सुशील सुमन का आलेख ‘धरती’ का कवि त्रिलोचन

 

त्रिलोचन


प्रगतिशील काव्य परंपरा में त्रिलोचन का नाम अग्रणी कवियों में शामिल है। हिन्दी में सोनेट परम्परा के एक मात्र सशक्त कवि त्रिलोचन ही हैं। अपने आस पास के विषयों को जिस तरह वे अपने सानेट्स में साधते हैं वह दुर्लभ है। इलाहाबाद के महाकुम्भ 1954 पर उनके द्वारा लिखे गए सानेट्स एक दस्तावेज की तरह हैं। युवा आलोचक सुशील सुमन लिखते हैं "त्रिलोचन के यहाँ सानेट्स को साकार होते देखना और पढ़ते हुए स्वयं भी उसे जीना, एक बेहतरीन अनुभव था। 'तुलसी बाबा भाषा मैंने तुमसे सीखी' या 'ग़ालिब गैर नहीं हैं, अपनों से भी अपने हैं' जैसे इनके सॉनेट्स प्रथम पाठ में ही मन में उसी तरह से बस गए, जैसे 'चम्पा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती' कविता। धीरे-धीरे उनकी और कविताओं तक भी हमारी पहुँच जैसे-जैसे बनती गयी, कवि त्रिलोचन से हमारा प्यार और गाढ़ा होता गया।" आज त्रिलोचन के जन्मदिन पर हम उन्हें उनकी स्मृति को नमन करते हैं। आइए इस अवसर पर हम पढ़ते हैं सुशील सुमन का आलेख  ‘धरती’ का कवि त्रिलोचन।




‘धरती’ का कवि त्रिलोचन

 

सुशील सुमन

 


जहाँ तक मुझे याद आता है कि प्रगतिशील हिन्दी कविता की प्रसिद्ध त्रयी केदार-नागार्जुन-त्रिलोचन में से सबसे पहले हमारा परिचय केदारनाथ अग्रवाल से हुआ। बिहार के तब के स्कूली पाठ्यक्रम में कक्षा छः की हिन्दी पाठ्यपुस्तक में केदारनाथ अग्रवाल की प्रसिद्ध कविता 'बसंती हवा' लगी थी, जिसे बार-बार हम बच्चे झूम-झूम कर गाते हुए पढ़ते। उसके बाद सम्भवतः कक्षा आठ में नागार्जुन से प्रथम परिचय हुआ, 'कल और आज' शीर्षक कविता के माध्यम से। मुक्त छंद में और बिलकुल नये ढंग की होने के कारण, इस कविता का तब कोई विशेष प्रभाव हमारे पाठक मन पर नहीं पड़ा। लेकिन ठीक अगले वर्ष ही 'बादल को घिरते देखा है' शीर्षक बहुचर्चित कविता को जब पढ़ने का अवसर मिला, तो नागार्जुन हमेशा के लिए ज़ेहन में दर्ज हो गये। वह कविता भी गेय थी। उसे भी हम गा-गा कर याद करते थे। स्कूली दिनों यानी दसवीं कक्षा तक के पाठ्यक्रम में जिन आधुनिक कवियों को पढ़ने का हमें अवसर मिला, उनमें अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, बालकृष्ण शर्मा नवीन, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन  पंत, महादेवी वर्मा, रामनरेश त्रिपाठी, माखन लाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान, नेपाली, आरसी प्रसाद सिंह, जानकीवल्लभ शास्त्री, अज्ञेय, शमशेर, दुष्यन्त, केदार नाथ सिंह आदि प्रमुख थे। सम्भव है कुछ महत्त्वपूर्ण नाम छूट भी रहे हों, लेकिन इतना तो याद आ ही रहा कि उनमें त्रिलोचन नहीं थे। इन बातों का उल्लेख करने का कारण यह है कि हिंदी कविता के पाठक रूप में आज मुझे यह किंचित अजीब और अखरने वाली बात लगती है कि हरिऔध से ले कर केदार नाथ सिंह तक की कविताएँ हमने स्कूल में पढ़ी, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर, अज्ञेय- ये सभी हमारे पाठ्यक्रम में शामिल थे, लेकिन उसी दौर के एक बहुत महत्त्वपूर्ण कवि त्रिलोचन केवल बाहर थे।


