भरत प्रसाद का आलेख 'चेतना के रहस्यों का आशिक नृत्यकार'




'चेतना के रहस्यों का आशिक नृत्यकार'

(टैगोर की नवोन्मेषी कलम का नवमूल्यांकन)

       

भरत प्रसाद

             


एक


           

20 वीं सदी के भारतीय साहित्य के नायक के तौर पर प्रतिष्ठित रवींद्र नाथ टैगोर निश्चय ही कलम के नायाब शिखरत्व के महाप्रतीक हैं। जिस वक्त बांग्ला साहित्य में उनका प्रवेश हुआ, वह एक तरफ नव राष्ट्रवाद दूसरी ओर सांस्कृतिक पुनर्जागरण और तीसरी तरफ सामाजिक सुधार का निर्णायक दौर है। राजाराम मोहन राय के पश्चात दयानंद सरस्वती और विवेकानंद निरंतर अपनी धार्मिक सुधारवादी चेतना से बदलाव की अलख अपने अपने ढंग से जगाए हुए थे। विवेकानंद उम्र में टैगोर से छोटे किन्तु प्रभाव और प्रेरणा की व्यापकता में उनसे कमतर नहीं। टैगोर रामकृष्ण मठ की गतिविधियों और विवेकानंद के वेदांती चिंतन से सुपरिचित थे, किन्तु उनकी चिंतनधारा का सीधा प्रभाव रवींद्र पर पड़ा हो, यह कहना जरा कठिन है। अपने सृजन के आरंभ काल से ही टैगोर एक रोमांटिक, कल्पनाधर्मी और रहस्यदर्शी ढांचा ले कर बांग्ला साहित्य में प्रकट हुए, जो कि न केवल बंगाल में बल्कि भारतवर्ष की किसी भी भाषा के साहित्य में अज्ञात और अलक्षित नवोन्मेष था। इसका चुम्बकीय प्रभाव यह पड़ा कि देखते ही देखते रवीन्द्र नाथ साहित्यिक नवचेतना के अग्रधावक बन गये। यहाँ तक कि उनकी नकल पर, ठीक उन्हीं की भाषा, शैली और बिम्ब योजना की तर्ज पर कविताएं लिखने की बाढ़ आ गयी। 1913 ई. में एशिया का पहला नोबेल साहित्य पुरस्कार मिलना ऐसी मुहर लगने जैसा था, जो अनिवार्यतः आगामी दशकों में भारतवर्ष की अधिकांश भाषाओं के सृजन को अपनी जद में खींचने वाला था, कमोवेश हुआ भी यही। यह यूं ही नहीं है कि हिन्दी के महाप्राण "रवींद्र कविता कानन" जैसी सघन आलोचनात्मक, किन्तु समर्पित हृदय से परिपूर्ण आलोचना कृति लिखते हैं।

              

