अवन्तिका राय की लघु कथाएं

 

अवन्तिका राय 



हमारे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों ने देश की आजादी का जो सपना देखा था वह अन्ततः 15 अगस्त 1947 को साकार हुआ।इस सपने में यह शामिल था कि सबको अन्न नसीब होगा। सब शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे। सबके पास काम होगा। किसान बदहाली से मुक्त हो कर न केवल खेती को उन्नत करेंगे अपितु अपना जीवन भी बेहतर बनाएंगे। इस तरह सब देश को बेहतर राह पर ले जाने के लिए अपनी पूरी कोशिश करेंगे। आज हम 79वां स्वाधीनता दिवस मना रहे हैं। सपने कितने पूरे हुए, इस सच्चाई को हम बेहतर जानते हैं। भ्रष्टाचार आज हमारा चरित्र बन चुका है। हमारे नेताओं, नौकरशाहों, दलालों, ठेकेदारों ने देश को जितनी निर्ममता से लूटा है, उतनी निर्ममता तो अंग्रेजों ने भी नहीं दिखाई। समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी अपमानित जीवन जीने के लिए विवश है। आम आदमी आज भी त्रस्त है। फिर भी उम्मीद पर दुनिया टिकी है। आजादी है तो सपने हैं और सपने हैं तो बेहतरी की संभावनाएं भी हैं। अवन्तिका राय अपनी लघु कथा पन्द्रह अगस्त में लिखते हैं "एक दिन, जब गुमटी पर उसके पिता थे, मैंने उन्हें खाते हुए देखा। कटोरे में मोटा भात और कुछ तरल पदार्थ। आज पन्द्रह अगस्त के दिन न जाने क्यूं उन दोनों का चेहरा मेरी आंखों के सामने घूम गया, जो बकौल उसके पिता, अपने झारखण्ड में खुशकिस्मत समझे जाते हैं।" स्वतन्त्रता दिवस की बधाई एवम शुभकामनाएं देते हुए पहली बार पर आज हम अवन्तिका राय की लघु कथाएं प्रस्तुत कर रहे हैं।



अवन्तिका राय की लघु कथाएं



पन्द्रह अगस्त

    

पिछले चार साल से मैं उसकी गुमटी पर खैनी, पान के लिए जाता हूँ। पहले उसका पिता और वो मिल कर गुमटी सम्भालते थे। अब दोनों में से कोई एक ही रहता है।

    

झारखण्ड के किसी दूर दराज के गांव से वे दोनों रोटी की टोह में यहां आए। कालोनी, नई-नई बस रही थी और उसके सर्वाधिक व्यस्त नुक्कड़ का अनुमान ले उन दोनों ने कोने में अड्डा जमा लिया।

    

उसके पिता घुटे हुए वणिक हैं, दुनियावी बारीकियों की पैनी समझ रखने वाले, ऐसा उनसे बात बात में पता चला। बहुत कम बोलना, जहां जरूरी हो टाइट हो जाना, जो सदय हों उनसे मुस्कुरा कर मिलना, पैसे कौड़ी को ले कर अतिरिक्त सजग जैसी खूबियों से भरे हुए। एक दिन बात-बात में उन्होंने बताया कि वह रात को तीन से चार घण्टे बमुश्किल सो पाते हैं।


गांव में एक भरे पुरे परिवार की पालनहार, यही एक गुमटी।

     

गुमटी में मजदूर वर्ग की आय को ध्यान में रखते हुए किसिम-किसिम की मिठाईयां, बिस्किट, नमकीन, टॉफी आदि।

    

मैं उनकी दुकान पर प्रायः रोज ही जाता हूँ। आजकल महीनों से दुकान सम्भालते उनका लड़का ही मिलता है। चेहरे पर एक गहरी ऊब पुती रहती है। उसकी शादी पिछले एक दो साल पहले ही हुई है। कान में मोबाइल सटाए, अनिच्छापूर्वक मशीनी गति से हाथ चलाता हुआ। गुमटी को वहां टिकाए रखने के लिए तरह तरह के पापड़ उनने बेले। साल में एकाध महीने अपने देश हो आने की उम्मीद में वह बाकी समय जैसे-तैसे काटता रहता। सुबह पांच बजे गुमटी पर आ जाना और रात में ग्यारह बारह बजे रूम पर जाना। उसी बाकी समय में भात पकाना, खाना और शेष दिनचर्या।

     

एक दिन, जब गुमटी पर उसके पिता थे, मैंने उन्हें खाते हुए देखा। कटोरे में मोटा भात और कुछ तरल पदार्थ। आज पन्द्रह अगस्त के दिन न जाने क्यूं उन दोनों का चेहरा मेरी आंखों के सामने घूम गया, जो बकौल उसके पिता, अपने झारखण्ड में खुशकिस्मत समझे जाते हैं।

   

मेरे घर के सामने बने पार्क में आज ध्वजारोहण हो रहा है और लोग पूरे वेग से भारत माता की जय के नारे लगा रहे हैं। बेशक कार्यक्रम की समाप्ति पर मिठाइयां तो बटेंगी ही।



पंडीजी


पंडीजी गांव के मनई थे। भोले-भाले, सहज-सरल। जजमानी करते थे, थोड़ा बहुत हूम-जाप कर लेते थे. जजमनिका में जो मिल जाता था वह खा-पी कर परम-सन्तुष्ट हो लेते थे। उनका एक ही बेटा था जिसे वे वंश नाम से पुकारते थे।

   

जीवन के आरम्भिक दिनों में पंडीजी को अपने वंश की चिन्ता सताती रहती थी. ‘क्या करेगा? जजमनिका में भी मन नहीं लगाता है। पढ़ने में बावनबीर ठहरा। कैसे इसका जीवन-यापन होगा?’ पंडीजी अपने जानने वालों से बड़बड़ाते।

   

वंश खींच-तान कर पढ़-लिख गया। एक बार शहर गया। दरोगा का जलवा देखा सो दरोगा बनने का भूत सर पर सवार हो गया। एक दिन अचानक पंडीजी को पता चला कि वंश दरोगा बन गया. पंड़ीजी ने वंश की एक सुलक्षिनी कन्या से शादी कर दी। वंश शहर चला गया और पंडीजी को हिदायत दिया कि अब आगे से वे जजमनिका आदि न करें। वह प्रति महीने उनके लिए कुछ रुपया-पैसा भेज देगा जिससे उनका जीवन-यापन हो सके।

  

पंडीजी का काम-धाम छूट गया और वे पड़े-पड़े खाते और निपटान करते रहते। ऐसा कर-कर के वे आजिज आ गये थे पर वंश की हिदायत जजमनिका करने में आड़े आ जाती थी। पंडीजी गाहे-बगाहे शहर का चक्कर भी लगा आते। शहर में वंश के पास भांति-भांति के लोग आते थे जिनमें कुछ डॉक्टर भी थे। डॉक्टरों के सम्पर्क में आ कर पंडीजी तरह-तरह के रोगों के बारे में जान गये थे।


इस बार पंडीजी गांव लौटे तो उनमें कुछ नई चीजें विकसित दिखीं। पंडीजी अपने दिल पर हाथ रख कर चिन्ताए हुए कहते ‘दिल कुछ तेज-तेज चल रहा है....। ए हो, देखो मुझे हाट तो नहीं पकड़ लिया’। जब मिलते मुझसे यही बात दुहराते। एक दिन अपने नाक की हड्डी दिखा कर कहने लगे, ‘ए हो, लग रहा है हड्डिए बढ़ रही है. केन्सर तो नहीं पकड़ेगा?’ मैं पंडीजी को समझाता, ‘पंडीजी, आप अपना जजमनिका वाला काम क्यों नहीं शुरु कर देते हैं। बेवजह बिना काम-धाम के जब देखो चिन्ताए रहते हैं.’ पंडीजी अपने वंश की मजबूरी बताते। बाद में मेरे बार बार समझाने पर पंडी जी ने हिम्मत जुटा वंश से फिर से जजमानी करने की बात चलाई तो वंश ने उन्हें हूँफ (डपट) दिया, बोले, 'तुम्हें मेरे पोजिशन की जरा भी चिंता नहीं?' 

    

बाद में पता चला कि पंडीजी शहर चले गये हैं। मैं उनकी खोज-खबर लेने गया तो पता चला कि पंडीजी का शहर में ही दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया जबकि पंडीजी अभी काफी स्वस्थ थे। खैर, वंश के पोजीशन पर आँच आने से रह गयी।

   

एक टीचर मुझे बताते थे कि जैन धर्म में पूजा-पाठ, कर्म-काण्ड कुछ नहीं होता बल्कि वे अपने अनुयायियों को करने के लिए कुछ घरेलू काम दे देते हैं। वह काम ही उनका ‘ध्यान’ होता है।






राजरानी

     

यूँ तो परमेश्वर बिहार के भोजपुर के रहने वाले थे पर चूंकि वह केंद्रीय विद्यालय में हिंदी के अध्यापक थे इसलिए दिल्ली से सटे गाजियाबाद की वसुन्धरा कॉलोनी में किराए का मकान ले रहने लगे थे। वह पहली पोस्टिंग मध्य प्रदेश के शिवपुरी और दूसरी असम के गुवहाटी में काट चुके थे। आख़िरी के पांच साल वसुंधरा में ही बिता देने का मन बनाए वह और उनकी पत्नी राजरानी अपने दो बेटों के साथ रहने आए थे। तब यह कॉलोनी बिल्कुल नई-नई थी और अभी ठीक से बसी भी नहीं थी। बड़ा बेटा ग्यारहवीं में और छोटा आठवीं में उन्हीं के स्कूल में पढ़ता था।

  

अध्यापन पेशे से जुड़े होने के बावजूद परमेश्वर झक्की और अक्खड़ स्वभाव के थे। स्कूल में उनके मामले में जल्दी कोई हाथ नहीं डालता था। जाति का अतिरिक्त आग्रह उनकी एक अन्य विशेषता थी और हर समय माथे पर चंदन का टीका लगाए रहते थे। बच्चे उन्हें पण्डित जी कह कर पुकारते थे और देखते ही पैर छू कर उनका अभिवादन करते थे। अब इतना कुछ जानने के बाद इस कहानी के सुधी पाठक समझ गए होंगे कि साहित्य की उनकी समझ कितनी विशिष्ट ढंग की होगी।

  

जहाँ एक तरफ परमेश्वर इतने विशिष्ट ठहरे वहीं दूसरी तरफ उनकी अर्धांगिनी अर्थात राजरानी उन विशेषताओं से भरी हुई थीं जिन्हें हमारे समाज में ऊँचा भाव नहीं मिलता। मसलन किसी भी जाति के और किसी भी वर्ग के महिला या पुरूष से बिना गर्वोन्नत हुए अर्थात बिना किसी अहंकार के मिलना, सोशल वर्क में बिना किसी श्रेय की इच्छा के बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना, कम बोलना, कभी किसी की व्यक्तिगत शिकायत न करना, खाली समय में अपने बच्चों की देख रेख करना और प्रतिदिन समय निकाल कोई मैगजीन या कोई किताब पढ़ना। 

    

एक दिन परमेश्वर को यह झक सवार हुई कि वसुंधरा में ही बस जाना है। धीरे-धीरे यह झक बढ़ती गई जबकि राजरानी दूर के किसी शहर में जहां भीड़भाड़ कम हो और प्रकृति के लक्षण दिख रहे हों घर लेने की इच्छुक थीं। उनका मानना था कि इससे रिटायरमेंट के समय मिलने वाले फंड से काम हो जाएगा और छोटे शहर में जीवन भी कुछ आसान रहेगा। पर राजरानी अपने पति के झक को ठीक से जानती थीं और उस इलाके की रहने वाली थीं जहां पत्नियां, पुरुषों के झक पर जीवन बिता देने की अभ्यस्त होती हैं। शुरू-शुरू में तो राजरानी ने अपने ढंग से समझाते हुए इसका विरोध किया पर बच्चों पर इसका बुरा असर पड़ने का ख्याल कर पति की इच्छानुसार अपने मन को समझाते हुए इस काम को पूरा करने में अपनी बुद्धि दौड़ाने लगीं। दरअसल उन्हें पता था कि परमेश्वर काम तो शुरू करा देंगे पर बीच रास्ते हाँफने लगेंगे और अगड़म-बगड़म करने लगेंगे।

 

फिर तो राजरानी ने खुद यह काम अपने कंधों पर ले लिया। उन्होंने एक प्राइवेट स्कूल में इंटरव्यू दिया और टीचर की नौकरी कर ली। अध्यापन का पेशा इसलिए भी चुना ताकि अपने बच्चों का भविष्य बनाने में वह अपनी सार्थक भूमिका निभाएं और दो पैसा जोड़ सकें जिससे पति की झक को अमली जामा पहनाया जा सके।

   

अब राजरानी स्वयं पैदल ही बाजार जाती, सब्जी मंडी जाती, बच्चों और पति की जरूरत का एक एक सामान लाने जातीं जिससे दो पैसे की बचत हो सके। धीरे-धीरे उन्होंने बैंकिंग का काम सीखा। इस दिशा में लोगों से मिलना जुलना शुरू किया कि कम कीमत पर इस कॉलोनी में एक जगह मिल जाए।     

       

दिन रात के अनथक श्रम के बाद आज कॉलोनी में वह तिमंजिला मकान दिखता है जिसके ऊपरी मंजिल पर परमेश्वर झूले में बैठ झूला झूलते देखे जाते हैं और राजरानी चींटियों के झुण्ड की तरह अपना समूह ले कॉलोनी की सड़कों और गलियों में किसी न किसी सार्थक अभियान में लगी रहती हैं।



अंतर्मुखी


सिंटू से मेरी दोस्ती के करीबन छः सात साल हुए होंगे। शुरू-शुरू जब मैं उसकी पान की दुकान पर जाता वह चहकते हुए मिलता। तब उसकी उम्र तकरीबन बाइस-तेईस के आसपास की रही होगी। यूँ तो वह स्टूडेंट्स का इलाका था पर हर पेशे से जुड़े लोग वहां इकट्ठा होते क्योंकि पास में ही मेट्रो स्टेशन पड़ता था।

   

सिंटू, मझोले कद का गोरा गारा नौजवान था, आंखें छोटी-छोटी, नुकीली नाक और त्रिकोण बनाता हुआ चेहरा, सर पर घने काले बाल। पहले वह सबसे बोलता बतियाता पर इधर, मैंने लक्ष्य किया कि वह प्रायः अन्यमनस्क रहता। 

   

जून की निचाट दोपहरी थी और मैं अपनी बाइक से बीस-बाइस किलोमीटर चल कर ठंडे पानी और चेतना को स्फुरित कर देने वाले पान के लालच में उसकी दुकान पर रुक गया। सड़क करीब करीब सन्नाटी थी और सिर्फ़ मेट्रो स्टेशन पर अपने जरूरी काम से आने जाने वाले दिख रहे थे। मैंने सिंटू से एक कोल्ड ड्रिंक की फरमाइश की और ड्रिंक लेते लेते उसने बिना कहे एक बीरा पान लगा दिया। पान दबाने के बाद उससे मेरी बात चल निकली। मैंने उसकी अन्यमनस्कता का कारण जानना चाहा। बतलाने लगा कि वह पिछले बारह साल से इतनी बातें सुन चुका है कि अब उसे इनमें कोई नवीनता नज़र नहीं आती। बात-बात में कहने लगा कि बंगाली अंकल के गुजर जाने के बाद उस सर्किल का भी आना लगभग बंद हो गया और अब उसके पास उस क्वालिटी के लोग आने प्रायः बंद ही हो चुके हैं। उन लोगों से देश, समाज, राजनीति और दुनिया भर की न जाने कितनी चीजों के बारे में जानकारी और एक नजरिया मिलता था जो अब दुर्लभ हो गया है। और आप तो जानते ही हैं कि यहाँ लोग पान से ज़्यादा प्रेम खाने आते हैं। पर अब देख रहा हूँ कि लोगों में पान खाने की तमीज गायब होती जा रही है। मन में नफ़रत हो तो पान नहीं जमता। पान, नशे के लिए नहीं वरन मस्ती और जिंदादिली का दूसरा नाम है। यह बात मैंने बंगाली अंकल जैसे लोगों से सीखी। वह अक्सर कहा करते थे कि 'पान, रसग्राही लोगों के लिए है जो अधमता से दिव्यता तक की यात्रा कराता है।' अब आप ही बताइए कोई सिर्फ़ मशीन की तरह, बिना काम में रस मिले आख़िर कब तक धंधा कर सकता है।

   

फिर सिंटू खुद एक पान दबा कहने लगा कि इधर, एक जोगी बाबा सप्ताह में एक बार आते हैं और उन्होंने मुझे मुझसे मिलना सिखा दिया है, सो मैं ख़ुद से मिल कर ही अब सन्तुष्ट रह पाता हूँ। जोगी बाबा से मैंने यह सीख लिया है कि दुनिया को जानने से पहले खुद को जान लेना चाहिए। जो खुद को जान लेता है वही दुनिया को भी बेहतर तरीके से जान पाता है। वह तो भाई यह मेरा धंधा है जो रो गा कर करना ही करना है। ज़्यादतर ग्राहकों की उपस्थिति मुझे अब अच्छी नहीं लगती क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि मैं उन्हें जानता हूँ पर वे मुझे नहीं जान पाते। यह भी कि ज्यादातर को जान कर मुझे उन्हें पान खिलाने की भी इच्छा नहीं होती। मैंने उसे छेड़ा कि रहना तो ऐसे लोगों के ही बीच है, वह तो पलायन का शार्टकट ढूंढ रहा है। ज़्यादा से ज़्यादा हम यही कर सकते हैं कि इसी जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश की जाए जिससे इसमें रस मिले। इस पर उसने अपनी सहमति जताई पर साथ यह भी जोड़ा की अगर संसार में रस न मिल रहा हो तो आदमी क्या करे? क्या, फिर फिर उन्हीं उन्हीं चीज़ों में डूबना उतराना? मैंने आगे कोई प्रतिवाद नहीं किया और फिर से मिलने का वादा कर चला गया।

  

बृहस्पतिवार को दो बजे के बाद वह दुकान बंद रखता। मैं एक बजे फिनिक्स सिनेमा का दो टिकट बुक करा उसकी दुकान पर पहुंचा और उसे आमंत्रित किया। वह सहर्ष तैयार हो गया और मेरी मोटरसाइकिल उसे ले फर्राटा भरने लगी। फिनिक्स के बाहर हर उम्र के लौंडे लौंडिया और तमाम चमकती दमकती चीजों को देख उसका चेहरा खिल उठा। हमने फ़िल्म देखी, चाय पी और देर शाम तक गप्पें लड़ाते रहे। वापस लौटते वक़्त हमें सड़क क्रास करता छोटा बच्चा दिखा। उसके आस-पास कोई नहीं था। मुझे लगा वह बच्चा भटक गया है और कहीं ऐसा न हो कि बीच सड़क तेज गुजरते वाहनों की चपेट में आ जाए। हमने आगे बढ़ उसे थाम लिया और देर रात तक उसके परिजनों को ढूंढते रहे। मैं लगातार कई दिन उसके परिजनों की तलाश में भटकता रहा पर कोई न मिला। आख़िर हार कर उसे एक बाल आश्रम के हवाले करना पड़ा। फिर यह तय हुआ कि दोनों जन पैसा मिला हर पन्द्रहवें दिन इस इलाके में घूमेंगे और इस बच्चे का भी हाल ख़बर लेते रहेंगे। यह सिलसिला चल निकला और धीरे-धीरे सिंटू भी अब पुनः बहिर्मुखी होने लगा। मैंने पान खाते-खाते एक दिन अपनी डायरी में टांका, 'कितना आसान है एक अंतर्मुखी को बहिर्मुखी बना देना और कितना कष्टकारी है एक बहिर्मुखी को अंतर्मुख करना!'







Vision

   

वे तीनों एक ही उम्र के थे और घूमने के शौकीन थे। पहला अपनी जवानी में निकल सोचते-सोचते पूरा देश  पैदल घूम आया। घर पहुँचने पर उसके बाल पक गए थे। दूसरे ने बाइसिकिल बनाई और अपने देश के साथ-साथ पड़ोसी देशों की सघन यात्रा कर आया। घर पहुँचने पर कुछ बाल पक चले थे। तीसरे ने हवाई जहाज़ बना डाला और पैदल, बाइसिकिल और अपने बनाए हवाई जहाज से पूरी दुनिया का चक्कर लगाया और कुछ और करने का प्लान बना रहा है। उसके एक भी बाल नहीं पके हैं।

  

हज़रात, अब इस कहानी के साथ मैं पाकिस्तान, भारत और चीन की यात्रा का ख्वाहिशमंद हूँ।



सेंट


जब वह अपनी युवा अवस्था में था तभी से उसे गणमान्य लोग सेंट कहने लगे थे। था भी वह करूणा का अगाध सोता। जहां तक सम्भव होता वह परोपकार में लगा रहता। उसके दोस्त, परिचित और दूर-दूर के जानने वाले लोग यह अच्छी तरह जानते थे कि वह जान जाने की हद तक अहिंसक रह सकता है।

