विनीता बाडमेरा की कहानी 'संतोषी बाई'
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विनीता बाडमेरा |
आदमी की यह फितरत होती है कि वह खाली नहीं बैठता। कुछ न कुछ करने की कोशिश करता है। इस कुछ न कुछ करने की वजह से ने केवल सार्वजनिकता से जुड़ाव होता है बल्कि दायित्व बोध का विकास भी होता है। आजीविका हरेक व्यक्ति के लिए जरूरी होती है। एक समय आता है जब यह आजीविका जीवन से इस तरह बद्धमूल हो जाती है कि जीवन का अनिवार्य हिस्सा लगने लगती है। लेकिन किसी भी व्यक्ति के लिए स्वाभिमान सबसे ऊपर होता है। इसको ताक पर रख कर कुछ भी नहीं किया जा सकता। 'संतोषी बाई' इस भाव भूमि पर ही आधारित एक उम्दा कहानी है जिसे विनीता बाडमेरा ने लिखा है। कहानी कुछ इस तरह प्रवहमान है कि एक बार पढ़ना शुरू करने पर अन्त तक गए बिना नहीं रहा जा सकता। शिल्प की बुनावट इतनी गझिन है कि आप कहीं से कुछ भी अतिरिक्त नहीं निकाल सकते। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विनीता बाडमेरा की कहानी 'संतोषी बाई'।
'संतोषी बाई'
विनीता बाडमेरा
“संतोषी, संतोषी बाई कहां हो?”
“संतोषी बाई जी, कल फैन्सी ड्रेस कार्यक्रम है। ऊपर हॉल की साफ-सफाई ज़रुर देख लेना।”
“हां साहब!”
“संतोषी, संतोषी बाई!”
उसने दोनों कानों पर हाथ धर दिए। पर न सुनने के सारे जत्न जैसे बेकार हो गए। बड़े हाथ छोटे कान को नहीं ढक पाएं। आवाज़ आनी नहीं रुकी।
फिर पुकार लगी,
“संतोषी! जरा देख तो, स्कूल के गेट पर कौन खड़ा है?”
इस बार उसने रुखे ढंग से ज़वाब दिया-
“मुझे कैसे मालूम होगा! मैं तो घर पर हूं साहब।”
खुद को चिकोटी काटी। लगा यह कैसे संभव है! लेकिन यह तो वाकई घर ही तो है, उसका अपना घर। दो कमरे का कच्चा-पक्का घर। जैसा भी है उसका घर। जहां वह पिछले कई वर्षों से अकेली रह रही है।
“मैं संतोष से संतोषी हुई। और फिर संतोषी बाई। इन स्कूल वालों ने तो मेरा नाम ही बिगाड़ दिया। और यह बाई तो सुनना मुझे पसंद ही नहीं था पर फिर भी संतोषी बाई सुनती रही बरसों बरस।” गुस्से की आग जैसे खुद को ही जलाने लगी।
बिस्तर पर लेटे-लेटे ही बड़बड़ाहट शुरू हुई और लेटे-लेटे ही रुकी। वह हड़बड़ा गई। नींद में थी या नींद आई ही नहीं, उसको कुछ खबर नहीं। हाथ सीधा पलंग के पास लगे स्वीच बोर्ड पर गया। अंधियारा रोशनी में तब्दील हुआ। खिड़की से झांका तो देखा बाहर पानी बरस रहा है। टप-टप गिरती बारिश की यह आवाज़ लगातार बढ़ती जा रही थी। वह सोचने लगी कि यदि पूरी रात ऐसे ही पानी बरसा तो शहर की कितनी ही जगहों पर तो पानी भर जाएगा। तेज बारिश हुई तो कल स्कूलों की भी छुट्टी होगी। कौन-सा स्कूल मुसीबत मोल लेगा। बच्चे बीमार हो गए तो! पानी में कोई बच्चा फिसल गया तो! करंट लग गया तो! और भी न जाने बारिश से जुड़ी कितनी ही तो मुसीबतें हैं इसलिए कलेक्टर सभी स्कूलों की छुट्टी कर देंगे।
वह हैरान हुई कि यह क्या! इस बारिश में भी उसका शरीर पसीने से नहा गया। उसे लगा शायद तबीयत कुछ बिगड़ी हुई है। माथे पर हाथ रखा तो सब कुछ सामान्य। पास रखे रुमाल से माथा पोंछा। गला सूखने लगा। पलंग के पास रखा लोटा उठाया तो देखा बिल्कुल खाली। खुद पर गुस्सा आया, रात उसने पानी पीने के लिए लोटा भी नहीं भरा। थके और निढाल कदम उसे रसोई तक ज़बरन घसीट रहे थे।
मटकी से पानी निकालने लगी तो एक बार फिर हैरानी हुई, पूरी मटकी भी खाली। तले तक में पानी नहीं। बिल्कुल सूखी।
“आज सुबह जब नल आया तो पानी भरा था या नहीं! इसका मतलब आजकल ध्यान कहां है मेरा?”
“स्कूल में!”
“पर मुई स्कूल तो मैंने जाना छोड़ दिया है!”
“किन्तु स्कूल ने तो मुझे नहीं छोड़ा।”
अपने ही प्रश्नोत्तर उसे डराने लगे। प्यासे जीव ने बाल्टी से पानी का गिलास भरा और ले कर कमरे में आई।
बिस्तर पर बैठ मुंह से गिलास लगाई ही थी कि एक बार फिर उसको आवाज़ आई-
“संतोषी बाई!”
यह सपना तो नहीं है। फिर इतनी रात को आख़िर ये आवाज़! पर ये आवाज़ तो सुनी-सुनी है। कोई बच्चा उसका नाम पुकार रहा है। पर कौन बच्चा?
उसका मस्तिष्क आवाज की पहचान करने के लिए हाथ-पैर मारने लगा।
“अरे! यह तो सैकेंड क्लास में पढ़ने वाले अपने तनु की आवाज़ है।”
“हां, हां! यह बिल्कुल अपना तनु ही है। उसकी आवाज़ मैं अच्छी तरह से पहचानती हूं।”
परन्तु तनु उसे इस समय आधी रात को भला क्यों आवाज़ लगाने लगा!
भरी पानी की गिलास पलंग के पास रखे स्टूल पर रख दी। प्यासी है वह, पानी भी ले आई पर किस्मत! दो बूंद भी हलक तक नहीं जा पा रही। खैर कोई बात नहीं पर तनु की आवाज़। वह घबरा गई। व्याकुल मन उस आवाज़ से प्रश्न करने लगा-
“तनु बच्चा, क्या हुआ?”
दो मिनट तो इधर-उधर देखती रही। पर कोई ज़वाब नहीं। अब उसे सुनाई देना बंद हो गया और कोई दृश्य उसके आंखों के समक्ष घटित होने लगा।
करीब दो महीने पहले की ही तो बात है। सैकेंड क्लास के इस गोल-मटोल प्यारे बच्चे तनु ने इंटरवल के बाद वाले पीरियड में क्लास में उल्टी कर दी।
सैकेंड क्लास की क्लास टीचर ने किसी बच्चे के साथ उसे बुलावा भेजा।
“संतोष बाई जी जल्दी चलो। हमारी क्लास के तनु ने वोमेट कर दी।”
वह बुलाने आए बच्चे का मुंह देखने लगी। चेहरे पर नासमझी के भाव उतर आए। बच्चा जैसे समझ गया कि संतोष बाई वोमेट का मतलब नहीं समझी।
“संतोषी बाई, हमारी क्लास के तनु ने उल्टी कर दी।”
एकबारगी उसे गुस्सा आया। उसकी सहायक विमला बाई आज भी स्कूल नहीं आई।
“अकसर उसे ज़रूरी काम हो जाता है। घर पर कोई बीमार हो जाता है। उसे साहब छुट्टी भी दे देते हैं। और मुझे दस बात सुनाएंगे। अकेली रहती हूं तो क्या! मुझे भी तो हारी-बीमारी में छुट्टी चाहिए होती है। मेरे भी रिश्ते नाते हैं! मुझे भी संबंध निभाने होते हैं! पर नहीं।” वह उस दिन खुद से ही की गई बातों को आज भी दोहराने लगी।
फिर पता चला कि जमादारिन का बाप भी बीमार है। वह रोज सुबह दस बजे तक स्कूल में साफ़-सफाई कर अपने बीमार बाप की देखभाल के लिए अस्पताल चली जाती, तो अब बचा कौन स्कूल में! अकेली वो। उस क्लास की मेडम नीरजा तो उल्टी साफ़ करने से रही!
जब बच्चा उसको बुलाने आया वह उसी समय अपना टिफिन खोल कर बैठी ही थी। रोटी हाथ में ली ही थी। उल्टी की बात सुन उसका जी जाने कैसा हो गया! खाने का डिब्बा ज्यों का त्यों बंद किया और कपड़े की थैली में रख दिया। बुलाने आया बच्चा एकटक उसे देखता रहा। लगातार कोई देखे तो वह झुंझला जाती है।
“सब्र नहीं है बच्चे को भी!” वह आहिस्ता से बड़बड़ाई।
“जा बेटा। मैं आ ही रही हूं।”
नल से हाथ धोएं। कुल्ला किया, पानी पीया और मैदान से पोलीथिन में सूखी मिट्टी भर ली। क्लास में पहुंची ही थी कि-
“अच्छा हुआ बाई, आप आ गई। ये बच्चे भी ना, पता नहीं क्या-क्या अनाप-शनाप खाते हैं और फिर क्लास में उल्टी। बोलना चाहिए था ना उसे।मैं ऐसी स्थिति में किसी बच्चे को नहीं रोकती। दसों बार कह दिया टॉयलेट, पॉटी और उल्टी आए तो तुरंत बोलो। लेकिन नहीं। अब देखो सारे बच्चे नाक पकड़े हैं।” नीरजा मैम उसे देख लगातार किसी तेज चलती रेलगाड़ी की तरह बोलती जा रही थी।
उसने खूबसूरत नीरजा मैम को एक बार देखा। उनकी सूती साड़ी को देखा। होठों की लिपस्टिक को देखा। और फिर चेहरे पर आए अनगिनत भावों को देखा। चुप रहना नियति है उसकी, इसलिए चुप ही रही।
एक नज़र क्लास में बैठे बच्चों पर पड़ी। इक्का-दुक्का कोई बच्चा ही नाक पर हाथ धरे था । पर ये क्या! सारे बच्चे उस बच्चे को अपराधी की तरह देख रहे थे जिसने क्लास में उल्टी की।
नाक और आंखों से पानी बहते उस बच्चे को देख उसके जी में दया का कोई झरना बहने लगा।
नीरजा मैम तो नाक पर रुमाल रख लगभग क्लास से बाहर ही आ गई।माथे पर अनगिनत सलवटें थी। दूर से ही उस बच्चे तनु को डांटते हुए बोली-
“बोलना चाहिए था ना, उल्टी आ रही थी तो। मेनर्स ही नहीं है! बैड बॉय! अब देखो पूरी क्लास डिस्टर्ब। गंदगी है सो अलग।”
उसने इस डांट पर अपने कान नहीं धरे। पोलीथिन की सूखी मिट्टी उल्टी पर उंडेली और किसी तरह वहां से सफाई की।
फिर दो बार फिनायल वाला पोंछा लगाया। उल्टी करने वाला बच्चा तनु आंखों में बड़ी-बड़ी आंसू की बूंदें भर कर उसे देख रहा था। उसने बच्चे का हाथ पकड़ा। बाथरूम में ले गई। हाथ-मुंह धुलवाए, कुल्ला करवाया और पानी पिलाया। अपने थैले में समेटा हुआ साफ़ कपड़ा निकाला। उस साफ़ कपड़े से उस बच्चे के मुंह-हाथ पोंछे। फिर अपनी अंगुलियों से ही बाल बनाएं तो तनु उसकी छाती से चिपक गया।अब उसकी रुलाई थम चुकी थी फिर भी डर ने अभी भी उसको जकड़ रखा था।
“बाई जी सॉरी। अब मैं हमेशा ध्यान रखूंगा। पता नहीं कैसे यह हो गया। पर पक्का अब कभी नहीं होगा। जैसे ही लगेगा कि उल्टी आ रही है, मैम को बताऊंगा।”
तुतलाती, घबराती यह बात सुन बच्चे पर एक बार फिर प्यार उमड़ आया। माथे पर हाथ फेरा। बच्चा मुस्कुराया और अपनी क्लास में चला गया। वह बाहर खड़ी रही।
नीरजा मैम उसकी तरफ जैसे कृतज्ञता से देखने लगी। मन हुआ कि इतना कहे कि “बच्चा ही तो है पर बैड बॉय बोलने से क्या होगा!” लेकिन वह नहीं बोली। बस मुस्कुरा कर आ गई।
कुछ देर बाद ही तनु की मम्मी स्कूल आ गई थी। उसने देखा साहब से बात कर उसकी मम्मी उसे छुट्टी दिला घर ले जा रही थी। तनु अपनी मम्मी का हाथ पकड़ कर जब स्कूल के गेट से बाहर निकला तो मम्मी उसे देख मुस्कुराई। उसने अनुमान लगाया कि तनु ने अपनी मम्मी को उसके बारे में कुछ बताया होगा।
यह तो तनु ही है, उसने तो इससे पहले कई छोटे बच्चों की पॉटी तक साफ़ की। भले यह उसका काम न था लेकिन जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना उसने नहीं सीखा। किन्तु उस दिन से जैसे तनु ने यह नियम बना लिया कि वह सुबह स्कूल आते ही उसके पास आ कर ”नमस्ते बाई जी” कहेगा। वह भी उसका इंतजार करती। मुस्कुरा कर उसके माथे पर हाथ फेर देती।
अभी कुछ दिन पहले ही तो तनु का जन्मदिन था। स्कूल ड्रेस नहीं पहनी थी उसने। नए कपड़े पहन कर आया तो एकबारगी वह पहचान ही नहीं पाई। सबसे बड़ा आश्चर्य तो उसे तब हुआ जब वह किसी रजिस्टर पर नीरजा मैम के हस्ताक्षर करवाने के लिए उस क्लास में गई थी। “हैप्पी बर्थडे” वाला गाना चल रहा था। नीरजा मैम रजिस्टर पर लिखे को पढ़ रही थी। वह भी वहीं खड़ी हो गई। गाना खत्म हुआ तो उसने नीरजा मैम के साथ-साथ उसे भी बड़ी-सी चॉकलेट दी। नीरजा मैम की आंखें देख, वह समझ गई यह उन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। तनु स्कूल की बाई को भी उनके जैसी ही बड़ी चॉकलेट दे सकता है, यह बात वह सोच भी नहीं सकती थी। वह कहना चाहती थी कि स्कूल का काम वह किसी लोभ लालच से नहीं करती। पर शब्द नहीं निकले जैसे वे भी अपनी औकात जानते थे।
उसने बहुत मना किया किन्तु तनु नहीं माना। बच्चे ने उस दिन उसके पैर भी छूएं। उसकी आंखें भर आईं।
आस-पड़ोस वाले पूछते हैं “क्या कमाती हो?” वह चुप रहती है क्योंकि जो वह कमाती है, वह बहुत ज्यादा है और इस कमाई को किसी की नज़र नहीं लगनी चाहिए। इसलिए वह कुछ नहीं बताती। लेकिन इस बार तो जाने कैसे नज़र लग गई। उसने तो कभी भूले से भी किसी से अपनी इस कमाई का ज़िक्र नहीं किया। फिर कैसे हो गया यह!
“बाई जी! कितने दिन हो गए आप कहां हो? स्कूल आ जाओ ना।”
एक बार फिर उसे तनु की आवाज सुनाई देने लगी।
“आऊंगी बेटा।”
बेटा कहते ही सब गायब। स्कूल भी और तनु भी। रुलाई फूट पड़ी। वह बिस्तर पर लेट गई।
रात तो रात जैसी ही थी। अंधेरी बिना सूरज के। तारों भरी। लेकिन हमेशा जैसी रात नहीं थी। इस रात मे नींद थोड़ी थी, जाग अधिक थी।
जागते-जागते वह जाने कब सोई उसे पता ही नहीं चला। खिड़की से आती थोड़ी-सी रोशनी उसके चेहरे पर पड़ी तो कसमसा कर उठी। घड़ी की सूईयों पर चलती थी कभी उसकी यह जिंदगी। लेकिन अब तो मानो हर घड़ी जैसे ठहर गई। फिर उसको जाना भी कहां है! सब आराम से करना है। घर पर वह अकेली जान। कितना कमाना और फिर किसके लिए।
दिन धीरे-धीरे निकल रहा है हमेशा की मानिंद पर उसे हमेशा जैसा क्यों नहीं लगता। बारिश भी रुक गई। सूरज अपने पूरे तेवर के साथ है। आसमान बिल्कुल साफ। किन्तु उसके जीवन में अब किसी भी दिन को ले कर पहले जैसा कोई उत्साह नहीं। सब दिन समान है। हर दिन छुट्टी-सा लगता पर यह छुट्टी उसको डराती है!
बेमन से बाथरूम में नहाने गई तो फिर आवाज़ आई।
“संतोषी बाई! कहां रह गई। पानी नहीं लाई।”
“ला रही हूं साहब, बस दो मिनट में।”
चेहरे पर साबुन लगा है और वह बस बोलती जा रही है।
“आई साहब। बस आई!”
झाग से भरी आंखें रो पड़ी। जैसे-तैसे खुद को संभाला। नहाई, कपड़े पहने और बाथरूम से बाहर आई।
“भक्ति में ताकत है।” यह सोच दीया में बाती जलाई। बाल गोपाल की तरफ निहारा और बचपन में सीखा भजन गाने लगी-
“यशोमती मैया से बोले नंदलाला,
राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला।
मैं क्यों काला। मैं क्यों काला।”
एक ही लाइन दोहराती रही। आगे की पंक्तियां वह जैसे भूल गई। तभी उसे फिर कुछ याद आया –
“संतोषी बाई जी, सारा काम छोड़ पहले स्टोर रूम से झंडा निकाल कर रखो। कल पन्द्रह अगस्त है। और हां बड़ी दरियां भी निकालना मत भूलना। ये कुर्सियां भी अभी तक गंदी पड़ी हैं। इन्हें कब साफ करोगी?”
“बस साहब करती हूं।”
“हे भगवान! मैं घर बैठी हूं और मेरा मन स्कूल बैठा है। पर आख़िर यह बावला मन स्कूल जाता ही क्यों है?”
कोई ज़वाब नहीं। उसका प्रश्न, प्रश्न ही बना रहा।
भजन अधूरा रह गया और वह खुद को भागती हुई देख रही है।
पिछले बरस पन्द्रह अगस्त की तैयारियां चल रही थी। स्टेज पर साफ-सफाई करते-करते वह और विमला दोनों थक कर चूर हो जाते। पर बच्चों को स्टेज पर ठुमकते हुए प्रेक्टिस करते देखते तो सारी थकान भूल जाते।
“आजकल तो सारे बच्चे नाचना जानते हैं। मां के पेट से ही नाचना सीख लेते होंगे।” विमला उसको कुहनी मार हंसती हुई बोली।
“और क्या! हमें तो नहीं नाचना आवै। फिर बच्चे तो बच्चे! शैफाली मेडम को देखा! क्या ज़ोरदार नाचती है! पूरे शरीर की कसरत हो जाती है।” इस बात पर उस दिन दोनों मुंह पर हाथ रख बहुत देर तक हंसती रही। शैफाली मेडम समझ गई थी कि उसको देख कर ही दोनों हंसी पर बोली कुछ नहीं।
तो वे दिन कोई दूसरे दिन थे? आज वे दिन कहां दूर चले गए?
मायूस मन के साथ वह घर के बाहर गई। क्या देखने नहीं पता! बाहर एक गाय खड़ी थी। आख़िर उसको ही “आजा-आजा, ले आजा” कह दरवाज़े पर बुला लाई। रात की चार रोटी थाली में रखी थी। उन रोटियों को अपने हाथों से उसके मुंह में दी तो गाय उससे जैसे पूछ रही थी-
“रोज़ कहां जाती हो संतोषी? आज कितने दिन बाद तेरे घर की रोटी नसीब हुई है। तेरे दरवाज़े जब भी आई ताला ही मिला।”
यह क्या! जानवर भी बोलता है कभी! उदासी में भी हंसी फूटी। बोलती गाय की पीठ पर हाथ फेर बोली-
“अब रोज़ इस टाइम या किसी भी टाइम आ जाना। भूखी नहीं जाएगी। दरवाजे पर ताला नहीं मिलेगा।”
गाय जैसे बोलने के साथ सुनना भी जानती थी, इसलिए सहमति में सिर हिलाती चली गई। वह दरवाजा बंद कर घर के भीतर आई तो फिर बारिश की आवाज़ आने लगी।
पिछले बरस पन्द्रह अगस्त के दिन सुबह तेज बारिश आई। प्रिंसिपल साहब ने भीगते-भीगते झंडा फहराया और जन-गण-मन गाया था।
सब बच्चे और मेडम लोग बरामदे में खड़े जन-गण-मन गा रहे थे। जिन बच्चों ने डांस में भाग लेने के लिए खूब तैयारी की, वे अपनी रंग-बिरंगी ड्रेस पहने मायूस खड़े थे। बारिश ने सब चौपट कर दिया। लेकिन जब साहब मैदान में छाते के नीचे खड़े झंडा गीत गाने लगे तो विमला बाई एकदम हीं–हीं करके हंस पड़ी। वह कहीं भी, कभी भी हंस पड़ती। जगह और समय नहीं देखती।
“तुझे हर टाइम हंसी क्यों आती है रे विमला?” वह धीरे से उसकी तरफ देखती हुई बोली।
“संतोषी, हंसी में मैं सब भूल जाऊं। तो हंसनो चावै नी?” यह कह फिर हंसी।
उसकी हीं-हीं सुन बच्चे पीछे मुड़ कर देखने लगे। शैफाली मेडम आंख दिखाने लगी। थोड़ी देर बाद बच्चों को चॉकलेट बांटी गई।
दरियां बिछी नहीं। कुर्सियां लगी ही नहीं। और हो गया पन्द्रह अगस्त। इतने वर्षों की नौकरी में पहली बार ऐसा पन्द्रह अगस्त देखा उसने।
तो कल भी पन्द्रह अगस्त है। विमला बाई एकली ही भागम-भाग कर रही होगी। जमादारिन जाने आई होगी कि नहीं। बड़े स्पीकर भी लगेंगे। साहब सबको आदेश दे रहे होंगे अभी। झंडे के पास गमले रखने होंगे। रितिका मैम और मनस्वी मैम बड़ी क्लास की लड़कियों से रंगोली बनवा रही होंगी। स्पीकर पर तेज आवाज़ में गाना चल रहा होगा-
“ये देश है वीर जवानों का अलबेलों का ...”
तभी लगा, साहब उसे बुला रहे हैं-
“हां, साहब! चार चाय बनानी है ना? दो मीठी और दो फीकी?”
“एक ही बात को कितनी दफ़ा दोहराती हो संतोषी! जल्दी जाओ और हां नाश्ता भी टेबल पर लगा देना।”
“तू भी संतोषी! भूले है बार-बार।” विमला उसको देख बोली।
वह तो कप में चाय छान रही है। गर्म कचौरी की खुशबू उसके नथुने में घुसी जा रही है और प्लेट में मिठाई के साथ कचौरी सजा टेबल पर रख आई।
सबके नाश्ता करने के बाद साहब बचा मिठाई का डिब्बा और कचौरी की थैली उसे ही पकड़ा देते फिर जमादारिन, वह और विमला आराम से बैठ कर नाश्ता करती।
गर्म कचौरी और चाय की खुशबू अब कहीं छुप गई। उदास मन से ही भगवान के आगे माथा टेका और रसोई में चली गई। मन ठीक हो ना हो पेट तो रोटी मांगेगा ही।
चार रोटी का आटा लगाया। सब्जी बनाने का मन ही नहीं हुआ। टिफिन पर निगाह गई। टिफिन भी जैसे रुआंसा लगा। बड़ी मुश्किल से बिना सब्जी के दो रोटी अचार से ही पेट में डाली।
अब ऐसे कैसे भूले वह स्कूल और स्कूल की बातें। बहुत बरस नौकरी करी। जवानी से बुढ़ापा आ गया। काले बाल से सफेद बाल हो गए।संतोष से संतोषी और फिर संतोषी बाई बनी।
उसका मन हुआ वह स्कूल जा कर एक बार देख आए। बिल्डिंग से मिल कर आए। विमला से मिले। विमला की बात से याद आया। कल उसने विमला को फ़ोन लगाया था दो बार। स्कूल टाइम में ही। पहली बार में उसने फ़ोन नहीं उठाया। फिर दूसरी बार उठाया तो डरती हुई बोली-
“साहब ने स्कूल में फ़ोन की मना करी है। घर जा कर बात करुं।” और फ़ोन बंद हो गया। वह समझी ही नहीं। देर तक हैलो, हैलो करती रही। फिर जवाब नहीं आया तो समझ गई।
पड़ोस में जाने की, बात बनाने की आदत उसको पहले भी नहीं थी। सबको राम-राम और नमस्ते कह वह भागती-दौड़ती स्कूल पहुंचती। पर अब वह इस पूरे खाली दिन को आंखें फाड़ देख रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा कैसे भरे इस खाली दिन को?
सावन भादो के इसी मौसम में तो स्कूल के बच्चे पिकनिक जाते थे और वह भी तो उनके साथ जाती थी। हालांकि उसके लिए तो क्या पिकनिक वाला दिन और क्या कोई और दिन!सब बराबर।
दो साल पहले बच्चों को पिकनिक के लिए वाटर पार्क ले गए। सुनीता मेडम, ऋचा मेडम और कल्पना मेडम भी बच्चों के साथ नहाने पानी में उतर गई। मन तो उसका भी खूब हुआ था कि वह भी छपाक-छपाक कर लें। लेकिन उसको अपने मन के करने की साफ़ मनाही थी। तभी फर्स्ट क्लास का एक बच्चा पानी से बाहर निकला और जाने कैसे फिसल गया! माथे पर चोट आई। वह घबरा गई। उसके साथ तीनों मेडम लोग के भी हाथ-पैर फूल गए। वो तो गनीमत थी कि पीटी आई सर भी वहां मौजूद थे। उन्होंने सब संभाल लिया।
पर बेचारी तीनों मेडम का चेहरा उतर गया। फिर पानी से बाहर निकल, कपड़े बदल, बस सारा टाइम बच्चों की निगरानी ही करती रही।
जब स्कूल पहुंचे तो साहब खूब नाराज़ हुए। कितने तो अलग-अलग अनुभव दिए इस स्कूल ने उसे। उसके सामने कितने ही बच्चे बड़े हुए!कितनी मेडम हर साल आई और गई!
मन घर में लगे नहीं। वह फिर घर से बाहर निकली। सोचा सब्जी ही ले आऊं तभी पड़ोसिन श्रुति की मम्मी बोल पड़ी-
“दो दिन से स्कूल नहीं गई संतोष? काई हो गयो?”
“कुछ कोनी। बस थोड़ी तबीयत नरम लागी। सो छुट्टी ले ली।”
उसका मन हुआ कि कहे –
“क्या पंचायत है तुझे?”
पर बोली नहीं। बिना सब्जी खरीदे घर आ गई।उसे लगा कि सांस तेज चल रही है और वह बुरी तरह थक गई है। जब स्कूल में थी तब भी वह इतना नहीं थकती जितना इन कुछ दिनों में थकने लगी है। थका शरीर पलंग पर जाते ही निढाल हो गया। बंद आंखें कोई पिक्चर देखने लगी।
तीस-बत्तीस साल की ही तो थी तब, जब वह विधवा हुई थी। ड्राइवर था उसका आदमी। एक दिन खबर आई कि एक्सीडेंट हुआ। वह रोती हुई अस्पताल पहुंची तो लाश ही साथ लाई। लोग बोले संतोष ‘संतोष’ रख। उसने ‘संतोष’ रखा क्योंकि पीछे बस दस बरस का बेटा कमल रह गया। दो टाइम की रोटी की दिक्कत होने लगी तो किसी ने उसे स्कूल की नौकरी के बारे में बताया। छठी कक्षा तक पढ़ी संतोष और कुछ करना जानती भी नहीं थी। सोची बेटा भी उसी स्कूल पढ़ लेगा। भले सरकारी नौकरी नहीं थी पर अब वही उसकी ठौर थी।
प्रिंसिपल साहब राजी भी हो गए। उस समय यही स्कूल थोड़ी छोटी थी। किसी काम से उसने जी नहीं चुराया। यहां तक जमादारिन का काम भी कई साल किया। चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं आई।
दोनों मां-बेटे की जिंदगी स्कूल के भरोसे चल रही थी तभी दो महीने बाद कमल को ऐसा बुखार आया कि उतरा ही नहीं। संतोष कुछ समझती तब तक बुखार ने उसे निगल लिया।
उसकी आंखों से एक कतरा आंसू भी नहीं टपका। वह कमल के जाने के तीसरे दिन स्कूल चली गई। सब मेडम और प्रिंसिपल साहब उसे घूर कर देखने लगे। पड़ोसी बात बनाने लगे लेकिन वो तो स्कूल की सफाई में जुट गई। नाम ही जब संतोष था तो फिर ‘जी’ उठाने से मतलब नहीं। आख़िर कितने आंसू बहाएं और कब तक बहाएं!
फिर स्कूल बड़ी होने लगी तो विमला भी आई और जमादारिन कमली भी।
इसी भागती जिंदगी में डर दिखाती जवानी भी तेजी से निकल गई। और वह इस जाती जवानी से खुश ही थी। पड़ोसियों की लपकती आंखों ने ही उसे बताया था कि मर्द जात को जवानी चाहिए, संतोष नहीं।
काम में जी-जान लगाती संतोष ने पांचवीं तक की स्कूल को दसवीं होते देखा। इस बड़ी होती स्कूल को देख वह खूब खुश होती। ऐसा लगता जैसे वह अपने बच्चे को धीरे-धीरे बड़ा होते देख रही है।
बड़ी होते स्कूल के काम भी बड़े होने लगे। पर मजाल है जो उसने कभी अपनी बड़ी होती थकान के बारे में किसी से बात की हो। महीने-डेढ़ महीने पहले ही स्कूल में नए साहब आए और उन्होंने एक दिन ऑफिस बुला कर कहा-
“संतोषी आप गर्मजोशी से काम नहीं करती। क्लासों में जाले दिखते हैं। बच्चों की टेबल और बेंचों पर मिट्टी। पानी की टंकी तक में मिट्टी देखी मैंने।”
उसका मन हुआ कि पूछे, “साहब कल तो मैंने और विमला ने मिल कर टंकी साफ़ की फिर कब और कहां मिट्टी दिख गई? भरोसा न हो तो विमला को बुला कर पूछ लो।” पर वह चुप रही। वे स्कूल के प्रिंसिपल हैं और वह चपरासी। और चपरासी को जवाब देना नहीं होता है। फिर जब उस ऊपर वाले से ही कभी कोई सवाल-जवाब नहीं किया तो अब किसी से क्या कहना!
“ध्यान रखूंगी साहब।” इतना कह वह चली गई।
अब आए दिन की बात हो गई। कभी कहते-
“संतोषी स्कूल के मैदान में कुत्ता आ गया और तुम देखती रही।”
तो कभी कहते-
“चाय ज्यादा मीठी बना दी। कप ढंग से नहीं धुले।”
इस तरह अब रोज़-रोज साहब एक नई बात के लिए उसे ऑफ़िस बुलाते। जिंदगी के सारे दुःख उसने स्कूल के काम में भूला दिए पर यह दुःख कहां भुलाने जाए उसे समझ ही नहीं आता। तनाव के कारण सांस चढ़ने लगी। सफाई करते हाथ धीरे-धीरे चलने लगे और एक दिन साहब ने फिर उसे बुलाया –
“आपकी उम्र आराम मांगती है संतोषी। आप चाहें तो...।
एकबारगी जी धक् से रह गया। साहब यह क्या कह रहे हैं!
पूरी उम्र निकल गई। फिर स्कूल का काम करने में कहीं मनाही तो की नहीं। हां, पेड़ भी तो बूढ़ा होवे है। धीरे-धीरे जितना हो सके कर तो रही है। अब सीढ़ियां चढ़ते टाइम तो लगेगा ही।
वह कुछ नहीं बोली।
“संतोषी पचपन साल की तो हो ही गई। आराम करो तुम घर पर। ज्यादा बीमार हो गई तो दिक्कत हो जाएगी। कोई संभालने वाला भी नहीं है तुम्हें तो।”
नीचे झुकी गर्दन, बस एक बार उठी और साहब को देखा।
“जी साहब समझ गई। मेरी उम्र आराम मांगती है। घर पर रहना चाहूंगी।”
“ठीक है।” साहब ने बस इतना कहा और बाहर चले गए।
वह भी ऑफिस से बाहर आ गई। उसे लगा कि वह बहुत बूढ़ी हो रही है। हाथ-पैरों से काम नहीं होगा।
प्राइवेट नौकरी में क्या हिसाब होगा। वह जानती थी। नया महीना दूसरे दिन शुरू होने वाला था, पर वह दूसरे दिन स्कूल नहीं गई। फिर तीसरा दिन और आज एक सप्ताह हो गया उसे स्कूल गए। अचानक उसका ध्यान टूटा। चार बज गए। गैस पर चाय का पानी रख कर आई कि फ़ोन बजा-
“ हैलो!”
“हां, संतोषी, विमला बोल रही। आजा रे। साहब ने गुस्से में कह दिया तो क्या हो गया! मन पर मत लें। वे साहब हैं, कह सके हैं। मैं भी एकेली हो गई। कल स्कूल आ और साहब से बात कर लें। अभी तेरा हिसाब नहीं हुआ।”
साड़ी की कोर से आंसू पोंछ कर बोली-
“पर तबीयत?”
“अरे स्कूल आवेगी तो तबीयत ठीक हो जावेगी। घर पर क्या करेगी। फिर सब जानते हैं संतोषी कितनी पुरानी है। कुछ मत सोच। घरा तो पगला जावेगी तू।”
“हां”, कह फ़ोन बंद कर दिया।
रसोई में गई तो चाय का पानी सूख चुका था। दुबारा चाय बनाने की इच्छा नहीं हुई। किसी तरह रात के लिए रोटी सेंक कर रख ली।
आंसू भरी आंखें उम्मीद की रोशनी से चमक उठी। सही समय पर प्याज और दही से रोटी खाई। सही समय पर बिस्तर पर जा कर लेटी। और फिर सही समय के बारे में सोचते हुए उसके सपने में स्कूल की दीवारें आई। स्कूल के बच्चे आए। साहब और नीरजा मैम आई। घड़ी-घड़ी उठ कर घड़ी देखी। पांच बजते-बजते घर का झाड़ू बुहारा कर नहा धो कर दीया जलाया और चार रोटी टिफिन में डाली। घर का ताला लगा चाबी ब्लाऊज में खोंसी।
भागती-दौड़ती हुई बस स्टैंड पहुंची। परिचित ड्राइवर उसे देख मुस्कुराया-
“इतनी दिन बाद! स्कूल छोड़ दी क्या बाईजी?”
“अरे नहीं! तबीयत ठीक नहीं थी। अब ठीक है तो जा रही हूं स्कूल। फिर मेरे लिए दूजी ठौर भी तो नहीं।”
ड्राइवर मुस्कुराया। वह मुस्कुराई। ऐसी मुस्कान कितने दिन बाद आई! पर आई। बिना रिश्तों का यह रिश्ता और स्कूल का परिचित रास्ता उसके लिए बहुत ज़रूरी है। यह वह जानती थी।
रास्ता पार हुआ। दस का नोट कंडक्टर को दे कर बस से उतरी।
एक बार गौर से स्कूल के गेट को देखा। बच्चे और मेडम लोग के आने में टाइम बचा है। साहब भी अभी नहीं आए हैं।
लोहे का फाटक खोल वह स्कूल में घुसी तो तबीयत खुश हो गई। उसे लगा कि दीवारें, मैदान, स्टेज सब उसका ही इंतजार कर रहे थे।
तभी उसने देखा साहब की कार आ रही है। स्कूल के गेट को ढंग से पूरा खोला। कार स्कूल के मैदान में आ गई। साहब कार से उतरे। उसको देख मुस्कुराए। पास आने का संकेत किया।
“नमस्ते साहब!”
“संतोषी, तबीयत ठीक है ना? अब कुछ गड़बड़ मत करना । ध्यान रखना। चलो, आ जाओ।”
“नहीं साहब, मैं स्कूल नहीं आ रही। आप मेरा हिसाब बना देना। मैं दो दिन में आ कर ले जाऊंगी।”
साहब उसको कुछ और कहते तब तक संतोषी की चाल तेज हो गई। गेट पर नीरजा मैम और विमला उसे देख रही थी। तनु भी स्कूल पहुंच चुका था। उसने सबको देखा पर हर बार की तरह कुछ नहीं बोली। बस एक बार फिर मुड़ कर स्कूल की बिल्डिंग को निहारा और बुदबुदाई-
“ हां साहब, जी साहब। घर पर रहूंगी साहब।”
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परिचय
नाम -विनीता बाडमेरा
शिक्षा : हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर।
2023 में राजस्थान साहित्य अकादमी के सहयोग से पहला कहानी संग्रह “एक बार आख़िरी बार” प्रकाशित।
चार साझा कहानी एवं कविता संग्रहों में रचनाएँ संकलित।
दोआबा, मधुमती, आजकल, किस्सा, अक्षरा, परिंदे, आज की जनधारा आदि पत्रिकाओ में कहानी, कविताएं प्रकाशित।
17 वर्षों तक अध्यापन के बाद सम्प्रति व्यवसाय में संलग्न।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क :
पता-
विनीता बाडमेरा
बाडमेरा स्टोर
कमल मेडिकल के सामने
नगरा, अजमेर
राजस्थान 305001
मोबाइल -9680571640
ईमेल-vbadmera4@gmail.com
अच्छी और रोचक कहानी
जवाब देंहटाएंसंतोषी बाई एक स्वाभिमानी स्त्री की कहानी है जिसे एक सशक्त चरित्र के रूप में कथाकार ने प्रस्तुत किया है. यह कहानीकार की सफलता होती है कि वह ऐसा चरित्र गढे कि वह मानस पर अंकित हो जाये. सन्तोषी का चरित्र ही ऐसा है. जीवन में घटित होने वाले प्रसंग और उसके परिप्रेक्ष्य में लिए जाने वाले निर्णय चरित्र की निर्मिति करते हैं. इस दृष्टि से एक चरित्र प्रधान कहानी रचने में कहानीकार को सफलता मिली है. यह संयोग है कि इस कहानी का सफल नाट्य-रूपांतरण भी हो सकता है.
जवाब देंहटाएंललन चतुर्वेदी
कथा के अंत तक पाठक को बाँधने वाली सार्थक कहानी
जवाब देंहटाएंअच्छे प्रयास के लिए विनीता को बहुत बहुत बधाई।
प्रवीण बाड़मेरा
Bhut bhut sander sa
जवाब देंहटाएंसामाजिक और सांस्कृतिक रूप से शोषित वर्ग का
जवाब देंहटाएंआत्मनिर्भर किरदार रचना हमेशा ही कठिन होता है।यह कहानी मनुष्य के चरित्र पतन पर उसकी गरिमा की जीत का पक्षधर है।सुंदर शिल्प और सरल भाषा कहानी को महत्वपूर्ण बनाती है।
हार्दिक बधाई 💐💐
विनीता वाडमेरा की कुछ कहानियाँ मैंने पढ़ी हैं और मेरा आकलन है कि उनकी नजर उस संसार पर जाती है, जो आज के चर्चित कथाकारों ने लगभग उपेक्षित छोड़ दिया है।
जवाब देंहटाएंविनीता आश्चर्यजनक और प्रमाणिक तरीके से निम्न- मध्यवर्गीय जीवन में प्रवेश करती हैं और वहाँ का जीवन प्रस्तुत करती हैं। उनकी कहानियों के विषय छोटे शहर के सामान्य जीवन की गतिविधियों का पता देते हैं। वहाँ व्याप्त शोक, विषाद, दुख, खुशी और जीवन की दूसरे पहलुओं को विनीता बहुत संवेदनशीलता से देखती और व्यक्त करती रही हैं।
स्कूल में शैक्षणिक गतिविधियों से इतर साफ सफाई और दूसरे काम करने वाली संवेदनशील और कर्मठ संतोष का इस व्यवस्था में संतोषी बाई बन जाना, छोटे बच्चों के प्रति उसकी ममता से भरी दृष्टि, अपने काम के प्रति उसका समर्पण, लगाव , किसी भी संस्थान में छोटे कर्मचारियों के काम का कभी ठीक से मूल्यांकन न होना, उनके प्रति असंवेदनशील रवैया और रूखा व्यवहार ... सारे प्रसंग सजीव और प्रमाणित तरीके से इस कहानी में आए हैं।
और कहानी के अंत संतोषी बाई के निर्णय का बदलना चकित करता है। वह स्वाभिमान से समझौता नहीं करती है और लौटने का निर्णय लेती है। यहीं कहानी अपने उत्कर्ष पर पहुँचती है और बदलते स्त्री मन का पता देती है। संतोषी बाई की इस मनः स्थिति को कथाकार ने जिस कलात्मक तरीके से चित्रित किया है, वह हमें आश्वस्त करता है कि हमारे बीच ऐसे भी महत्वपूर्ण कहानीकार हैं, जिनका असली मकसद जीवन और अपने संसार की सच्ची तस्वीर पेश करना है।
विनीता की यह कहानी बताती है कि छोटे शहरों से ही धड़कती हुई कहानियाँ आयेंगी। इन्हीं वजहों से विनीता वाडमेरा मेरी प्रिय कथाकार हैं। बधाई विनीता जी।
एक अलहदा विषय पर बेहद ख़ूबसूरत कहानी। ख़ासतौर से कहानी का शिल्प बहुत गजब का है। लेखक ने फ़्लैशबैक शैली में आपने विषय को शिल्प के साथ अच्छे से साधा है। 'संतोषी' शुरू से कनेक्ट होती है और आख़िर तक आते-आते हमारे कलेजे के अंदर धंस जाती है । उसका अपने काम के प्रति प्रेम और समर्सपण ऐसा है कि सलाम करने का मन करता है। मुझे लगता है हम सब लेखकों के अंदर एक संतोष या संतोषी रहती है, जो संवेदनशील तो होती ही है बल्कि सी भी कीमत पर अपना स्वाभिमान भी बचाए रखती है।
जवाब देंहटाएंएक़ अकेली स्त्री के कामकाजी जीवन और मन को बयां करती सुंदर कहानी।कथा जहाँ अपने प्रवाह से बाँधती है वहीं संवेदनाओं की सीढ़ी चढ़ते -उतरते पाठक को भी शामिल कर लेती है।सुंदर अंत कथानक को नई ऊँचाई दे देता है। लेखक को बधाई
जवाब देंहटाएंएक वंचित वर्ग पर बहुत ही अच्छी कहानी। विद्यालय में कार्य करती हूं तो भली भाँति इस चरित्र को समझ पा रही हूँ। स्कूल में काम करने वाले कई चेहरे दिमाग में आये। उनके बिना स्कूल नहीं चलने वाला लेकिन उनकी अहमियत लोग नहीं समझ पाते। बड़े ही सह ज तरीके से एक औरत या गरीब के स्वाभिमान को उकेरा है। एक अच्छी कहनी की बधाई लीजिए।
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जवाब देंहटाएंआप सभी की उत्साहवर्धन करती टिप्पणियों ने मेरा मनोबल बढ़ा दिया। 😊😊🙏 विनीता बाडमेरा