हरियश राय का आलेख 'आकांक्षाओं, सपनों और अपेक्षाओं से लबरेज़ अमरकांत की कहानियां'

 

अमरकांत 



आजादी के बाद आम आदमी की बेहतरी के जो सपने देखे गए थे वे एक एक कर टूटते चले गए। भ्रष्टाचार की जो विरासत हमें अंग्रेजों से मिली थी, वह आजादी के बाद भी बदस्तूर जारी रही। युवाओं के सपने में प्रायः वे पद होते थे ऊंची नौकरशाही से जुड़े होते थे। जाहिर तौर पर इस तरह के पदों को प्राप्त करने के पश्चात व्यक्ति की आर्थिक और सामाजिक हैसियत, मन सम्मान और प्रतिष्ठा काफी बढ़ जाती थी। लेकिन इसका एक स्याह पक्ष यह भी था कि इन पदों पर रहते हुए भ्रष्ट तरीके से कमाई की बहुत संभावनाएं होती थीं। इन पदों को हासिल करने के चक्कर में बेरोजगार युवा अपना दिन रात एक कर देते। परिवार भी इनसे अपनी बड़ी बड़ी उम्मीदें पाल लेता। लेकिन असफलता न केवल उस युवा बल्कि पूरे परिवार के सपनों को चकनाचूर कर देती। अपनी कहानी 'डिप्टी कलेक्टरी' में अमरकांत इस कथा व्यथा को करीने से व्यक्त करते हैं। अमरकांत अपनी कहानियों में कोई निर्णय नहीं देते बल्कि उस मोड़ पर ले जा कर छोड़ देते हैं जहां जा कर पाठक खुद को हतप्रभ महसूस करता है। यह वर्ष अमरकांत का जन्म शताब्दी वर्ष है। इस के अन्तर्गत हम आज पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं अमरकांत की कहानियों पर हरियश राय का एक आलेख  'आकांक्षाओं, सपनों और अपेक्षाओं से लबरेज़ अमरकांत की कहानियां'।



'आकांक्षाओं, सपनों और अपेक्षाओं से लबरेज़ अमरकांत की कहानियां'


हरियश राय 


आज़ादी के बाद की हिन्‍दी कहानी में जिन रचनाकारों ने अपनी पहचान बनाई उनमें अमरकांत का नाम बहुत आदर से लिया जाता है। अमरकांत ने अपने समय के मध्य वर्ग के सपनों, उम्मीदों और आकांक्षाओं को अपनी वैचारिक पक्षधरता के साथ चित्रित किया. साथ ही अपनी कहानियों में उन्‍होंने निम्‍न मध्‍यवर्गीयों और वंचितों के परिवेश, उनकी जीवन स्थितियों तथा उनकी मनोदशा के कई चित्र उकेरे हैं। उनकी कहानियों में ज्‍़यादातर  मध्‍यवर्गीय जीवन की विडम्‍बनाएं देखने को मिलती है।


नई कहानी के दौर में अमरकांत ने एक अलग भाव-भूमि पर कहानियां लिखीं। अमरकांत जिस दौर में कहानियां लिख रहे थे, उस दौर में शेखर जोशी, मार्कण्‍डेय, भैरव प्रसाद गुप्‍त, भीष्म साहनी, शिवप्रसाद सिंह, कमलेश्‍वर, निर्मल वर्मा, फणीश्वर नाथ रेणु, मोहन राकेश, राजेन्‍द्र यादव  जैसे कथाकार भी कहानियां लिख रहे थे। लेकिन अमरकांत ने इन कथाकारों से अलग भाव-भूमि पर कहानियां लिखी। उनकी कहानियों में कुछ ऐसा था जो पाठकों  को अपना सा लगता था और इसलिए  पाठक‍ सहज रुप से उनकी कहानियों से जुड़ जाते थे चाहे वह ‘डिप्टी कलेक्‍टरी’ के शकलदीप बाबू हों, ‘दोपहर का भोजन’ की सिद्धेश्वरी हो।  दोपहर के भोजन  के अभाव और परिवार में सबको खिला कर खुद आधे पेट खाना जैसी सच्चाईयों को अमरकांत की कहानियों में देखना हिन्‍दी पाठकों के लिए एक नया अनुभव था। और इसीलिए अमरकांत नई कहानियों के दौर में अलग से पहचाने गये।

   

आज़ादी के बाद जिस तरह का पूंजी केन्द्रित समाज बनाया गया, उसमें समाज की आंतरिक संगति खत्‍म हुई और समाज की चेतना के विरोध में व्‍यक्ति की अवधारणा का विकास हुआ। व्‍यक्ति समाज से कट कर खुद अपना विकास करने में लग गया और अपनी खुशहाली के बड़े-बड़े सपने देखने लग गया। व्यक्ति ने सामाजिकता के सारे तर्कों को खारिज कर आत्‍मविकास का तर्क विकसित किया और अपनी सारी तार्किकता को नष्‍ट कर डाला। अमरकांत की नजर इस पर जाती है और वह’ डिप्टी कलक्‍टरी’ जैसी कहानी लिखते है। अमरकांत अपने कथा-जगत में उपनिवेशवाद से मुक्‍त हुए उस भारतीय समाज की कहानी कहते हैं जो आर्थिक, सामाजिक विषमताओं से भरा हुआ है, और जिसके मन में बेहतर भविष्य के सपने पल रहे हैं, जो दयनीय होने की हद तक तक आत्‍मग्रस्‍त और अहंकारी है, जिसमें सामूहिक सक्रियता नहीं है, जो अपने ही दायरे में सिमट कर रहना चाहता है और धीरे -धीरे लुम्‍पुन वर्ग में तब्दील हो रहा है और जो दारुण परिवेश में रह कर भी अपने जीवन को जीना चाहता है।   

 

अमरकांत की कहानियों की एक खासियत यह है कि उनकी कहानियों के पात्र अंधेरे बंद कमरे से गुजरते हुए अपनी सीमाएं नहीं निर्धारित करते बल्कि आम आदमी की तरह जीवन-जगत से टकराते है। ‘गगन विहारी,’ ‘बहादुर’  जैसी कहानियां लिखते हुए भी वे यथार्थ की उँगली थामे रहते हैं। इन पात्रों को बेहद सादगी और सरलता से अमरकांत अपनी कहानियों में उतारते हैं। 'छिपकली' कहानी में अमरकांत आम आदमी के जीवन संघर्षो के साथ-साथ दफ़्तरी परिवेश में उसकी असमर्थता, बॉस से लगातार डांट खाते रहना और इन सबके बीच अपने लिए संघर्ष की आधारभूमि तैयार करने को इस तरह दर्ज करते हैं कि कहानी पाठकों के बोध पर गहरा असर डालती है। इस तरह यह कहानी निम्‍न मध्‍यवर्गीय व्‍यक्ति के सपनों और उसकी असहायता की कहानी बन जाती है।

 

अमरकांत ने इस सामाजिक यथार्थ के अलग- अलग पहलुओं को अपनी कहानियों के केन्‍द्र में रखा है। बेरोज़गार लड़कें किस तरह की बातें करते हैं और देश-दुनिया के बारे में क्‍या सोचतें है, उनकी सोच किस तरह बनती है और किस तरह वे एक लुंपन एलीमेंट में तब्दील हो कर हत्‍या करने से भी बाज नहीं आते। अमरकांत 'हत्यारे' कहानी में बेहद सूक्ष्‍म तरीके से इस हकीकत को बयां करते हैं।

  

आज़ादी के बाद नेहरु की नीतियों का बड़ा असर यह हुआ कि मध्य वर्ग ने अपने दायरे में रह कर अपनी खुशहाली का सपना देखा और इस सपने को पूरा करने के लिए वह निजी उपलब्धियां हासिल करने लगा। वह शिक्षा हासिल कर नौकरशाही में प्रवेश करने लगा। 'डिप्टी कलक्‍टरी' नेहरु द्वारा दिखाए गए सपनों के प्रतिफल की कहानी है। कहानी में एक उम्‍मीद है और यह वह उम्‍मीद है जिसकी चाहत तत्कालीन राजनीति ने पैदा की थी। जिस दौर की यह कहानी है, उस दौर में हर व्‍यक्ति का और हर मां-बाप का सपना होता था कि उनका बेटा डिप्टी कलक्टर बने।


कहानी के शकलदीप बाबू अपने पुत्र नारायण को डिप्टी कलक्टर बनाना चाहते हैं। उन्‍हें उम्मीद है कि उनका बेटा डिप्टी कलेक्टर बन जायेगा पर भीतर ही भीतर आशंकित भी हैं और उस प्रक्रिया में असहाय हो कर खुद उपहास का पात्र बन जाते हैं।

  

अमरकांत इस कहानी में व्‍यक्ति के सपने को नौकरशाही की ओर ले जाते हैं लेकिन नौकरशाही से समाज में कोई बड़ा बदलाव संभव नहीं है। ऊँचा पद, सुख-सुविधाएँ पा कर व्‍यक्ति अपना जीवन तो सुखमय बना सकता है लेकिन उससे और किसी का भला नहीं हो सकता। महत्वपूर्ण कहानी होते हुए भी यह कहानी ऐसे सपने तक सिमट कर रह जाती है। अमरकांत इस कहानी में मध्‍यवर्गीय व्‍यक्ति के सपने को, उसकी हताशा और उसकी पराजय को सामने रखते हैं जबकि साठ–सत्‍त्‍र का दशक वह दशक था जब आम आदमी का जीवन बेहद अभावों में गुजरता था। जीवन में अभाव ही अभाव थे, दुःख ही दुःख थे। नेहरु का यह कथन कि ‘हर आंख से आंसू पोंछा जायेगा’ अपना अर्थ खो चुका था। आदमी को दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं थी। ऐसे परिवेश में अमरकांत ‘दोपहर का भोजन’ कहानी लिखते हैं जहां सिद्धेश्‍वरी  दोनों बेटों और अपने पति को अपनी कसम दे कर एक रोटी और खाने के लिए कहती है जबकि वह जानती है कि इतनी रोटियां नहीं है कि मैं इन्‍हें और रोटी दे सकूं। दोनो बेटे और पति भी जानते हैं कि उसके पास उसके पास ज्‍यादा रोटियां नहीं हैं और कसम को बनाये रखने के लिए कोई दाल मांग लेता है, कोई गुड़ मांग लेता है और कोई 'पेट भर गया' का बहाना बना कर अधपेट खाये ही उठ जाता है। सब हकीकत को जानते झूठ बोलते हुए हैं। यह द्वंद्वात्मकता कहानी में करुणा पैदा करती है। अमरकांत यहीं तक नहीं रुकते। वे कहानी की मार्मिकता को एक ऊँचाई देते हैं। अपने दोनों बेटों रामचंद्र और मोहन को व अपने पति मुंशी चंद्रिका प्रसाद को खाना खिलाने के बाद जब वह खुद खाने बैठती है तो उसके लिए केवल एक रोटी और थोड़ी सी दाल बचती है जैसे ही वह खाने लगती है, उसकी नजर अपनी चारपाई पर सो रहे छ: साल के लड़के पर पड़ती है और तब वह अपनी थाली में से आधी रोटी उसके लिए बचा कर रख देती है। कहानी मध्‍यवर्गीय अभावों के बीच में स्‍त्री की स्थिति की मार्मिक कहानी है। सामाजिक अंतद्वंद्व की एक यादगार कहानी है।


अमरकांत सिद्धेश्वरी के बेटो के बेरोजगारी के दर्द और पति की छंटनी के दर्द को इस तरह बयां करते हैं कि यह दर्द हर उस आदमी का दर्द बन जाता है जिसे अपने और अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल सा हो गया था।


‘कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,

कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए’ 


यह हकीकत कहानी में बेहद संवेदनात्‍मक रुप में सामने आती है।

         




मध्‍यवर्गीय क्षुद्रताओं का एक और स्‍तर काली छाया कहानी में देखने को मिलता है। कहानी का केन्‍द्रीय पात्र एक तथाकथित चोर है जो रात के समय उस लड़की के घर में प्रवेश करता है जिसे वह चाहता है। अमरकांत ने कहानी में इस भाव को बेहद सूक्ष्म रुप में रखा है पर उसके बहाने मध्‍यवगीय क्षुद्रताओं को मज़बूती से सामने रखा है। जब वह तथाकथित चोर घर में घुसता है तो घर के सदस्‍य और मोहल्‍ले के लोग उसे चोर समझ कर उसकी खूब पिटाई करते हैं। उसे रस्सियों से बांध देते हैं लेकिन सुबह होने पर उसके निरीह चेहरे को देख कर उन्‍हें लगता है कि यह चोर नहीं हो सकता। तब उन्‍हें अपनी गलती का एहसास होता है और वह उसे छोड़ देते हैं। वह गुस्‍से और आवेश में कहता है ‘मैं एक-एक घर को जानता हूं दूसरों का गला काट कर तुमने ऊंचे-ऊंचे घर बनवाये हैं। खुद चोर हो’ अमरकांत मध्य वर्ग की लूट-खसोट को, उनकी बेईमानियों को, उनके आचरण को इस कहानी में संवेदनात्‍मक रुप में सामने रखते हैं। कहानी पढ़ते हुए फिल्‍म ‘जागते रहो’  का अंतिम दृश्य ज़ेहन में कौंध जाता है।


एक व्‍यक्ति किस तरह आत्‍मग्रस्‍त हो सकता है और किस तरह आत्‍मश्रेष्‍ठता की ग्रंथि से पीड़ित रहता है यह अमरकांत अपनी कहानी 'महान चेहरा' में बेहद संजीदगी से बयां करते हैं।  कहानी का अमोल अपने आप को रुसी सैन्य अधिकारी प्रिंस कोपाटकिन की तरह समझता है और दुनिया की पवित्रता के लिए विनाश और तबाही की वकालत करता हुआ आणविक युद्ध के पक्ष में खड़ा हो कर हिंसा का समर्थन करता है। कहानी के माध्‍यम से अमरकांत उस तानाशाही सोच का विरोध करते हैं जो दुनिया को विनाशकारी युद्ध में धकेल सकती है। लेकिन यह आत्‍मग्रस्‍त व्‍यक्ति सांप दिख जाने पर कहीं गायब हो जाता है और चेचक के भय से हमेशा नाक में रुमाल दबा कर कहीं दुबक जाता है. अमरकांत इस अमोल के माध्‍यम से अहंकारी और तानाशाही सोच के व्यक्तियों को बेहद कारुणिक दृष्टि से देखते हैं और यह बताने की कोशिश करते हैं कि अंतत: प्रेम और करुणा ही जीवन को बचाएँगी न कि युद्ध और हिंसा।


अहंकारग्रस्त व्‍यक्ति की सोच का एक दूसरा स्‍तर 'विजेता' कहानी में देखने को मिलता है। कहानी का मैं एक ऐसा पात्र है जो अपने दोस्‍त ‘रामायण’ से बदला लेने की हर चंद कोशिश करता है। यहां तक कि उसकी पत्‍नी  नीलम से संबंध बनाता है। जब रामायण को उनके संबंध का पता चलता है तो वह अपनी गर्भवती पत्‍नी नीलम की इतनी पिटाई करता है कि उसकी मौत हो जाती है। तब उसे अपने कमीनेपन का एहसास होता है। कहानी को अमरकांत एक कारुणिक अंत की ओर ले जाते हैं और अपने आप को विजेता समझने वाले लोगों की  अकर्मण्यता और काहिली  को सामने रखते हैं।

                

अमरकांत की अधिकांश कहानियां पारिवारिक आधार लिये रहती है। वे परिवार के दुःख–सुख, उनके संघर्षो, उनके सपनों, उनके आकांक्षाओं,  उनकी सीमाओं, उनकी क्षुद्रताओं को इन कहानियों के केन्‍द्र मे रखते हैं। 'असमर्थ हिलता हाथ' कहानी में अमरकांत इस सोच को उजागर करते हैं कि निम्‍न मध्‍यवर्गीय परिवार की स्त्रियां परिवार में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अपने ही परिवार की स्त्रियों को कितना और कितनी तरह से सताती हैं।


कहानी के एक स्‍तर पर मीना का जीवन है, उसकी करुण कहानी है, छोटे भाई द्वारा उसके लिए लक्ष्‍मण रेखा खींचना है और मीना का उसी लक्ष्‍मण रेखा में रहना है और दूसरे स्‍तर पर लक्ष्मी द्वारा उसकी प्रताड़ना और अवहेलना है। चूंकि लक्ष्मी का अपना जीवन सुखमय नहीं बीत सका, इसलिए वह ता-जिंदगी इसका बदला मीना से लेती रही। वह धर्म और जाति का सहारा ले कर उसकी भावनाओं को कुचलती रही। जीवन के आखिरी समय में उसको अपने किए पर पछतावा होता है और वह मीना को सरल निश्चल दिल से प्‍यार करना चाहती है लेकिन यह संभव नहीं हो पाता। अमरकांत कारुणिक स्‍तर पर मीना के चरित्र को कहानी में रखते हैं और औरतों की आर्थिक स्वतंत्रता के पक्ष में खड़े होते हैं और यह कहते है कि ‘जब तक यहां की औरतें तरक्की नहीं करेंगी, तब तक यह देश तरक्की नहीं कर सकता।’ अमरकांत कहानी में यह बताने में सफल रहते हैं कि पितृसत्‍तात्‍मक समाज में स्त्रियां सुखी और खुशहाल नहीं रह सकतीं। ज़रुरत इस समाज के दायरे से बाहर निकल कर अपनी स्‍वतंत्र सोच निर्मित करने की है।

  

'मौत का नगर' कहानी से गुजरते हुए ऐसा महसूस होता है कि पूरा शहर की दंगों के कारण भय, असुरक्षा और तनाव के माहौल में जी रहा है। कहानी का नायक राम जब अपनी बेटी के लिए दूध लेने अपने घर से बाहर निकलता है तो बाहर पसरा भय उसे और ज्‍यादा आतंकित करता है और जब वह उस रिक्‍शे में बैठता है जहां एक मुस्लिम आदमी पहले से ही बैठा है तो उसका भय कई गुना बढ़ जाता है। अमरकांत ने बेहद सावधानी से कहानी में भय के साथ मानवीयता के पहलू को इस कहानी में उकेरा है।

 

यह कहानी हमारी सामुदायिक और गंगा-जमनी संस्‍कृति की ओर भी संकेत करती है। जहां सभी समुदायों के लोग परस्पर मिल जुल कर और प्रेम से रहते थे, मुसलमान ग्वालों के यहां से हिन्‍दू लोग दूध ले आते थे और हिन्‍दू बनियों के यहां से मुसलमान सामान उधार ले आते थे। शादी ब्याह में एक दूसरे के यहां आते-जाते थे और एक दूसरे की मदद करते थे। यह एक ऐतिहासिक सच्‍चाई है। इस देश में हज़ारों साल से हिन्दू-मुस्लिम एक साथ रहते आये हैं और दोनो ने परस्पर साझा संस्‍कृति का निर्माण किया है। उसे खत्‍म करने की कई बार कोशिशें होती हैं जिससे हिन्दू और मुसलमान दोनो को आत्मिक पीड़ा पहुचंती है. अमरकांत ने इस कहानी मे उस आत्मिक पीड़ा को बहुत गहराई से दर्ज किया है। साम्‍प्रदायिक दंगों के दौरान किस तरह पूरा शहर मौत के नगर में तब्दील हो कर लोगों की चेतना में भय का संचार करता है कहानी इसे रचनात्‍मक स्‍तर पर सामने रखते हुए यह संकेत करती है कि इस भय के माहौल को मानवीयता से और परस्पर साथ आ कर ही दूर किया जा सकता है। यह कहानी की बहुत बड़ी खूबी है।     




  

'जिंदगी और जोंक' कहानी में अमरकांत उस आदमी की कहानी कहते हैं जो मध्‍यवर्गीय माहौल में रहते हुए अपने जीवन के प्रति आस्था बनाये रखता है। कहानी का प्रमुख पात्र गोपाल उर्फ रजुआ भीख माँगता है और मोहल्‍ले में आता-जाता है। एक दिन लोग उस पर यह आरोप लगा कर पिटाई कर देते हैं कि उसने शिवनाथ बाबू के घर से एक साड़ी चुराई है जबकि बाद में वह साड़ी उन्‍हीं के घर से मिलती है। जब मोहल्‍लेवालों को अपनी गलती का एहसास होता है तो वे उसे मोहल्‍ले में ही रख लेते हैं। रजुआ मोहल्‍ले का नौकर बन कर रह जाता है। मोहल्‍ले वाले उसे अपना बचा हुआ खाना दे देते हैं लेकिन जब उसे हैज़ा हो जाता है तो कोई भी उसे अपने घर में नहीं आने देता। उसे खुजली हो जाती है और वह बेहद दारुण स्थिति में रहते हुए नर कंकाल में तब्दील हो जाता है। जब एक दिन उस के सर पर एक कौवा बैठ जाता है तो वह कहानी के यह चिट्ठी लिखवाता है कि वह मर चुका है। नरैटर द्वारा यह पूछे जाने पर वह ऐसा क्‍यों किया तो वह कहता है कि ‘मौत वाली बात किसी सगे- संबंधी के यहां लिख देने से मौत टल जाती है।’ 


दारुण से दारुण हालात में भी व्‍यक्ति जीना चाहता है। जीने की खातिर वह सब कुछ करता है। लोक विश्‍वास का सहारा लेता है। गोपाल ऊर्फ रजुआ जीवन के हालात को बदलने की कोशिश न करते हुए उन हालातों को ही आत्मसात् कर जीवन जीना चाहता है। अमरकांत इस कहानी को जीवन के प्रति अदम्य लगाव की कहानी बना देते हैं।

 

'मूस' एक ऐसी कहानी है जिसमें मूस कांवर से कच्ची सड़कों पर पानी छिड़कता है लेकिन पक्‍की सड़क बनने से उसका काम बंद हो गया. उसकी पत्‍नी परबतिया भी घरों में बर्तन मांजने का काम करती है। परबतिया अपने मायके से मुनरी नाम की लड़की को ले आती है और उससे दूसरों के घरों का काम करवा कर अपनी रोज़ी-रोटी चलाती है लेकिन मूस के घर में आने पर मुनरी मूस का ख्‍याल रखती है और हर तरह से उसकी सेवा करने लगती है। यही मुनरी जब एक रात किसी के घर में रह कर आती है तो मूस को बर्दाश्‍त नहीं होता। वह उसकी पिटाई करता है जिसकी वजह से मुनरी घर छोड कर चली जाती है। अमरकांत ने कहानी में मूस के सीधेपन को ही नहीं उसकी बेचारगी को उसकी पीड़ा को भी दर्ज किया है।

  

कहानी में मूस से मिलने के बाद मुनरी को सच्‍चा साथी मिल जाता है और वह उससे प्रेम करने लगती है। मुनरी अपने अधूरे रिश्‍ते को तोड़ कर मूस के साथ अपना रिश्ता कायम करती है और बाद में अपने पति के पास चली जाती है। अमरकांत ने प्रेम की इस द्वन्द्वात्मकता को सहज मानवीय संबंधों के रुप में दर्ज किया है।

     

कहानी में अमरकांत ने मूस और मुनरी की आकांक्षाओं को, उनके प्रेम को दर्ज किया है। सीधा सादा रहने वाला मूस मुनरिया का साथ पा कर इस हद तक स्वाभिमानी हो उठता है कि उसके बिसुनवा के घर जा कर रहने पर उससे लड़ने पहुंच जाता है। अमरकांत  मूस जैसे गरीब और वंचित व्‍यक्ति के प्रेम संबंधों की सहजता, उसकी आकांक्षा को इस कहानी के केन्द्र में रखते हैं और उसकी पीड़ा को रचनात्‍मक स्‍तर पर आत्मसात करते हुए व्‍यक्‍त करते हैं।


अपनी कहानियों में अमरकांत मध्य वर्ग से बाहर वंचितों की जीवन स्थितियों को भी सामने रखते हैं। रजुआ और मूस वंचितों के वे पात्र हैं जिन्हें अमरकांत पूरी समग्रता से देखते–परखते हैं और उनके जीवन के कई मनोभावों को, उनके प्रेम को, उनके संघर्ष को और उनके अभावों को कहानी की संवेदना का विषय बनाते है।





अमरकांत अपनी कहानी 'घुड़सवार' में नौकरशाही के एक अलग ही रुप को सामने लाते हैं। कहानी के ‘मैं’ को जिलाधीश की ओर से हुक्मनामा मिलता हे कि दो महीने बाद उसकी घुड़सवारी की परीक्षा होगी जबकि उसके काम में घुड़सवारी किसी भी रुप में मदद नहीं करने वाली पर चूंकि अंग्रेजों  के समय से यह कानून है कि नायब तहसीलदारों को भी घुड़सवारी में दक्ष होना चाहिए इसलिए उससे घुड़सवारी की परीक्षा देने के लिए कहा जाता है। अमरकांत इस कहानी के ज़रिए ऐसे व्यर्थ कानूनों के प्रति अपना रोष ज़ाहिर करते हैं और साथ ही नौकरशाही में फैले भ्रष्टाचार को भी उजागर करते हैं। इस भ्रष्टाचार के तहत ‘मैं’ को दो महीने बाद बिना परीक्षा दिए ‘मंजे हुए घुड़सवार’ का प्रमाण पत्र दे दिया जाता है। आज़ादी के बाद नौकरशाही में किस तरह भ्रष्टाचार फैला, उसकी छोटी सी झलक अमरकांत अपनी इस कहानी में देते हैं। पूरी कहानी व्यंजना के स्‍तर पर चलती हुई नौकरशाही के खोखलेपन को जाहिर करती है।


अमरकांत की एक-एक कहानी पर चर्चा करे, तो बात लंबी हो जायेगी। मूल बात यह है कि अमरकांत अपने परिवेश से हमेशा रुबरु रहे और उससे अलग हट कर किसी वायवीय और नकली व निजी यथार्थ के इर्द- गिर्द कहानियों नहीं बुनीं। उनकी कहानियां में न तो  मध्‍यवर्गीय व्‍यक्ति की ऊब, कुंठा, तनाव, अकेलापन है और न व्‍यक्ति का निजी यथार्थ है। उनकी कहानियां सामूहिक यथार्थ के हिस्‍से  के रुप में हमारे सामने है। 'गगन विहारी' और 'मित्र मिलन' जैसी कहानियों को सामान्‍य कहानियां कहा जा सकता है लेकिन इन कहानियों में भी अमरकांत हास्य बोध को बनाए रखते हैं और उन सामाजिक विडम्‍बनाओं की ओर संकेत करते है जो उनकी कहानियों का मूल कथ्‍य है।


अमरकांत की कहानियां हमारे पाठकीय बोध में एक समझ तो पैदा करती हैं और हमें उस समय के परिवेश से, व्‍यक्ति की अपेक्षाओं, आंकाक्षाओं, सपनों से परिचित कराती है। ये सपने मध्‍यवर्गीय व्‍यक्ति के सपने हो सकते है, आम आदमी के सपने हो सकते हैं और समूह के सपने हो सकते हैं। ये कहानियां मन को छूती हैं। इन कहानियों में व्‍यक्ति के दुखों और संघर्षो को, सबके दुखों और संघर्षों में परिवर्तित करने की चाहत है। उनकी कहानियां उस समय की स्थितियों को, उस समय के परिवेश को, उस समय की क्रूरता को, संवेदनात्‍मक रुप में हमारे सामने रखती हैं।


उनकी कहानियों में यथार्थ एक अतिरंजित और अविश्वसनीय रुप में सामने आता है जो उनकी कहानियों की एक सीमा है। पर इसके बावजूद उनकी कहानियों जीवन के उजाले-अंधेरे पक्ष को सामने लाने में सक्षम हैं। अमरकांत दृश्यों और कथाओं का चुनाव बहुत सावधानी से करते हैं। इनके चुनाव में उनकी वैचारिकता सामने आती है।


अमरकांत की कहानियां संवेदना की दृष्टि से ही नहीं बल्कि भाषा और शिल्प की दृष्टि से भी अपने दौर की कहानियों में खास जगह बनाती हैं। वे अपनी कहानियों की भाषा शैली के लिए भी विशेष रुप से जाने जाते हैं। उनकी भाषा में एक व्यंजना समाई रहती है इस भाषा के सहारे वे सामाजिक संदर्भों की विद्रूपता को सामने लाते हैं। वे सामाजिक जीवन की गतिशीलता के बारे में बात करते हुए भाषा में पैनापन लाते है जिससे कहानी व्‍यंजनापरक हो कर अत्यधिक प्रभावशाली हो जाती है। उन्‍होंने अपनी उपमाओं के सहारे हिन्‍दी कहानी को अपने तरीके से समृद्ध किया। इन उपमाओं के सहारे उन्‍होंने भारतीय निम्‍नमध्‍यवर्गीय व्‍यक्ति की मनोदशा, मनोभावों, क्रियाकलापों को गहराई से व्‍याख्‍यायित किया। उनकी भाषा और शिल्प हिन्‍दी कहानी में विलक्षण हैं।  


अमरकांत उस पीढ़ी के कथाकार रहे हैं जिन्‍होंने आज़ाद भारत के बाद बनते भारत को और आजादी के बाद हुए मोह-भंग को वैयक्तिक स्‍तर पर भी और सामूहिक स्‍तर पर भी महसूस किया और लोकतांत्रिक जीवन पद्धति को आत्मसात करने की आकांक्षा को व धर्मनिरपेक्ष, जातिविहीन समतावादी, वैज्ञानिक समाज के बनने के सपने को खंड-खंड होते देखा था। अमरकांत की इस खंडित समाज को और खंडित सपने का जीवंत आईना हैं।   


(बया के अमरकांत अंक से साभार।)



हरियश राय



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हरियश राय 

वी – 27/15, डीएलएफ, फेज – 3 

गुरुग्राम – 122010 


ई मेल : hariyashrai@gmail.com


 मो : 9873225505

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