चन्द्रभूषण का आलेख 'हिंदी पत्रकारिता, साहित्य और भाषा'
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चन्द्रभूषण |
पत्रकारिता को लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ माना जाता है। स्वस्थ लोकतन्त्र के विकास के लिए स्वतन्त्र पत्रकारिता आवश्यक मानी जाती है। कई साहित्यकारों ने पत्रकारिता की दुनिया में सार्थक हस्तक्षेप किया। पत्रकारिता के अन्तर्गत पत्रकार देश काल के अनुरूप काम करते हैं जबकि साहित्य देश काल के परे होता है। इस विरोधाभास के बावजूद कई साहित्यकारों ने अपने अपने समय में पत्रकारिता को एक नया आयाम प्रदान करने की सफल कोशिश की। हिंदी पत्रकारिता के दो सौ वर्षों पर कोलकाता में आयोजित गोष्ठी में चन्द्रभूषण जी ने एक महत्त्वपूर्ण पर्चा पढ़ा। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं चन्द्रभूषण का आलेख 'हिंदी पत्रकारिता, साहित्य और भाषा'।
'हिंदी पत्रकारिता, साहित्य और भाषा'
चन्द्रभूषण
अब से तीस साल पहले की बात है, प्रसिद्ध पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह (एसपी) हमारे डेरे पर आए। उस समय हम लोग ‘समकालीन जनमत’ नाम की साप्ताहिक पत्रिका निकाल रहे थे और एसपी उसके सलाहकार मंडल में थे। उनके हाथ में सलमान रुश्दी की ताजा-ताजा आई नॉवेल ‘द मूर्स लास्ट साई’ थी। मीटिंग खत्म हो चुकी थी तो मैंने उनकी किताब उलटते-पलटते हुए कहा कि मेरे मन में रुश्दी की अमिट छवि उनके रिपोर्ताज ‘द जैगुआर स्माइल’ से बनी हुई है, जो उन्होंने क्रांति के तुरंत बाद वाले निकारागुआ पर लिखा था।
यह सुनते ही एसपी ने दो-तीन मिनट का एक मोनोलॉग मार दिया। इसका निचोड़ यह था कि दुनिया भर में साहित्य की भाषा पत्रकारिता के करीब जा रही है, लेकिन एक हमारी हिंदी ही है, जहां संपादकगण उलटी गंगा बहाते हुए पत्रकारिता को साहित्य बनाने पर तुले रहते हैं और इसे अपनी योग्यता भी मानते हैं। मौका इस बहस में जाने का नहीं बल्कि इसकी जमीन समझने का है।
आम धारणा है कि पत्रकारिता एक प्रदत्त भाषा में ही की जा सकती है। यह देश-काल से बंधा हुआ कर्म है। आप जो बता रहे हैं वह हाथ के हाथ आपके पाठकों की समझ में आना चाहिए। आपकी खबर या विश्लेषण का सिर-पैर जानने के लिए उन्हें शब्दकोश, इतिहास-भूगोल की किताबें या कोई और संदर्भ देखना पड़े तो आप विद्वान लेखक या वैज्ञानिक जितने भी बड़े हों, पत्रकारिता का काम अभी आपको कुछ दिन सीखना होगा।
इसके उलट, साहित्य की ख्याति देश-काल के पार जाने के लिए है। उसका काम भी लोगों की समझ में आए बिना नहीं चलता, लेकिन सिद्ध साहित्यकार अपनी रचना में कुछ ऐसा लासा लगाते हैं कि उसमें जाने के लिए पाठक कुछ भी करने को राजी हो जाता है। यही वजह है कि भारत में न जाने किस दौर में हुए वाल्मीकि हों, या रूस में अब से दो सौ साल पहले जन्मे टॉल्स्टॉय, अपनी लिखाई से ये हमें अपने घर के ही लोग लगते हैं। हालांकि भाषा हमारे लिए दोनों की ही अबूझ है।
बहरहाल, देश-काल के साथ पत्रकारिता और साहित्य का यह परस्पर विरोधी दिखने वाला रिश्ता हिंदी के मामले में कुछ अलग है और इस भिन्नता को समझने का ही एक प्रारंभिक प्रयास इस पर्चे में किया गया है। एक बात शुरू में ही कह देना जरूरी है कि बड़ी पूंजी ने समूचे स्वतंत्रता आंदोलन में हिंदी मीडिया से दूरी बनाए रखी और आजादी के आसपास इसमें घुसी भी तो जल्द ही इसको सांस लेने की हालत में नहीं छोड़ा।
बहरहाल, हमारी भाषा में पत्रकारिता की शुरुआत उस समय हो गई थी, जब आधुनिक अर्थों में यह खड़ी भी नहीं हो पाई थी। किसी भाषा में जब तक समसामयिक गद्य न लिखा जाए तब तक अभी वाले अर्थों में उसे भाषा नहीं कहा जा सकता। ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ ब्रजभाषा में सत्रहवीं सदी की रचना है, लेकिन उसके रहते हुए भी ब्रजभाषा एक बोली ही समझी जाती रही। क्यों? इसकी खोजबीन मैं आप पर छोड़ता हूं।
कानपुर से कलकत्ता आए वकील (या पेशकार), श्रीयुत जुगल किशोर शुक्ल जी ने जिस समय ‘उदंत मार्तंड’ निकालना शुरू किया, उस समय उनकी प्रदत्त भाषा क्या थी? लाट साहब के दौरों से लेकर कंपनी राज के कदमों और बाजार भाव तक की खबरें नेपाल तक पौने दो साल उन्होंने पहुंचाईं तो कैसे?
खड़ी बोली उस समय तक एक बोली ही थी और ब्रजभाषा के बारे में ऊपर बात हो ही चुकी है। मीरा और सूरदास के पद कोलकाता के ठेठ बांग्लाभाषी भी समझ लेते रहे होंगे लेकिन तेल-मसालों या बुलियन की कीमतों का रुझान ब्रजभाषा में यहां कितने मारवाड़ी व्यापारियों की समझ में आ पाता होगा? एक साप्ताहिक अखबार लगातार 79 अंक निकला, इसका मतलब यही है कि संपादक ने भाषा के साथ प्रयोग किए। एक स्तर तक उसका मानकीकरण किया।
ऊपर से किसी को ऐसा लग सकता है कि उदंत मार्तंड ने हिंदी में अपने पीछे कोई परंपरा नहीं बनाई। राजा शिवप्रसाद सिंह ‘सितारेहिंद’ ने ‘बनारस अखबार’ जुगल किशोर जी की कोशिश थम जाने के कोई बीस साल बाद शुरू किया और भाषा से ले कर कंटेंट तक में वह 'उदंत मार्तंड' से बहुत अलग था। लेकिन विराट हिंदी क्षेत्र की एक भाषा है, जिसमें सूचना-संचार और समझ-बूझ के काम हो सकते हैं, यह उम्मीद तो हमारे सुकुल जी ने ही जगाई।
इसमें कोई शक नहीं कि हिंदीभाषी या हिंदुस्तानी क्षेत्र की भाषाई पहचान उस समय तक उर्दू से जुड़ी थी। वह दौर उर्दू के महानतम शायरों का था और मुगल सल्तनत की सतत गिरावट के बावजूद यह भाषा तब चढ़ान पर थी। दिल्ली से बीस साल छपने वाले ‘उर्दू अखबार’ से ले कर लखनऊ से लगभग एक सदी तक छपने वाले ‘अवध अखबार’ तक उर्दू पत्रकारिता की महान परंपरा भी मौजूद है। लेकिन इन दोनों अखबारों की शुरुआत 1835 में मेटकाफ वाला प्रेस ऐक्ट आ जाने के बाद हुई थी, जिसमें अखबारों को जिंदा रहने के कुछ हक दिए गए थे।
इनके बरक्स, उदंत मार्तंड 1826 में ही निकल कर पौने दो साल टिक भी गया था, जब प्रेस ऐक्ट जैसी कहीं कोई चीज नहीं थी और एक पर्चा निकालने में भी कंपनी राज की दबिश पड़ जाने का खतरा था। उसकी तुलना सिर्फ आठ साल पहले निकले बांग्ला के ‘समाचार दर्पण’ से की जा सकती है, लेकिन वह बैप्टिस्ट मिशन का मीडिया था, तुलना कैसी?
उदंत मार्तंड से आगे, अभी तक की हिंदी पत्रकारिता की यात्रा और हिंदी साहित्य से उसके रिश्तों पर गहरी बातचीत भी हो सकती है, लेकिन बेहतर होगा कि इस मौके पर कुछ व्यक्तित्वों को, समय-समुद्र में गड़ी हुई उन मशालों को हम ठीक से याद करें, जिन्हें देख कर मेरे जैसे छोटे-मोटे पत्रकार आज भी लहरों में अपनी कश्ती उतार देते हैं।
यहां ‘आज भी’ से मेरा इशारा इस तल्ख हकीकत की ओर है कि पत्रकारों की आम पहचान अभी ‘मीडियाकर्मी’ की बन चुकी है। गोया, मीडिया बड़ी पूंजी से चलने वाली कोई मशीन हो और हमारा काम उसमें कच्चा माल झोंकने भर का हो। असली पत्रकार ओवरऐक्टिंग में निष्णात वे ‘ऐंकर’ माने जा रहे हैं, जो कल को शायद कैमरे पर कत्ल भी करा दें!
खैर, जुगल किशोर शुक्ल और उनके उदंत मार्तंड से आगे की यात्रा हम शुरू करते हैं। कुल 15-20 नामों पर और उनके कामकाज पर एक संक्षिप्त बातचीत के जरिये हम हिंदी भाषा से पत्रकारिता और साहित्य के रिश्ते समझेंगे।
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राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिंद |
राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिंद' और राजा लक्ष्मण सिंह
शुरुआती राहों का द्वंद्व : 'बनारस अख़बार' (1845) और ‘प्रजा हितैषी’ (1855)
पहली बात यह कि दोनों में से कोई राजा नहीं था। शिवप्रसाद जी का परिवार मूलतः मारवाड़ी था। राजनीतिक उठापटक और व्यापार के सिलसिले में उसे कई जगहों से उजड़ कर कई जगहों पर बसना पड़ा। दोहरा दूं कि 1835 वाला प्रेस ऐक्ट आने और 1857 के विद्रोह के बाद हर तरह की आजादियों के पर कतर दिए जाने के बीच 22 साल का समय ऐसा था, जब देसी पत्रकारिता में काफी कुछ किया जा सकता था। दिल्ली के ‘उर्दू अखबार’ ने यह किया और इसका खामियाजा उसके संपादक मौलवी मोहम्मद बाकिर को तोप से उड़ा दिए जाने की सजा की शक्ल में भुगतना पड़ा। 'बनारस अख़बार' का प्रकाशन उसी दौर की परिघटना है, लिहाजा राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिंद' के प्रयास को सिर्फ अरबी-फ़ारसी शब्दों के ज़्यादा इस्तेमाल की तोहमत से नहीं मापा जाना चाहिए।
देवनागरी लिपि को रोजमर्रा के जीवन में दिखने वाली चीज बनाना उनका बहुत बड़ा योगदान है। इस काम के महत्व को समझ पाना भी फिलहाल कोई आसान काम नहीं है। पढ़े-लिखे लोगों, प्रशासनिक काम में दखल रखने वालों की शब्दावली में उस समय फारसी के शब्द भरे पड़े थे। हिंदी का तब तक प्रशासन से या थाना-कचहरी से कुछ भी लेना-देना नहीं था। ऐसे में ‘बनारस अखबार’ आबादी के ‘डिसीजन मेकर’ हिस्से में गया- जितनी भी निर्णय-क्षमता उसके पास रही हो- और उसने अपनी समझ में देवनागरी लिपि के जरिये थोड़ा-बहुत जुड़ता हुआ ही पाया।
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राजा लक्ष्मण सिंह |
यह वह दौर था जब हिंदी के स्वरूप को ले कर कशमकश चल रही थी। एक तरफ सितारेहिंद की 'आमफ़हम' शैली थी, तो दूसरी तरफ राजा लक्ष्मण सिंह जैसे विद्वान थे जो संस्कृतनिष्ठ हिंदी के हिमायती थे। ईस्ट इंडिया कंपनी का पश्चिमी मुख्यालय उस समय आगरे में था और वहां लेफ्टिनेंट गवर्नर के दफ्तर में अनुवादक की नौकरी करते हुए राजा लक्ष्मण सिंह ने ‘प्रजा हितैषी’ नाम की पत्रिका निकाली। 1857 की बगावत में दमखम से कंपनी राज के साथ खड़े होने के लिए उन्हें डिप्टी कलेक्टरी और राजा की उपाधि मिली। उनकी ख्याति कालिदास के पठनीय अनुवादों के लिए है, जो फिर अंग्रेजी में गए और ‘शकुंतला नाटक’ को आईसीएस परीक्षा के सिलेबस में शामिल किया गया।
हिंदी एक स्वतंत्र भाषा है और अरबी-फारसी के बिना भी उसका अस्तित्व संभव है- ऐसा उनका आग्रह स्तुत्य था, लेकिन उनके कई भाषा-प्रयोग आज के हिसाब से पढ़ने में अटपटे लगते हैं। 1930 के दशक की शुरुआत तक हिंदी में राजा लक्ष्मण सिंह की संस्कृतनिष्ठता ज्यादा दिखती है। पाठ्यपुस्तकों में पोटैशियम आयोडाइड के लिए ‘लघुतम का अरुणज’ जैसे प्रयोग भी मिल जाते हैं। लेकिन फिर धीरे-धीरे अंग्रेजी-मिश्रित सितारेहिंद का जोर बढ़ने लगता है। अज्ञेय के उपन्यास ‘शेखर : एक जीवनी’ के पहले हिस्से में संस्कृतनिष्ठ और दूसरे में बोलचाल की हिंदी दिखती है। किताब में किसी जगह उन्होंने भाषाओं के घालमेल को लेकर अपनी पिछली पीढ़ी की उग्र प्रतिक्रिया भी दिखाई है।
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भारतेंदु |
भारतेंदु हरिश्चंद्र
नए युग का आग़ाज़ : 'कवि वचन सुधा' (1868 के बाद)
अब आते हैं हिंदी के 'भारतेंदु' यानी भारत के चंद्रमा, हरिश्चंद्र जी पर, जो सिर्फ एक लेखक न रह कर हिंदी भाषा में एक पूरे युग का नाम बन गए। उनके बारे में कुछ भी कहने से पहले यह बता देना जरूरी है कि 1868 में 'कवि वचन सुधा' जैसा आयोजन उन्होंने मात्र 17-18 साल की उम्र में कर डाला था और कुल 34 साल की उम्र ही उन्हें हासिल हो सकी थी। अपने जीवन में हिंदी के जिस पहले लेखक का काम मेरे हाथ लगा, वह भारतेंदु जी ही थे। नाटकों की एक फटी-चिटी किताब, जिसमें ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ पढ़ कर आठ-नौ साल की उम्र में मैं लोटपोट हो गया था। मेरे ख्याल से, भाषा का मतलब समझने का सबसे अच्छा तरीका भारतेंदु के नाटक पढ़ना ही हो सकता है।
खैर, ‘कवि वचन सुधा’ से आगे 'हरिश्चंद्र मैगज़ीन' और 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' जैसी पत्रिकाओं के ज़रिए भारतेंदु ने हिंदी पत्रकारिता और साहित्य दोनों को एक नई दिशा दी। उनकी कविताएं ब्रजभाषा और उर्दू की काव्य संस्कृति में मजबूती से खड़ी हैं लेकिन खड़ी बोली हिंदी को जान-बूझ कर उन्होंने अपने गद्य लेखन और पत्रकारिता का माध्यम बनाया। यहां एक पहलू की ओर ध्यान खींचना जरूरी लगता है। हिंदी में एक धारा अभी भारतेंदु के चिंतन में हिंदू सांप्रदायिकता के बीज खोजने की है। मेरा निवेदन है कि इस बहस में किसी तरह की जल्दबाजी न की जाय। 1857 के बाद कुछ समय तक उर्दू-द्वेष अंग्रेजी राज की पहचान बना रहा, हालांकि कुछ समय बाद बिल्कुल दूसरे छोर पर जाते हुए वे लोग उर्दू कट्टरपंथ के परम हितैषी भी बने। भारतेंदु का समय अंग्रेजों के उर्दू-द्वेषी दौर का है, जब वे हिंदी वालों के आगे छोटे-मोटे चुग्गे फेंक रहे थे। ऐसे में कुछेक पैराग्राफ चुन कर राय बनाने से हमें बचना चाहिए।
हिंदी-उर्दू विद्वेष के बीच में भारतेंदु की भोजपुरी धर्मनिरपेक्षता तेग अली तेग की रचना ‘बदमाश दर्पण’ के संपादन में जाहिर होती है- ‘जानीला आजकल में झनाझन चली रजा, लाठी लोहांगी, खंजर औ बिछुआ तोरे बदे।’ भारतेंदु ने भाषा को सरल, सहज, ज़िंदादिल बनाया और मूल से बेहतर अनुवाद किए। उनके लेख न सिर्फ समाज की बुराइयों पर चोट करते थे बल्कि लोगों में अपनी भाषा-संस्कृति का सच्चा गर्व पैदा करते थे। पत्रकारिता को उन्होंने राष्ट्र सेवा और भाषा सेवा का हथियार बना दिया। हिंदी गद्य की कई विधाओं की नींव उनके लिखे से ही सख्त होनी शुरू हुई।
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बालमुकुंद गुप्त |
बालमुकुंद गुप्त
व्यंग्य की धार : 'शिवशंभु के चिट्ठे' (19वीं सदी का अंत - 20वीं की शुरुआत)
भारतेंदु के बाद अगला चमकता सितारा बने बालमुकुंद गुप्त। 'अखबारे चुनार', 'कोहिनूर', 'भारतमित्र', 'बंगवासी' जैसे पत्रों में काम करते हुए उन्होंने 'शिवशंभु के चिट्ठे' नाम से जो व्यंग्य लेख 'भारतमित्र' में लिखे, वे आज भी मिसाल हैं। गुप्त जी की भाषा में एक खास तरह की रवानी और तीखापन था- ब्लेड न दिखे और नाक कट जाए, ऐसा। ऐसी ख़बर उन्होंने तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड कर्जन की नीतियों की ली कि अंग्रेज़ सरकार भी हिल गई। हिंदी में न सिर्फ गंभीर विमर्श हो सकता है, बल्कि वह सत्ता को चुनौती देने वाला व्यंग्य भी कर सकती है, यह उनकी पत्रकारिता ने ही दिखाया। गुप्त जी ने हमेशा आमफहम भाषा ही अपनाई, लेकिन उसका इस्तेमाल बड़ी शाइस्तगी से किया। सनसनी को ही पत्रकारिता मान बैठे लोगों को इस धंधे के गुर उनके निबंध संग्रह 'गुप्त निबंधावली' से सीखने चाहिए।
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आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी |
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
'सरस्वती' और हिंदी का मानक रूप (1903-1920)
भारतेंदु ने खड़ी बोली को लोकप्रिय बनाया, तो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उसे संवारा, मांजा और एक मानक रूप दिया। रेलवे और टेलीग्राफ विभागों की नौकरियां छोड़ कर 1903 में जब उन्होंने 'सरस्वती' पत्रिका का संपादन संभाला, तो इसको उन्होंने हिंदी भाषा और साहित्य की टकसाल बना दिया। पता नहीं किस प्रक्रिया में उनकी छवि किसी सख्त 'हेडमास्टर' जैसी बना दी गई है, लेकिन हिंदी पत्रकारिता की सारी विधाएं अपनी हर छटा के साथ इस पत्रिका में दिखाई पड़ती हैं। हीरा डोम की कविता, दलित साहित्य जैसी अद्यतन विधा की पुरखिन ‘अछूत की शिकायत’ यहीं छपी मिलती है। विज्ञान-पर्यावरण पर लिखना मेरी प्रमुख रुचियों में एक रहा है। सरस्वती की फाइलों में इन विषयों पर भी ऐसे लेख मिल जाते हैं, जिन्हें पढ़ने में मजा आता है, सौ साल बाद भी समझ बढ़ती सी लगती है।
लेखकों की भाषा, वर्तनी, व्याकरण की त्रुटियों को द्विवेदी जी खुद सुधारते थे। उन्होंने 'सरस्वती' के माध्यम से अनगिनत नए लेखकों को प्रोत्साहित किया और उन्हें सही दिशा दिखाई, जिनमें मैथिली शरण गुप्त और शुरुआती दौर के प्रेमचंद भी शामिल थे। गद्य की भाषा खड़ी बोली ही हो, और वह व्याकरण के नियमों से बंधी हो, यह द्विवेदी जी ने ही सुनिश्चित किया। हिंदी में निबंध ('रसज्ञ रंजन', 'साहित्य सीकर'), कहानी, आलोचना ('कालिदास की निरंकुशता') जैसी विधाएँ उनके हाथों ही विकसित हुईं। आज की हिंदी पर द्विवेदी जी की मोहर सबसे तगड़ी है।
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गणेश शंकर विद्यार्थी |
गणेश शंकर विद्यार्थी
आज़ादी की ज्वाला : 'प्रताप' (1913 के बाद)
जालियांवाला बाग के सरकारी जनसंहार और असहयोग आंदोलन के दौर में गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर से 'प्रताप' अखबार निकाला। यह वह अखबार था, जिसका प्रूफ पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या के बाद अंडरग्राउंड घूम रहे भगत सिंह पढ़ा करते थे। हिंदू-मुस्लिम दंगा रोकने के लिए भारत में एक ही संपादक शहीद हुआ और वे विद्यार्थी जी थे। 'प्रताप' सिर्फ एक अखबार नहीं, स्वतंत्रता सेनानियों की आवाज़ था, किसानों-मज़दूरों का हमदर्द था। विद्यार्थी जी की लेखनी में ओज था, निर्भीकता थी। उनके तेज से आज भी आंखें चौंधियाती हैं। अपनी पत्रकारिता से उन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत के लिए काफी मुश्किलें खड़ी कीं। 'प्रताप' ने हिंदी को क्रांति की भाषा बनाया। इसमें छपे लेख और कविताएं लोगों में जोश भर देती थीं। भाषा की दृष्टि से देखें तो 'प्रताप' ने आम आदमी की भाषा अपनाई, जिससे उसका संदेश दूर-दूर तक पहुँचा। 'जेल जीवन की झलक' में आप विद्यार्थी जी को आज भी देख सकते हैं।
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' और शिवपूजन सहाय
'मतवाला' मंडल का देसी तेवर (1920 का दशक)
आचार्य द्विवेदी के अनुशासन के बाद हिंदी साहित्य और पत्रकारिता में एक स्वच्छंद और विद्रोही धारा का सूत्रपात हुआ, जिसका एक प्रमुख केंद्र कलकत्ता से प्रकाशित पत्रिका 'मतवाला' (1923) बनी। इसी 'मतवाला' मंडल के एक तेजस्वी सितारे थे महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'। उनकी कविताओं ने छंदों के बंधन तोड़े और जमीनी संवेदना की नई दुनिया रची। प्रसंगवश, निराला की 'जूही की कली' कविता को 'सरस्वती' ने छापने से मना कर दिया था। 'मतवाला' में उनके व्यंग्य लेख, कविताएँ और संपादकीय टिप्पणियाँ छपती थीं, जो उनके विद्रोही और फक्कड़ स्वभाव का परिचायक थीं। उनकी भाषा में ओज, प्रवाह और तत्सम के साथ देशज शब्दों का अद्भुत सामंजस्य था। मेरे ऊपर निराला का जादू उनके उपन्यास ‘कुल्ली भाट’ से चढ़ा, जिस पर कुछ लिखने का मैं मौका तलाशता रहता हूं। विलासिता के गर्त में गया एक ऐसा चरित्र, जो जीवन के एक मोड़ पर पहुंच कर ऊपर ही उठता चला जाता है!
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पांडेय बेचन शर्मा उग्र |
इसी मंडल के एक और निडर लेखक थे पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र', जिन्होंने 'चॉकलेट' और 'दिल्ली का दलाल' जैसी अपनी कहानियों में और ‘कढ़ी में कोयला’ जैसे उपन्यासों में, और तो और, आत्मकथा ‘अपनी खबर’ में समाज के कड़वे यथार्थ, वेश्यावृत्ति, समलैंगिकता जैसे विषयों को बिना कोई रूमानी ओट लिए बेबाकी से उठाया, जिससे उस समय के साहित्यिक जगत में हलचल मच गई। उन्हें यह मंच 'मतवाला' ने प्रदान किया।
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शिवपूजन सहाय |
इसके संपादन से शिवपूजन सहाय भी जुड़े थे, जिन्हें "भाषा का जादूगर" कहा जाता था। उनकी अपनी गद्य शैली तो अद्भुत थी ही- 'देहाती दुनिया' उपन्यास इसका एक नमूना है- लेकिन उन्होंने 'मतवाला' को ऐसा मंच बनाया जहां नए और लीक से हटे हुए विचारों को जगह मिली। इन तीनों बौद्धिकों ने मिल कर हिंदी पत्रकारिता और साहित्य में एक चमक पैदा कर दी।
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प्रेमचंद |
प्रेमचंद
साहित्य के सामाजिक सरोकार : 'हंस' और 'जागरण' (1920 और 30 के दशक)
उपन्यास सम्राट प्रेमचंद सिर्फ महान कथाकार ही नहीं, बल्कि एक सजग पत्रकार और संपादक भी थे। न जाने कब से ‘हिंदुस्तान’ कहलाने वाले इलाके की भाषाई विडंबना जिस एक व्यक्ति में जाहिर होती है, वे प्रेमचंद ही हैं। वे उर्दू गद्य के शीर्ष पर थे, फिर हिंदी गद्य में भी यही जगह हासिल की। लेकिन अच्छा होता कि वे दोनों जगहों पर एक साथ रहते, एक जगह छोड़ कर दूसरी जगह पर पहुंचने की तकलीफ उनके जीवन का हिस्सा न बनी होती। इस दुख को समझने के लिए आप उनकी चिट्ठियां पढ़ें, जिनमें वे ढाका और लाहौर से पैसे आने बंद हो जाने की बात कहते हैं।
कड़वाहट प्रेमचंद के स्वभाव में नहीं थी। वे हमेशा उर्दू से जुड़े रहे लेकिन उनके अंतिम दस वर्षों में उर्दू के प्रकाशन और आलोचकीय ढांचे ने उन्हें खुद से अलग करने की ठान ली थी। बाद में उसने उन्हें अपनाया, लेकिन यह देखने के लिए वे जिंदा नहीं बचे थे। हिंदी में प्रेमचंद ने 'माधुरी' और 'मर्यादा' जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया, फिर 'हंस' (1930) और 'जागरण' (1932) निकाले। अपनी पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने प्रगतिशील विचारों को बढ़ावा दिया और साहित्य को आम आदमी के जीवन और उसकी समस्याओं से जोड़ा। 'गोदान', 'कर्मभूमि' जैसे उनके उपन्यास पहले पत्रिकाओं में धारावाहिक रूप में छपकर ही लोकप्रिय हुए। 'हंस' साहित्यिक पत्रकारिता के लिए मील का पत्थर बन गया। हिंदी गद्य को उन्होंने एक सामाजिक चेतना और यथार्थवादी धार दी, जो इसकी पहचान से जुड़ गई।
माखनलाल चतुर्वेदी
राष्ट्रीय भावनाओं का काव्यमय गद्य : 'कर्मवीर' (1920 के दशक से आजादी मिलने तक)
गांधी की धारा को हिंदी पत्रकारिता की मुख्यधारा बना देने वाले माखनलाल चतुर्वेदी का मुकाम कवि और पत्रकार, दोनों ही रूपों में चोटी का है। ‘पुष्प की अभिलाषा’ जैसी कविता के जरिये अपने दौर में वे कवि सम्मेलनों पर राज करते थे और 'कर्मवीर' और 'प्रभा' जैसे पत्रों के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाते थे। कवि के हृदय और पत्रकार की सजगता का अद्भुत मेल उनकी लेखनी में दिखता था। उनके संपादकीय और लेख ओजपूर्ण होते थे और भाषा में काव्यात्मक प्रवाह रहता था। 'हिमकिरीटिनी', 'हिमतरंगिणी' जैसे काव्य संग्रहों के साथ उनके गद्य लेखन की बानगी 'साहित्य देवता' और 'अमीर इरादे, गरीब इरादे' में देखी जा सकती है।
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अज्ञेय |
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' और रघुवीर सहाय
'प्रतीक', 'दिनमान' और तह में जाने वाली पत्रकारिता (1940 से 1980 के दशक तक)
अज्ञेय हिंदी साहित्य में प्रयोगवाद और नई कविता के प्रणेता माने जाते हैं। साहित्य के साथ-साथ पत्रकारिता में भी उनका योगदान अविस्मरणीय है। 'सैनिक' और 'विशाल भारत' के बाद उन्होंने 'प्रतीक' (1947) निकाला, जिसने आधुनिकतावादी साहित्य को मंच दिया। फिर 'नया प्रतीक' और सबसे महत्वपूर्ण 'दिनमान' (1965) समाचार साप्ताहिक का संपादन किया। अज्ञेय ने हिंदी पत्रकारिता को बौद्धिक गहराई, अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य और समाचार विश्लेषण की नई दृष्टि दी। उनकी भाषा परिष्कृत और प्रयोगधर्मी थी। 'शेखर: एक जीवनी', 'नदी के द्वीप' जैसे उपन्यास और 'आँगन के पार द्वार' जैसे काव्य संग्रह उनके साहित्यिक कद को दर्शाते हैं। लेकिन टाइम्स ग्रुप में, जहां मैंने सबसे ज्यादा समय तक नौकरी की, बतौर संपादक उनका नाम बड़ी इज्जत से लिया जाता है। जब भी टकराव का कोई मौका आया, एक निर्भीक हिकारत बरतते हुए वे मैनेजमेंट के बरक्स लिखने-पढ़ने वालों के साथ खड़े हुए।
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रघुवीर सहाय |
'दिनमान' में अज्ञेय के सहयोगी रहे और बाद में उसके संपादक बने रघुवीर सहाय एक कवि के रूप में बहुत महत्वपूर्ण हैं। इतने महत्वपूर्ण कि उनकी कविता की रेखा आज भी हिंदी कविता के आगे खिंची हुई है। 'लोग भूल गए हैं', 'हँसो हँसो जल्दी हँसो' जैसे उनके कविता संग्रह जितने महत्वपूर्ण हैं, उतनी महत्वपूर्ण एक पत्रकार के रूप में उनकी भूमिका भी है। कविताओं के चयन से ले कर ललित कलाओं की रिपोर्टिंग तक उनका स्पर्श हिंदी में कुछ समय तक बना रहा, फिर जब गया तो पत्रकारिता को पंगु बनाता गया। सहाय जी की पत्रकारिता में आम आदमी की चिंताएं, लोकतंत्र के मूल्य और सामाजिक विसंगतियों पर गहरी नज़र शामिल थी। उनकी भाषा सीधी, मारक और व्यंग्यात्मक थी। 'दिनमान' ने उनके संपादन में खबरों के पीछे की खबर उजागर करने की परंपरा कायम की।
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धर्मवीर भारती |
धर्मवीर भारती
'धर्मयुग' और घर-घर का साहित्य (1960-1980 के दशक)
'गुनाहों का देवता' और 'अंधा युग' जैसी कालजयी रचनाओं के सर्जक डॉ. धर्मवीर भारती ने 'धर्मयुग' साप्ताहिक पत्रिका के संपादक के रूप में हिंदी पत्रकारिता को एक नया मुकाम दिया। उनके संपादन में 'धर्मयुग' सिर्फ एक पत्रिका नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक आंदोलन बन गया। इसने गंभीर साहित्य को आम पाठकों तक पहुंचाया और मजबूत साहित्यिक आग्रहों वाले लोकप्रिय कथा लेखकों की एक नई पीढ़ी खड़ी की। कला, संस्कृति, यात्रा, विज्ञान जैसे विषयों पर भी धर्मयुग ने पठनीय सामग्री प्रस्तुत की। इसकी भाषा सहज, सरल और आकर्षक होती थी, और इसने लाखों की संख्या में नए हिंदी पाठकों को पढ़ने की संस्कृति का हिस्सा बनाया। स्वयं भारती जी के ललित निबंध ('ठेले पर हिमालय') और काव्य ग्रंथ ('सात गीत वर्ष', 'कनुप्रिया') आदि उनकी साहित्यिक समृद्धि के प्रमाण हैं।
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मनोहर श्याम जोशी |
मनोहर श्याम जोशी
'साप्ताहिक हिंदुस्तान' और लोकप्रिय पत्रकारिता का शिखर (1960-70 के दशक)
जब 'धर्मयुग' धूम मचा रहा था, उसी समय 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' भी हिंदी पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण स्तंभ बना, और इसके पीछे एक बड़ा नाम था मनोहर श्याम जोशी का। जोशी जी ने अपनी प्रतिभा से 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' को पठनीयता और लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचाया। उनकी भाषा में गजब की रवानी, हास्य और व्यंग्य का पुट होता था। उन्होंने समकालीन विषयों को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया। पत्रकारिता के बाद वे उपन्यास लेखन ('कसप', 'कुरु कुरु स्वाहा', 'हमज़ाद') और दूरदर्शन धारावाहिकों ('बुनियाद', 'हम लोग') की दुनिया में आए और वहां भी अपने झंडे गाड़े। उनकी पत्रकारिता ने हिंदी को आधुनिक जीवन की धड़कनों से जोड़ा और उसे एक नया पाठक वर्ग दिया।
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कमलेश्वर |
कमलेश्वर
‘सारिका' और कथा आंदोलन (1960-70 के दशक)
नई कहानी आंदोलन के एक प्रमुख स्तंभ कमलेश्वर ने 'सारिका' (1964-78 के आसपास) का संपादन कर उसे हिंदी की सर्वश्रेष्ठ कहानी पत्रिकाओं में शुमार कर दिया। 'सारिका' नए और स्थापित कहानीकारों के लिए एक ऐसा मंच बन गई, जिससे हिंदी कहानी को दिशा और दशा दोनों मिली। कमलेश्वर ने अपनी संपादकीय टिप्पणियों और कहानी चयन से कहानी विधा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। एक कहानीकार के रूप में 'राजा निरबंसिया', 'खोई हुई दिशाएं', 'मांस का दरिया' और उपन्यासकार के रूप में 'कितने पाकिस्तान', 'काली आंधी' उनकी साहित्यिक देन हैं। उनकी भाषा में शहरी मध्यवर्ग की संवेदनाओं और विडंबनाओं की गहरी पकड़ दिखती है।
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राजेंद्र यादव |
राजेंद्र यादव
'हंस' का पुनर्जन्म और वैचारिक संघर्ष की पत्रकारिता (1986 के बाद)
प्रेमचंद द्वारा शुरू की गई 'हंस' पत्रिका को एक लंबे अंतराल के बाद 1986 में राजेंद्र यादव ने पुनर्जीवित किया और उसे हिंदी की सबसे महत्वपूर्ण वैचारिक-साहित्यिक पत्रिका बना दिया। यादव जी ने 'हंस' को स्त्री विमर्श, दलित विमर्श और अल्पसंख्यक विमर्श का एक सशक्त मंच बनाया। उन्होंने नए और साहसी लेखन को प्रोत्साहित किया और कई स्थापित मान्यताओं को चुनौती दी। उनके संपादकीय बहसों को उकसाने वाले हुआ करते थे और समाज में सतह के नीचे चलने वाली खदबदाहटों को मुखर साहित्यिक दायरे के भीतर लाने का श्रेय और किसी से ज्यादा राजेंद्र यादव को ही जाता है। एक कहानीकार, उपन्यासकार और आलोचक के रूप में भी उनका महत्वपूर्ण स्थान है। 'हंस' के माध्यम से शुरू हुई उनकी जरूरी बहसों ने मेनस्ट्रीम मीडिया पर भी असर डाला, जो अन्यथा असंभव था।
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राजेंद्र माथुर |
राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी और सुरेंद्र प्रताप सिंह
राष्ट्रीय आंदोलन के मूल्य बचाने का संघर्ष
स्वतंत्र भारत में हिंदी पत्रकारिता का सबसे दैदीप्यमान समय 1977 से 1992 के बीच माना जा सकता है। इन डेढ़ दशकों के शुरुआती हिस्से में दिल्ली और मुंबई से निकलने वाली तीन साप्ताहिक पत्रिकाओं दिनमान, धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान के बीच एक जिंदादिल होड़ दिखाई पड़ती थी, फिर इस होड़ के अंतिम चरण में कोलकाता से निकलने वाला ‘रविवार’ भी शामिल हो गया। स्वस्थ प्रतियोगिता का ऐसा ही एक नजारा इन्हीं पंद्रह वर्षों के बाद वाले हिस्से में ‘जनसत्ता’ और ‘नवभारत टाइम्स’ के बीच दिखाई पड़ा, जिनके संपादक ‘नई दुनिया’ इंदौर से आए मिशनरी मिजाज के दो पत्रकार प्रभाष जोशी और राजेंद्र माथुर थे। सुरेंद्र प्रताप सिंह को हिंदी की दुनिया ‘रविवार’ के संपादक के रूप में जानती थी, फिर वैसी ही ख्याति उन्होंने नवभारत टाइम्स के कार्यकारी संपादक और ‘आजतक’ के संपादक और मेन एंकर के रूप में भी हासिल की।
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प्रभाष जोशी |
यह पर्चा अब खत्म होने की ओर है। यूं भी यह काफी लंबा हो गया है। लेकिन इन तीनों संपादकों के बारे में साझा बात एक ही कही जा सकती है कि भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के बुनियादी मूल्यों के प्रति इनमें गहरी आस्था थी। इनके व्यक्तित्व और पत्रकारिता की इनकी शैली एक-दूसरे से बहुत अलग थी। राजेंद्र माथुर एक ठोस बुद्धिजीवी पत्रकार थे और उनकी लिखी हुई सामग्री एक सीधी-सरल तर्क प्रणाली में पॉलिटिकल थियरी पढ़ने का आभास देती है। नवभारत टाइम्स के संपादकीय पृष्ठ को एक समय उन्होंने हर हिंदी पाठक के लिए दैनिक जरूरत बना दिया था।
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सुरेंद्र प्रताप सिंह |
प्रभाष जोशी एक जन बुद्धिजीवी थे। वे नियमित लिखते थे और हिंदुत्व की उभरती धारा से प्राय: उसी की भाषा और शब्दावली में राजनीतिक संवाद करते थे। इससे बड़ी बात कि पत्रकारिता के दायरे में वे एक श्रेष्ठ प्रशासक थे और रिपोर्टिंग के लिए जरूरी ढांचा बनाने में सक्रिय भूमिका निभाते थे। जनसत्ता में मेरी नियुक्ति उन्हीं के हाथों हुई थी, सो उनके निजी मिजाज से मैं परिचित हूं। इन दोनों से अलग, एस पी सिंह पूरी तरह खबरों के आदमी थे, बहुत कम लिखते थे और बहुमुखी प्रतिभाओं के धनी थे। ‘पार’ फिल्म की स्क्रिप्ट उनकी लिखी हुई है और खबरों पर आधारित टीवी शो में स्क्रिप्टिंग की क्या भूमिका होती है, यह इस माध्यम पर अपने छोटे से जीवन में उन्होंने करके दिखाया।
आखिरी बात यह कि आगे आप कोई हिंदी अखबार या पत्रिका पढ़ें, या किसी साहित्यिक कृति का आनंद लें, तो याद रखें कि कैसे महान संघर्षों वाली विरासत का हिस्सा बन रहे हैं, और जब किसी प्राइमटाइम न्यूज शो में एक भागीदार को गाली खा कर हार्ट अटैक का शिकार होते देखें तो सोचें कि कैसी अद्भुत चीजों से आपको वंचित किया गया है।
'हिन्दी पत्रकारिता, साहित्य और भाषा' पर चंद्रभूषण जी ने एक बेहतरीन आलेख लिखा है। जब वे साल 1995 में आरा में थे और 'समकालीन जनमत' के संपादन से जुड़े थे तो उन दिनों मैं भी आरा लौट आया था, वल्लभ विद्यानगर, गुजरात से रिसर्च पूरा कर। उन दिनों जनमत में उन्होंने मेरी एक कविता प्रकाशित की थी-'चीज़ें बदल रही हैं'। आरा में उनसे भोला की पान गुमटी,नवादा में मेरी दो-चार मुलाक़ातें हैं। तब से आजतक उन्होंने लेखन के क्षेत्र में बहुत काम किया है। इतने अच्छे लेख के लिए बधाई और शुभकामनाएँ। -- चंद्रेश्वर/ लखनऊ
जवाब देंहटाएंशुक्रिया चंद्रेश्वर जी। मुलाकातें आप से ज्यादा नहीं रहीं, लेकिन आप का काम हमेशा नजर में रहा। उम्मीद है, कभी फिर ऐसे ही मिलना हो जाएगा।
हटाएंबेनामी नहीं हूं मैं। यह टिप्पणी वीरेन्द्र कुमार vksingh1963@gmail.com द्वारा की गई है।
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