नित्यानंद गायेन की कविताएं

 

नित्यानंद गायेन



समाज में किसी भी व्यक्ति की खुद की एक पहचान होती है। अपनी पहचान को बनाए रखने की वह आजीवन कोशिश करता है और समाज इस वैयक्तिक पहचान को अपनी स्वीकृति देता है। लेकिन आज के समय में यह पहचान दस्तावेजी हो गई है। यही नहीं कुछ ऐसे भी वाकयात सामने आए जिसमें जीवित व्यक्ति को ही अभिलेखों में मृतक दिखा दिया गया और ऐसे कई व्यक्तियों को खुद को जिन्दा बताने के लिए अदालत जाना पड़ा। मतदान के समय मतदाता सूची से अपने विरोधियों का नाम कटवा देना अब आम बात है। कवि नित्यानंद गायेन लिखते हैं : "यह सत्ता कहती/ साबित करो/ तुम ही कबीर हो!/ लेकिन सत्ता केवल राजनीति तक सीमित नहीं है अब/ हर व्यक्ति ख़ुद में सत्ता है/ और देखते–देखते खुदा बन गए हैं/ "खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी बाकी धार,/ जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।”/ सत्ता प्रेम की भाषा नहीं समझती/ खुसरो से बोलती सत्ता/  बताओ पहले धर्म/  लिखो तख्ती पर नाम!/ हंस देते खुसरो/  और ईसा की बात को दोहराते शायद –/ इन्हें माफ़ कर देना...."। नित्यानंद गायेन ने नियति शृंखला के अन्तर्गत दस कविताएं लिखी हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं नित्यानंद गायेन की दस कविताएं।

 


नित्यानंद गायेन की कविताएं



नियति 


1


बीती रात की तरह

यूँ ही छूट जायेगा 

सब हासिल इक दिन 

गर्व,

अभिमान

अहंकार 

जानते हुए भी

हम ज़िद पर अड़े हैं!

यात्रा के बाद 

बीते वक्त में क़ैद होंगी

यादें 

पथिकविहीन पथ 

तनहाई में याद करेगा सब!



2


सरकार पहचान के लिए दस्तावेज मांगती है

विवेक का मोल नहीं 

ज्ञान के लिए अंक और डिग्री सबूत है

मनुष्यता की पहचान 

नहीं होती अब

धर्म – मज़हब के बाज़ार में 

भावनाएं दम तोड़ रही हैं

ऐसे में 

मैं कागज़ के उन तमाम टुकड़ों को जला देना 

बेहतर समझता हूं 

जो अब पहचान के प्रमाण बना दिए गए हैं 

कबीर होते आज तो 

उनसे भी मांगती कागज़ 

यह सत्ता 

कहती–

साबित करो

तुम ही कबीर हो!

लेकिन सत्ता केवल राजनीति तक सीमित नहीं है अब

हर व्यक्ति ख़ुद में सत्ता है

और देखते–देखते खुदा बन गए हैं

"खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी बाकी धार, 

जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।”

सत्ता प्रेम की भाषा नहीं समझती

खुसरो से बोलती सत्ता 

बताओ पहले धर्म 

लिखो तख्ती पर नाम!

हंस देते खुसरो 

और ईसा की बात को दोहराते शायद –

इन्हें माफ़ कर देना....

पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है. मिर्ज़ा ... 

कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या?

जाने दीजिए चचा ग़ालिब 

यह बाज़ार का युग है

यहां सिर्फ बेचता और बिकता है आदमी

गर आस्तिक होता तो कहता मैं भी–

धर्म वालों को धर्म दे मौला 

और मुझमें मोहब्बत भर दे मौला।






3


कोई परिंदा जब छूट जाता है साथी से 

या कुटुंब से अपने बिछड़ जाता है

पूरे आकाश का खालीपन भर जाता होगा 

उसके सीने में 

हम कब समझते हैं परिंदों की उदासी 

उनकी एकाकी के दर्द को!

वह उड़ता है 

लेकिन उसकी आंखों में हम झांकते नहीं

छोड़ गये साथी बनाते होंगे नए घरौंदे कहीं 

बसाते हैं अपनी दुनिया 

क्या पीछे छूटे 

साथी की याद आती होगी उन्हें 

उनका आकाश नीला रहता है क्या हमेशा?

जब तूफान के मेघ छाने लगते होंगे आकाश पर 

क्या तनहा परिंदा घबराता होगा 

या मन ही मन मांगता होगा 

तूफान में विलीन होने का वरदान 

आकाश से!

जानवर तंत्र 

पढ़ा है आपने!

मनुष्यों की तरह स्वार्थी और अवसरवादी नहीं होते हैं वे 

झुंड से बिछड़े साथी के लिए 

उनकी वेदना को 

कोई नहीं पढ़ पाता 

उनकी आंखों में 

आंखों की भाषा सबको नहीं आती।

यह तो अच्छा हुआ कि 

परिंदों ने किसी मज़हब को आधार नहीं बनाया 

अपनी पहचान का।



4


और अंत में डूबना ही 

नियति है

शांत पानी में भी डूब सकता है 

बड़े से बड़ा जहाज

किसी प्रलय 

या तूफान की जरूरत नहीं 

जल में विलीन होने से ही शायद 

याद करें माझी उसे 

कभी–कभी....

करें शायद उसके गुणों का बखान!






5


मैं नींद चाहता था 

और 

बेचैनी मिली

सहर की उम्मीद में

बढ़ती गई 

रात की उम्र!



6


पुराने अखबार की तरह 

किसी एक अंधेरे कोने में 

जमा कर दिया जाऊंगा 

नमी और घुटन से सड़ने लगूंगा 

आदमी की औकात 

पुराने कागज़ से अधिक नहीं होती

यादों में भी उसकी जगह नहीं होती।



7


युद्ध काल में 

मैंने कुछ नहीं किया 

ऐसा लग सकता है 

मगर 

मैंने 

तुमसे प्रेम किया 

बेतहाशा किया 

युद्ध विराम के बाद भी 

जब तुम नए आशियाने की

तलाश में निकलोगी 

मैं प्रेम करूंगा तुमसे।






8


जब कविताएं भी 

बेअसर होने लगें

संवेदनाओं की अभिव्यक्ति में

तो यह समझ लेना चाहिए 

पूंजीवाद ने अपना काम पूरा कर दिया है 

स्वार्थ, अवसरवादिता ने मौका पा लिया है 

बाज़ार में आंसुओं की कीमत नहीं लगी कभी 

आदमी बिकता रहा दास बन कर सदियों से 

अब भी सिलसिला जारी हैं

शहरों के लेबर चौकों पर

लेकिन कवि....

उसने सादे मन से कहा था

वो.... तुम मुझे अपना लो 

जैसे कहा था विद्रोही ने –

ऐ, पूरब के लोगों मुझे बचाओ

मैं तुम्हारा कवि हूं..

पर एक दिन मर गया कवि 

कइयों ने सलाम किया

भाषण दिए तारीफ़ में

लेकिन मैं सोचता रहा कि 

कवि चीखता रहा –मुझे बचाओ मेरे लोगों

तब सब ख़ामोश रहें

कोई नहीं आया 

एक दिन विदा हो गए हमसे 

तारीफ़ में उतर आए कथित क्रांतिकारी 

मैं विद्रोही की मौत चाहता हूं 

जब मरूं 

लड़ते हुए मरूं 

ताकि डरपोक, कायर, बेईमान आदि 

तारीफें न हों मेरे हिस्से में 

मैं एक प्रेमी की तरह मरना चाहता हूं



9


गंभीर है सब 

आकाश पर बादल गंभीर हैं 

अंधकार गंभीर चारों ओर 

रंभाती गाय गंभीर है 

गंभीर है शोर 

अदालत में नाचे मोर 

चीत्कार 

हाहाकार 

नहीं गंभीर कोई ललकार 

जारी है अत्याचार

जैसे सब हैं लाचार

यहाँ कोई नहीं गंभीर!

मर चुकी ज़मीर

बेलगाम सत्ता 

कर रही है हत्या

फूहड़ मीडिया 

बेहाल जनता 

तांडव करता महाकाल 

शीघ्र आएगा धरती पर अकाल 

छिप गये कहां सब वीर 

युद्ध के लिए 

कौन है अधीर!

शांति के लिए नहीं कोई गंभीर 

नज़रुल पूछ रहे हैं बोलो वीर !



10


बादल कुछ छंट गये हैं 

पर अंधकार टला नहीं है अब तक 

चांद का चेहरा तो दिखा 

लेकिन रात की  ख़ामोशी अभी टूटी नहीं है 


दर्द अब भी बाकी है सीने में 

मेरे-तुम्हारे 

सुकून की  तलाश अब भी  जारी है 


उदासी ने स्थाई पता बना लिया है 

हमारे मन में 

तुमने बारिश का मौका पा लिया  है 

रोने के लिए 

लेकिन  

बारिश में भी कहां छिप सकता है आंसू 

इंतज़ार अब भी है 

तुम्हारे आने का 


यह आपदाओं के मचलने का वक्त है 

सत्ता  की तानाशाही का वक्त 

लेकिन 

तुम्हारे लौटने की उम्मीद अब भी 

बाकी है मुझमें 


चक्रवात को जाना ही होगा एक दिन 

तब हेमंत ऋतु के बाद 

शीत में जब 

हम रजाइयों को धूप में सेंकेंगे 

भावनाओं की ऊष्मा में 

याद आयेंगे बीते दिन 

और भावुक हो जायेगा तुम्हारा मन भी 

साथ बिताये हुए पलों की तस्वीरों के साथ 

तब पलकों का भारीपन नहीं सहा जायेगा 

उस वक्त 

न चाहते हुए भी 

मेरा चेहरा याद आएगा  तुम्हें 

और कानों में गूंजेगी मेरी आवाज 

 

लौटना सबसे सुखद अनुभव है 

अहसास होगा तुम्हें  उस वक्त !!



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)




सम्पर्क


मोबाइल : 9599696312

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण