यतीश कुमार की किताब 'बोरसी भर आंच' की आनन्द गुप्ता द्वारा की गई समीक्षा

 

यतीश कुमार 



संघर्ष का ही दूसरा नाम जिन्दगी है। कहा भी जाता है कि कुंदन में तप कर ही लोहा अपना स्वरूप प्राप्त करता है। जिंदगी जो इतनी खूबसूरत दिखाई पड़ती है उसके ये आयाम बताते हैं कि वह सतत परिवर्तनशील है। संस्मरण वह विधा है जिसमें आम तौर पर लेखक से ईमानदारी की अपेक्षा की जाती है। अपने संस्मरण की किताब 'बोरसी भर आंच' में यतीश कुमार इस प्रतिमान पर खरे उतरते हैं। इस किताब की समीक्षा लिखते हुए आनन्द गुप्ता लिखते हैं 'संस्मरण की किताब 'बोरसी भर आंच' को पढ़ते हुए चीकू (लेखक यतीश कुमार के बचपन का नाम) कब आपके साथ हो लेता है, पता ही नहीं चलता। चीकू के दुख दर्द और शरारतों को पढ़ते हुए अपने जीवन की घटनाएं स्मृति फलक पर तैरने लगती हैं। चीकू भारतीय निम्न-मध्यम वर्गीय बच्चों का एक प्रतिनिधि चरित्र बन कर हमारे सामने आता है। चीकू का संघर्ष लाखों करोड़ों बच्चों के जीवन संघर्ष के साथ जुड़ता चला जाता है। बोरसी भर आंच के चीकू के बड़े रेलवे अधिकारी यतीश कुमार बनने की यात्रा के उन उपादानों से हमारा परिचय कराती है जिसमें कोमल मिट्टी तप कर एक मजबूत बर्तन का रूप लेता है।' आज यतीश कुमार का जन्मदिन है। पहली बार की तरफ से उन्हें बधाई एवम शुभकामनाएं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यतीश कुमार की किताब 'बोरसी भर आंच' की आनन्द गुप्ता द्वारा की गई समीक्षा 'संस्मरण में जीवन के विविध रंग'।



संस्मरण में जीवन के विविध रंग


आनन्द गुप्ता


एक लेखक की सबसे बड़ी सफलता होती है कि वह अपने शब्दों के साथ असंख्य लोगों की संवेदना को जोड़े। जिसे पढ़ते हुए यह अहसास जागे कि अरे! यह तो मेरे जीवन में भी घटित हो चुका है। इसमें तो मेरी भी बात है। संस्मरण की किताब 'बोरसी भर आंच' को पढ़ते हुए चीकू (लेखक यतीश कुमार के बचपन का नाम) कब आपके साथ हो लेता है, पता ही नहीं चलता। चीकू के दुख दर्द और शरारतों को पढ़ते हुए अपने जीवन की घटनाएं स्मृति फलक पर तैरने लगती हैं। चीकू भारतीय निम्न-मध्यम वर्गीय बच्चों का एक प्रतिनिधि चरित्र बन कर हमारे सामने आता है। चीकू का संघर्ष लाखों करोड़ों बच्चों के जीवन संघर्ष के साथ जुड़ता चला जाता है। बोरसी भर आंच के चीकू के बड़े रेलवे अधिकारी यतीश कुमार बनने की यात्रा के उन उपादानों से हमारा परिचय कराती है जिसमें कोमल मिट्टी तप कर एक मजबूत बर्तन का रूप लेता है। 

      

देहाती जीवन में बोरसी सामूहिकता का प्रतीक है। शहरी जीवन में जहां रिश्तों में लगातार ठंडक बढ़ रही है, वहीं गांव की जिंदगी में बोरसी की आंच की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस आंच को तापते लोगों के आपसी रिश्तों में यह हरदम ऊष्मा का संचार करती है। बोरसी के इसी आंच में पके शकरकंद को चखे बिना आप उसके स्वाद को महसूस नहीं कर सकते। इस किताब के शीर्षक के संदर्भ में अगर हम बात करें तो लेखक अपने जीवन में संघर्ष के आंच पर पक कर सफलता के स्वाद को चखता है। इस आंच ने लेखक को हमेशा मजबूत किया है। 

       

मैंने यह किताब पूरी होने के बाद दुबारा पढ़ी। बहुत कम ही किताबें ऐसी होती है जो आपको दुबारा पढ़ने के लिए प्रेरित करे। यह किताब संस्मरण होने के बावजूद तत्कालीन बिहार की राजनीतिक एवं सामाजिक विडंबनाओं का एक विद्रूप चेहरा हमारे सामने रखती है। साथ ही जातिवाद, भ्रष्टाचार, वर्चस्ववाद एवं नक्सलवाद की जकड़बंदी में फंसे समाज की त्रासदी के जीवंत चित्र जगह-जगह इस किताब में हम देख सकते हैं।  इस त्रासदी के बीच बड़े होते चीकू के संघर्ष को वही समझ सकता है जिसका परवरिश इस तरह के माहौल में हुआ हो। बिहार के मुंगेर , लखीसराय, किऊल इत्यादि शहरों एवं कस्बों में रहते हुए लेखक के बचपन का अधिकांश हिस्सा बीता है। यहां के उथल-पुथल भरे परिवेश में  बढ़ते हुए चीकू के संघर्ष का कोई एक रूप नहीं है। चीकू के संघर्ष के साथ, एक माँ का संघर्ष , एक बहन का संघर्ष, एक पिता का संघर्ष साथ चलता रहता है। इन परिस्थितियों के बीच गुजरते चीकू की मनोवैज्ञानिक दशा को इस संस्मरण के माध्यम से हम समझ सकते हैं। बाल मनोविज्ञान की कई परतें एक-एक कर हमारे सामने खुलती जाती हैं। चीकू की शरारतें इस पुस्तक का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। कई बार  इन्हीं शरारतों के कारण मृत्यु उसे छू कर निकल जाती है। अपनी अदम्य जिजीविषा से वह हर बार मृत्यु को मात देता है। जीवन में ऐसे मौके भी आए थे जब उसे भेदभाव एवं प्रताड़ना भी मिलती है। पर इन्हीं विपरीत परिस्थितियों ने चीकू को मजबूत बनाया। इस किताब की एक खास बात जो सबसे ज्यादा प्रभावित करती है वह है लेखक की लेखकीय ईमानदारी। वह अपने जीवन की अच्छी बुरी कोई भी घटना इस संस्मरण में छुपाता नहीं है। यह साहस अब तक कम लेखक ही कर पाए हैं। अधिकतर लेखकों के संस्मरण में जहां उनके जीवन का उज्ज्वल पक्ष तो सामने दिखाई पड़ता है पर वे चुपके से उन घटनाओं को छुपा लेते हैं जिससे उनकी इमेज पर कहीं भी सवाल उठने की गुंजाइश रहती है।

       

इस संस्मरण के केंद्र में एक नदी है- किऊल नदी, जिसके आसपास ही लेखक का बचपन विकसित होता है। इस नदी के माध्यम से उस विराट त्रासदी की ओर संकेत किया गया है जहाँ आज देश भर में नदियाँ अतिक्रमण और दोहन का शिकार हो रही हैं। यह एक भयानक पर्यावरण संकट है। इस अतिक्रमण के पार्श्व में वर्चस्व की जिस लड़ाई का जिक्र है कमोवेश मैदानी इलाकों में बहने वाली हर नदी इसका शिकार है। पर यहां की खास बात यह है कि वर्चस्व की यह लड़ाई सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक कई मोर्चों पर लड़ी जा रही है। हर साल कभी सूखा और कभी भयंकर बाढ़ के माध्यम से नदियाँ अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती रहती हैं। पर कुछ भी नहीं बदलता। बाढ़ से होने वाले कटाव के कारण न जाने कितनी स्मृतियाँ विस्मृति का शिकार हो रही हैं। भौगोलिक नक्शे बदल रहे हैं। किऊल नदी लेखक के बचपन से जुड़ी कई घटनाओं की गवाह है। लेखक को गढ़ने में इस नदी की महत्वपूर्ण भूमिका है। कहा जाए तो किऊल लेखक की रगों में दौड़ती हुई नदी है जिसकी तरंगें लेखक के हृदय में हमेशा महसूस की जा सकती है। 




        

रिश्ते इस किताब की महत्वपूर्ण कड़ी हैं। लेखक ने अपनी मां, पिता, बहन, भाई, मौसी, बड़की अम्मा और अपने दोस्तों के साथ अपने रिश्ते को बहुत संजीदगी और रोचकता के साथ इस किताब में जगह दी है। विशेषकर मां और बहन के साथ लेखक ने अपने संबंधों को बहुत ही संवेदनशीलता और मार्मिकता के साथ दर्ज किया है। लेखक यतीश कुमार को गढ़ने में उनकी माँ को जिस संघर्ष से गुजरना पड़ा उसकी व्यथा कथा इस किताब का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। उनकी मां भारत की उन निम्न मध्यवर्गीय असंख्य माताओं का प्रतिनिधि चरित्र बनकर हमारे सामने उपस्थित होती हैं जिन्होंने अपने बच्चों की सफलता में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मां की ममता और करुणा आवश्यकता पड़ने पर कठोरता में भी बदल जाती है।  पिता के कम उम्र में गुजर जाने के बाद उनकी माँ ने जिस साहस और दृढ़ता के साथ बाद की परिस्थितियों का सामना करते हुए अपने बच्चों को बड़ा किया उसकी मिसाल दी जा सकती है। नर्स की नौकरी करते हुए भी उनके संघर्षों के कई चित्र इस किताब में उकेरे गये हैं। इस संघर्ष के कई आयाम हैं। अस्पताल परिसर में रहते हुए पूरे परिवार को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, मां सदैव धैर्य और साहस के बल पर उन विपरीत परिस्थितियों से पूरे परिवार को बाहर निकालती हैं। लेखक द्वारा वर्णित अस्पताल की कई घटनाएं पाठकों को रोमांच से भर देती है। इन परिस्थितियों के बीच बड़े होतु चीकू के व्यक्तित्व पर भी मां का गहरा प्रभाव है। चीकू की शरारतों और खुराफातों पर मां द्वारा पिटाई हो या सौतेले पिता के प्रति माँ का बढ़ता प्रेम, चीकू के मन में माँ के प्रति प्रेम और श्रद्धा में कभी कोई कमी नहीं आई। 

      

चीकू के व्यक्तित्व के गठन में बड़ी बहन की भी बहुत बड़ी भूमिका रही है। बहन के साथ अपने आत्मीय संबंध को संजीदगी के साथ लेखक इस किताब में याद करता है। बहन के जीवन के कई-कई आयामों से वे पाठकों को परिचित कराते हैं। दरअसल चीकू को गढ़ने में बहन की बड़ी भूमिका रही है। वह इस जीवन कथा में कहीं अभिभावक की तरह तो कहीं दोस्त की तरह दिखाई पड़ती हैं। चीकू के संघर्ष के समानांतर बहन का भी अपना जीवन संघर्ष साथ चलता है। उनके व्यक्तित्व की विशिष्टताओं एवं खूबियों का वर्णन इस संस्मरण में लेखक ने बखूबी किया है। मेधावी होने के बावजूद बहन के आगे न पढ़ पाने का मलाल लेखक को हमेशा रहा है। इस संस्मरण के कुछ हिस्सों को अगर हम जोड़ दें तो यह उनकी दिदिया की स्वतंत्र कथा बन जाएगी। 

   