त्रिलोचन से हमारा परिचय हुआ बी. ए. में। उनकी कविताओं से भी और उनके व्यक्तित्व से भी। कवि त्रिलोचन से उनकी कविताओं के माध्यम से और उनके व्यक्तित्व से काशी नाथ सिंह के संस्मरण 'दंतकथाओं में त्रिलोचन' के माध्यम से। हालांकि जब प्रो. अवधेश प्रधान द्वारा सम्पादित 'त्रिलोचन की डायरी' से गुज़रने का अवसर मिला, तब पता चला कि काशी नाथ जी के संस्मरण 'दंत कथाओं में त्रिलोचन' में उनका बहुत अधूरा व्यक्तित्व सामने आ सका है। त्रिलोचन जी के जीवन संघर्ष को ठीक से जानने के लिए उनकी डायरी का अध्ययन आवश्यक है। बहरहाल, छायावादोत्तर हिन्दी कविता के पेपर में उनकी कई कविताएं लगी थीं, जिनमें सबसे गहरी याद 'चम्पा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती' कविता की है। उस कविता का हमारे ऊपर बहुत प्रभाव पड़ा। उनकी अन्य कविताओं को पढ़ने के लिए ज़रूरी प्रेरणा इसी कविता से मिली। तब किसी भी कवि की पाठ्यक्रम के अलावा अन्य कविताएँ पढ़नी हों, तो उसके लिए राजकमल प्रकाशन की सीरीज 'प्रतिनिधि कविताएँ' सबसे मुफीद थी। हमने पाठ्यक्रम के लगभग सभी कवियों की प्रतिनिधि कविताएँ या उनका कोई न कोई संचयन ले लिया था, और उनकी ज़्यादा से ज़्यादा कविताएँ पढ़ने का यत्न किया करते थे। 'प्रतिनिधि कविताएँ' से त्रिलोचन जी की कविताओं को पढ़ते हुए, सबसे ज़्यादा अलग एहसास उनका सॉनेट पढ़ते हुए महसूस होता था। इसमें विशेष आनन्द इसलिए था कि बाक़ी किसी कवि के पास सॉनेट था नहीं। अंग्रेजी कविता का अध्ययन न होने के कारण सॉनेट के विषय में केवल सुन रखा था कि यह अंग्रेजी कविता का एक प्रसिद्ध छंद है, जिसमें चौदह पंक्तियाँ होती हैं। त्रिलोचन के यहाँ इसे साकार होते देखना और पढ़ते हुए स्वयं भी उसे जीना, एक बेहतरीन अनुभव था। 'तुलसी बाबा भाषा मैंने तुमसे सीखी' या 'ग़ालिब गैर नहीं हैं, अपनों से भी अपने हैं' जैसे इनके सॉनेट्स प्रथम पाठ में ही मन में उसी तरह से बस गए, जैसे 'चम्पा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती' कविता। धीरे-धीरे उनकी और कविताओं तक भी हमारी पहुँच जैसे-जैसे बनती गयी, कवि त्रिलोचन से हमारा प्यार और गाढ़ा होता गया।


त्रिलोचन का पहला कविता संग्रह 'धरती' का प्रकाशन सन् 1945 में प्रदीप कार्यालय, मुरादाबाद से हुआ। जब इस संकलन का प्रकाशन हुआ तब कवि की अवस्था 28 वर्ष की थी। एक 28 वर्षीय कवि की पहली किताब होने के बावजूद यह कविता संग्रह बहुत सारी ऐसी कविताओं से सम्पन्न है, जो कविताएँ आज भी त्रिलोचन की प्रतिनिधि कविताएँ के रूप में जानी और मानी जाती हैं। 'मिल कर वे दोनों प्रानी/ दे रहे खेत में पानी', 'जब जिस छन मैं हारा', 'जीवन का एक लघु प्रसंग', 'धूप सुन्दर धूप में जग रूप सुन्दर', 'चम्पा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती', 'भोरई केवट के घर' जैसी कई प्रसिद्ध कविताएं, जो भारत के जनसाधारण के जीवन-राग के साथ गहरायी से जुड़ी हैं,  इसी पहले कविता-संग्रह में हैं। ये कविताएँ न केवल अपने कथ्य की ताज़गी के लिहाज़ से बल्कि अपनी नवोन्मेषी काव्यभाषा के कारण भी आधुनिक हिंदी कविता के विकास में असाधारण महत्त्व रखती हैं।


डॉ. नामवर सिंह ने त्रिलोचन की काव्य भाषा की विशेषताओं पर बात करते हुए ‘चम्पा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती’ कविता का विशेष रूप से उल्लेख किया है। अपने मशहूर निबन्ध ‘एक नया काव्यशास्त्र त्रिलोचन के लिए’ में नामवर सिंह  लिखते हैं- “त्रिलोचन की शब्द-साधना यह है कि उन्होंने अपनी कविता के लिए कोई नई भाषा गढ़ी नहीं बल्कि पहले से मौजूद जीवित भाषा को उसकी जीवन्तता में ग्रहण किया- उस भाषा में उन लोगों को अपने आप बोलने दिया जिन्हें अभी तक बोलने का मौका नहीं मिला था।… ‘चम्पा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती’ शीर्षक कविता इस तरह का पहला प्रयास है। यह कविता सन 1940-41 के आस-पास की है। हिंदी कविता के लिए उस समय यह एकदम नई भाषा थी। हर तरह की चालू काव्य भाषा से अलग। क्योंकि इसमें चम्पा स्वयं बोलती है- वह चम्पा जो ‘काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती’ और जिसे ‘बड़ा अचरज होता है: इन काले-काले चिह्नों से कैसे ये सब स्वर निकला करते हैं।”1







इस कविता संग्रह की कुछ शुरूआती कविताओं में आज़ादी के निर्णायक और आख़िरी दौर के आंदोलन की प्रतिध्वनि दिखाई देती है। नवयुग का एक आह्वान दिखाई पड़ता है। 'सोच-समझ कर चलना होगा/अगति नहीं लक्षण जीवन का' शीर्षक कविता की इन पंक्तियों को इस संदर्भ में देख सकते हैं-


“बिगुल बजाओ और बढ़ चलो
यह सम्मुख मैदान पड़ा है
मानवता के मुक्ति-दूत तुम
कौन तुम्हारे साथ अड़ा है

यह संघर्ष-काल आया है
आयी जय-यात्रा की बेला

तुम नूतन समाज के स्रष्टा
पगध्वनि में गर्जन जीवन का”2


इस पूरी कविता को पढ़ते हुए आभास होता है कि यह कविता 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के आस-पास लिखी गई होगी। आज़ादी के आंदोलन की पृष्ठभूमि में लिखे जाने के बावजूद इन कविताओं में केवल राजनीतिक आज़ादी की बात नहीं है, बल्कि त्रिलोचन की राजनीतिक चेतना उसी समय से सामाजिक स्वतंत्रता से आपूरित एक मुकम्मल आज़ादी के ख़याल से रौशन है। समतामूलक समाज की कामना से लैस 'तुम बढ़ो विजय के पथ पर/नव तेज ओज धृति गति धर' शीर्षक कविता में त्रिलोचन लिखते हैं -


“तुम बढ़ो जिस तरह दीप्त ज्वाल
कर दग्ध रूढ़ि का अन्तराल

साम्राज्यवाद
सामन्तवाद
औ' व्यक्तिवाद


जो बाँध रहे गति जीवन की कर उन्हें नष्ट
तुम सामाजिक स्वातंत्र्य-साम्य को करो स्पष्ट


होवें स्वतंत्र नारी-नर
हो सामंजस्य अमलतर
मैं गान विजय के गाऊँ
जन-जन की शक्ति जगाऊँ”3


हम देख सकते हैं कि त्रिलोचन जन शक्ति को सम्बोधित करते हुए उस विजय की कामना करते हैं, जिसमें नर-नारी सभी स्वतंत्र हों, सारी रूढ़ियां समाप्त हों, साम्राज्यवाद के साथ-साथ सामन्तवाद, व्यक्तिवाद भी नष्ट हो।







प्रगतिशील आंदोलन से जन्मी चेतना त्रिलोचन की इस संग्रह की लगभग सभी कविताओं में दिखाई देती है। चाहे वह राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से संबंधी कविताएँ हो, जन-समाज से जुड़ी कविताएँ हों या साम्राज्यवाद और पूँजीवाद से पैदा होने वाले संकटों के प्रति आगाह करती कविताएँ। आज पूरी दुनिया पूँजीवाद के शिकंजे में है। पग-पग पर वह हमारा गला दबाता जा रहा है। इस क़दर मनुष्य उसके जाल में फंस चुका है कि निकलने की कोई राह नज़र नहीं आती। त्रिलोचन इन मुश्किलों को तभी देख रहे थे और अपनी कविता में सख़्त चिंता जाहिर कर रहे थे। उनकी एक कविता है - 'इन दिनों मनुष्य का महत्त्व कोई नहीं है'। इस कविता में वैसी काव्यात्मकता का तो अभाव है, जैसी इस संग्रह की अन्य कविताओं में है, लेकिन पूँजीवाद के दुष्परिणामों पर यह कविता ठीक से बात करती है। इस आख़िर में त्रिलोचन लिखते हैं -


“पूँजीवाद ने महत्त्व नष्ट कर दिया सबका
जीवन का, जन का, समाज का, कला का
बिना पूँजीवाद को मिटाये किसी तरह भी
यह जीवन स्वस्थ नहीं हो सकता
ज्ञान-विज्ञान से किसी प्रकार
कोई कल्याण नहीं हो सकता”4


त्रिलोचन की कविताओं में प्रेम और प्रकृति की भरपूर उपस्थिति है। प्रेम और प्रकृति को जिस उदात्त सादगी और सौंदर्यबोध के साथ त्रिलोचन जीते हैं और उसे कविता में अभिव्यक्त करते हैं, वह उनकी कविताओं को आलोकित करता है। प्रेम और प्रकृति से ही जीवन के लिए ज़रूरी रस प्राप्त होता है। न केवल प्रकृति हमें सींचती और हमारा पोषण करती है, बल्कि प्रेम भी हमें सींचता और हमारा पोषण करता है। प्रेम से मनुष्य को अपार शक्ति मिलती है। जब कोई मनुष्य निर्बल दिखाई देता है तो इसका मतलब है कि वह प्रेम से वंचित है। प्रेम करने वाले लोग जब पास होते हैं या जब किसी भी व्यक्ति को पता होता है कि इस दुनिया में हमसे प्रेम करने वाले लोग हैं, तब वह विपरीत से विपरीत परिस्थिति में भी हताश नहीं होता। त्रिलोचन के यहाँ प्रेम की महत्ता अनेक कविताओं में दिखाई देती है। 'धरती' संग्रह में ही संकलित एक कविता, जो मुझे बहुत प्रिय है -


“जब जिस छन मैं
हारा, हारा, हारा
मैंने तुम्हें पुकारा

तुम आये
मुसकाये
पूछा-
कमजोरी है?

बोला- नहीं, नहीं है
किसने तुमसे कहा कि मुझको कमजोरी है

तुम सुन कर
मुसकाये
मुझको रहे देखते
मुझको मिला सहारा

जब जिस छन मैं
हारा, हारा, हारा
मैंने तुम्हें पुकारा”5






इस कविता संग्रह में बहुत सारी ऐसी महत्त्वपूर्ण कविताएँ हैं, जो उद्धृत करने योग्य हैं। सबकी चर्चा यहाँ सम्भव नहीं है। लेकिन यही तथ्य इस कविता संग्रह के महत्व को स्थापित करने को पर्याप्त है कि 1945 में यह प्रकाशित हुआ और जुलाई, 1946 के 'हंस' में मुक्तिबोध ने इसकी समीक्षा लिखी, जिसमें उन्होंने 'धरती' की भूरि-भूरि प्रशंसा की। समीक्षा की शुरूआत में ही मुक्तिबोध लिखते हैं - “मुझे कहने दीजिए कि 'धरती' के गीतों का क्षेत्र बहुत अधिक व्यापक है, जिनसे मात्र काव्य-सामर्थ्य ही नहीं प्रकट होता, वरन् जीवन के विस्तृत दायरे के विभिन्न भागों का काव्यात्मक आकलन करने की क्षमता भी प्रकट होती है।”6 हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में अक्सर इस बात की चर्चा होती है कि मुक्तिबोध ने जयशंकर प्रसाद पर लिखा, लेकिन सूर्यकांत त्रिपाठी निराला पर नहीं लिखा। बात ठीक भी है। लेकिन जब काव्यात्मक मानदंड की बात आती है तो मुक्तिबोध निराला की चर्चा करते हैं। इससे यह पता चलता है कि एक बड़े और महत्वपूर्ण कवि के रूप में निराला बराबर उनके मस्तिष्क में रहते थे। त्रिलोचन पर लिखते हुए मुक्तिबोध को निराला याद आते हैं। मुक्तिबोध लिखते हैं- “केदार नाथ अग्रवाल, गिरिजा कुमार माथुर, भवानी प्रसाद मिश्र, आदि नये उठते हुए कवियों में त्रिलोचन का स्थान महत्त्वपूर्ण है, भाव की दृष्टि से और टेकनीक की दृष्टि से। भवानी प्रसाद मिश्र की भावनाओं में जो भव्य व्यापक औदार्य है, और जो गद्य का टेकनीक है, वह त्रिलोचन में भी है, परन्तु अधिक सधे हुए और सँवारे हुए रूप में। शायद इस तटस्थता का कारण कवि पर निराला का प्रभाव हो।”7 इस समीक्षा में आगे भी मुक्तिबोध त्रिलोचन की भाषा और गीतात्मकता के संदर्भ में निराला की चर्चा करते हैं।


त्रिलोचन की कविताओं में उत्तर भारतीय जन-जीवन के जितने रंग, जन साधारण की ज़िंदगी के जितने पहलू जिस सहजता से चित्रित और मुखरित हुए हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है। नामवर सिंह ने त्रिलोचन पर लिखे अपने एक अन्य आलेख “‘साधारण’ का असाधारण कवि : त्रिलोचन” में उनकी कविताओं की इन विशेषताओं का उल्लेख किया है। प्रेमचंद के कथा-साहित्य से त्रिलोचन की कविताओं का साम्य बताते हुए नामवर जी ने उनकी कविताओं के उपर्युक्त पहलू की ठीक से विवेचना की है। उक्त आलेख में नामवर सिंह  लिखते हैं- “धरती’ की जिस भाषा से ‘चम्पा’ की कली फूटी है, उसी से आगे चल कर त्रिलोचन ने ‘नगई महरा’ शीर्षक लम्बी कविता की सृष्टि की, जिसमें गाँव की पूरी संस्कृति मूर्तिमान हो उठती है। त्रिलोचन की कविता में साधारण जनों के बीच से उठाए हुए ऐसे चरित्र बहुत आए हैं। प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों और कहानियों में जैसी दुनिया रची है, कविता के क्षेत्र में बहुत-कुछ वही काम त्रिलोचन ने किया है। यहाँ अमूर्त जीवन नहीं, हाड़-मांस के जीते-जागते इनसान हैं। चित्र नहीं, चरित्र हैं। लड़ते-झगड़ते, हँसते-खीझते, नाचते-गाते, गिरते-पड़ते, फिर भी जीते-जागते।”8


धरती' से आरम्भ हुई त्रिलोचन की काव्य यात्रा 'दिगंत' तक जाती है, जिसमें 'गुलाब और बुलबुल' की बातें भी हैं, और 'ताप के ताये हुए दिन' की भी। ‘जीवन की कला’ सिखाने वाली उनकी इस सुदीर्घ और समृद्ध काव्य साधना की विस्तार से विवेचना करने की आवश्यकता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि इसके लिए त्रिलोचन के काव्य संसार पर एकाग्र एक पूरी किताब लिखना अभीष्ट है। त्रिलोचन के बहुतेरे पाठकों के मन में यह चाहत होगी, इन पंक्तियों के लेखक के मन में भी है। आशा है कि यह कामना कभी-न- कभी ज़रूर फलवती होगी।




संदर्भ ग्रंथ सूची :

1. कविता की जमीन और जमीन की कविता, नामवर सिंह (सं. - आशीष त्रिपाठी), राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहली आवृत्ति: 2011, पृष्ठ संख्या - 184-185


2. धरती, त्रिलोचन शास्त्री, प्रदीप कार्यालय, मुरादाबाद, प्रकाशन वर्ष: 1945, पृष्ठ संख्या - 5


3. धरती, त्रिलोचन शास्त्री, प्रदीप कार्यालय, मुरादाबाद, प्रकाशन वर्ष: 1945, पृष्ठ संख्या-6-7


4. धरती, त्रिलोचन शास्त्री, प्रदीप कार्यालय, मुरादाबाद, प्रकाशन वर्ष: 1945, पृष्ठ संख्या-84


5. धरती, त्रिलोचन शास्त्री, प्रदीप कार्यालय, मुरादाबाद, प्रकाशन वर्ष: 1945, पृष्ठ संख्या-31


6. मुक्तिबोध रचनावली-5, सं. - नेमिचंद्र जैन, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, तीसरी आवृत्ति: 2011, पृष्ठ संख्या - 374-375


7. मुक्तिबोध रचनावली-5, सं. - नेमिचंद्र जैन, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, तीसरी आवृत्ति: 2011, पृष्ठ संख्या - 382


8. कविता की जमीन और जमीन की कविता, नामवर सिंह (सं. - आशीष त्रिपाठी), राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहली आवृत्ति: 2011, पृष्ठ संख्या - 198




सुशील सुमन




सम्पर्क 


मोबाइल : 9939012325


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण