पीयूष कुमार का आलेख 'लोहे से बुनी तरल कामनाओं का कवि'

 

रजत कृष्ण 



हमारे देश का किसान आज भी अपनी खेती के लिए पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर है। प्रकृति ने साथ दिया तो जीवन जैसे तैसे साल भर चल जाता है। लेकिन प्रकृति ने कभी अपनी त्यौरियाँ चढ़ा लीं तो उनका जीवन कष्टकारी हो जाता है। सीधे सादे किसान सत्ताओं के आसान शिकार होते हैं। सभी उसे नोचने खसोटने में लगे रहते हैं। इसीलिए बतौर पीयूष कुमार 'रजत कृष्ण की जनपदीय चेतना में कुव्यवस्था के विरुद्ध धीमी सुलगती आग हैं। इस आग में तप कर उनकी कविताएँ कुंदन होने की यात्रा करती हैं। वे बहुस्तरीय और बहुआयमी जीवन की जटिलता को देख पाने और जाहिर कर सकने वाले कवि हैं। रजत कृष्ण की विशेषता है कि वे छोटी संवेदना का एकत्रीकरण कर विराट संदर्भों को पकड़ते हैं। उनकी कविताएँ महानगरीय भावबोध और जीवन से इतर लोक की सुदीर्घ यात्रा का प्रतिफल हैं। उनकी सभी कविताओं में लोक, जंगल और आम आदमी की व्यथा सरल सहज रूप में व्यंजित हुई हैं।' आज रजत कृष्ण का जन्मदिन है। पहली बार की तरफ से उन्हें जन्मदिन की बधाई एवम शुभकामनाएं। आइए इस अवसर पर हम पहली बार पर पढ़ते हैं रजत कृष्ण पर केन्द्रित पीयूष कुमार का आलेख 'लोहे से बुनी तरल कामनाओं का कवि'।



'लोहे से बुनी तरल कामनाओं का कवि'


 पीयूष कुमार


मानवीय अस्मिता और उसके संघर्ष को आंचलिक भावों और शब्दों से अपनी कविताओं में लाने वाले रजत कृष्ण तीन दशकों से कविता और साहित्य में सक्रिय हैं। प्रतिष्ठित पत्रिका 'सर्वनाम' के संपादक रजत कृष्ण ने विभिन्न लेखों और समीक्षाओं से साहित्य जगत को समृद्ध किया है। विभिन्न साहित्यिक सम्मानों से सम्मानित कवि रजत कृष्ण के अब तक दो कविता संग्रह 'छत्तीस जनों वाला घर' (2011) और 'तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना' (2020) प्रकाशित हो चुके हैं।


रजत कृष्ण की कविताओं पर बात करने से पहले उन्हें जानना जरूरी है। इसलिए कि वे आम कवि नहीं हैं। उनका जीवन प्रबल जिजीविषा का अद्भुत उदाहरण है जो संसार के लिए प्रेरक है। 26 अगस्त को जन्मे रजत तो आम बच्चों से ही थे किन्तु 14 साल की उम्र में मस्कुलर डिस्ट्रोफी नामक बीमारी का शिकार हो गए जिसका इलाज आज भी संभव नहीं है। शरीर की मांसपेशियों ने साथ ही छोड़ दिया! इलाज की हरसंभव कोशिशों से भी निराशा ही हाथ लगी। हाँ, पता जरूर चला कि अब रजत की आयु सिर्फ़ 30 बरस तक की है। इस आघात को वे और उनका परिवार कैसे सह सका, वही जानते हैं। इस अत्यंत निराशाजनक स्थितियों में रजत ने अपनी जिजीविषा को प्रबल किया और अपने कठिनतम जीवन से संघर्ष किया। 14 साल बाद छूटी पढ़ाई पूरी की। एम. ए. हिंदी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उच्च शिक्षा में अनिवार्य राज्य स्तरीय SET परीक्षा पास की। 2009 में अपनी पीएच. डी. पूरी की और आज सहायक प्राध्यापक के रूप में शिक्षा के क्षेत्र में सेवा दे रहे हैं।


