ललन चतुर्वेदी का संस्मरण 'जाने वे कैसे लोग थे'
पहले के समय में लोगों के पास एक दूसरे के लिए समय हुआ करता था। लोग साथ साथ मिल बैठ कर एक दूसरे का दुःख दर्द साझा किया करते थे। इस बैठकी में अड़ोस पड़ोस की तमाम एक से बढ़ कर एक बातें हुआ करती थीं। हास परिहास और कथा कहानियां इस बैठकी की आत्मा हुआ करते थे। लेकिन धीरे धीरे समय बदला। अब सबके हाथ में मोबाइल आ गया है। घर में रहते हुए भी बच्चों से ले कर बूढ़े तक सभी मोबाइल में व्यस्त हैं। अब किसी के पास किसी के लिए कोई समय ही नहीं है। मोबाइल पर बातें होती हैं लेकिन वे प्रायः अर्थहीन होती हैं। एक दूसरे के काम आना तो दूर की बात है। संवेदनशीलता लगातार छिजती जा रही है। कवि ललन चतुर्वेदी ने अपने उस दौर को शिद्दत से याद करते हुए एक आत्मीय संस्मरण लिखा है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं ललन चतुर्वेदी का संस्मरण 'जाने वे कैसे लोग थे'।
संस्मरण
'जाने वे कैसे लोग थे'
ललन चतुर्वेदी
इस समय जब मेरी अंगुलियाँ लैपटॉप के की बोर्ड पर तैर रही हैं, मुझे हाल ही में अमेज़न प्राइम पर दिखाए गए अति लोकप्रिय वेब सीरीज पंचायत का एक संवाद "गरीब हैं लेकिन गद्दार नहीं हैं" याद आ रहा है। विरले लोग होते हैं जो आख़िरी सांस तक संबंधों को निभा ले जाते हैं. आश्चर्य होता है, ऐसा कैसे संभव है। सच्चा माझी वही होता है जो हवा की प्रतिकूल दिशा में भी नौका को किनारे लगा देता है। इस ज़माने में तो कुशल तैराक वे होते हैं जो मंझधार में ही हाथ छुड़ा कर चल देते हैं। बात राजेंद्र सिंह की कर रहा हूँ जो हम सब के लिए शर्मा जी थे। उन्हें मैंने अस्सी वर्ष की अवस्था में देखा। उन्होंने मुझे गिनती-पहाड़ा पढ़ना सिखाया। भक्ति और नीति के अनेक दोहे, चौपाइयों और पदों को गा-गा कर जीवन जीने का मंत्र दिया। वे सब स्मृतियों में दर्ज हैं। बचपन की यादें अमिट होतीं हैं। चाहे हम जिस अवस्था में हों, बार-बार बचपन में लौटते हैं।
शर्मा जी से सम्बन्ध हमारा चार पीढ़ियों का है. संक्षेप में बताऊँ तो मेरे दादा जी को बलिया, उत्तर प्रदेश से मुजफ्फरपुर, बिहार लाने में शर्मा जी के दादा की भूमिका ही रही। दादा जी जिस सुनहरे सपने को ले कर आये थे, वे जल्द ही टूट गए। ऐसे में शर्मा जी पूरी दृढ़ता से मेरे दादा जी और विशेष रूप से पिता जी के साथ जीवनपर्यंत खड़े रहे। जो कमियां या भूलें हुईं होंगी, हम लोगों की तरफ से हुई होंगी। उन्हें हमारे साथ होना था और वे जीवन के हर मोड़ पर तन-मन-धन से खड़े रहे। जिन्हें सहयोग करना होता है, वे पात्रता का विचार नहीं करते। नदी और पवन सबके लिए सामान रूप से उपलब्ध हैं। आकाश किसी के लिए छोटा या बड़ा नहीं है। हम सब के लिए समान है। कोई अपने कर्म और पौरुष से उड़ानें भरता है तो कोई धरती पकड़ कर बैठा रहता है. शर्मा जी मेरे दरवाजे पर नियमित रूप से सुबह और शाम आते थे। इस बैठकी में वे दो से तीन बार चाय पीते थे, यद्यपि उन्हें कोई नशा नहीं था। गाँव में होने के बावजूद वे खैनी तक नहीं खाते थे। उनका जीवन बिलकुल अनुशासनबद्ध था। उनकी खेती लायक पांच बीघा जमीन दियारा में थी। खेती पूर्णतः गंगा मैया की कृपा पर निर्भर थी। मैया चाहे तो खेत सोना उगल दें और कुपित हो जाएँ तो सब कुछ उनके पेट में समा जाए। दियारा को हमारे इलाके में ढाब कहा जाता है। गंडक ही यहाँ गंगा के रूप में मान्य है। बड़ी प्यारी और पावन भूमि है। हम लोग गंगा मैया को पूजने और पिअरी चढाने वाले लोग हैं। जिन्हें हमारी मूर्खताओं पर हँसी आनी है आए, हम अपनी मूर्खताओं से प्यार करते रहेंगे।
हमारे शर्मा जी भी ऐसे ही गंगावासी थे। सुबह से शाम तक वे गंगा किनारे स्थित खेतों में गुजारते थे। सांवा, कोदो, जनेरा, मकई और धान की खेती करते थे। यदि बाढ़ नहीं आयी तो पैदावार अच्छी हो जाती थी और वह साल खुशहाल होता था। यदि बाढ़ आ गयी तो खाने भर को भी अनाज नहीं होता था। बाढ़ के बाद गंगा जो दोमट मिट्टी अपने साथ लाती है उसमें बम्पर उपज होती है। कभी गंगा जी छरियाती अर्थात कुपित होतीं हैं तो खेतों को बालू के मैदान में बदल देतीं है। हम गंगावासियों को गंगा मैया से कभी कोई शिकायत नहीं है। मैया को प्यार-दुलार और डांट-फटकार का पूरा अधिकार है. यही ढाब शर्मा जी का दिन-बसेरा था। चाहे जेठ की चिलचिलाती धूप हो, माघ की हाड़ कंपाने वाली ठंड हो या सावन-भादों की मूसलधार बारिश, शर्मा जी सुबह जाते तो बेर डूबने के बाद ही लौटते। खाना-कलेवा गमछा में बाँध कर ले जाते। गंगाजल ले कर गमछा पर सत्तू सान कर खा लेते और कमर भर पानी में जा कर छक कर गंगाजल पी कर तृप्त हो जाते थे। जिस दिन कलेवा उपलब्ध नहीं होता था, वे एक मुट्ठी बालू फांक कर गंगाजल पी लेते थे।
मैं उनके पास बचपन में बैठा करता था। वह मुझे तरह-तरह की कहानियां एवं संतों के द्वारा सृजित पद सुनाते रहते थे। वे पद अर्थपूर्ण और जीवनोपयोगी होते थे। उनमें से अधिकांश मुझे याद है। वे बच्चों से बहुत प्यार करते थे। मेरे घर के अधिकांश बच्चों ने उनकी गोद में बहुत-बहुत देर तक खेला है। आश्चर्यजनक रूप से बच्चे उनकी गोद में बैठ जाने पर रोना बंद कर देते थे।
हमारी उम्र बढ़ती जाती है। हम अपने कार्यों और उपलब्धियों की अक्सर चर्चा करते रहते हैं। मुझे इनसे कोई एतराज नहीं है लेकिन एक बार पीछे पलट कर देखना चाहिए। इससे यह पता लगता है कि हमारे मन-मानस और व्यक्तित्व के निर्माण में कितने लोगों का योगदान रहा है। जहाँ तक मेरी बात है, जिनका भी एक बार सान्निध्य सुलभ हुआ वे मेरी स्मृतियों से बाहर नहीं जा पाते। उन्हें मैं बार-बार याद करता हूँ। उनके प्रति कृतज्ञता से मेरा मन भर उठता है। यह सही है कि जो जा चुके हैं उनके लिए हम कर भी क्या सकते हैं? फिर भी, वे मेरी यादों में शामिल रहें। यदि ऐसा हो तो थोड़ा सुख-संतोष अवश्य मिलता है। ऐसा नहीं कि शर्मा जी मानव-सुलभ कमजोरियों से दूर रहे होंगे लेकिन इतना तो अवश्य कह सकता हूँ कि वे बेईमानी और शैतानी से दूर ही रहे। परिस्थिति से मजबूर हो कर किसी का कुछ लिया तो सूद सहित लौटाया। उनकी खासियत यह थी कि वे मनोविनोदी स्वभाव के थे। अपने प्रश्नों से लोगों को लाजवाब कर देते थे। उनकी तीन अंगुलियाँ बाल्य-काल में कट गयी थीं। फिर भी, वे घर-गृहस्थी और खेती-बाड़ी के काम बहुत कुशलता से निबटा लेते थे। हथेली में खुरपी बाँध कर घास भी छील लेते थे। उनके खेत बड़े साफ़-सुथरे हुआ करते थे। घर-दरवाजे की सफाई के बारे में क्या कहना? पहले गाँव में ईख की पेराई कर गुड़ बनाया जाता था। उस मशीन में हाथ से ईख लगाया जाता था. कभी-कभी उसमें सीठी (रस निकलने के पश्चात् का डंठल) फंस जाती थी। उसे मशीन से हाथ से निकला जाता था। इस मशीन को बैल के कंधे पर जुआ रख कर चलाया जाता था। बैल को हांकने वाला आदमी बधिर था। शर्मा जी की अंगुलियाँ सीठी निकालते फंस गयी तो उन्होंने उसे बैल को रोकने के लिए कहा। उस बधिर व्यक्ति ने समझा कि उसे बैल तेजी से हाँकने के लिए कहा जा रहा है। उसने गलतफहमी में ऐसा ही किया और शर्मा जी की तीन अंगुलियाँ पूरी तरह कट गईं पर इसे उन्होंने जीवन में बाधा नहीं बनने दिया। वे कभी इस पर चर्चा भी नहीं करते थे।
शर्मा जी के मनोविनोदी स्वभाव की झलक की अनेक कहानियां हैं। सबसे दिलचस्प यह कि उनके पिता जी फुलगेन सिंह बथान (घर से थोड़ी दूर पशुओं को रखने की जगह) पर रहते थे। वहीँ खाते, पीते और सोते थे। मनुष्य और पशु का सहअस्तित्व सदियों से चला आ रहा है। यह दूसरी बात है कि अब गांवों में भी पशुओं की संख्या लगातार कम होती जा रही है और वह दुर्दिन भी आएगा जब पशुओं की अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो जायेंगी। खैर, एक दिन उनके पिता जी ने कहा- राजिंदर, घरे से लौटे के बेरी दू गो भूंजा ले ले अईह (मतलब घर से लौटते समय थोड़ा सा भूंजा लेते आना)। शर्मा जी घर से लौटते समय हाथ में मकई का मात्र दो लावा (भुने हुए दो दाने) ले कर पिता जी समक्ष उपस्थित हो गए। पिता जी ने जब डांटना शरू किया तो भाग खड़े हुए। जो भी हो, उन्होंने अपने पिता की भक्ति और सेवा-भक्ति में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। पिता ने प्रयाण के पूर्व उनसे बुला कर कहा – "मैं बथान पर मरूंगा। मेरा मरा हुआ मुंह अपनी पत्नी को मत दिखाना और गंगा मैया के घाट पर ले जा कर फूंक देना।" शर्मा जी ने बिलकुल वैसा ही किया। पिता के शव को दरवाजे पर नहीं लाया और उनकी पत्नी अंतिम दर्शन से वंचित ही रही। मन में कोई पीड़ा रही होगी।
शर्मा जी उम्र का शतक तो नहीं लगा सके लेकिन लगभग 96-97 वर्ष का सार्थक जीवन जिया। सुखी-संपन्न पुत्र-पौत्रों को छोड़ कर अलविदा हुए। मालूम नहीं, उनके पड़ोसी और सगे-संबंधी उन्हें कैसे याद करते हैं लेकिन मैं उन्हें एक खांटी इंसान, अच्छे मित्र और सहृदय शुभचिंतक के रूप में याद करता हूँ। मेरे व्यक्तित्व की निर्मिति में उनका भी थोड़ा हिस्सा है। उनकी गोद में कुछ वर्ष बैठ कर मैंने भी सूर, कबीर और बिन्दु जी महाराज के पद सुने होंगे। अध्यात्म की आरंभिक समझ बनने की प्रक्रिया में उनका भी योगदान अवश्य रहा होगा। ऐसे लोग ज्ञान को क्रिया में उतारने वाले होते हैं। क्रिया के बिना ज्ञान केवल पुस्तकों को सुशोभित करता है।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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बहुत सुंदर संस्मरण, संस्मरण हमारी धरोहर की तरह होते हैं जिसमें एक पूरा परिवेश समाया होता है
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