दिविक रमेश से महेश पुनेठा की बातचीत

 

दिविक रमेश 


भारत विभिन्न बोलियों, भाषाओं, संस्कृतियों का देश है। गांवों का देश होने के कारण यहां लोक की व्याप्ति हर स्तर पर देखी, सुनी और महसूस की जा सकती है। कथाएं, काव्य, गीत और उक्तियां लोक के साथ कुछ ऐसी घुली मिली हैं कि इन्हें आम तौर पर लोक कथाएं, लोक काव्य, लोक गीत, लोकोक्तियाँ ही कहा जाता है। इस लोक में खेती किसानी से जुड़े हर काम के लिए गीत है। हर तीज, त्यौहार, मौसम और संस्कार के लिए गीत हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश आज की शिक्षा का स्वरूप कुछ इस तरह का है कि बच्चे अपने समाज की लोक कथाओं, लोक काव्य, लोक गीत आदि से लगातार दूर होते जा रहे हैं। अपनी जड़ों से कट कर ये जीवन के बारे में कितना जान समझ पाएंगे, यह एक यक्ष प्रश्न है। कवि महेश पुनेठा ने वरिष्ठ साहित्यकार दिविक रमेश के साथ शैक्षिक दखल के लिए "लोक जीवन और शिक्षा" को ले कर एक लंबी बातचीत की है जो काफी महत्त्वपूर्ण है। यह बातचीत 'शैक्षिक दखल' पत्रिका के जनवरी-जुलाई, 2025 अंक में प्रकाशित हुआ है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं दिविक रमेश से महेश पुनेठा की बातचीत।



साक्षात्कार 

दिविक रमेश से महेश पुनेठा की बातचीत


 

महेश पुनेठा : लोक जीवन और उसके ज्ञान को स्कूली शिक्षा से किस तरह जोड़ा  जा सकता है, इस पर बात करने से पहले हम लोक शब्द को ले कर आपकी राय जानना चाहते हैं, क्योंकि "लोक" को ले कर अलग-अलग धारणाएं साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में प्रचलित हैं। कुछ लोग लोक को गांव से जोड़ते हैं तो कुछ अन्य इसे साधारण जन के पर्याय के रूप में देखते हैं। आखिर आप लोक को किस रूप में देखते हैं?

 

दिविक रमेश : लोक संस्कृत का शब्द है और ‘लोग’ इसी का अपभ्रंश। लोक का अर्थ है समाज  या संसार। लोक के विश्वास, रीति-रिवाज, अंधविश्वास, प्रथा, अनुष्ठान, कला, साहित्य आदि सबका समावेश लोक और लोक-साहित्य में होता है। मानव जन्म, पृथ्वी का निर्माण, देवताओं के व्यवहार, सामाजिक और राजनीतिक गुण-दोष, भूत-प्रेत, प्रकृति आदि सब कुछ लोक साहित्य के विषय होते हैं। यह वाचिक या श्रुति  परम्परा की देन है। इसके रचयिता अज्ञात रहे हैं। लोक-साहित्य से आशय लोकवार्ता,  लोककथा, लोकगीत, लोकनाट्य, लोक नृत्य, लोक संगीत, पहेलियां, ढकोसले (बढ़-चढ़ कर बोलना), मुहावरे, लोकोक्ति आदि तमाम विधाओं में उपलब्ध साहित्य से हैं। यहां तक कि लोक के बाल साहित्य की भी गणना इसमें करनी होगी। मूलत:, लोक का साहित्य आधुनिक सभ्यता से दूर प्रकृति की गोद में पले, प्राय: आदिम रीति-रिवाजों, त्योहारों आदि का निर्वाह करने वाले लोक-समाज की कल्पना और भाव-प्रधान लेकिन संवेदनायुक्त सामूहिक मौखिक रचना मानी गई है जो एक कंठ से दूसरे कंठ तक जाती है। इसमें आनंद भी होता है और शिक्षा भी। नीति-शिक्षा इसका महत्त्वपूर्ण उद्देश्य रहा है। सुख भी होता है और दु:ख भी। इसकी सीमा देशकाल तक सीमित नहीं होती। पुराण, धर्म आदि सब इसके स्रोत हो सकते हैं। स्थानीयता तो होती ही है। भारत विभिन्न लोक संस्कृतियों का देश है। लोक संस्कृति को शिष्ट संस्कृति से अलग कर के भी देखा जाता रहा है, लेकिन हमारे बहुत से श्रेष्ठ और शिष्ट समाज का एक महत्त्वपूर्ण कच्चा स्रोत लोक-साहित्य भी हो सकता है और है। भरत के नाट्यशास्त्र में भी लोक के महत्त्व को रेखांकित किया गया है। अध्याय 36 के श्लोक 83 में उन्होंने कहा है कि उन्होंने बहुत कुछ कह दिया है लेकिन अब भी बहुत कुछ छूट गया है जिसे विद्वतजन लोक से अर्जित करके इसमें सम्मिलित कर लें। लोक साहित्य से हम सक्षम अभिव्यक्ति-क्षमता की समझ बखूबी ले सकते हैं। लोक-भाषा अथवा बोली के कितने ही शब्द आज के समर्थ रचानाकार उपयोग में ला कर अपनी अभिव्यक्ति को प्रामाणिक और सशक्त बनाने में सफल हुए हैं। लोक-शैली से भी बहुत कुछ सीखा गया है। लोकवार्ता अथवा लोककथा की शैली का एक अत्यंत मजबूत पक्ष ‘सुनाने की कला’ होती है। इधर हिन्दी-साहित्य में इसका लाभ उठाया जा रहा है।



महेश पुनेठा : लोक जीवन, लोक ज्ञान और लोक साहित्य को स्कूली शिक्षा में शामिल करना आप कितना जरूरी मानते हैं और क्यों?

 

दिविक रमेश :  बहुत जरूरी समझता हूँ। स्कूली शिक्षा में लोक कथाएँ अवश्य आनी चाहिए। हाँ, यदि उनमें अंधविश्वास, सामंतीय मूल्य या कुछ भी लोकतांत्रिक पद्धति के विरुद्ध है तो उसे संपादित कर दिया जाना चाहिए। मुझे बताते हुए खुशी है कि लोक जीवन से जुड़ी मेरी एक कविता है- 'माँ'। इसका अंग्रेजी अनुवाद स्कूली पाठ्यक्र्म में पढ़ाया जा रहा है। और भी उदाहरण हैं। मेरे यहाँ बड़ों और बालको के साहित्य में लोक जीवन बराबर मिलता है। त्रिलोचन, नागार्जुन आदि कितने ही कवि हैं। बाल साहित्यकार प्रभु दयाल श्रीवास्तव का नाम मैं विशेष रूप से लेना चाहूँगा। और भी बहुत हैं।


भारत के संदर्भ में हम जानते ही हैं कि लोक जीवन की जानकारी, उसकी समझ लेना अत्यंत जरूरी है। उसके अभाव में हम अपने देश की आत्मा को ही नहीं समझ पाएँगे जो असल में भारत के लोक में ही विद्यमान हैं। लोक स्वीकृति का महत्त्व बहुत अधिक है। नारद ने तपस्वी वाल्मीकि से पूछा कि इस समय संसार में गुणवान, वीर्यवान, धर्मज्ञ, उपकार मानने वाला, सत्यवक्ता और दृढ़प्रतिज्ञ कौन है तो उत्तर मिला – 


इक्ष्वाकुवंशप्रभावो रामो नाम जनै: श्रुत:।

नित्यात्मा महावीर्यो द्युतिमान धृतिमान वशी ॥8॥ 


अर्थात इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न हुए एक ऐसे पुरुष हैं, जो लोगों में राम नाम से विख्यात हैं, वे ही मन को वश में रखने वाले, महाबलवान, कांतिमान, धैर्यवान और जितेंद्रिय हैं। यहां राजमहल में रहने वाला न कह कर ‘जनै: श्रुत:’ अथवा लोक में विख्यात अर्थात लोक के द्वारा जाना और स्वीकृत कहा गया है। कहना न होगा कि लोक में जाना जाने तथा लोक के द्वारा स्वीकृति के लिए कुछ गुण होने चाहिए और वही लोक-संस्कृति है। किसी भी समाज का लोक-साहित्य उसकी लोक-संस्कृति का ही वाहक होता है। लोक-साहित्य अपनी लोक-संस्कृति से एक दृष्टि भी लेता है। लोक-संस्कृति का बहुत महत्त्व रहा है। उससे जुड़ा साहित्य भी लोक-समाज में बहुत प्रचलित और प्रतिष्ठित रहा है। लेकिन एक बात की ओर विशेष ध्यान जाना चाहिए कि लोक-साहित्य हो अथवा लोक-संस्कृति का कोई अन्य आयाम, लोक-स्वीकृति की बुनियाद पर स्थिर हो कर ही उसने प्रतिष्ठा पायी है। जनश्रुति या जनस्वीकृति के बिना लोक-साहित्य या लोक-संस्कृति का अस्तित्व संभव नहीं रहा।



महेश पुनेठा : आपने लोककथाओं को स्कूली शिक्षा में लागू करने की बात कही है, क्या आपको नहीं लगता है कि लोक कथाओं में बहुत अधिक कपोल कल्पित, विज्ञान के सिद्धांतों के विरुद्ध और अतार्किक बातें होती हैं, जिन पर आज के वैज्ञानिक युग में विश्वास करना न केवल हास्यास्पद है, बल्कि बच्चों में अवैज्ञानिक सोच को पोषित करना भी है?

 

दिविक रमेश : मैंने आपके इससे पहले के उत्तर में आपकी इस उचित आशंका का समाधान दे दिया था। स्कूली शिक्षा में सम्मिलित करने के लिए संपादन करना होगा, पुनर्लेखन करना होगा।


 

महेश पुनेठा : शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम के वर्चस्व के चलते जहां एक ओर मान्यता प्राप्त भारतीय भाषाओं का साहित्य स्कूलों से बाहर होता जा रहा है, ऐसे में लोक बोली और भाषाओं में मौजूद लोक साहित्य को कैसे स्कूली शिक्षा में शामिल किया जा सकता है?


दिविक रमेश : यह चुनौती तो है। इसका सामना बच्चों के हितैषियों को सजग हो कर करना होगा। पाठ्यपुस्तकों को तैयार करते समय अपने-अपने स्तर पर जरूरी हस्तक्षेप करना होगा। मुझे जब भी समिति आदि के सदस्य के रूप में अवसर मिला है, अपनी बात रखी है। वातावरण तो निरंतर बनाना होगा।



महेश पुनेठा : एक ओर आज कहा जाता है कि दुनिया वैश्विक गांव में बदल चुकी है, इसलिए शिक्षा में वैश्विक ज्ञान को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए, दूसरी ओर यह माना जाता है कि जीवन की विविधता को बचाने के लिए शिक्षा को लोक जीवन से जोड़ा जाना चाहिए, क्या आपके विचार में ये अंतर्विरोधी स्थितियां नहीं हैं? दोनों के बीच संतुलन का बिंदु कहां पर हो सकता है?


दिविक रमेश : वैश्विक ज्ञान की कीमत पर अपने निज की उपेक्षा करना कहाँ तक ठीक होगा। यूँ भी आज वैश्विक ज्ञान के लिए पाठ्यक्रम से बाहर भी सोशल मीडिया आदि के रूप में अनेक स्रोत हैं। जरूरत होने पर वैश्विक ज्ञान को विशेष पेपर के रूप में अपनाया जा सकता है। भारत के संदर्भ में तो देश की अपनी भाषाएँ भी बहुत हैं। उन्हीं को पाठ्यक्रम में समेटना कठिन होता है। अतः हिन्दी के स्कूली पाठ्यक्रम में सर्वाधिक महत्त्व हिन्दी से जुड़े अपने ज्ञान, साहित्य , लोक आदि को दिया जाना चाहिए। साथ ही थोड़े-बहुत अंश हिन्दीतर साहित्य, लोक आदि के लिये जा सकते है।


 

महेश पुनेठा : लोक साहित्य और संस्कृति में एक विशेषता यह देखी जाती है कि एक भौगोलिक क्षेत्र के बदलने के साथ साथ बदल जाती है, जैसी कि एक कहावत भी है ... कोस कोस में बदले पानी चार कोस में बानी...। ऐसी स्थिति में लोक साहित्य और संस्कृति को पाठयपुस्तक में कैसे शामिल किया जा सकता है, क्योंकि पाठ्यपुस्तकें या तो राष्ट्रीय स्तर पर तैयार होती हैं या फिर राज्य स्तर पर। और दोनों स्तरों पर ही लोक जीवन, साहित्य और संस्कृति में काफी विविधता होती है। एक राज्य के भीतर भी अलग अलग लोक संस्कृति वाले समाज रहते हैं, ऐसे में कैसे सभी भाषा और संस्कृतियों को पाठ्य पुस्तकों में जगह दी जा सकती है? जबकि कुछ लोग "एक देश, एक पाठयपुस्तक" की  भी बात करते हैं।


दिविक रमेश : भारत विभिन्न लोक संस्कृतियों का देश है। यहां विभिन्न संस्कृतियों के संघर्ष भी हुए हैं, समन्वय भी हुए हैं जिनकी उपस्थिति यहां की लोककथाओं में देखी जा सकती है। बिहार में मुंडा नामक आदिवासी जनजाति परिवार से सम्बंध रखने वाली एक जानजाति है –कोरकू। एक कथा के अनुसार कोरकू जनजाति को दुष्ट राक्षस के प्रकोप से रावण के पुत्र मेघनाथ ने मुक्ति दिलाई थी। अत: कोरकू जनजाति होली के त्योहार के पश्चात मेघनाथ की पूजा करती है। असल में कोरकू जनजाति में रावण, मेघनाथ, कुम्भकरण की भक्ति परम्परागत है। कोरकू लोकगीतों में भी ऐसे संदर्भ मिलते हैं ।

लोक साहित्य से हम सक्षम अभिव्यक्ति-क्षमता की समझ बखूबी ले सकते हैं। लोक-भाषा अथवा बोली के कितने ही शब्द आज के समर्थ रचनाकार उपयोग में ला कर अपनी अभिव्यक्ति को प्रामाणिक और सशक्त बनाने  में सफल हुए हैं। लोक-शैली से भी बहुत कुछ सीखा गया है। लोकवार्ता अथवा लोककथा की शैली का एक अत्यंत मजबूत पक्ष ‘सुनाने की कला’ होती है। इधर हिन्दी-साहित्य में इसका लाभ उठाया जा रहा है। असल में हिंदी कविता ने आठवें दशक में (जिसमें उभर कर आने वाला एक कवि मैं भी हूं) विशेष रूप से लोक (लोक-तत्त्व) से अपनी अभिव्यक्ति के औजार ले कर अपनी कविता को एक नया और सशक्त मोड़ दिया था जो अब तक देखा जा सकता है। अन्य विधाओं में भी। शिवमूर्ति का कहानी- संग्रह ‘कुच्ची का कानून’, हरे प्रकाश उपाध्याय का ‘बखेड़ापुर’ आदि कितनी ही कृतियों के नाम लिए जा सकते हैं जिनमें लोक का भरपूर योगदान झलकता है।

वस्तुतः 'एक देश, एक पाठ्यपुस्तक' की बात को उसके अभिधार्थ में लेंगे तो राह से भटक जाएँगे। भारत की वैविध्यपूर्ण विशेषता को ध्यान में रखना ही होगा। अन्यथा हम न्याय नहीं कर पाएँगे। स्कूल में विभिन्न दर्जों की कक्षाएँ होती हैं जिनमें हिन्दी की पाठ्यपुस्तकें होती हैं। उनमें सामग्री को बाँट कर सम्मिलित किया जा सकता है।

हिन्दी की अनेक बोलियाँ हैं। कुछ लोग हिन्दी और बोलियों के बीच भी उठा-पटक करते नजर आने लगे हैं, जिसे मुझ जैसे लोग उचित नहीं मानते। ठीक वैसे ही जैसे हिन्दी के हिन्दुस्तानी स्वरूप को ले कर कुछ लोग अनुचित विवाद खड़ा करके वैविध्य संपन्न देश को विभाजित करना चाहते हैं। त्रिलोचन, नागार्जुन आदि साहित्यकारों की रचनाओं में भौगोलिक विविधता किस प्रकार एक मंच पर सुशोभित है, इस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए।  हमारे यहाँ अब लोक से ली हुई ताकत से प्रेरित और संपन्न रचनाओं की कमी नहीं है।

यदि आप त्रिलोचन की हिन्दी रचना चुनेंगे तो उसमें सहज ही भाषा आदि के स्तर पर अवधी का लोक आएगा। नागार्जुन के यहाँ मैथिल और मेरे यहाँ हरियाणा लोक सहज रूप में देखा जा सकता है। विविध हो कर भी सब एक है, इस तथ्य तक पहुँचना होगा।



महेश पुनेठा : अब तक की बातचीत से यह बात ऊभर कर आई है कि भाषा और मानविकी विषयों में लोक साहित्य और संस्कृति को शामिल किए जाने की बहुत सारी संभावनाएं हैं। लोक कथाओं का उपयोग लंबे समय से होता भी आ रहा है पर क्या गणित और विज्ञान जैसे विषयों में भी लोक के ज्ञान और संस्कृति का समावेश किया जा सकता है या शिक्षण के दौरान उनका उपयोग किया जा सकता है और किस तरह से?


दिविक रमेश : गणित और विज्ञान जैसे विषयों में लोक ज्ञान और संस्कृति के समावेश के संदर्भ में कुछ विशेष कहना मेरे लिए संभव नहीं है। हाँ, बाल साहित्य में विज्ञान कथाओं की धारा से मैं परिचित हूँ। ऐसी कुछ अच्छी कथाओं में  यदि शैली के स्तर पर लोक का रोचक उपयोग हुआ है तो उस पर विचार किया जा सकता है। हाँ, एक बात मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि आज के उत्कृष्ट बाल साहित्य में वैज्ञानिक दृष्टिकोण तो प्रवेश कर ही चुका है। कल्पना भी बेसिर पैर की नहीं होती। मुझे याद आ रहा है कि हमारे बचपन में गणित के लिए हमें बहुत कुछ रटना पड़ता था। गा-गा कर भी। खासकर पहाड़े। मेरे दादा जी कुछ ऐसी कहानियाँ भी सुनाते थे जिसमें लोक भी होता था और गणित की गुत्थियों का सुलझाना भी। यह शोध का विषय है।

एक प्रश्न देखिए  जिसे पहेली भी कहा जा सकता है और गणित की सूझबूझ भी।

दो माँ-बेटी, दो माँ-बेटी, चली बाग में जा।

बोलो कितनी हैं वे? इसका उत्तर तीन है।

मेरी एक बाल कहानी है- 'हरसुख पटवारी'। लोक-साहित्य से प्रेरित है। जोहड़ (तालाब) में डूबते-डूबते बचने की कहानी है। औसत गहराई निकालने का गणित है। तो ऐसी कहानियाँ खोजने होंगी।


महेश पुनेठा : लोक साहित्य, लोक जीवन और लोक संस्कृति के बारे में स्कूलों में या उच्च शिक्षण संस्थानों में व्याख्यान देने के लिए विशेषज्ञ के रूप में अकादमिक लोगों को बुलाने की ही परंपरा रही है। पर कुछ शिक्षा के जानकारों का मानना रहा है कि उनके स्थान पर लोक गायकों, लोक कलाकारों, स्थानीय शिल्पकारों, कारीगरों, लोक वादकों, लोक नृतकों, लोक गाथाओं के गायकों, बढ़ई, राजमिस्त्री, लोहार, कुम्हार आदि को बुलाया जाना चाहिए। इस विचार को आप किस तरह देखते हैं?


दिविक रमेश:  बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल है यह। मुझे अपने पिता स्वर्गीय पंडित चन्द्रभान जी याद हो आए हैं। वे हरियाणवी लोकगायक थे। स्कूली शिक्षा के हिसाब से केवल चौथी पास थे। उर्दू के माध्यम से। लेकिन लोक जीवन, श्रुति परम्परा से अर्जित रामायण, महाभारत, पुराणों आदि का ज्ञान उनके पास बहुत  था। बहुत अच्छी तर्कसम्मत बहस करने में पारंगत थे। कहने का अर्थ यह है कि भले ही वे अकादमिक नहीं थे लेकिन ज्ञानी थे। उनके पास न सही किताबी पर व्यावहारिक ज्ञान था। अतः कह सकता हूँ कि ऐसे व्यक्तियों को अवश्य अवसर दिया जान चाहिए। हाँ, मैं आपके प्रश्न में आए अकादमिक लोगों के स्थान पर ऐसे लोगों को व्याख्यान देने के लिए बुलाया जाना चाहिए के संदर्भ में कह सकता हूँ कि 'के स्थान' की जगह 'के साथ' का उपयोग किया जाए।  अर्थात अकादमिक लोगों को भी और लोक गायकों, लोक कलाकारों आदि को भी।


महेश पुनेठा : लोक ज्ञान और लोक संस्कृति वाचिक परंपरा के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होती रही है। ग्रामीण समाज में समय समय पर होने वाले लोक पर्वों, मेलों, लोक आयोजनों में  भागीदारी करते हुए इसे सीखती जाती थी।  पहले इसके लिए  स्कूली पाठ्यक्रम में कोई खास स्थान नहीं होता था। मगर आज पाठ्यक्रम में शामिल करने के बावजूद नई पीढ़ी इससे दूर होती चली जा रही है। इसके पीछे आप क्या कारण देखते हैं?


दिविक रमेश : एक सोच के अनुसार यह आधुनिक संदर्भों में शास्त्रीय साहित्य अथवा शिष्ट समाज के साहित्य से भिन्न शिक्षा विहीन और असंस्कृत जनता का साहित्य मान लिया गया है और ग्राम ज्ञान, लोक ज्ञान तथा जन ज्ञान की श्रेणी में गिना जाता है। इसलिए काफी हद तक उपेक्षा की मार सह रहा है। केवल अजायबघर की सी वस्तु बन कर रह गया है। फिर  भी सवाल तो है कि क्या लोक-साहित्य की आज कोई प्रासंगिकता और जरूरत सच में नहीं रह गई है? बावजूद इस सच के कि लोक-साहित्य और लोक संस्कृति का, सोच अथवा दृष्टि के रूप में बहुत सा प्रदत्त आज पतनोन्मुख भी कहा जा सकता है और सामाज को पीछे ले जाने वाला भी, क्या हम इस सच्चाई से मुंह मोड़ सकते हैं कि विज्ञान और आधुनिक तर्क-वितर्कों का सहारा लेते हुए भी हमारे लोक विश्वास हमारे साथ, दबे-छिपे ही सही पर चलते रहते हैं।    

प्रो. बलदेव उपाध्याय का मत उद्धृत  करना चाहता हूं – “लोक-संस्कृति शिष्ट-संस्कृति की सहायक होती है। किसी देश के धार्मिक विश्वासों, अनुष्ठानों तथा क्रियाकलापों के पूर्ण परिचय के लिए दोनों संस्कृतियों में परस्पर सहयोग अपेक्षित रहता है।‘ मैं समझता हूं कि यह मत काफी संतुलित है। हमारे बहुत से श्रेष्ठ और शिष्ट समाज का एक महत्त्वपूर्ण कच्चा स्रोत लोक-साहित्य भी हो सकता है, और है। आज का रचनाकार इसके अवांछनीय पक्ष को झड़का कर इससे प्रेरित हो कर आज के लिए अपेक्षित श्रेष्ठ साहित्य का सृजन कर सकता है।

यह समझ नई पीढ़ी में जितनी अधिक साफ होगी, उतनी ही उनमें लोक संस्कृति के ज्ञान अर्जन को स्वीकृति मिलेगी।






महेश पुनेठा : अपने बचपन की लोक जीवन से जुड़ी कुछ स्मृतियां के बारे में बताइए और उन स्मृतियों ने आपके साहित्य लेखन को किस तरह प्रभावित किया? इस पर भी कुछ प्रकाश डालिएगा।


दिविक रमेश : मेरा जन्म दिल्ली के अपने गांव किराड़ी में हुआ था जिसकी बोली हरियाणवी है। लोक मुझे जन्म से ही मिलना शुरु हो गया था। बचपन में मुझे अपने परिवार जनों से कितनी ही पौराणिक और लोक से जुड़ी कथाएँ और गीत सुनने को मिले। किसानों, पशु-पक्षियों, भूतों, राक्षसों, शेख चिल्ली, चुड़ैल, चोर-सिपाही, धूर्त लोगों सहित बीरबल के किस्से आदि सुनने को मिले। त्योहारों, शादियों आदि के समय भी लोकगीतों और चमत्कारिक लोक कथाएँ सुनने को मिलती थीं।

पाँचवी कक्षा पास करने के बाद मुझे दिल्ली के शहरी हिस्से में अपने नानी-नाना के घर भेज दिया गया था।       

मैंने लगभग 13-14 साल की उम्र में लिखना शुरु किया था। जब कुछ ठीक-ठीक लिखने लगा तो पाया कि गाँव और लोक किसी न किसी रूप में आ ही जाता था। और यह सिलसिला आज तक बना हुआ है। बड़ों के लिए लिखी कविताओं में बराबर देखा जा सकता है। चिड़िया का ब्याह, भूत, रामसिंह, बुआ आदि कितनी ही कविताएँ तो काफी पसंद भी की गई हैं, आदि। जब बाल साहित्य की ओर आया तो कविता के साथ कहानी में भी लोक मौजूद रहा। मेरे पहले दो बालकहानी संग्रह 'धूर्त साधु और किसान' तथा 'सबसे बड़ा दानी' सबूत हैं। भले ही मेरी कहानियाँ मौलिक हैं, लेकिन शैली आदि की दृष्टि से लोक का प्रभाव लिए हुए हैं। बाद में तो मैंने कितनी ही विदेशी लोक कथाओं का भी पुनर्लेखन किया जो प्रकाशित हैं। मेरे बाल नाटकों में भी यह प्रभाव देखा जा सकता है - खासकर बल्लू हाथी का बालघर में।

शब्दों, शैली, किस्सागोई के शिल्प आदि के रूप में लोक मुझे हमेशा प्रभावित करता रहा है। मेरी रचनाओं की एक बड़ी संख्या लोक की ताकत की ऋणी है।



महेश पुनेठा : क्या आप अपने  बाल साहित्य में सायास रूप में लोक जीवन को लाने का प्रयास करते हैं या यूं ही सहज रूप में लोक आपकी रचनाओं में चला आता है?


दिविक रमेश : सायास तो एकदम नहीं महेश जी। लोक शायद मेरे रक्त में है। वह सहज रूप  में आता है- विभिन्न रूपों में, खपे हुए ढंग से।

हाँ, इसकी अहमियत की ओर मेरे काव्य गुरु कवि त्रिलोचन ने विशेष ध्यान दिलाया था। उन्होंने मेरे दूसरे कविता-संग्रह 'खुली आँखों में आकाश' के लिए कविताओं का चयन किया था। इस संग्रह की अधिकांश कविताओं में सहज रूप से खपा हुआ लोक महसूस किया जा सकता है। इसके पाँच संस्करण हो चुके हैं, विद्वानों तक ने लिखा है, पहला महत्वपूर्ण और अपने समय का बहुत बड़ा पुरस्कार 'सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड' भी मिला था 1983-84 में।



महेश पुनेठा : समकालीन बाल साहित्य में लोक जीवन की उपस्थिति कितनी और किस रूप में दिखाई देती है? शैक्षिक दखल के पाठकों के लिए कुछ रचनाओं के उदाहरण भी दे सकें तो उपयोगी रहेगा।


दिविक रमेश : इतना ही कह सकता हूँ कि उपस्थिति पहले भी लगी है और अब भी है, लेकिन जितनी होनी चाहिए उतनी नहीं है। यह शोध का विषय है।तात्कालिक रूप से आजकल के कुछ नाम अवश्य बताना चाहूँगा जिनके यहाँ ऐसी  रचनाओं को अवश्य खोजा जा सकता है-

प्रभुदयाल श्रीवास्तव, प्रदीप शुक्ल, राजा चौरसिया, अश्विनी कुमार पाठक, गोविंद शर्मा, रमेश तैलंग, देवेन्द्र कुमार, मैं खुद  अर्थात दिविक रमेश। 

नाम और भी अनेक हैं। कम से कम इन्हें पढ़ कर आप अपने पसंद की अपेक्षित रचनाएँ खोज सकते हैं।


महेश पुनेठा : आज की औपचारिक शिक्षा ने बच्चों को लोक से जोड़ने की अपेक्षा से काटने का काम अधिक किया है। अंकों की दौड़ में बच्चे आज इतने व्यस्त हो गए हैं कि उन्हें लोक जीवन को देखने और उसमें भाग लेने का अवसर भी नहीं मिल रहा है। पहले बच्चे स्कूल से लौट कर खेती किसानी के कामों में अपने मां बाप का हाथ बंटाते थे और गांव के सामूहिक आयोजनों में भाग लेते थे, लेकिन आज यह सब छूटता चला जा रहा है। शारीरिक श्रम से नई पीढ़ी का पूरी तरह से अलगाव हो चुका है। इस स्थिति के बारे में आप क्या सोचना है?


दिविक रमेश :  बच्चों से ज्यादा नहीं बल्कि बच्चों की बजाय  बड़ों अर्थात माता-पिता, अभिभावकों, अध्यापकों, शिक्षाविदों आदि की चूक है। असल में आज भी व्यावाहरिक रूप में लोक-जीवन को, किसानी, मजदूरी आदि को कमतरी और शर्मिंदगी का काम समझा जाता है। 'बड़े होकर क्या बनना चाहोगे' के उत्तर में चार-पाँच ही पद हैं जिनका नाम लिया जाता है, जैसे, डॉक्टर, इंजीनीयर, बड़ा अफसर, प्रोफेसर, बड़ा नेता आदि। सिद्धांत में भले ही सब किसी भी काम या श्रम का गुणगान करते रहें, लेकिन व्यवहार में अपने बच्चों को कुछ ही पदों पर देखने को अभिशप्त हैं। यह सही है या गलत, इसका कोई भी दो टूक उत्तर तो नहीं दे सकता, लेकिन यह तो माना ही जाना चाहिए कि जो भी काम सामने है उसे पूरी निष्ठा और खुशी से किया जाना चाहिए। हाँ, ध्यान हमें बाल श्रम के नाम पर शोषण के प्रति भी रखना होगा। बाल मजदूरी आज भी भारत में विद्यमान है। इस ओर भी गहराई से विचार करना होगा। पुश्तैनी कामों में हाथ बंटाना और पुश्तैनी ही काम करने के लिए मजबूर करना दो अलग-अलग बातें हैं। हाँ, आपके प्रश्न के तल में छिपी यह मंशा कि बच्चों में या किशोरों में अपने घर के कामों में हाथ बंटाने की प्रवृत्ति होनी चाहिए, इससे मैं सहमत हूँ।

देखिए, भारत में जब बालक की बात की जाती है तो उसे उसकी विविधता में समझना होगा। यहाँ वह बालक भी है जो महानगर में रहता है, और वह भी है जो गाँवों या कस्बों या पहाड़ों या जंगलों आदि में रहता है। यहाँ महानगर में रहना वाला बालक भी बंटा हुआ है- एक घर के मालिक का बालक और दूसरा घर में काम करने वाली सेविका का बच्चा। अत: सब बालकों को ध्यान में रखते हुए ही  भारतीय बालक और उसकी सही राह  के बारे  में विचार करना होगा।

 


महेश पुनेठा : क्या यह बेहतर नहीं होता कि लोक ज्ञान को स्कूल में प्रदान करने की अपेक्षा स्कूल समुदाय के पास जाए और बच्चे लोक से जुड़े ज्ञान का सृजन खुद करें?


दिविक रमेश : शिक्षा की दो पद्धतियां प्रमुख हैं। एक है किताबों से ज्ञान अर्थात कक्षा में अर्जित ज्ञान और दूसरी है प्रत्यक्ष पद्धति या डायरेक्ट मैथेड। दूसरी पद्धति का उपयोग विशेष रूप से मातृभाषा से अलग अन्य भाषा को सिखाने के लिए किया जाता है। इसके अन्तर्गत विद्यार्थियों को सीधे वस्तु के पास ले जाया जाता है और उसे देखते-देखते विद्यार्थी ज्ञान प्राप्त करता है। अतः मैं आपके सुझाव का सहर्ष समर्थन करता हूँ यद्यपि कक्षा के भीतर ज्ञान अर्जित करने की पद्धति के साथ इस दूसरी पद्धति का उपयोग करना चाहिए। एक-दूसरे की पूरक के रूप में।

कभी-कभी समुदाय को भी स्कूल में आमंत्रित किया जा सकता है।



महेश पुनेठा : मेरे अनुसार लोक जीवन हो या अभिजात्य जीवन, प्रत्येक के दो पक्ष होते हैं .. पहला, भौतिक पक्ष, जिसे हम अपनी विभिन्न ज्ञानेंद्रियों से ग्रहण करते हैं और दूसरा, मूल्य पक्ष, जिसे हम आत्मसात करते हुए अपनी मानसिकता का निर्माण करते हैं। आपके विचार से लोक का कौन सा पक्ष अधिक महत्वपूर्ण है, जिसे हमें अपनी शिक्षा का हिस्सा बनाना चाहिए और क्यों?


दिविक रमेश : संपादित लोक कथाएँ। लोक जीवन से जुड़ी कुछ वस्तुओं, खेल, स्थान, खान-पान, पशु-पक्षी, लोक गायक, लोक नायक आदि की भी दिलचस्प शैली में जानकारी साझा की जा सकती है।



महेश पुनेठा : जानकारी क्यों?


दिविक रमेश : इसलिए कि शिष्ट समाज के बच्चे गाँव, देहात जैसे स्थानों पर रहने वाले बच्चों की तुलना में लोक से कहीं ज्यादा दूर होते हैं। अतः उनके पाठ्यक्रम में दिलचस्प शैली में (जो कहानी, कविता, नाटक आदि के रूप में) जानकारी दी जाएगी तो  स्वीकृत होगी।



महेश पुनेठा : दिविक जी,जानकारी महत्वपूर्ण है या मूल्य?


दिविक रमेश : जानकारी निरपेक्ष नहीं होती, जैसे आईना निरपेक्ष नहीं होता। आईने में देखना भर नहीं होता, बल्कि जो दिख रहा है उसकी समीक्षा और जरूरत रहने पर निदान भी निहित  होता है। शिक्षा जगत में भी एक अच्छा शिक्षक जानकार की तरह चीजों से अवगत  कराता है और पथ प्रदर्शन करते हुए  विद्यार्थी को अपने बलबूते पर निर्णय ले सकने की क्षमता अर्जित करने को तैयार करता है। हर पक्ष का सम्यक और संतुलित आकलन करते हुए। 

आजकल तो मूल्यों के नाम पर भी कट्टरपंथ या रूढ़िवाद को मानने वाले पैदा हो गए  हैं।



महेश पुनेठा : आपकी नजर में लोक में वे कौन कौन से मानवीय मूल्य हैं, जिन्हें नई पीढ़ी तक अवश्य पहुंचाया जाना चाहिए?


दिविक रमेश : मैंने आपके पहले प्रश्न के उत्तर में जो कहा था उसमें 'नीति शिक्षा' आदि के रूप  में कुछ मानवीय मूल्य देखे जा सकते हैं। लोक में प्रकृति, मनुष्य, प्राणी, उत्सव आदि सब कुछ होता है। सुख, दुख आदि होते हैं। अपनी सुरक्षा की तरकीबें होती हैं। जिसे अपना मानो उसके लिए पूरी तरह समर्पित रहो, अपनी पहचान को सुरक्षित रखो, यह मूल्य सामान्य रूप से देखने को मिलता है। जैसा कह चुका हूँ कि बहुत से अंधविश्वास, अंध भक्ति, अंध पूजा, सामंतीय मूल्य आदि भी मिलते हैं, उन्हें आज छोड़ना होगा। असल में आज के शिष्ट समाज के लिए लोक कच्चे माल के स्रोत की तरह ही हो सकता है, जिसमें से बहुत कुछ अनुपयोगी भी होता है। लोक को आज की आवश्यकता के अनुसार फिल्टर कर के ही युवा पीढ़ी तक पहुँचाना चाहिए।  कितने ही लोकगीत ऐसे हैं जिनमें भाईचारे, संबंध निभाने, मदद करने, बुराई की पहचान करा उससे अच्छाई की ओर लाने, चतुराई, सूझबूझ आदि के अच्छे भाव समाहित  होते हैं।



महेश पुनेठा : दिविक जी, लोक की सबसे बड़ी शक्ति आप किसे मानते हैं.


दिविक रमेश : किसी भी लोक की सबसे बड़ी ताकत उसमें प्रयोग की जाने वाली सहज भाषा और शैली होती है जिसमें अद्भुत ताजगी, पूर्णत्व और पारदर्शिता होती है। त्रिलोचन के यहाँ जब मैंने ररता शब्द पढ़ा तो मैं चौंका। कौवा मेरी शब्दावली में काँय काँय ही करता था, लेकिन कवि त्रिलोचन से पता चला कि कौवे के एक भाव के लिए उनके लोक में ररता शब्द चलता है जिसका कोई विकल्प नहीं। तो ताजगी और अछूतापन बहुत बड़ी ताकत होती है। लोक की छोटी-छोटी उक्तियों, कथाओं, अवधारणाओं उसके मुहावरे आदि का अभिव्यक्ति के औजार के रूप में बहुत महत्व होता है। उनके माध्यम से अपने आप को बेहतर और सटीक ढंग से व्यक्त किया जा सकता है। मेरी खुद की कविताओं में ऐसा उपयोग हुआ है। तो लोक की शक्ति अभिधा के साथ और उससे आगे व्यंजना के रूप में भी पहचानी जा सकती है।      

लोक के  भूत की जब बात आती थी तो मेरे दादा जी हम बच्चों को बताते थे - भय से भूत। यहाँ शिक्षा जगत की वर्णमाला सिखाने की शिक्षण पद्धति के अनुसार भ से भूत का उपयोग  अपने ढंग से हुआ है।

लोक की एक महत्वपूर्ण ताकत यथास्थिति को समझने की राह भी होती है।



महेश पुनेठा 



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