योसा बुसोन के हाइकु, हिन्दी अनुवाद : देवेश पथ सारिया

 

योसा बुसोन


हाइकु मूलतः जापानी कविता की एक विधा है। यह मात्र तीन पंक्तियों में ही लिखी जाती है। इसका भी अपना मात्रात्मक पदबंध होता है। हाइकु में आमतौर पर पहली पंक्ति में पाँच अक्षर, दूसरी में सात और तीसरी में पाँच अक्षर होते हैं। हाइकु में प्रकृति या किसी क्षणिक अनुभव को संक्षिप्त और प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया जाता है। कहा जा सकता है कि यह अनुभूति के चरम क्षण का पद्यांकन है। "हाइकु का जन्म जापानी संस्कृति, परम्परा, जापानी जनमानस और सौन्दर्य चेतना में हुआ और वहीं यह पुष्पित पल्लवित हुआ है। हाइकु में अनेक विचार-धाराएँ मिलती हैं- जैसे बौद्ध-धर्म चीनी दर्शन और प्राच्य-संस्कृति।

हाइकु को काव्य विधा के रूप में बाशो (1644-1694) ने प्रतिष्ठा प्रदान की। हाइकु मात्सुओ बाशो के हाथों संवर कर 17वीं शताब्दी में जीवन दर्शन से जुड़ कर जापानी कविता की युगधारा के रूप में प्रस्फुटित हुआ। आज के समय में हाइकु जापानी साहित्य की सीमाओं को लाँघ कर विश्व साहित्य की निधि बन चुका है।

योसा बुसोन (1716-1784) एदो युग के कवि-चित्रकार थे। उनका जन्म ओसाका के क़रीब हुआ। उन्हें अपने युग के सर्वश्रेष्ठ कवियों में गिना जाता है। उन्होंने चीनी-जापानी कविता शैली के साथ प्रयोग किए। कवि देवेश पथ सारिया ने योसा बुसोन के कुछ हाइकु का उम्दा अनुवाद किया है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं योसा बुसोन के हाइकु।



योसा बुसोन (1716-1784) के हाइकु 


हिन्दी अनुवाद : देवेश पथ सारिया



मील का पत्थर बदला है 

इस घुमक्कड़ी में तैंतीस बार 

मंदिर की ज़मीन पर पाला पड़ा है


*


पीअनी फूल की पंखुड़ियां 

हौले से बिखर जाती हैं 

दो-तीन के झुंड में इकट्ठी हो जाती हैं


*


वेधती हुई सर्दी 

मेरी मृत पत्नी के कंधे पर पड़ती है 

हमारे शयनकक्ष में


*


मनुष्यों की इस दुनिया में 

लौकी ने बना ही ली 

अपनी एक जगह


*


भिक्षु ख़ुशी से 

खा रहा है 

खमीरीकृत बीन मिसो सूप


*


हालात हैं यूँ 

मैं अकेला हूँ 

दोस्ती करता हूँ चाँद से


*


कोई कनटोप पहनकर गुज़रा है 

अपने ही अँधेरे में 

नहीं देख पाया पूर्ण चंद्रमा को


*





शीत ऋतु की हवा 

कंकड़ों को उछालती है 

मंदिर की घंटी पर


*


सर्दियों का यह तूफान 

भागते हुए पानी की आवाज़ 

चट्टानों को चीरती हुई


*


पहली बरसात गिरती है 

और फिर पिघल जाती है 

घास पर ओस बन कर


*


पहली बर्फबारी 

टकराती है सबसे निचले डंठलों से 

बाँसों में अटका है चाँद


*


बर्फ़ के नीचे चटकती है एक डाल 

मैं जाग जाता हूँ 

योशिनों में चेरी के फूलों के स्वप्न से


*


शरद ऋतु की शाम 

मैं महसूस करता हूँ 

पिछले साल से ज़्यादा अकेला


*


माँ-बाबा 

बार-बार करता हूँ उन्हें याद 

शरद ऋतु के अंत में


*

वसंती समुद्र

सारा दिन उभरता है, गिरता है 

उभरता है, गिरता है



देवेश पथ सारिया 


परिचय


देवेश पथ सारिया (जन्म: 11 फ़रवरी 1986) एक हिंदी कवि-गद्यकार एवं अनुवादक हैं। कविता संकलन 'नूह की नाव' (2022); कहानी संग्रह: 'स्टिंकी टोफू' (2025); कथेतर गद्य: 'छोटी आँखों की पुतलियों में' (ताइवान डायरी, 2022); अनुवाद : 'हक़ीक़त के बीच दरार' (2021), 'यातना शिविर में साथिनें' (2023)। 

पुरस्कार : भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार (2023)। 

देवेश की रचनाओं का अनुवाद अंग्रेज़ी, मंदारिन, रूसी, स्पेनिश, बांग्ला, मराठी, पंजाबी और राजस्थानी भाषा-बोलियों में हो चुका है। 

संपादन: गोल चक्कर वेब पत्रिका। 



सम्पर्क 


ईमेल: deveshpath@gmail.com

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण