जवाबदेह होना पड़ता है। राजनीतिक कुतर्क ही नहीं बढ़ा, लेखकीय कुतर्क भी बढ़े हैं। चरम मूर्खताएं राजनीति से छलांग लगाते हुए लेखन और कलाओं की दुनिया में खलबली मचाते हुए काबिज़ हो रही हैं।


लेखन की दुनिया से ईमानदारी और व्यक्तिगत ईमानदारी का लगभग विदा होना खतरनाक दुर्घटना साबित हो रहा है। हम प्रामाणिक अनुभूति से धीरे-धीरे ख़ारिज होते जा रहे हैं। लेखकों में पक्षधरता के अभाव के चलते आत्मान्वेषण और आत्मालोचन की प्रक्रिया ढ़ीली हुई है। अंधेरगर्दी, लुम्पन  संस्कृति और घपलापन भी बढ़ा है और बनावटीपन भी। बड़े-बड़े आडंबर, अंतर्विरोध, ढोंग कलात्मक जटिलता के नाम पर थोपे जा रहे हैं। इंसिंसियारिर्टी यानी अबूझ कृत्रिमता में सब कुछ सूखता जा रहा है। एक जेनुअन आदमी, नागरिक और लेखक हताश और परेशान है। सच मानिए हमारी अस्मिता यानी आईडेंटिटी खतरे में है। हम अपने साथ दगा कर रहे हैं। विकट स्थिति है बतौर धूमिल जिसकी पूंछ उठाते हैं उसे मादा ही पाते हैं। इसे धूमिल के सन्दर्भ में चाहे जिस रूप में कोई ले। यहां मैं साहसहीनता के सिलसिले में और मनमानेपन के विशेष सन्दर्भ में इसे लेता हूं।


हरिशंकर परसाई का कहा बहुत मौजू लगता है-"यदि व्यंग्य चेतना को झकझोर देता है, विद्रूप को सामने खड़ा कर देता है, आत्म-साक्षात्कार कराता है। सोचने को बाध्य करता है, व्यवस्था की सड़ांध को  इंगित करता है और परिवर्तन की ओर प्रेरित करता है तो वह सफल व्यंग्य है। जितना व्यापक परिवेश होगा, जितनी गहरी विसंगति होगी, जितनी तिलमिला देने वाली अभिव्यक्ति होगी, व्यंग्य उतना ही सार्थक  होगा।" सच्चा  और जनपक्षधर लेखक अपने को बचाता नहीं बल्कि स्थितियों का मूल्यांकन करते हुए उजागर करता है। प्रश्न है कि लेखन कोई दिखावा नहीं है और न ही कोई  तिलिस्म है कि आप कुछ भी लिखो कुछ भी कहो। किसने कहा है कि आप हुज़ूर लिखें ही। इस प्रश्न से हम किसी भी तरह मुक्त नहीं रह सकते और न बच सकते। लेखक को हर हाल में मुठभेड़ करनी ही होगी। इसके बिना उसका गुजारा नहीं। कहां लो कहिए दिल की बात, लेकिन कहना तो पड़ेगा ही। इसके बिना जीना मुश्किल है। स्त्राविंस्की का एक  सूत्र है -"ईमानदारी एक अनिवार्य शर्त है, जो कोई गारंटी नहीं देती।" यानी (sincerity is a sine quo non that at the same time guarantees nonting.)

    

यह एक विशेष अर्थ में विकट परिस्थितियों वाला दौर है। हम निडरता की जगह भय से धरासाई किए जाने वाले लोग हैं। हमारा स्वर निर्द्वंद्व नहीं है। उन्मुक्त होना तो बहुत बड़ी बात है। भवानी भाई ने लिखा था कि कोई भी निरापद नहीं है। अन्त में मुक्तिबोध का कहना स्मरण आ रहा है कि - "साहित्य पर आवश्यकता से अधिक भरोसा करना मूर्खता है।" अब तो मूर्खताएं खुल कर हर तरह का अगड़म-बगड़म खेल रही हैं और तरह-तरह के विवाद फैला रही हैं और यही नहीं उन्होंने नफरत की समूची फैक्ट्री खोल रखी है। जो सही सलामत है उसे खण्डित मनोविज्ञान में तब्दील किया जा रहा है। ब्रेख्त की कविता का यह अंश पठनीय भी है और अनुकरणीय भी- 


“तुम जो कि इस बाढ़ से उबरोगे

जिसमें कि हम डूब गए

जब हमारी कमज़ोरियों की बात करो

तो उस अंधेरे युग के बारे में भी सोचना

जिससे तुम बचे रहे”


     

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क


मोबाइल : 07987921206

टिप्पणियाँ

  1. "कुछ लेखक प्रतिबद्धता से जबरन चिढ़ते हैं। जन संबद्धता का कहीं ज़िक्र आया तो उन्हें इससे मितली भी आती है।" सटीक |

    सुन्दर

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