सुप्रिया पाठक का आलेख 'प्रेमचंद की स्त्रियाँ और नवजागरण काल'
इस बात में कोई दो राय नहीं कि ब्रिटिश औपनिवेशिकता ने भारत का भरपूर आर्थिक शोषण किया लेकिन यह भी सच है कि इसने भारतीय परिवेश को बदलने का वह महत्त्वपूर्ण कार्य किया जिसने उसे सही मायनों में आधुनिकता की तरफ उन्मुख किया। इस क्रम में साहित्य में भी कई महत्त्वपूर्ण बदलाव आए। प्रेमचंद के लेखन में नवजागरणकालीन प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है जिसके अन्तर्गत वे स्त्रियों को पुरुषों के बराबरी के स्तर पर रखते हैं। सुप्रिया पाठक अपने आलेख में लिखती हैं 'प्रेमचंद अपनी रचनाओं में महिला चरित्रों को कर्म, शक्ति और साहस के क्षेत्र में पुरुष के समकक्ष प्रस्तुत करते हैं पर महिला की नैसर्गिक अस्मिता, गरिमा और कोमलता को वो क्षीण नहीं होने देते। प्रेमचंद का साहित्य उन तमाम आधुनिक महिला सशक्तिकरण के चिंतको के लिये उदाहरण प्रस्तुत करता है। प्रेमचंद की रचनाओं में समकालीन भारत की गतिशील सामाजिक-राजनीतिक स्थिति के संदर्भ में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर अपनी समझ प्रस्तुत करने के लिए उनके पात्रों की मानसिक प्रक्रियाओं में मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि निहित है। प्रेमचंद समाज में उदारवादी और रूढ़िवादी विचारों की विरोधी धाराओं के भीतर महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण प्रश्नों को रेखांकित करते हैं।' 31 जुलाई को प्रेमचंद की जयंती मनाई जाती है। उनकी स्मृति को नमन करते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं सुप्रिया पाठक का आलेख 'प्रेमचंद की स्त्रियाँ और नवजागरण काल'।
'प्रेमचंद की स्त्रियाँ और नवजागरण काल'
सुप्रिया पाठक
19वीं सदी में बदली हुई औपनिवेशिक आर्थिक संरचना के कारण भारत के सामाजिक संबंधों में व्यापक परिवर्तन हुआ। नए-नए सामाजिक वर्गों की उत्पत्ति हुई। पश्चिम के भारतविद् एवं भारत में पश्चिम से प्रभावित भारतीय विद्वानों ने जाति विभेद, छुआछूत, धार्मिक रूढ़िवादिता, दहेज और सती प्रथा, विधवाओं की स्थिति, बेमेल विवाह, स्त्री शिक्षा जैसे विषयों पर गहन लेखन कार्य किया। भारतविदों के लिए ये सामाजिक कुप्रथाएँ भारत की विकृत छवि प्रस्तुत करने में केंद्र बिंदु बनीं। भारत की सामाजिक विषमताओं एवं स्त्री-पुरुष संबंधों की आलोचनापरक व्याख्या के पीछे दरअसल उनका उद्देश्य भारतीय मानस को मनोवैज्ञानिक तौर पर पराजित कर उन पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करना था। उनकी व्याख्या में भारत एक ऐसा भूभाग था जहाँ घिनौने सामाजिक रीति-रिवाज थे।
भारत की सामाजिक बुराईयां घृणात्मक व्यंग्य के साथ प्रस्तुत की जाती थीं जो भारतीयों में गहरी शर्म और निकृष्टता की भावना पैदा करती थीं। उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय प्रेस के प्रारंभ होने के बाद स्त्री प्रश्नों को सामाजिक बहस के रूप में प्रमुखता मिलने लगी। पश्चिम के वर्चस्व के फलस्वरूप बंगाल में जो संभ्रांत वर्ग उभर रहा था, उसे समाज में सुधार की आवश्यकता महसूस हो रही थी। उन्होंने जाति प्रथा, बहु-विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह, जबरन वैधव्य को समाप्त करने एवं स्त्रियों की स्थिति में सुधार करने का प्रयास किया। यह ब्रिटिश हुकूमत के समक्ष स्वयं को बेहतर स्थिति में प्रस्तुत करने का भी प्रयास था। उस दौर में उच्च जाति की संभ्रांत हिन्दू स्त्रियों की स्थिति में सुधार हेतु कई वैधानिक प्रयास किए गए। सुधार आंदोलनों में भी भिन्नता थी। एक तबके में पश्चिमी विचारों का अनुकरण कर उसे आत्मसात करने की आतुरता थी, दूसरी तरफ पुनरुत्थानवाद के तत्व ब्रिटिश उपनिवेशवादियों से अलग अपनी सांस्कृतिक पहचान को पुन:स्थापित करने और सुदृढ़ करने में जुटे हुए थे। वैधानिक हस्तक्षेप के माध्यम से सती, विधवा पुनर्विवाह, बेमेल विवाह, सहमति की आयु में सुधारों की मांग के साथ-साथ शिक्षा को भी स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन के एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में देखा गया। उपनिवेशवाद ने जिस तरह से संस्कृति और स्त्रियों के बीच संबंधों को आकार दिया, वह बहुत जटिल था। पारंपरिक पारिवारिक संरचना को बदलने की मध्यमवर्गीय इच्छा केवल पश्चिमी उदार विचारों के संपर्क से नहीं बल्कि परिवारों में नए शिक्षित पुरुषों के अंदर उपजे तनावों के कारण पैदा हुई थी।
आधुनिक शिक्षा और शहरीकरण ने पुरुषों और स्त्रियों के मध्य नई किस्म की विभाजक रेखा तैयार की। शहरों में पढ़ने और काम करने के लिए आने वाले पुरुषों के लिए आम बात यह थी कि वे अपने परिवारों को गांवों में छोड़ देते थे। ऐसी स्थिति में जीवन अनुभवों की भिन्नता पति-पत्नी, मां-बेटे के बीच घनिष्ठ संगति के मार्ग में बड़ी बाधा बन गई। स्त्रियों का एकमात्र वर्ग जो इस तरह के भारतीय पुरुषों के साथ कदमताल मिला सकता था, वह उस दौर की तवायफें थीं जो सामाजिक संबंधों की बेहतरीन कला में प्रशिक्षित कुशल स्त्रियां थीं। शहरीकरण के विकास के साथ, यौन कर्म का व्यवसायीकरण होता चला गया।
भारतीय जनमानस ने प्राच्यवादियों की व्यंग्यपरक आलोचना पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने यह स्थापित किया कि भारतीय समाज में अपनी सभ्यता, संस्कृति तथा परंपरा को बचाए रखते हुए ‘आधुनिक’ मूल्यों को आत्मसात करने की असीम संभावनाएँ मौजूद थीं। भारत में स्त्री प्रश्नों की बहस राष्ट्रवाद की भावना के साथ जुड़ चुकी थी। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान भारत में स्त्रियों से जुड़े हुए प्रश्न एक राजनीतिक प्रश्न के रूप में ठीक उसी प्रकार उभरे जिस प्रकार सांप्रदायिकता और अस्पृश्यता से जुड़े हुए प्रश्नों का उद्भव हुआ। इन प्रश्नों ने स्वतंत्र भारतीय राष्ट्र के स्वप्न को आकार देने का कार्य किया। इस परिप्रेक्ष्य में उन्नीसवीं शताब्दी भारत के इतिहास में कई महत्वपूर्ण घटनाओं एवं वैचारिक मत-मतांतरों की सदी रही है। इस काल को नवजागरण काल के नाम से भी जाना जाता है। इस दौर में स्त्री संबंधी समाज सुधार आंदोलनों की लंबी प्रक्रिया चली, इसलिए इसे ‘स्त्रियों की शताब्दी’ के नाम से भी संबोधित किया जाता है।
