जय प्रकाश की कविताएँ

  

जय प्रकाश 



भाषा अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। लेकिन अभिव्यक्ति के इस माध्यम के साथ भी कई दिक्कतें हैं। आज सारी नैतिकताएं, सारी प्रतिबद्धताएं जैसे ताक पर रख दी गई हैं। इनका कोई मूल्य नहीं है। येन केन प्रकारेन अपना स्वार्थ साधना ही केन्द्र में है। आज झूठ का बाजार गरम है। यह झूठ इस तरह, इतने माध्यमों से और इतनी बार बोला जा रहा है कि यही सच लगने लगता है। अपना विवेक इस्तेमाल न किया जाए तो सच झूठ में फर्क कर पाना बहुत मुश्किल है। कवि जय प्रकाश इसकी तहकीकात करते हुए लिखते हैं - 'हम कितने शर्तों पर जीवन जीते हैं/ हमारे पास कितने मुखौटे है?/ भाषा में झूठ का हिस्सा कितना है?' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं जय प्रकाश की कविताएँ।


                  

जय प्रकाश की कविताएँ

     


भाषा में झूठ का हिस्सा कितना है

  

एक मुक्ति की एषणा के पीछे

कितने पिंजरे है! 


सुख की चाह के पीछे कितने 

कितने खामोश दुख! 

एक मौन के पीछे

कितने शब्द मुखर रहते हैं! 

एक प्रेम के पीछे 

कितनी प्रतीक्षाएं घर किये रहती हैं


हम कितने शर्तों पर जीवन जीते हैं

हमारे पास कितने मुखौटे है? 

भाषा में झूठ का हिस्सा कितना है? 


मकानों में दरवाजें ज्यादा हैं

खिड़कियां कितनी कम है? 


स्वार्थ के कितने सांचे हैं

पाखंड के कितने आवरण! 

एक कृत्रिम आभा पाने के चक्कर में

हम कितनी सहजताओं को मार चुके हैं! 



निरभ्र आसमान पूछ रहा है 

      

उतने भी फूल नहीं बचे हैं प्रकृति में

जितना खिलाए हैं

कवियों ने कविताओं में


उतने रंग नहीं हैं जीवन में

जितना लोगों ने

उड़ेल रखा है 

बधाई संदेशों में.. 

नायक बनने की अकुलायी पीढी के पास

आगामी नस्लों को सुनाने के लिए

एक प्रेम कहानी तक नहीं है


जंगल मिट रहे हैं

बादल रूठ चुके हैं

नदियाँ मर रही हैं

तितलियों के पर टूट चुके हैं

मधुमक्खियाँ अब  दूर देश की वासी हैं


अरसों से आदमी ने भोर नहीं देखा

न तारों भरी रात

नहीं सुना पक्षियों का कलरव

नदियों का निनाद

निरभ्र आसमान पूछ रहा है 

विकास का कारंवा कहाँ तक पहुँचा है ? 

क्या ग्रीन प्लैनेट का टैग अभी भी धरती के पास ही है? 



सभी श्रद्धांजलियां विनम्र नहीं होती! 

          

सभी श्रद्धांजलियां

विनम्र नहीं होती! 

और सौ बार भी

शत्-शत् नमन

लिख देने भर से 

अहंकार नहीं मिटता


रेस्ट इन पीस सिर्फ 

शोक का स्लोगन हो सकता है! 


और मृत्यु 

अनंत शांति उपलब्ध करा ही दे 

इसका कोई प्रमाण नहीं 


शोक संदेशों की बाढ़ में

हम सबके अंदर 

सूख रही है 

संवेदना की नदी


इस जटिल और तकनीकी समय में

तल पर उथले पड़े हैं

शोर मचाते शब्द

और भावनाएँ

भाप बन कर उड़ रही हैं





      

खबर


यह ख़बर जोरों पर थी

मशीनें अब आदमी

की तरह सोंच सकती थीं

आदमी जी सकता था

मशीनों की तरह 

बिना सोचे विचारे


      

तीन लड़कियाँ

(एक यात्रा में लिखी गई कविताएँ) 

            

एक लड़की ने अपनी झोपड़ी के

पास सूरजमुखी बो दिया है... 

दूसरी ने सहेज लिया है

अपने दामन में

ओसारे की धूप... 

तीसरी ने हवाओं में

बिखेर दिया है, 

प्रेम के सब रंग

धरती के आंचल में

पीला सरसों फूल गया है... 

        

एक ने छेड़ दिया है

खनकती आवाज में

मौसम की सब राग, रागिनियां.. 

दूसरी ने चुरा लिया है

प्रकृति से सबसे चटख रंग.. 

तीसरी जो थिरक उठी है

धरती और मौसम की धुन पर... 

उसके माथे पर चांद

उतर आया है... 

बात यहीं  समाप्त  नहीं होती 

        

एक लड़की झोपड़ी

के पास भात पका रही है

दुसरी  घास काट रही है

तीसरी ने नन्हें बच्चे को गोद में 

ले रखा है.... 

हम समझते है कि

बस वो रूटीन काम कर रही है

पर याद रखें.. 

वो हर जगह अपनी नियति  से लड़ रही है.. 

इर्द गिर्द बर्फ सा कुछ जम गया है...



    

दु:ख 


बुद्ध ने कहा, 

सब्बम दुखम... 

अज्ञेय ने लिखा

वेदना में एक दृष्टि है

मीरा के पद थे

अंसुअन सींची-सींची प्रेम बेलि बोइ! 


हर युग में लोग कहते थे

दुख की मोटी खाल पर 

समय एक मरहम है.. 

हर दौर में रहस्य-दर्शी बताते थे 

दुख दूर की एक संभावना भी है






दुख इतने थे जीवन में


कुछ दुख दूर के थे

कुछ पास के 

दूर के दुख महज सूचनाएँ थीं

जबकि पास के दुख

त्रासदी 

दुख इतने थे जीवन में

एक करूणा का महाकाव्य लिखा जा सकता था

और सुख! 

जीवन के लाक्षागृह में 

सुख महज़ एक चिन्दी सी संभावना थी


      

आस पास


एक पेड़ के कटने से

जंगल उदास हो जाता है.

एक मछली के मरने से नदी

बेटियों के विदा हो जाने से 

सूनी हो जाती है

गाँव की गुलज़ार गलियां.... 

एक सदस्य के चले जाने पर 

परिवार कितना अधूरा हो जाता है! 


हम कितने छोटे छोटे 

दुखों और उदासियों को महसूस नहीं कर पाते 

आस पास

    


यात्री देखता रहता है 


एक दिन 

सब कहा हुआ

सब सुना हुआ

यहीं रह जाता है 

ढल जाती है, 

मूंडेर पर टंगी सांझ

विदा हो जाता है, बसंत

स्वप्न खो देते हैं, अपना रंग एक

इच्छाएँ विसर्जित हो जाती हैं


नाविक खोल देता है 

अपना पाल!

यात्री एक कोने बैठ कर

देखता रहता है 

पानी के गिरते उठते तरंगों को 



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)




सम्पर्क 


मोबाइल : 8340618155

          

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