   

पर उसमें एक ऐब थी। वर्षों तक सादगी भरा जीवन जीते-जीते उसे एक वहशी इच्छा घेर लेती और वह महीनों एक कमरे में वोद्का के साथ बंद हो जाता। इस बात को सिर्फ़ उसकी धर्मपत्नी जानती थी। पत्नी के अलावा मैं वह दूसरा शख्स था जिसे उसके बारे में कुछ-कुछ पता था। इस दौरान वह वोद्का के साथ दुनिया भर की पुस्तकें पढ़ता, ढूँढ़-ढूँढ़ कर तरह तरह के म्यूजिक सुनता, अपने मित्रों की बनाई पेंटिंग्स फर्श पर फैला देता और इन सभी चीजों पर अपनी पत्नी से जो जी में आता खूब  बड़बड़ाता। दरअसल वोद्का की घूंट लेते लेते वह एक प्रतीक्षित आवेग से भर उठता, मन तरंगित होने लगता और वह एक जादुई स्वप्न लोक का हिस्सा बन जाता। जिंदगी का खुरदुरापन कुछ समय के लिए ही सही ओझल हो जाता। फिर तो एक तरफ सारी दुनिया होती और दूसरी तरफ वह दुनिया का बेताज बादशाह! इस तरह वर्षों जिस दुनिया का वह मात्र द्रष्टा होता, वोद्का की घूंट के साथ वह उसमें खुद को शामिल पाता।


इस दौरान पत्नी किसी तरह इस इच्छा के साथ समय बिताती कि भगवान जल्दी ही उसके भोले पति को इस अजीबो-गरीब दौरे से उबार लेगा। उसकी पत्नी आम सांसारिक महिला थी पर उसके साथ रहते-रहते वह अनेक कला विधाओं से अवगत हो चुकी थी और उन पर अपनी राय भी बना सकती थी। वह अपने पति के इस दौर को भी संयम से झेल जाती। इस दौरान घर का सारा काम अकेले निपटाना, आगन्तुकों को बिना कुछ भनक लगे सम्भाल लेना, बाहर के कामों को भी सूझ-बूझ के साथ निपटा देना अर्थात सब कुछ मुस्तैदी से कर ले जाती थी। आख़िर यह कहावत यूँ ही नहीं बनी है ज़नाब कि भगवान जिस पर विपत्ति बरसाता है उसे उससे उबरने की शक्ति भी देता है या फिर कंट्री साइड में यह कहावत कि जिसका चूता है वह छा भी लेता है। 


इस प्रकार जीते-जीते अचानक ही किसी दिन वह घर से बाहर निकलता जब उसका स्वास्थ्य पूरी तरह गल चुका होता और फिर धीरे-धीरे अपने काम पर जाने लगता। खाते-पीते आश्चर्यजनक ढंग से वह फिर स्वस्थ हो जाता और फिर वही कमाना और परोपकार के काम में लग जाना। फिर महीनों महीने वही ढर्रे पर चलती हुई जिंदगी! फिर एक झटके के साथ उसके द्वारा उस ढर्रे को तोड़ देना।


काम पर अकेला मैं ही उसका सबसे निकटवर्ती साझीदार था। मुझसे वह कभी-कभी फलसफे में बात करता। एक दिन ऐसे ही दौरे से उबर कर जब वह काम पर आया तो मुझसे कहने लगा कि कोई आख़िर कब तक एक चोटी पर बैठा दर्शक बना रह सकता है, उसे भी तो कभी-कभी जीने की दुर्दमनीय इच्छा घेर लेती है। और इस जीने में सबसे अहिंसक ढंग से जीने का चुनाव भी तो अंततः उस सुदूर चोटी पर बैठे आदमी को स्वयं करना पड़ता है। आख़िर संसार में जीने के लिए तो देवता भी इच्छुक होते ही हैं। और सहज ही हो-हो हँसने लगा। अब सच बताऊँ ज़नाब, मुझे उसकी ये सब बातें ज़्यादा समझ नहीं आतीं और न ही मुझे ये सब समझना है। मुझे तो काम करना, दो रोटी भर कमाना और अपने बच्चों के साथ जीना मरना है।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


मोबाइल : 9454411777

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