यही वह समय था जब भारत ही नहीं, अपितु पूरे विश्व में स्त्रियों के अधिकारों को ले कर जागरुकता पैदा हो रही थी। यूरोप में फ्रांसीसी क्रांति के उपरांत इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी तथा रूस में ‘स्त्री प्रश्न’ केंद्रीय विषय के रूप में उभर रहे थे। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक भारत के बंगाल तथा महाराष्ट्र में स्त्रियों की स्थिति पर व्यापक विचार-विमर्श प्रारंभ हो चुका था। इस संबंध में पार्थ चटर्जी लिखते हैं : यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि भारतीय सामाजिक सुधार के एजेंडे में तथाकथित महिलाओं का प्रश्न... सामाजिक संबंधों के एक विशिष्ट समूह के भीतर महिलाओं की विशिष्ट स्थिति के बारे में इतना नहीं था, जितना कि यह एक औपनिवेशिक राज्य और कथित ‘परंपरा द्वारा विजित लोगों’ के बीच एक राजनीतिक मुठभेड़ थी...। भारतीय राष्ट्रवाद ने औपनिवेशिक शासन के विरोध में एक राजनीतिक स्थिति का सीमांकन करते हुए, महिलाओं के प्रश्न को एक ऐसी समस्या के रूप में लिया जो पहले से ही उसके लिए निर्धारित थी: अर्थात्, भारतीय परंपरा की एक समस्या के रूप में।
यहाँ सबसे अहम प्रश्न यह था कि यह सुधार सामाजिक संरचना को मजबूत करेगा या उसकी जड़ें कमजोर करेगा। सुधार के पैरोकारों ने यह तर्क दिया कि भारतीय सामाजिक संगठन की मुख्य इकाई परिवार को इस प्रकार के सुधारात्मक उपाय और मजबूत करेंगे। शिक्षा स्त्रियों को उनकी पारंपरिक पारिवारिक भूमिकाओं से दूर नहीं करेगी बल्कि पत्नियों और माताओं की दक्षता में सुधार करेगी और समाज पर पारंपरिक मूल्यों की पकड़ को मजबूत करेगी क्योंकि स्त्रियां इन मूल्यों की बेहतर वाहक हो सकती हैं। इस प्रकार आदर्श भारतीय स्त्री के पारंपरिक और आधुनिक गुणों का एक अजीब मिश्रण सामने आया जिसके फलस्वरुप आर्य स्त्री की पुनर्गठित छवि ने परिवार की पवित्रता, विश्वास, शालीनता और सम्मान में वृद्धि की। राष्ट्रवादी और सुधारवादी लेखन भी सामाजिक सुधारों और राष्ट्रीय आंदोलनों का विश्लेषण अपेक्षाकृत सरल मामले के रूप में करते हैं। सकारात्मक उद्देश्य का अनुसरण करते हुए, वे भारतीय स्त्रियों की स्थिति में सामाजिक सुधारों से ले कर शिक्षा और राजनीतिक भागीदारी तक कदम-दर-कदम विकासवादी प्रगति मानते थे। वे तर्क देते थे कि सुधारों ने स्त्रियों को उस स्थिति से मुक्ति दिलाई जिसमें वे पहले थीं। साथ ही, दावा करते हैं कि सुधारों की इच्छा स्वदेशी प्रयासों का परिणाम थी, न कि केवल ब्रिटिश आलोचनाओं की।
इस गैर-आलोचनात्मक प्रशंसा में, सामाजिक सुधार वास्तव में मुक्तिदायी शक्ति के रूप में उभरे, जिसके कारण सती प्रथा का उन्मूलन, स्त्री शिक्षा की शुरुआत, विधवा पुनर्विवाह, सहमति की आयु में परिवर्तन, पर्दा प्रथा का उन्मूलन और साहित्य एवं कला में स्त्रियों के 'अश्लील' चित्रण का अंत हुआ। इन लेखकों के एक वर्ग के लिए, पहले के काल, विशेष रूप से मध्यकालीन समय और अठारहवीं शताब्दी को अंधकार काल के रूप में चित्रित करना भी अनिवार्य हो गया। इसके साथ ही, प्राचीन अतीत को एक ‘स्वर्ण युग’ के रूप में दर्शाया गया, जहाँ स्त्रियों को महत्व दिया जाता था और उन्हें उच्च पद प्राप्त थे।
इस प्रकार विदेशी शासकों ने स्त्रियों की भूमिकाओं और क्षमताओं के बारे में नए विचार पेश किए और इन विचारों को प्रबुद्ध भारतीयों ने अपनाया। ब्रिटिश भारत में स्त्रियों के इतिहास को एक लंबी अवधि के बाद ‘आधुनिकता’ की ओर एक धीमी लेकिन प्रगतिशील यात्रा के रूप में पेश किया गया। ब्रिटिश मिशनरियों और उन भारतीय सुधारकों ने, जिन्होंने अपने समाज की आलोचना करने के अवसर का स्वागत किया, एक 'स्वर्ण युग' की परिकल्पना की। यूरोपीय इतिहास और उनके द्वारा उद्धृत भारतीय ग्रंथ दोनों ही एक अद्वितीय स्त्री की रचना कर रहे थे। भारतीय ग्रंथों ने स्त्रियों को समर्पित और आत्म-त्यागी रूप में प्रस्तुत किया। धर्म, कानून, राजनीति और शिक्षा पर आधारित ग्रंथों में जाति, वर्ग, आयु और धार्मिक संप्रदाय के आधार पर पुरुषों के लिए अलग-अलग घोषणाएँ की गईं। इसके विपरीत, स्त्रियों को अपनी जैविक विशेषताओं को निभाना था। भारतीय ग्रंथों और ऐतिहासिक आख्यानों ने जब कभी किसी विशेष स्त्री पात्र को आदर्श रूप में प्रस्तुत करने के लिए चुना तो आमतौर पर ऐसा इसलिए था क्योंकि उसकी उपलब्धियाँ पुरुष मानकों के हिसाब से महत्वपूर्ण थीं।
इस प्रकार के अभियानों ने स्त्री एवं पुरुष, निजी एवं सार्वजनिक के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा निर्मित की। इसके कारण इस दौर के आंदोलनों में भी स्त्री-पुरुष की लैंगीकृत भूमिकाओं का निर्माण हुआ। स्त्रियों की स्थिति में सुधार को आंतरिक मामलों के रूप में देखा गया जिसमें अंग्रेजी सरकार का दखल मंजूर नहीं था। एक नई किस्म की ‘आर्य’ स्त्री तत्कालीन सुधारवादियों, राष्ट्रवादियों एवं पुनरुत्थानवादियों द्वारा गढ़ी एवं परिभाषित की जा रही थी जो आंग्लवाद और प्राच्यवाद का मिश्रण थी। राममोहन राय की ऐतिहासिक ख्याति भी काफी हद तक सती प्रथा निषेध के उनके प्रयासों के कारण हुई। ईश्वरचंद विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह को वैध बनाने के लिए अनवरत प्रयास किए। 1870 के दशक में ब्रह्म समाज विवाह कानूनों के प्रश्न और 'सहमति की आयु' के विवादास्पद बहसों के कारण दो भागों में विभाजित हो गया। ये सभी मुद्दे सीधे-सीधे राष्ट्रवाद की राजनीति से संबंधित थे।
19वीं सदी में भारत में समाज सुधारकों द्वारा वस्तुतः परंपरा की आलोचना, उसका परिष्कार और कई मायनों में उसे महत्व देने का भी प्रयास किया जा रहा था। भारत अलग-अलग धार्मिक, भाषाई और जातीय समुदायों में बंटा हुआ समाज था, इसलिए सभी समुदायों के बीच इस बात को ले कर विवाद था कि किसकी परंपरा और संस्कृति को राष्ट्रीय स्तर पर ‘आदर्श भारतीय स्त्री’ की प्रतिनिधि छवि के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। इस प्रक्रिया में पश्चिम के आधुनिक आदर्श परिवार की संरचना ने भी भारतीय पारंपरिक स्त्री के सांस्कृतिक पुनर्निर्माण में अपना प्रभाव डाला। एक तर्क यह भी है कि उस दौर में विविध धार्मिक परंपराओं से चिह्नित समाज की औपनिवेशिक रूप से मध्यस्थता वाली आधुनिकता में लैंगिक प्रश्न दोहरे रूप में प्रकट हुए। स्त्रियों का प्रश्न कई विवादित व्याख्याओं का स्थल बन गया। स्त्रियों की स्थिति परंपरा और आधुनिकता के बीच विवादित एवं असमंजसपूर्ण हो गई। यह प्रक्रिया इसलिए भी जटिल हो गई क्योंकि भारतीय परंपरा की अवधारणा ही विवादित थी। उस दौर के एक सुधारक का उद्धरण परंपरा और आधुनिकता के विरोधाभास के साथ-साथ निजी और सार्वजनिक जीवन में उत्पन्न हुए विभाजन को दर्शाता है जो आधुनिक पश्चिमी दर्शन की उपज थी।
“हिंदू स्त्रियों के लिए शिक्षा की ऐसी प्रणाली तैयार करना है जो उन्हें एक सुखद साथी, एक अच्छी माँ, एक बुद्धिमान और प्यार करने वाली पत्नी और एक उत्कृष्ट गृहिणी बनाए। हम चाहते हैं कि उसके पास वे मानसिक क्षमताएँ हों जो उसके पति के उज्ज्वल और अंधेरे क्षणों में सांत्वना एवं संबल देने में सक्षम बनाती हैं, माँ अपने बच्चे की शुरुआती शिक्षा का कार्यभार संभालती हैं या कम से कम उसकी देखरेख करती हैं, और घर की स्त्री उन मधुर स्मृतियों को सजाती है, जिसे अंग्रेजी के ‘होम’ (home) शब्द में आदर्श रूप में प्रस्तुत किया गया है।”
तत्कालीन मध्यम वर्ग के भारतीय पुरुषों द्वारा अपने वैवाहिक जीवन और घर को नया रूप देने की इच्छा को शुरुआती समाज सुधार के प्रयासों के लिए प्रेरक कारण के रूप में देखा गया। इसके साथ ही, मातृत्व की अवधारणा को भी इस राष्ट्रीय आंदोलन में विस्तार दिया गया। सभ्यता एवं संस्कृति की पोषणकर्ता के रूप में अपनी भूमिकाएं निभाने वाली भारतीय माताओं को ‘सभ्यता की रक्षक’ का दायित्व दिया गया। राष्ट्रीय नेताओं ने मातृभूमि के महत्व को समझा और उसे हिमालय से ले कर हिंद महासागर तक विस्तारित किया। यह मातृभूमि ‘भारतमाता’ का पर्याय बन गई। इस विचार ने माँ के रूप में राष्ट्र के प्रति स्त्री के दायित्वों तथा कर्तव्यों को रेखांकित किया। भारत माता की संकल्पना में भारत माँ के सभी बच्चे शामिल थे। यह माँ खतरे में थी और उसे अपने सपूतों की आवश्यकता थी। भारत माता के इस विचार को दोहरे स्तर पर परोसा गया। पहला, माँ के रूप में भारतीय स्त्रियों की राष्ट्र के प्रति भूमिका निर्धारित करके और दूसरा हिंदू ‘माँ’ की एकमात्र छवि निर्मित करके राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक को इससे जोड़ने की एक सूत्रीय मुहिम चलाई गई।
हिन्दी साहित्य में नवजागरणकालीन स्त्री प्रश्नों को उस दौर के साहित्यकार किस रूप में उठा रहे थे यह जानना महत्वपूर्ण है। हालाँकि, औपनिवेशिक काल में भारत में महिलाओं की मुक्ति का मुद्दा उदारवादी और रूढ़िवादी दोनों ही विचारधाराओं से जुड़ा था और यह न केवल साम्राज्यवाद के प्रति चुनौती और प्रतिरोध का परिणाम था, बल्कि पारंपरिक पदानुक्रमिक संरचना और लोकाचार में सुधार और मजबूती के आंदोलन का भी परिणाम था। प्रेमचंद की कहानियाँ इस जटिलता और विरोधाभास को दर्शाती हैं और साथ ही महिलाओं के बारे में परस्पर विरोधी भावनाओं, मूल्यों और विचारों के अंतर्विरोध को भी दर्शाती हैं। प्रेमचंद द्वारा महिलाओं के चित्रण का आलोचनात्मक विश्लेषण कम ही मिलता है। प्रेमचंद ने स्त्रीवादी साहित्य पढ़ा हो या नहीं, अपने सहज बोध और स्वतंत्रता संग्राम में स्त्रियों की भागीदारी के आधार पर कम से कम अपने उपन्यासों में उन्होंने ऐसी स्त्रियों का सृजन किया जो निर्णायक भूमिका में खड़ी हैं। वैसे तो उनके सभी उपन्यासों में स्त्रियों के चित्र बहुत भास्वर हैं लेकिन तीन उपन्यास 'सेवा सदन', 'निर्मला' और 'गबन' तो पूरी तरह स्त्री समस्या पर ही केंद्रित हैं। 'सेवा सदन' उपन्यास को अगर ध्यान से पढ़ें तो शुरुआती सौ डेढ़ सौ पृष्ठ पूरी तरह से परिवार की धारणा पर एक तरह का कथात्मक विमर्श हैं। सुमन एक घरेलू स्त्री और उसके सामने रहने वाली वेश्या भोली। परिवार में सुमन को निरंतर घुटन का अहसास होता रहता है और इस संस्था की सीमाएँ उसके सामने भोली की स्वच्छंदता के साथ जिरह के जरिए खुलती जाती हैं। टॉलस्टाय की तरह ही परिवार प्रेमचंद के चिंतन का बड़ा हिस्सा घेरता है। 'निर्मला' में भी यह संकट ही उपन्यास के तीव्र घटनाक्रम को बाँधे रखता है। अंतत: 'गोदान' में आ कर वे इसका एक उत्तर सहजीवन की धारणा में खोज पाते हैं। उल्लेखनीय है कि परिवार की सुरक्षा स्त्री मुक्ति की राह में एक बड़ी बाधा है। प्रेमचंद के लिए वेश्यावृत्ति स्त्री का नैतिक पतन नहीं बल्कि एक सामाजिक संस्था है। इसे गबन की पात्र जोहरा के प्रसंग से भी समझा जा सकता है। यह बात ही बताती है कि प्रेमचंद सामंती नैतिकता की सीमाओं का अतिक्रमण कर सकते थे। 'गबन' में उनकी मुख्य चिंता जालपा को उस अंतर्बाधा से मुक्त करने की है जो उसे बधिया स्त्री बनाए रखती है। पति के पलायन के साथ उसे इसकी व्यर्थता का अहसास होता है और एक झटके में वह इस अंतर्बाधा से आजाद हो जाती है।
यह आजादी उसे उसकी सामाजिक सार्थकता की ओर ले जाती है। यहीं प्रेमचंद अपने समय की सीमाओं को भी तोड़ देते हैं। अकारण नहीं कि सुमन और जालपा जैसी तर्कप्रवण स्त्रियों के तीखे सवालों के सामने तत्कालीन सामाजिक सुधार आंदोलन के नेता वकील साहबान निरुत्तर हो जाते हैं। उनके ये सभी साहसी पात्र अपने पाठकों के मन में दबी आकांक्षाओं को जैसे मूर्तिमान कर देते हैं। प्रेमचंद अपनी रचनाओं में महिला चरित्रों को कर्म, शक्ति और साहस के क्षेत्र में पुरुष के समकक्ष प्रस्तुत करते हैं पर महिला की नैसर्गिक अस्मिता, गरिमा और कोमलता को वो क्षीण नहीं होने देते। प्रेमचंद का साहित्य उन तमाम आधुनिक महिला सशक्तिकरण के चिंतको के लिये उदाहरण प्रस्तुत करता है। प्रेमचंद की रचनाओं में समकालीन भारत की गतिशील सामाजिक-राजनीतिक स्थिति के संदर्भ में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर अपनी समझ प्रस्तुत करने के लिए उनके पात्रों की मानसिक प्रक्रियाओं में मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि निहित है। प्रेमचंद समाज में उदारवादी और रूढ़िवादी विचारों की विरोधी धाराओं के भीतर महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण प्रश्नों को रेखांकित करते हैं।
उनकी कहामी 'स्वर्ग की देवी' में लीला धैर्य, त्याग और क्षमा की प्रतिमूर्ति हैं। उनका पति अशिक्षित है, ससुर धोखेबाज है और सास दबंग है। सबसे बढ़ कर, लीला के बच्चे हैजा से मर जाते हैं। ऐसे माहौल में, वह बिना किसी शिकायत के अपने भाग्य को स्वीकार कर लेती है और वास्तव में अपने निःसंकोच प्रेम से परिवार की संस्था को बचाए रखती है, जिससे अंततः उसके शराबी पति का दिल जीत लिया जाता है। उसका पति सीताराम अंत में दावा करता है: 'भाई घर बाग नहीं हो सकता, पर स्वर्ग हो सकता है। लीला वास्तव में स्वर्ग की देवी है।
उनकी रचनाओं में स्त्रियाँ आदर्श, प्रत्यादर्श, अबला और प्रतिरोधी मुख्यतः चार रूपों में प्रस्तुत होती हैं। 'गोदान' में, प्रेमचंद द्वारा भारतीय महिलाओं के गृहिणी की भूमिका के विघटन से उभरने का चित्रण एक और कदम आगे ले जाता है।
'जहाँ' 'कर्मभूमि' में प्रेमचंद पति की अनुपस्थिति के माध्यम से प्रतिरोध का एक क्षेत्र विकसित करते हैं, वहीं 'गोदान' में वे उस प्रतिरोध को विवाह के अभाव के माध्यम से व्यक्त करते हैं। यह मालती के मेहता के साथ वैवाहिक संबंध बनाने की इच्छुक एक सामाजिक तितली से एक ऐसी महिला में रूपांतरण के रूप में आकार लेता है जो सचेत रूप से वैवाहिक बंधन से दूर रहने का निर्णय लेती है। मालती का यह रूपांतरण राष्ट्रवादियों द्वारा महिलाओं की सामाजिक अधीनता को उनकी पोषण प्रवृत्ति और नैतिकता का सहारा ले कर मजबूत करने के तरीके में गहराई से प्रवेश करता है। इस प्रयास में, 'गोदान' भारतीय महिलाओं के पश्चिमीकरण, विशेष रूप से पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव के कारण, के खतरे के प्रति राष्ट्रवादियों की आपत्ति का आकलन करने के लिए एक वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रदान करता है।
प्रेमचंद का स्त्री चित्रण औपनिवेशिक भारत में लैंगिक भूमिकाओं और सामाजिक यथार्थों की एक सूक्ष्म और विचारोत्तेजक खोज है। जहाँ एक ओर वे पारंपरिक मूल्यों के महत्व को स्वीकार करते हैं, वहीं दूसरी ओर वे महिलाओं पर थोपी गई सीमाओं को भी चुनौती देते हैं और अधिक स्वतंत्रता एवं समानता की उनकी आकांक्षाओं को स्वर देते हैं। उनकी रचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं, और साहित्य में महिलाओं के प्रतिनिधित्व और लैंगिक न्याय के लिए चल रहे संघर्ष पर चर्चाओं को गति प्रदान करती हैं । प्रेमचंद वैवाहिक संबंधों में महिलाओं की स्थिति पर एक बहस शुरू करके और उनके सम्मान, गरिमा, समानता और स्वतंत्रता के प्रश्नों के लिए एक पृष्ठभूमि प्रदान कर के राष्ट्रवादियों के आख्यान को चुनौती देते हैं।
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सुप्रिया पाठक |
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