रवींद्र नाथ के अध्ययन, चिंतन की व्यापकता को देखते हुए सहज ही अंदाज़ लगाया जा सकता है कि उनके खुद का मानस विचारों के कितने आयामों को हासिल किया होगा। एक ओर हिन्दू धर्म का वैदिक और वेदान्तिक चिंतन, दूसरी ओर बुद्ध, महावीर का महत्तम जीवन दर्शन और तीसरी ओर ब्रिटिश हुकूमत के दौरान भारतवर्ष में छाए हुए यूरोपीय दार्शनिकों के आधुनिक वैचारिक सिद्धांत। नवोन्मेष के झोंके में जीते हुए युवा टैगोर को फिलहाल दर्शन के इसी तिराहे पर खड़े होने का सौभाग्य मिला। बावजूद इसके यह कहना एकतरफा होगा कि रवींद्र नाथ किसी एक विचारक या विचारधारा के अनुगामी थे। अपनी मूल संरचना में सर्वप्रथम रहस्यदर्शी, आध्यात्मिक, ईश्वरवादी और प्रबल भाववादी गायक नजर आते हैं। इसका मूल कारण है, उनका खुद का नैसर्गिक अन्त:व्यक्तित्व। निराला ने अपनी कृति "रवींद्र कविता कानन" में टैगोर को 'भावों के सम्राट कवि' के रुप में प्रतिष्ठित किया और यह निष्कर्ष तर्कसंगत भी है। देखा जाय तो हिन्दी साहित्य का मध्यकाल महत्तम भाववाद की असाधारण ऊंचाई पर खड़ा है।टैगोर स्वयं संत कबीर के बेहिसाब प्रभाव और प्रेरणा में अपने कवि हृदय का विकास कर रहे थे। कबीर के सौ पदों का टैगोर द्वारा बांग्ला में अनुवाद सर्वज्ञात है। टैगोर का रहस्यवाद अपनी असल प्रकृति में विलक्षण, मौलिक और बेलीक है। कहा जा सकता है उन्होंने "अनुभूति की रवींद्र शैली" को जन्म दिया। इस अनुभूति में आंसू हैं, अभाव का असंतोष है, सीमाओं में जीने की तड़प है, बेमिसाल व्याकुलता और अलहदा स्तर का सीमाहीन समर्पण है। रवींद्र नाथ का मूल व्यक्तित्व मानो भक्तिकालीन निर्गुण कवियों ने मिल कर गढ़ा हो। उनके गीतों में एक तरफ कबीर की फकीरी ध्वनित होती सुनाई देती है, तो दूसरी ओर सूफी भक्तों का अलौकिक प्रेमानुराग।टैगोर प्रकृति के दृश्यमय विस्तार के प्रति इस हद तक आसक्त थे कि अपना सम्पूर्ण वजूद ही उसकी माया-छाया, महिमा के आगे गला गला कर बहा दिया। सुबह, संध्या, लू, बारिश, धूप, छाया, मेघ और भी न जाने कितने स्थूल, सूक्ष्म, कोमल, रंगीन, आह्लादकारी और रोमांचक दृश्य रवींद्र के रोमांटिक हृदय को अप्रत्याशित ढंग से मथते रहते थे। टैगोर ने खुद को रोमैंटिक मन का मानव स्वीकार किया है। वे न केवल अंग्रेजी साहित्य की गहनता में स्नान कर चुके थे, बल्कि अंग्रेजी हुकूमत से लाख विरोध के बावजूद शेक्सपीयर और रेनेसां के अंग्रेज़ी महाकवियों का स्थायी ऋण बारम्बार स्वीकार करते थे। अपनी विलक्षण अनुभूतियों के उषाकाल में कविता लिखी- "निर्झरेर स्वप्न भंग", इसमें न कोई विचार है, न जीवन दर्शन, न ही किसी दार्शनिक के चिंतन की प्रतिध्वनि, परन्तु एहसासों की नितांत मौलिकता इतनी प्रखर और बाढ़मय है कि विचार बह चलते हैं तिनके की भांति और भावों का आवेग ही विचारों का स्रोत बन जाता है।

                   

रवीन्द्र के कवि व्यक्तित्व के जागरण में नवजागरण आन्दोलन का भी बड़ा योगदान रहा है। देश के विराट अस्तित्व, उनको नयनाभिराम भूगोल, मानवतावादी इतिहास और अवर्णनीय भारतीयता के अटूट, असीम और अक्षय आसक्ति रही है कवि में, वो भी बेमिसाल समर्पण के साथ। देखिए उनकी कविता- "ओ मेरे देश की माटी"-

बी

     ओ मेरे देश की माटी तुझ पर सिर

       टेकता हूँ मैं

       तुझी पर विश्वमयी का

        तुझी पर विश्व मां का आंचल 

        बिछा देता हूँ

        तू धुली है मेरे तन- बदन में

        तू मिली है मेरे प्राण मन में।

                  

भाव-भंगिमा ऐसी कि मानो कवि का मानवीय ढांचा कृतज्ञता की व्याकुलता और अहं विसर्जित आहृलाद के आवेग में बह चला हो। देशानुराग उनके समय की महान हवा थी, जिसके झोंके में भारतेंदु प्रेमचंद से ले कर बंकिम, सुकान्त भट्टाचार्य और काजी नजरुल इस्लाम तथा सुदूर दक्षिण में सुब्रमण्यम भारती तक बहे। परन्तु रवींद्र नाथ इस सबमें अलहदा, असाधारण और मौलिकतम। कारण कि उनके कवि का ढांचा परिवर्तन की अभिनव कल्पना पर खड़ा था। वे कविता की संरचना के एक एक पक्ष को पलट देने के लिए संकल्पित थे। यही कारण है कि कवि में चिंतन के साथ, चित्रमयता और विचार के साथ संगीतात्मकता साकार हो उठी है। टैगोर का पहला कदम उठता है, प्रकृति के "न भूतो न भविष्यत्" शैली वाले संगीतकार के रुप में। कहना जरूरी है कि वे संस्कृत के उद्दाम झरनों-खास तौर पर कालिदास से गहरे प्रेरित थे। "उपमा कालिदासस्य" विश्वविख्यात है, पर रवीन्द्र भी इस दिशा में एक महान गायक के तौर पर आकाश में चमकते हैं। उनके सम्पूर्ण रचना काल में सर्वोत्तम कविताएँ प्रकृति की महिमा में डूबी कविताएं ही हैं। सृष्टि की मोहक महामाया के प्रति शब्दातीत अनुराग कभी क्षीण, कृत्रिम या दुर्बल न हुआ, और रवींद्र न केवल आधुनिक भारतीय साहित्य में बल्कि, विश्व साहित्य में भी प्रकृति की महानता के अनन्य आविष्कारक के रुप में सदैव याद किए जाएंगे।

        

जीवन की सान्ध्य बेला में लिखी गयी उनकी लौ समान जलती हुई प्रतिभा का एक उदाहरण देखिए--

   

 प्रथम दिन के सूर्य ने 

 अस्तित्व के नूतन आविर्भाव से पूछा

 तुम कौन हो?

 उत्तर नहीं मिला!

 

वर्ष पर वर्ष बीतते चले गये

दिन के अंतिम सूर्य ने 

पश्चिम के समुद्र तट पर निस्तब्ध खड़ी

संध्या से अंतिम प्रश्न पूछा

तुम कौन हो?

उत्तर नहीं मिला!

              

(प्रथमदिनेर सूर्य-शेषलेखा)


रवींद्र के चिंतन में शाश्वत की सत्ता के प्रति अखंड विश्वास था, जो अक्सर ईश्वर या रहस्यमय प्रकृति के रुप में प्रकट होता था। अपने निबंध- "साहित्य का तात्पर्य" में उन्होंने स्वीकार किया है "ऐसे भाग्यशाली लोग भी हैं, जिनका विस्मय, प्रेम, कल्पना सर्वत्र जागृत रहती है। प्रकृति के कक्ष कक्ष में उनके लिए निमंत्रण होता है।लोकालय के भांति भांति के आन्दोलन उनकी चित्त वीणा को विभिन्न रागनियों से स्पंदित करते रहते हैं।"

    

(रवींद्र रचना संचयन, पृष्ठ-651)





दो

                     

रवीन्द्र नाथ का आध्यात्मिक चिंतन जहाँ उन्हें मनुष्यता के दुर्लभ सांचे में सुगठित करता है, वही उनकी नैसर्गिक उर्ध्वगामी प्रतिभा को सीमाबद्ध भी करता है।जहाँ उनकी ईश्वर प्रेमी अंतर्दृष्टि उन्हें अहंकार का विसर्जन करने में समर्थ बनाती है, वही उनकी भावनाओं को वैज्ञानिक बनाने से रोक भी देती है। निश्चय ही रवीन्द्र नाथ अपने व्यक्तित्व को आमूलचूल रेशनल मेधा के स्वर्णिम ढांचे में न ढाल सके, और जीवनपर्यंत एक कल्पना प्रवण, भाववादी, रोमांटिक और रहस्यमय दर्शी कवि बन कर रह गये। जमीन पर खड़े रह कर, जमीन की महत्ता के लिए, जमीनी भाषा, शैली और मुहावरे में कविता रचने की असाधारणता रवीन्द्र नाथ बहुत कम विकसित कर पाए। स्वभावतः वे एक चिंतनधर्मी, आत्मान्वेषक और अनुभूतियों की असीमता के शिल्पकार हैं, परन्तु एक हद तक यही विलक्षण क्षमता उनकी दुर्बलता भी सिद्ध हुई। तुलना करने की तबियत होती है कि धर्म, अध्यात्म और ईश्वर का मायाजाल भारतवर्ष के ही जीनियस कवियों के साथ क्यों खड़ा होता है? कबीर ओर तुलसी दास और प्रतिभा में विश्व के किस कवि से कमतर हैं, पर चेतना की परिपक्व वैज्ञानिकता के मामले में यूरोपीय महाकवियों से पीछे। खुद कबीर निर्गुण ब्रह्म के मोह में पीछे पीछे ऐसे भागते हैं, मानो उसके पाए बगैर जीवन अकारथ है। बात वही कि केवल प्रकृतिप्रदत्त नैसर्गिक प्रतिभा मिल जाना कवि के लिए पर्याप्त नहीं। उसे अत्यंत परिष्कृत उच्च वैज्ञानिक विवेक की आंच में पकाना होता है, उसमें भर आई अंधी आस्थाओं, हवाई श्रद्धा और खोखली कल्पना के खर पतवार को साफ करना पड़ता है, और सबसे बढ़ कर यह कि खुद के व्यक्तित्व का परले दर्जे तक मानवीकरण करना पड़ता है। हमारी रूचि, विचार, आकांक्षा, स्वप्न और आस्था तक तक कालजयी मूल्य की नहीं, जब तक वह सर्वजन हिताय की कसौटी पर खरी न उतर जाय। हम याद करते हैं शेक्सपियर और खलील जिब्रान को, एक मध्यकालीन अंग्रेजी और दूसरा आधुनिक युग की अरबी भाषा का महान कवि।किन्तु दोनों प्रतिभाओं की चिंतनधर्मिता अधिक मनुष्यपरक, जीवनमय और यथार्थवादी। मनुष्य की आंतरिक संरचना के मकड़जाल को जितना इन दोनों कवियों ने तार तार किया, उतना शायद ही उस भाषा में किसी विलक्षण प्रतिभा ने खोला हो। इस मूल रहस्य इतना ही है कि ये दोनों न ईश्वर, धर्म, अतार्किक अध्यात्म और अपनी कोरी आत्मग्रस्त कल्पनाओं में उलझे और न ही प्रतिगामी सामाजिक धारणाओं और रुढ़िग्रस्त विश्वासों में अपने शरीर की उर्जा को नष्ट किया।यह ईश्वर और उसकी सत्ता हमारे देश के कई नायाब हीरों की कालजयी चमक को मद्धिम और मूल्यहीन कर गयी। यह सोच कर ग्लानि और बेतरह पाश्चाताप होता है। जब तक रवीन्द्र प्रकृति को कलम की नोंक पर सुमिरते रहे, तब तक उनकी क्षमता बहूमूल्य अर्थों के नये नये आयाम रचती रही, किन्तु जैसे ही ईश्वर और अध्यात्म की ओर उनका अतिरिक्त झुकाव बढ़ा, उनकी वह शुरुआती प्रखरता धीमी होती गयी, परिणाम यह हुआ कि यह मानक कवि भारतीय मानस की गहराई में अमिट स्थान तो पा गया, परन्तु देश के व्यक्ति व्यक्ति को रेशनल व्यक्तित्व के सांचे में ढाल देने वाली क्रांतिकारी चिंतनधारा न दे सका। 

          

देश के अमिट अस्तित्व और अलौकिक भूगोल से दीवानों से बढ़ कर प्यार करने वाले ऐतिहासिक भक्त का नाम है रवींद्र नाथ। ऐन इसी वक्त कौंध उठती है व्यास-आलोचक रामचंद्र शुक्ल की लकीर, जिसका नाम है- "कविता क्या है?" देशप्रेम की ऐसी परिभाषा खींची है, साहित्य चिंतक ने, कि मन साधक जैसा होने को आतुर हो उठता है देश के प्रति। रवींद्र नाथ अपने शुरुआती दौर में ही इस बेमिसाल विमल भावसमुद्र का परिचय देने लगे थे। इसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने एक नहीं, शताधिक कविताएँ और गीत केवल भारतवर्ष के गौरव, इतिहास, संस्कृति, मानवता और अद्वितीय भौगोलिकता को समर्पित किया।

      

जहाँ चित्त भय शून्य, सार्थक जन्म हुआ, ओ मेरे देश की माटी, मेरे मन हे,पुण्य तीर्थ में जगो और वसुंधरा जैसी अनेक अर्थगर्भित कविताएं रवींद्र  की अनन्य देशप्रेमी प्रतिभा को सिद्ध करते हैं। "भारत तीर्थ" कविता की पंक्तियां सुमिरिए-


         

मेरे लहू में उनका विचित्र सुर ध्वनित है

आर्य रुद्रवीणा, बजो, बजो, बजो

घृणा से आज भी दूर खड़े हैं जो

बंधन तोड़ेंगे, वे भी आएंगे, घेर कर

खड़े होंगे

इस भारत के महामानव के सागर तट पर!

        

(रवींद्र रचना संचयन-पृष्ठ-134)



टैगोर जिस दौर-ए-भारतवर्ष में अपनी नवोन्मेषी रागात्मकता को तराश रहे थे, वह स्वाधीनता आंदोलन का अभूतपूर्व युग था। राजनीति में अभी गांधी का प्रयोग होना शेष था, तब न तिलक उठे थे, न भगत सिंह, न ही सुभाष चंद्र।1905 में अटूट बंगाल तोड़ दिया गया। 1906 में बंग भंग आंदोलन की आंधी उठ खड़ी हुई। 45 वर्षीय भारतभक्त युवा कवि इतना व्यथित और आहत हुआ कि शब्दों में आंसू और आक्रोश का ज्वार उमड़ पड़ा। अंग्रेजों के प्रति लाख सहानुभूति और मैत्री के बावजूद रवीन्द्र सदा अपने देश के ढांचें में खुद को विसर्जित कर जीते रहे। उनके वक्त में और उनके बाद भी भारतवर्ष की बहुआयामी महिमा का ऐसा आध्यात्मिक गायक न हुआ, न शायद हो पाएगा। राष्ट्र और राष्ट्रीयता के प्रति उनकी धारणा अपने समय के अनेक विचारकों, राजनीतिज्ञों और कवियों से मीलों आगे थी। आश्चर्य यह कि उसमें गैरमनुष्यता की संकीर्णता न थी, और दूसरे देश के वजूद के प्रति उतना ही सम्मान था, जितना भारतभूमि के प्रति। अपने अंतिम भाषण "सभ्यता का संकट" में वे कहते हैं- "भारत में विदेशी जाति के शासन के नियंत्रण के दुर्भाग्य का रोज रोज एहसास हमें सिर्फ़ अन्न, वस्त्र, शिक्षा और चिकित्सा की सुविधाओं जैसी जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की निर्मम उपेक्षाओं से ही नहीं होता, बल्कि इससे बढ़ कर भी यह अप्रीतिकर एहसास है कि इन्होंने हमें किस कदर बांट रखा है।"

       

ध्यान रखना चाहिए कि गांधी जी और रवींद्र के राष्ट्रवाद में अनेक भिन्नताएं हैं, और दोनों की बहुत मूल्यवान। वैचारिक तौर पर दोनों कर्मवीरों की तुलना ही नहीं, भिन्नता इतनी कि दोनों व्यक्तित्व आपसी असहमतियां जाहिर भी कर देते थे। पर एक दूसरे के राष्ट्रीय कद का सम्मान रत्तीभर कम नहीं। आज जबकि पूरा देश अंधे, विकृत, जड़ांध और जहरीले राष्ट्रवाद की आग में जल रहा है। मनुष्यता की हर तरह से धज्जियां उडा़ रहा है, रवींद्र का मनुष्यतावादी राष्ट्रवाद सबसे प्रासंगिक और अनिवार्य हो चुका है, जिसे नजीर की तरह बार-बार पढा़ जाना चाहिए। आइए पाठ करें उनकी चंदन जैसी चंद पंक्तियों का-


हे मृणमयी जननि,

मैं तुम्हारी धूल में व्याप्त हो जाऊं

दिशा विदिशाओं में अपने आपको

वसंत के आनंद की तरह बिखेर दूं

वक्ष के इस पिंजड़े, संकीर्ण प्राचीर के 

पाषाण बंधन को तोड़ कर..।

                

 

(वसुंधरा- रवींद्र रचना संचयन, पृष्ठ संख्या-68)  


  



तीन

                              

जन, जमीन, जिंदगी के प्रति अखंड अनुरक्ति देशप्रेम का ही एक कीमती प्रकार है। रवींद्र में यह अनुराग जीवन के उत्तर काल में अपने चरम पर पहुंचा,जो कि उनके गीतों, कविताओं और कहानियों, निबंधों में भी चटक दिखाई देता है। बंगाली ग्रामीण जीवन से सीधा रिश्ता उनका तब बना, जब वे जमींदार की भूमिका में उनके बीच बार बार उपस्थित हुए, और यह उनकी चिंतनधारा का एक नया, बल्कि निर्णायक मोड़ सिद्ध हुआ। कल्पना की युगारंभकारी संभावनाएं हासिल कर लेने के बावजूद यदि रवींद्र इस दिशा में कदम न बढ़ाते, तो निश्चय ही समय के प्रति जवाबदेह सर्जक में एक बड़ा दोष रह जाता। उन्हीं के शरतचंद्र अपने उपन्यासों और कहानियों के माध्यम से तत्कालीन बंगाली ग्रामीण संस्कृति का अभूतपूर्व चित्रण कर रहे थे, और इधर हिन्दी में प्रेमचंद कलम के जमीनीपन का ऐतिहासिक मानक स्थापित कर रहे थे। इन दोनों ग्राम-शिल्पियों की तुलना में रवींद्र का जनजीवन -सृजन कम सघन है, मद्धिम प्रखरता और आवेग लिए हुए है। ऐसे ग्रामीण विषयों के अलक्षित मर्म का उद्घाटन करते हुए रवि-कवि का आकाशधर्मी स्वभाव आड़े आता है। मानो में ऊंचाई पर आसनस्थ हो कर धरती की जनता को निरख रहे हों और सहानुभूति की प्रेरणा में अपनी कलम उठा रहे हों। जबकि प्रेमचंद और शरत बाबू न खुद के जीवन को विशिष्ट ऊंचाई पर ले गये, न ही अपने वर्ग का श्रेष्ठीकरण किया।ये दोनों जीवनपर्यंत वहीं खड़े रहे, जिनकी आसक्ति, स्मृति और तड़प में अविरल आंसू बहाए, जिनकी अभूतपूर्व महत्ता स्थापित करने के लिए कलम की वेदी पर खुद को चढ़ा दिया। स्पष्ट है, रवीन्द्र में  यथार्थवादी दृष्टि उतनी ऊंचाई हासिल नहीं करती, जितनी प्रेमचंद और शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की। "सभ्यता का संकट" भाषण में कवि का हृदय किस तरह बिफर उठता है, देखिए- "भारत के करोड़ों लोगों के कल्याण की तथाकथित सभ्य जाति द्वारा उपेक्षा का ज्वलंत उदाहरण मेरी आंखों में आंखें डाल कर घूर रहा है।"

            

जनजीवन के संघर्ष, अभाव, पराजय और बेहाली का चित्रण करते हुए भी वे अपने रोमांटिक कवि के स्वभाव से मुक्त नहीं रह पाते।तात्पर्य यह कि उनकी कलम के समर्पण और जनता के यथार्थ के बीच वर्गीय उच्चता का एक पर्दा पड़ा ही रहता है। बावजूद इसके वे भारतवर्ष के विकट, गुमनाम और गुलाम ग्रामीण हृदय को जितनी आवाज़ दे सके, उसमें रत्ती भर कृत्रिमता, दोहरापन या अप्रामाणिकता नहीं। वह जैसा और जितना है, स्थायी रंग धारण किए हुए है वास्तविकता का। यही कारण है कि भारत की ग्रामीण संस्कृति के कालजयी शिल्पकार के रूप में प्रेमचंद और शरत चन्द्र के बाद टैगोर का ही नाम गूंजता है। देखिए न एक जनधर्मी कविता कविवर की---

     

मनुष्य के भीतर बसने वाले देवता पर

जो दुष्ट, बर्बर मनुष्य

मुंह बना कर व्यंग्य करता है

उसे मैं हंसी की मार, मार जाऊंगा।

          

(रवीन्द्र नाथ की कविताएं, पृष्ठ संख्या-284)


   


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