भाई के साथ के भी ढेर सारे खट्टे मीठे पल इस किताब में दर्ज है। हालांकि भाई के साथ उन्हें बहुत ज्यादा समय रहने को नहीं मिला। सैनिक स्कूल में दाखिले के कारण भाई हॉस्टल में ही रहता था। यतीश कुमार इस किताब में एक जगह भाई के बारे में लिखते हैं - "मेरी ज़िन्दगी की सर्किट में माँ चरण स्त्रोत (पॉज़िटिव) तार की तरह रहीं तो दीदी पृथ्वी यानी अर्थिंग वायर की तरह पर आज जिस शख़्स के बारे में लिखने जा रहा हूँ वह एक न्यूट्रल (तटस्थ) तार की तरह था। सामान्यतः हम अक्सर पॉज़िटिव और नेगेटिव तारों पर ज्यादा ध्यान देते हैं जबकि न्यूट्रल तार भी पूरी वायरिंग में अपना अहम रोल अदा कर रहा होता है और सारी अवांछित-असन्तुलित तरंगों को सहेजते-सहते हुए स्त्रोत को वापस सौंप देता है।" स्मृतियों की एक लंबी श्रृंखला इस संस्मरण में भाई को ले कर है, जिससे पता चलता है कि चीकू के जीवन में भाई की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सौतेले पिता के साथ उनका रिश्ता हालांकि सुखद न रहने के बावजूद चीकू के मन में उनके लिए एक विशेष जगह थी। रिश्ते का एक अदृश्य सूत्र था जो दोनों को साथ जोड़े हुए था। इस संस्मरण में सौतेले पिता के जीवन संघर्ष के भी कई चित्र हम देख सकते हैं, जिसमें चीकू और मां भी हिस्सेदार हैं। पत्नी स्मिता का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव रहा है। हालांकि उनके साथ की कुछ घटनाएं ही यहाँ दर्ज हैं। विशेषकर विवाह के शुरुआती कुछ वर्षों के संघर्षमय जीवन की कुछ घटनाएं इस किताब का हिस्सा है। इसका कारण भी है। चूंकि यह किताब मूलतः बच्चे से किशोर होते चीकू की कथा है। इस किताब की घटनाओं को उनके जीवन का पूर्वार्ध मानें तो उत्तरार्ध का हिस्सा अभी शब्दों में दर्ज होना बाकी है। वहाँ वे हिस्से हमें देखने को मिले जो अब तक पाठकों से अछूता रहा है। 

     

'बोरसी भर आंच' को पढ़ते हुए उसमें मौजूद कथा तत्व और प्रवाह पाठकों को अपने आगोश में लेने को तैयार दिखता है। इसकी भाषा और शैली आपको कभी-कभी आश्चर्य में डाल देती है। कई जगह कथा के आगोश में पाठक धीरे-धीरे भींगता चला जाता है। संस्मरण के पात्रों के दुख के साथ वह खुद को एकाकार पाता है। किसी लेखक की पहली गद्य की किताब और उसमें बांध लेने की ऐसी क्षमता कम ही रचनाकार में हम देख पाते हैं। वह भी एक ऐसा लेखक जो साहित्य की दुनिया में तब प्रवेश करता है जिस उम्र तक कई लेखक स्थापित हो गए होते हैं। यही कारण है कि प्रकाशन के बाद से यह किताब लगातार चर्चा में बनी हुई है। एक और खूबी जो इस संस्मरण की किताब के साथ जुड़ी हुई है वह है प्रत्येक संस्मरण के साथ विनय अंबर की एक सुंदर कलाकृति का होना। हर कलाकृति अपने आप में एक कहानी कहती हुई नज़र आती है। संस्मरण के पात्रों और घटनाओं को उन्होंने अपनी कला से जीवंत कर दिया है। 

        

चीकू के जीवन की यह संघर्ष कथा देश के लाखों बच्चों एवं युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बने और 'बोरसी भर आंच' की आंच दूर-दूर तक अपनी उष्मा फैलाती रहे यही कामना है। इसी में इस पुस्तक की सार्थकता भी है। हर बच्चे, युवा और व्यस्क को यह किताब एक बार जरूर पढ़नी चाहिए। 



('पाठ' के पश्चिम बंग विशेषांक से साभार।)



पुस्तक - बोरसी भर आंच (संस्मरण)

लेखक- यतीश कुमार 

प्रकाशक- राधाकृष्ण पेपरबैक्स 

प्रकाशन वर्ष - 2024



आनन्द गुप्ता 




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आनन्द गुप्ता 

मोबाइल : 9339487500

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