रजत कृष्ण की कविताओं में अनुभूति की प्रामाणिकता सिर्फ़ कविता में ही नहीं, वरन जीवन में भी है। उनके पात्र अपने घर, पारा-पड़ोस के और देखे-भाले लोग हैं इसलिए उन्हें अपनी कविता में अप्रस्तुत विधान की आवश्यकता नहीं पड़ती या कम पड़ती है। अपनी कविताओं को रजत जिस रागात्मक आवरण और उदात्त तत्वों के माध्यम से जाहिर करते हैं, वह सार्वभौमिक और सर्वकालिक हैं। अपने कठिनतम जीवन के अँधेरों से गुजर कर निकला उनकी जिजीविषा का प्रकाश पाठक के मन में प्रेरणा भरता है। उनकी कविता 'छत्तीस जनों वाला घर' में वे लिखते हैं -


 छत्तीसगढ़ के एक छोटे से जनपद

 बागबाहरा में 

 छत्तीस जनों वाला एक घर है

 जहाँ से मैं आता हूँ कविता के इस देश में


 छत्तीस जनों वाला हमारा घर

 नब्बे वर्षीया दादी की साँसों से लेकर

 डेढ़ वर्षीय ख़ुशी की आँखों में बसता और ख़ुश होता है

 यहाँ आने जाने को एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं,

 चार दरवाज़े हैं

 और घर का एक छोर एक रास्ते पर

 तो दूसरा दूसरे रास्ते पर खुलता है


 घर के दाएँ बाजू पर रिखीराम का घर है

 तो बाएँ में फगनूराम का

 रिखी और फगनू हमारे कुछ नहीं

 पर एक से जीजा का रिश्ता जुड़ा

 तो दूसरे से काका का


 घर के ठीक सामने गौरा चौरा और पीपल का पेड़ है

 जो मेहमानों को हमारे घर का ठीक-ठीक पता देते हैं

 यही, हाँ यही घर है जोहनराम साहू का

 सावित्री देवी का, मोहित, शैलेश, अश्वनी, धरम

 भूषण, महेश, रामसिंह, रामू और रजत कृष्ण का


 आँगन में तुलसी और तुलसी के बाजू में छाता

 छाता के बाजू में विराजता है बड़ा-सा सिलबट्टा

 जो दीदी भैया की शादी का स्वाद तो चखा ही

 चखा रहा है अब स्वाद भांजी मधु

 और भतीजी मेघा की मेहंदी का


 आँगन के बीच में एक कुआँ है

 और कुआँ है बाड़ी में

 बाड़ी से लगा है कोठा

 कोठा से जुड़ा है खलिहान

 जहाँ पर कार्तिक में खेत से आता है धान

 और लिपी-पुती कोठी गुनगुना उठती है


 स्वागत है

 आओ नवान्न स्वागत है

 आओ नवान्न स्वागत है...


रजत कृष्ण की इस लोक दृष्टि का आधार है उनकी कृषक पृष्ठभूमि। समकालीन या कहें हिंदी कविता में किसानों पर कविताओं का अकाल उतना ही है जितना किसान के जीवन में होता आया है। किसानों पर कविता के इस अकाल में जो कुछ भी हरियर दिखता है, उनमें रजत कृष्ण की कविताएँ भी हैं। रजत कृष्ण की किसानों पर पच्चीस से अधिक कविताएँ हैं जो उनकी पृष्ठभूमि के कारण जीवंत, वास्तविक, सरल और सहजता से पेश हुई हैं। उनका किसान मेहनतकश तो है ही, दुख तकलीफ वाला भी है। 'खेत और किसान' कविता में वह लिखते हैं-


 हम कहते थे खेत

 और महक़ उठती थी

 पुरखों के खून पसीने से

 सीझी भीजी माटी


 हम कहते हैं खेत

 और झूल आते हैं

 अब तो आंखों में

 अपने ही घर की मियार में

 फांसी पर झूलते किसान

 कीटनाशक पीते बेटे उसके जवान






किसान जीवन से रजत कृष्ण की यह आत्मीयता उनके अपने घर से शुरू होती है। उनकी मां, पिता, भाई सबका ताज खेत और खलिहान से जुड़ा है। उनकी एक कविता है, 'कमइलीन की बेटी'। कमइलीन बेटी रजत कृष्ण की अपनी मां है। यह मां इस दुनिया की उस हर मां का प्रतिनिधित्व करती है जो जांगर पेर कर, पांच कोस से पानी ला कर अपने परिवार को पोसती हैं। इस कविता में वे लिखते हैं-


 मेरी मां किसान की बेटी है

 किसानी उसे विरासत में मिली है

 वह जब ब्याह कर आई

 उसके पांव का माहुर घर की देहरी पर छूटा

 हाथ की मेंहदी छूटी खेत के मेड़ पर


रजत कृष्ण किसानी के कवि हैं और शायद इस विषय मे अनुभूति की विश्वसनीयता लिए हिंदी कविता में अकेले कवि हैं। इस विषय पर कृषि के आधुनिकीकरण, बाजार के दबाव और इन सबके कारण छीजती जाती मनुष्यता का दर्द रजत कवि रूप में महसूस करके उसे पारंपरिक कृषि उपकरणों की पीड़ा के माध्यम से व्यक्त करते हैं। उनकी 'मिट्टी काठ और लोहा' कविता के इस अंश में देखें-


 सूखे पड़े काठ के सपनों से भी

 लोप होने लगे हैं

 बिंधना पटासी बंसुला और आरी

 जंग खाये लोहे का मन भी होने लगा है भारी

 मिट्टी अपना दुःख किससे कहे

 किसके कांधे पर सिर रखकर रोये काठ


 लुहारी लाड़ से विरत हो रही इस दुनिया में

 कौन सुनेगा लोहे का विलाप!


कितना भाव सघन और विरल मानवीयकरण है कृषि से लेकर कृषि उपकरणों में। जंग खाया लोहा वजन में घटता है पर उसका मन भारी है, मिट्टी सबसे ज्यादा धैर्यवान है पर वही दुखी है, काठ को कठोर माना गया है पर उसे भी कंधा चाहिए, लोहे जैसी चीज यहाँ विलाप कर रही है। यह दुर्लभ बिम्ब हैं और संभवतः नवीन भी।


खेत और खेती रजत कृष्ण का आरम्भ और अंत है। 'हार के विरुद्ध', 'बनिहारिने', 'खेत और किसान', 'आखिरी दीया', 'दस्तखत की स्याही में', 'डूबती आंखों में बिटिया', 'महाजन की हँसी', 'खेत', 'धान किसान', 'अगहन की सुबह', 'धान मिंजाई के दिन', 'खलिहान में', 'सूखे के दिन', 'मिट्टी काठ और लोहा', 'लोहे का विलाप', 'सुकाल में', 'बत्तीस डिसमिल जमीन', 'आत्महत्या के बीच' जैसी तमाम कविताएँ किसानी का हिंदी कविता में दस्तावेज के रूप में दर्ज हैं। जनपदीय और श्रमिक पृष्ठभूमि के कारण रजत कृष्ण का कवि मन लगातार श्रम और श्रमिक पर विचार करता रहता है। इस श्रमिक जगत में भी उनकी कविताओं का ज्यादातर क्षेत्र खेती के ही मजदूर हैं। उनका जुड़ाव कभी भी इन चिंताओं से विलग नहीं होता। 'दो मजदूर', 'आदिम मितान', 'गोधूलि', 'उस आदमी का जीना', 'तिकड़मी', 'हद', 'जरखरीद बिक्री' आदि कविताओं में मजूर और उसकी मेहनत और शोषण का चित्रण है। उनकी कविता 'दो मजदूर' में श्रम के बीच के अवकाश को वे देखते हैं और इन शब्दों में महसूस करते हैं-


'आएगा न कोई मुक्तिदाता

 'भरम काल' से

 निकलें निकलायें

 चलो संगी बीड़ी सिपचाएँ

 रोम रोम जुड़ायें न

 आग दहकाएँ।'


इसी तरह उनकी एक कविता है, 'बनिहारिने'। स्त्री मजदूर को छत्तीसगढ़ में बनिहारिन कहते हैं। यहाँ रजत कृष्ण श्रम में नारी का स्थान सुनिश्चित करते हैं-


 सुख समृद्धि के नाम पर

 दिन पर दिन हो रहे हैं बंधुआ

 जब काली रातों के हम

 तब श्रम की उजास से झुका रही होती हैं

 दिनमान को अपने कदमों में पूरे के पूरे ही

 बनिहारिनें यह सभी हमारे गांव जनपद की






प्रतिरोध रजत कृष्ण की कविताओं का मुख्य गुण है। एक कवि का मेयार भी यही है। रजत कृष्ण आम जीवन की कठिनाइयों और व्यवस्था जनित अव्यवस्था को बेहतर इसलिए भी पहचानते हैं क्योंकि वे गांव जनपद से तो आते ही हैं, कृषक पृष्ठभूमि से भी आते हैं। उनकी प्रतिरोधी कविताओं में स्पष्टता और मजबूती अपने सादे शब्दों में साफ दिखाई देती है। उनके सादे शब्दों की मारकता उनकी इस कविता 'पक्षधर' में देख सकते हैं -


 खंजर हो नागरिक के हाथों में

 और नागरिक की पीठ ही हो

 एक मात्र लक्ष्य

 ऐसे वक्त क्या करेंगे आप?


 पहचानेंगे हम खंजर लिए हाथ

 और खड़े होंगे जीवन के पक्ष में।

 जीवन के पक्ष में बोले गए शब्द

 चुभते हैं धारदार खंजर को भी


 खंजर चाहे काट ले जुबान हमारी

 हम होंगे पक्षधर जीवन के ही

 हाँ जीवन के ही!


यह प्रखरता, यह प्रतिरोधी चेतना जागरूकता का आह्वान भी है। इसकी बानगी उनकी कविता ‘रोटी और आँगन’ में देखें - 


 रोटी बँट कर के खुश होती है

 आँगन खुश होता है

 एक रह कर के


 इस बखत

 कुछ लोग

 इसे फिर उलटना चाहते हैं


 सावधान रहें साथियों

 सावधान ओ देश!

 चेहरा नया

 लक्ष्य पुराना है…


उनकी इस प्रतिरोधी चेतना को हम उनकी अन्य कविताओं मसलन, 'जड़ की खातिर', 'पेड़', 'पवन', 'पानी', 'आग', 'जख्म की उम्र', 'दंगे के बाद', 'उम्मीद बन खिल उठे सूरज', 'इस बखत शब्द' आदि कविताओं में देख पाते हैं जहाँ वे अपनी जिजीविषा के साथ जीवन के, मनुष्य के पक्ष में हर नकारात्मकता का प्रतिकार करते मजबूती से खड़े हैं।


रजत कृष्ण की कविताओं का वितान और विस्तार स्थानीय से लेकर वैश्विक है। जमीन, जंगल, लोक और इसमें जीवन से युद्धरत आम आदमी की व्यथा-कथा उनकी कविताओं में मार्मिकता से व्यंजित होती हैं। एक कवि अपनी हर बात में सूजन की बात पर केंद्रित रहता है। वह सोचता है कि नकारात्मकता या जो बात प्रकृति के, मनुष्य के विरुद्ध हो, वह कभी न हो। रजत भी यही सोचते हैं। उनकी 'युद्ध की बात करने से पहले' कविता का यह अंश देखें-


 युद्ध की बात करने से पहले

 देख सको तो युद्धों में मिली बैसाखियों को देखो

 देखो युगों युगों से भीज कर भारी हो रहे

 आंचल चुनरी और दुपट्टे को!






रजत कृष्ण न सिर्फ प्रतिरोध और सरोकारों के कवि हैं बल्कि प्रेम के भी कवि हैं। अपने कृषक परिवेश से इतने संपृक्त हैं कि प्रेम जैसे विषय पर भी उनकी कविता खेत, फसल और मिट्टी की उपमाओं के साथ लहलहाती है। कविता में यह स्वतःस्फूर्तता उनके प्रेम को जमीनी बनाती है और सरोकारों से जोड़े रखती है। रजत कृष्ण का कवि इन कविताओं में प्रेम और उसकी निजता को भावसघन रूप में जाहिर कर सका है। जीवन की फसल के लिए प्रेम के खाद-पानी, हवा-धूप के संबंध को जाहिर करती उनकी एक कविता है, 'तेरे न होने के दिनों में'। इसमें वे लिखते हैं -


 तेरे न होने के दिनों में

 तेरे होने को महसूस कर रहा हूँ

 तू मेरे हिस्से की

 हवा पानी धूप और मिट्टी है

 तुझसे पक रही है

 फसल मेरे जीवन की!


वे इसी तरह अपने कठिन समय में भी जीवन के प्रति राग और आशाओं को प्रेम का आलंब लेते नहीं भूलते प्रकृति को, उसके स्पंदन को। इस तरह की कविताओं में रजत कृष्ण के भाव कोमलतम अनुभूतियों के साथ आते हैं। यह कोमल भाव उनकी इस कविता 'तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना' में देख सकते हैं।


 बुझे मुर्झाए

 मेरी हँसी के पेड़ में

 टिमटिमा उठी हैं जो पत्तियाँ आज

 उनकी जड़ें तुम्हारे सीने में टहल रही

 मेरे नाम की मिट्टी-पानी में है ।


 मेरी आँखों के डूबते आकाश में

 गुनगुनाने लगी हैं जो तितलियाँ

 उनकी साँसें तुम्हारी हथेलियों में

 बह रही मेरे हिस्से की हवा में है।

 ओ जलधार मेरी !

 हार-हताशा टूटन और तड़कन के बीहड़ में बिलमे

 जो मुकाम और रास्ते

 खटखटा रहे हैं कुण्डियाँ मेरे पाँवों की

 मेरी खातिर बुनी हुई

 वह तुम्हारी प्रार्थना है


इसी तरह उनकी एक कविता है, 'काठ सा समय और एक जोड़ी आंखें। यहाँ भी हम प्रेम को कोमलतम पर सशक्त रूप में देख पाते हैं। रजत की प्रेम कविताओं में एक ठहराव है शांत जल सा। उनके प्रेम में एक साधक की लौ दिखाई देती है। गौरतलब है कि जनपदीय भाषा को बरतने का उनका अंदाज यहाँ हमें 'हौले हौल बरता है' में सहजता से दिखाई देता है-


 उम्र की इस वज्र दोपहरी में

 काटे नहीं कटता है

 काठ सा समय

 जब एक जोड़ा आंखें उसकी

 याद आती मुझे

 और गाने लगता मैं गीत वासंती

 एक नाम एक मुखड़ा वह बाहर कहीं नहीं

 भीतर मेरे अखंड ज्योति सा

 हौले हौले बरता है।


रजत कृष्ण की जिजीविषा और दृढ़ता के कवि हैं। यह दृढ़ता, और अडिगता उनकी कविता को एक नया आयाम देती है। यह अडिगता उनके व्यक्तित्व और कविता की अनिवार्य पहचान है। यह उनकी कविता 'उम्मीद बन खिल उठे सूरज' में देख सकते हैं-


 काट ली जाए

 उंगलियाँ हाथों की हमारी

 चाहे कुचल दिए जाएँ अंगूठे पांव के

 सभी चिह्न लिखत के मिटाए नहीं जा सकते

 कभी नहीं मिटाई जा सकती हैं ध्वनियाँ

 कोई भी यात्रा पथ पर दर्ज हुए

 हमारे पदचापों की!






या उनकी कविता ‘गवाही’ में उनका यह ताप और तेवर देखे सकते हैं - 


 तालाब में फेंका गया कंकड़

 कितना ही छोटा हो

 हलचल मचाए बिना

 नहीं रहता


 प्रतिरोध का स्वर

 चाहे एक ही कण्ठ से

 क्यों न फूटा हो

 पूरा हवा में गुम नहीं होता


 पीड़ा दबाए कुचले गए लोगों की पीड़ा

 कभी पोते को कहानी सुना रहे

 दादा की आँखों में उतरता है

 तो कभी उन कण्ठों से फूट पड़ती

 जो जमींदार के खेतों में

 कटाई करने आई बनिहारिनों की  होती है


 कितने ही जतन कर लिए जाएँ छुपाने के

 खून रंगे हाथों की गवाही

 कई बार

 कटे हुए नाखून ही देते हैं


रजत कृष्ण की इन तमाम कविताओं में जो ठहराव भरी विकलता है, उस पर उनके निजी जीवन का पर्याप्त असर है। संचरण में असमर्थ रजत का जीवन प्रेरक है कि कैसे विषम बाधाओं के सिर पर पांव रख कर उसे हराया जा सकता है। उनकी प्रबल जिजीविषा का प्रमाण उनकी कविताएँ हैं जो निराशा के घने अँधेरे में उजाले का सूरज बन कर आती हैं। उनकी लिखी कविता 'अँधेरे की उमर' साहित्य में आशावाद का एक दस्तावेज है। वे लिखते हैं -


 जब रगों में पसरने लगे अँधेरा

 और साथ छोड़ दें 

 दुनिया भर की बिजलियाँ

 प्रवेश करना अपने भीतर

 वहाँ जल रहे होंगे सहस्त्रों दिए

 अँधेरे की उमर

 चार पहर से अधिक भला कब हुई

 खटखटाना साहस और धैर्य की कुण्डियाँ

 सूरज खुद दरवाजा खोलेगा!


इस अदम्य जिजीविषा का विस्तार उनकी तमाम कविताओं में हमे देखने को मिलता है। संचरण में असमर्थ रजत कृष्ण के शब्दों में वह तासीर है जो कठिन समय में भी उत्साह जगा दे, हारे हुए को फिर से खड़ा कर दे। वह उन कवियों में से हैं जिनके लिखत और जियत में फांक नहीं है। उनकी कविताओं में यह ईमानदारी सहज ही दिखाई देती है। ईमानदार कवि होना इस कवि और कविता की भारी भीड़ वाले समय में दुर्लभ है। जीवन और साहित्य की ईमानदारी में वे विष्णुचंद्र शर्मा, मानबहादुर सिंह, गोरख पांडे की परंपरा के कवि ठहरते हैं। उनकी कविताओं का वितान स्थानीय से लेकर वैश्विक है। उनकी 'मंडेला की डायरी से', 'शर्मिला इरोम की हार' और 'रोहित वेमुला का माफीनामा' कविताएँ इसी श्रेणी की हैं। रोहित वेमुला एक युवा जिसके सपने थे भेदभाव का शिकार होकर अपने जीवन को हार गया। रजत कृष्ण उसकी इस हार को विश्लेषित करते हैं, उस भाव मे उतरते हैं और 'रोहित वेमुला का माफीनामा' कविता में जाहिर करते हैं-


 मैं एक बार फिर मारा गया

 सफेद सूत से बुने दस्ताने वाले उन्हीं हाथों से

 जिसका जिक्र हमारे पुरखे प्रायः करते थे


यह कविता रोहित वेमुला की आत्महत्या और उससे उपजे सवालों का उत्तर देती है और काल के कपाल पर हमेशा के लिए इस भेदभाव को दर्ज करती है। यह इस तरह दर्ज होता है कि 'एकलव्य' एक पौराणिक पात्र अवश्य था पर वास्तविक रूप में अब भी जीवित है, उसे जीवित रखा गया है। इसी तरह 'इरोम की हार' कविता आज कितनी प्रासंगिक सिद्ध हो रही, इन पंक्तियों में देख सकते हैं-


 इरोम की हार

 मणिपुर विधानसभा चुनाव में

 महज एक प्रत्याशी की हार है

 या है लोकतंत्र की बिसात में

 उन ताक़तों की बड़ी जीत

 जिनके लिए देश हो या राज्य सत्ता

 कभी सबसे मुफीद काठ होता

 तो कभी भुरभुरी मिट्टी के सिवा कुछ और नहीं!


आज मणिपुर को जलते चार महीने हो रहे हैं और इस ज्वाला में यह आसानी से समझ आता है कि सोलह वर्षों तक जिस जन के जनाधिकारों के लिए इरोम लड़ती रहीं, शायद उस जन को उनकी जरूरत थी ही नहीं। क्या यह माना जाए कि वहां जन ने गलती की और अब उसका परिणाम आ रहा है? रजत कृष्ण ने यह कविता 2017 में लिखी थी और इरोम की हार में सन्निहित चिंताओं को जाहिर किया था। यह चिंताएँ विकराल रूप में आज जाहिर हो रही हैं। इस लिहाज से इस कविता में यह कवि की दूरदृष्टि का एक बेहतरीन उदाहरण है।


रजत कृष्ण की जनपदीय चेतना में कुव्यवस्था के विरुद्ध धीमी सुलगती आग हैं। इस आग में तप कर उनकी कविताएँ कुंदन होने की यात्रा करती हैं। वे बहुस्तरीय और बहुआयमी जीवन की जटिलता को देख पाने और जाहिर कर सकने वाले कवि हैं। रजत कृष्ण की विशेषता है कि वे छोटी संवेदना का एकत्रीकरण कर विराट संदर्भों को पकड़ते हैं। उनकी कविताएँ महानगरीय भावबोध और जीवन से इतर लोक की सुदीर्घ यात्रा का प्रतिफल हैं। उनकी सभी कविताओं में लोक, जंगल और आम आदमी की व्यथा सरल सहज रूप में व्यंजित हुई है। समकालीन हिंदी कविता की समृद्धि में उनकी कविताओं का बड़ा योगदान है।


 ('लमही' 2023 में प्रकाशित)


 

पीयूष कुमार 



संपर्क : 


मोबाइल : 8839072306

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