जय प्रकाश का आलेख 'कर्म और श्रम के प्रतिष्ठापक कृष्ण'
'कर्म और श्रम के प्रतिष्ठापक कृष्ण'
जय प्रकाश
कृष्ण की ऐतिहासिकता की जड़ें उतनी ही गहरी हैं, जितनी हमारी संस्कृति और इतिहास बोध। सर्वप्रथम छांदोग्य उपनिषद में उनका जिक्र अंगिरस ऋषि के शिष्य के रूप में है। वे वृष्णि कबीले से संबंधित थे। पालि ग्रन्थों और बौद्ध साहित्य में उनका खास उल्लेख नहीं मिलता लेकिन जैन परम्परा में उनका वर्णन 63 शलाका पुरूष के रूप में किया गया है। उनका वर्णन जैन तीर्थंकर नेमिनाथ के चचेरे भाई के रूप में किया गया है। प्राचीन संगम साहित्य (पुरूनानुरू, अहनानूरू) में कृष्ण को 'मायोन' यानी गहरे स्याम वर्ण वाला कहा गया है। उनका वर्णन एक चरवाहा, गोप, बांसुरी वादक के रूप में मिलता है। 'परिपादल' में कृष्ण को विष्णु को अवतार माना गया है। आलवार संतों की रचनाएँ कृष्ण भक्ति से ओत-प्रोत है। विशेषकर महिला आलवार संत आडांल के गीतों में गोपियों सी प्रेम और भक्ति की अभिव्यंजना है। एक पद में आडांल गोपियों से आग्रह कर रही है।
आओ हम सब मिलकर माधव की भक्ति करें।
नाम्मलावार का पद है, जिसने कृष्ण (मायोन) को देख लिया। वह किसी और को क्यों चाहेगा?
उपरोक्त उद्धरणों से साबित होता है कि कृष्ण भक्ति की परम्परा की जड़ें दक्षिण भारत में गहरी हैं। पाश्चात्य विद्वान फ्रेडहेलम हार्डी तो दक्षिण भारत में ही कृष्ण भक्ति की परम्परा की भावात्मक शुरुआत मानते हैं।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. आर. सी. मजमूदार उन्हें ऐतिहासिक व्यक्ति मानते हैं, जिन्होंने उत्तर भारत की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जो कालांतर में भगवान् विष्णु के रूप में पूजित हुए। हजारी प्रसाद द्विवेदी उन्हें साहित्य, लोक और संस्कृति का केन्द्र में देखते हैं। पुरातात्विक स्रोत में उनका उल्लेख यवन राजदूत हेलियोडोरस के बेसनगर अभिलेख में मिलता है। इस अभिलेख में हेलियोडोरस खुद को वासुदेव का उपासक मानता है। उस देश काल में यह बडी़ सांस्कृतिक परिघटना रही होगी।
कृष्ण का व्यक्तित्व बहुत व्यापक है। वह जितना इतिहास के हैं, उतने ही पुराण के। ऐतिहासिक कृष्ण अपने लोक रंजन व समन्वय की चेष्टा के कारण सांस्कृतिक नायक तो हैं ही, वे समय और समाज के जटिल प्रश्नों का संधान कर एक जन नेता के रूप में भी उभरते हैं। एक ऐसा नेता नहीं जो न तो श्रेय लेता है, और जिसे सारथी बनने से भी कोई गुरेज नहीं है। वह नंद और यशोदा का बेटा है। पर गाय चराने से परहेज नहीं करता। वह श्रम की प्रतिष्ठा करता है। इस प्रकार वह सत्ता सामंतवादी और समाज के पदानुक्रमिक ढांचे पर करारा प्रहार करता है।
कृष्ण के कई सहज रूप हैं जो साधारण ग्वाल बालाओं, रसिकों के लिए तो सुलभ है, पर योगी जनों के लिए दुर्लभ है। उनका रास्ता प्रेम का रास्ता है। आप आडम्बर से उन्हें नहीं पा सकते। वे शांति के शिल्पकार और युद्ध के उद्घोषक भी। यद्यपि वह युद्ध रोकने का पूरा प्रयास करते हैं। लेकिन जब युद्ध अवश्यम्भावी हो जाता है तो वह अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित भी करते हैं। वे विरुद्धों के सामंजस्य के तौर पर उभरते है। बुद्ध मध्यमार्गी है, जबकि कृष्ण अतियों का अतिक्रमण करते हैं। वह जीवन को इतनी सम्पूर्णता में जीते हैं कि कुछ भी अवशेष नहीं बचता है। बुद्ध जीवन को सम्यकता से देखते हैं, जबकि कृष्ण सम्यकता से जीते हैं। दोनों जीवन जगत से पार कर जाते हैं, और वैश्विक शिक्षक के रूप में उभरते हैं। बालपन का चंचल और खिलदंडा कृष्ण समय पर धीर, गम्भीर स्थितप्रज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित होते है। कुरूक्षेत्र में कृष्ण द्वारा अर्जुन को गीता का तत्व ज्ञान देना एक विराट बिम्ब है। दुदुंभि बज रही है और कृष्ण अर्जुन को तत्त्व ज्ञान दे रहे हैं। विश्व इतिहास में ऐसी घटना का मिसाल मुश्किल है।
पाकिस्तान के उर्दू साहित्य में एक नज्म है -
दिल हरे कृष्ण ने अर्जुन को जीता
वफा हर दौर में लिखती है गीता
कृष्ण में मनुष्यता अपनी सम्पूर्णता में प्रकट हुई है। वे सहज है, आकर्षक है। उनमें एक दैवीय माधुर्य है। वे वीर है, वे अप्रगतिगामी शक्तियों से युद्ध कर उन्हें पराजित करते है। वे प्रेम की अंतिम संभावना है। प्रेम के उच्चतम अवस्था में मनुष्य दैवीय हो जाता है। वे महादानी हैं। वे अपने बाल सखा अकिंचन को दो लोक दान में दे देते हैं। वे बहुत विनम्र है, आतिथ्य भाव से भरे है। वे सुदामा का नाम सुन कर नंगे पांव दौडे़ आते हैं। वे सुदामा का पैर धुलते है। यहाँ मर्म का अतिक्रमण है। कृष्ण सुदामा की दारूण दशा देख कर इतने भावविह्वल हो गये कि उनकी आंखों से आंसू बह निकले। नरोत्तम दास ने लिखा है
पानी परात को छुओ नहीं,
नैनन के जल से पग धोए
अहंकार में आपादमस्तक डूबे, स्वामित्व की अपार इच्छा रखने वाले आधुनिक मनुष्य को कृष्ण से विनम्रता सीखनी चाहिए।
वे बहुत क्षमाशील हैं। धैर्य की पराकाष्ठा है। शिशुपाल को सौ बार माफ करते हैं। कृष्ण छलिया हैं, लीलाधर हैं। नटवर, नागर है। सुदामा को प्रत्यक्ष तौर पर कोई उपहार नहीं देते। सुदामा उन्हें छलिया और स्वार्थी मानते हैं। मगर जब सच का पता चलता है तो वे भौंचक रह जाते हैं। कृष्ण ऐसे कृपानिधान है। कृष्ण का व्यक्तित्व इतना सर्वव्यापी है। यदि सखा हो तो कृष्ण जैसा, प्रेमी हो तो कृष्ण जैसा, गुरू हो कृष्ण जैसा। वह एक साथ नीति, कूटनीति, तत्वज्ञानी, दार्शनिक, कलाकार , राजनेता, योद्धा सब हैं। कृष्ण में अस्तित्व अपनी सम्पूर्णता में प्रकट है। कृष्ण स्टाइल आइकन है। अधरों पर स्मित मुस्कान, माथे पर मयूरपंख, तिर्यक खडे़ कृष्ण सभी कलाओं के प्रेरक है। कृष्ण का यह माधुर्य रूप मीराबाई के नयन में बस चुका है।
बसो मेरे नैनन में नंदलाल
मोहनि मूरति, सांवरी सूरति नैना बने बिशाल
अधर सुधारस मूरलि राजत, उर वैजंती माल
छुद्रघंटिका कटितट शोभित , नुपूर शब्द रसाल
मीरा प्रभु संतन सुखदाई भगत बछल गोपाल
कृष्ण के व्यक्तित्व में साक्षी भाव है, जो विपरीत परिस्थितियों में भी उद्गिन नहीं होता। हानि लाभ, यश, अपयश उसे प्रभावित नहीं करते। जन्म के समय पर्रस्थितिया प्रतिकूल हैं। जान खतरे में हैं। पर कृष्ण के चेहरे पर एक रहस्यमयी दैवीय मुस्कान है। ये जिसको देख ले डूब गया। फिर चाहे वो आंडाल हों, मीरा हों, रहीम हों या रसखान। कृष्ण सहज ही आकर्षित करते हैं। कृष्ण मस्तिष्क के नहीं हृदय के वस्तु है। यहाँ विचार और सूचना नहीं, भाव तत्त्व प्रबल है। इन्हें योग जाप से नहीं समझ सकते। वे तंत्र मंत्र, अनुष्ठान से परे हैं। जो सिर्फ प्रेम और भाव के औदात्य को समझ सकता है। सिर्फ वही कृष्ण को जान सकता है। छांदोग्य उपनिषद में कहा गया है, 'तत्वमसि' यानि तुम वही हो। यहाँ आत्मा और परमात्मा की विराट सत्ता के बीच कर्म बंधन और माया का झीना-सा आवरण है। भक्ति इस आवरण को गिरा देने का तरीका है। यह व्यक्ति और ब्रह्माण्ड के बीच का समन्वय है।
यत पिंडे तत् ब्रह्मांडे सदृश।
खैर, कृष्ण जितने शास्त्र के हैं, उससे ज्यादा लोक के। जितने ज्यादा वे मिथकों में है, उससे ज्यादा उनकी ऐतिहासिकता है। राम मनोहर लोहिया लिखते हैं कि कृष्ण से पहले के सारे देव आसमान के देव थे। समिधा और भोग के भूखे। कृष्ण पहले ऐसे देव थे, जो इस मिट्टी के थे। कृष्ण पूर्णता के प्रतीक हैं। कृष्ण के व्यक्तित्व में मनुष्यता अपनी तमाम कमी- बेसी के साथ संपूर्णता में व्यक्त हुई है। वे निर्लिप्त हो कर प्रेम और भोग को पार कर जाते हैं। वे आगे लिखते हैं कि कृष्ण ने पूर्व और पश्चिम को एक कर दिया। कहाँ मथूरा और कहाँ द्वारका? यदि सांस्कृतिक और भौगोलिक एकता की बात की जाए तो राम ने उत्तर को दक्षिण से जोड़ा तो कृष्ण ने पूर्व को पश्चिम से। यही कारण है कि जनमानस में आज भी यही दो नाम धड़कते हैं-राम और कृष्ण।
राम मनोहर लोहिया आगे लिखते हैं, वे ऐसे देवता हैं, जो मनुष्य बनने के लिए प्रयास करते हैं। उनका पूरा जीवन लीला है- एक खेल भाव। वह कहीं बंधे नहीं हैं। आप सोचिए, जिन परिस्थितियों में उनका जन्म हुआ, उनके सात भाई कंस की क्रूरता की भेंट चढ़ चुके थे। आधी रात थी। बासुदेव और देवकी कारागार में थे और पहरेदारों के हाथ में नंगी तलवारें। नियति अपने क्रूरतम स्वरूप में थी। कृष्ण का अवतार हमें दिखाता है कि हर दौर में क्रूरता जब चरम पर होती है, तब उसका शमन करने कृष्ण आते हैं। आधी रात में, कालिंदी नदी किसी नागिन सी बल खाती बह रही थी। पूरा नगर सोया पड़ा था। उस आधी रात में कृष्ण अवतरित हुए। पहरेदारों की आंख लग चुकी थी और बासुदेव जी आधी रात में उनको लेकर निकल चुके थे।
कृष्ण का बचपन इस कदर संपूर्ण है कि इस देश में हर मां अपने बच्चें में कन्हैया की छवि देखती है। सूर दास जी के बाल लीला का अलौकिक वर्णन का इस कदर प्रभावकारी रहा कि आंगन में धूल-धूसरित, मान-मनौवल करता बच्चे को लोक ने इस कदर हृदयंगम किया कि हर माँ यशोदा हो गई और हर बच्चा कान्हा। कृष्ण को लेकर कवि रसखान भाव विह्वल हो उठते हैं...
काग के भाग बडे़ सजनी
हरि हाथ से ले गयो माखन रोटी।
आगे की पंक्तियों में रसखान अपने अगले जन्म की कामना बताते हैं।
मानुष हों तो वही रसखान, बसौ ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन
जो पशु हौं तो कहा बसो मेरो, चरो नित नन्द की धेनू मंझारन।
आगे लिखते हैं --
जो खग हौं तो बसेरों करौ,
मिलि कालिन्दी कूल कदम्ब की डारन।'
जब कृष्ण ने दोस्ती की तो इस कदर की उनका बाल मन अब घर आंगन में नहीं लगता। वह रैता, पैता मन मन सुखा हलधर संग गाय चराने में असीम सुख पाता हैं।
मैया गाय चरावन जैहो
रैता पैता, मन, मनसुखा हलधर संगहि रहैहो
कृष्ण का बाल हठ
मैया कबहूँ बढेगी चोटी
आज भी ब्रज में यमुना किनारे भ्रमण करते हुए, ग्रामीण बच्चों को खेलते देखते हुए सूरदास का यह पद याद आ ही जाता है। आज जब बचपन स्क्रीन में कैद हो कर रह गया है। ऐसे में कृष्ण का बाल लीलाओं की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है।
चरवाहा संस्कृति जो हाशिए पर रहा है, कृष्ण उसके नायक बन कर उभरते हैं। कृष्ण में लोक ज्यादा है, शास्त्र कम। इसलिए लोग इन्हें पूजते कम हैं, प्रेम ज्यादा करते हैं।
कृष्ण जब प्रेम करते हैं, तब प्रेम तत्व मानों मूर्तिमान हो उठता है।उनका लौकिक प्रेम सख्य भाव पर आधारित है, जबकि अलौकिक ईश्वर अंश जीव अविनाशी की भावना पर आधारित है। वह पहली बार राधा को देखते हैं।
बूझत स्याम कौन तू गोरी....
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूँ ब्रज खोरी।
राधा उनसे ज्यादा वाक्पटु है। वह बताती है कि मैंने सुना था कि नंद जी का लड़का माखन की चोरी करता है। जब प्रेम उनका आगे बढ़ता है। एक अवसर पर राधा कहती है,
नैन नचाए कहि मुस्काए लला फिर आइयो खेरन होरी।
हर लड़की पति भले राम जैसे चाहती है, पर प्रेमी रूप में कृष्ण ही चाहिए। यहाँ भी लौकिक प्रेम है, मान मनुहार है और फिर विरह है। प्रेम के सारे राग रंग यहाँ उपस्थित है। एक जगह कृष्ण रोमांस की अपनी कथा खुद गढते हैं। वे गाय का दूध निकाल रहे हैं। राधा एकटक देख रही है।
एक धार दोहनी पहुंचावती, एक डार जहाँ प्यारी डाढ़ी।
भ्रमर गीत प्रसंग में कृष्ण वृदांवन में राधा और गोपियों को छोड़ कर मथुरा आ गए हैं। गोपियों और राधा के विरह का पारावर हैं। निर्लिप्त कृष्ण सब छोड़कर अपने सांसारिक कर्तव्य का निर्वहन करने जीवन में आगे बढ़ गए हैं। पर उन्हें गोपियों की बडी़ चिंता है, राधा की चिंता है, बाल सखाओं की चिंता है।
वे उद्धव जी को गोपियों को समझाने के लिए अपने दूत के रूप में भेजते हैं। उद्धव बडे़ ज्ञानी हैं, योग में निष्णात हैं, निर्गुण ब्रम्ह के उपासक है, तार्किक हैं। उन्हें पूरा विश्वास है कि वे अपने अकाट्य तर्कों से गोपियों का ह्रदय परिवर्तित कर देंगे।
वे जब गोपियों को योग सिखाने की कोशिश करते हैं, और निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने को कहते हैं। गोपियाँ बहुत ही वाकपटु हैं। वे उद्धव जी को व्यापारी कह कर संबोधित करती है। बानगी देखिए,
आयो घोष बडो़ व्यापारी,
लादि खेप गुन ज्ञान योग की ब्रज में आन उतारी
वे उद्धव जी का उपहास करती है। वे उपहास करते पूछती हैं।
निर्गुण कौन देश के वासी
अंत में गोपियाँ अपनी कृष्ण के प्रति एकनिष्ट प्रेम और अपनी विकल्पहीनता को बताती हैं।
उद्धव मन न भए दस बीस,
एक हुतो सो गयो, स्याम संग क़ो अवराधे इश
अंत में पराजित, निराश, उद्धव जी जिनको अपने ज्ञान पर बहुत विश्वास था। वे कृष्ण के पास लौटे। कृष्ण ने पूछा, सिखा आए योग। हो गया हृदय परिवर्तन। हृदय परिवर्तन तो वाकई हुआ था। पर गोपियों का नहीं खुद उद्धव का हुआ था। उद्धव जी के मन में उथल पुथल है। वे कहते हैं।
अब अति पंगु मन भयो मेरो,
गए कहाँ निर्गुण कहिबों के
भयो सगुन को चेरो
जब कृष्ण विरह में डूबी राधा का वर्णन करते हैं तब कृष्ण मुर्च्छित हो कर गिर जाते हैं।
उधौ मोहें ब्रज बिसरत नाहीं
होंगे कृष्ण शास्त्र में परम ब्रह्म लेकिन लोक में आम आदमी की तरह हैं जो प्रेम करता है, हताश होता है। वह परिस्थितियों से जुझता है, हारता है, फिर जीतता है। वह जडों से जुडे़ नायक हैं। एक बार राजा उनका भव्य स्वागत करता है।
कृष्ण कहते हैं, इसकी क्या जरूरत है। कहीं किसी कुटिया में व्यवस्था करते। कंद मूल प्रदान करते। यह कृष्ण द्वारकाधीश है, सामने दुनिया का वैभव पर मन से निर्लिप्त!
विरह में व्याकुल गोपियों को उद्धव जी का ज्ञान और योग जरा नहीं सुहाता। वह ऐसे नायक है, जो सामंती मूल्यों पर प्रहार करते हैं, और इस क्रम में बार-बार वर्जनाओं को तोड़ते हैं। वह गोवर्धन पर्वत को उठा कर देव संस्कृति पर कृषक संस्कृति की प्रतिष्ठा करते हैं। पर जब कोई पूछता है कि आखिर आपने गोवर्धन पर्वत कैसे उठा लिया? तब वह कहते हैं कि
कछु माखन को बल बढयों,
कछु गोपन करि सहाय।
श्री राधा जू की कृपा से
गिरिवर लियों उठाए।
कृष्ण का सबसे विराट स्वरूप महाभारत में उभरता है। कुरूक्षेत्र में युग-धर्म की व्याख्या करते वे युग-बोध के पार चले जाते हैं, और 'न दैन्यं च न पलायनं' की वैचारिकी गढते हैं। वे ज्ञान, कर्म व भक्ति के विशद व्याख्या करते हैं तथा मनुष्यता को नई राह दिखाते हैं। इसलिए कृष्ण आज भी भारतीय जनमानस व वैश्विक पटल पर धर्म-मत से परे सर्वप्रिय बने हुए हैं!
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