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कमल जीत चौधरी |
रचनाकारों की एक सामाजिक भूमिका होती है जिसका वे स्वेच्छा से वरण करते हैं। आज के साइवर युग में आम आदमी की मुसीबतें कुछ ज्यादा ही बढ़ी हैं। लोभ की एक छोटी सी गलती आपको दिवालिया बना सकती है। ए आई से आपको वैसा रेखांकित किया जा सकता है जैसे आप दूर दूर तक नहीं दिखाई पड़ते। इस बात में कोई संशय नहीं कि सोशल मीडिया आज प्रतिरोध का एक बड़ा मंच बन चुका है बावजूद इसके इसी मंच पर किसी के बारे में दुष्प्रचार भी किया जा सकता है। नेट पर उपलब्ध जानकारी को ही शब्द ब्रह्म मानने वाले नहीं जानते कि वहां भी तमाम जानकारियां झूठी हैं। व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी के कारोबार से आज कौन परिचित नहीं है। आज परिदृश्य इतना धुंधला है कि गलत सही में फर्क कर पाना मुश्किल काम है। ऐसे में अब रचनाकारों को इन मुद्दों को विषय बना कर लिखना होगा। यह चुनौतीपूर्ण जरूर है लेकिन असम्भव नहीं है। आलोचना त्रैमासिक ने अपने अंक 77 को '21वीं सदी की हिन्दी कविता' पर केन्द्रित किया है। हालांकि हर सम्पादक की अपनी सीमा होती है लेकिन उसकी अपनी दृष्टि भी होती है। इन अर्थों में यह एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है। इस अंक में कुछ कवियों की कविताओं के साथ उनका एक वक्तव्य भी प्रकाशित किया है। कवि कमल जीत चौधरी का वक्तव्य आज हम आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कमल जीत चौधरी का आलेख 'देश में नकारात्मक एकता बढ़ी है'।
'देश में नकारात्मक एकता बढ़ी है'
कमल जीत चौधरी
पिछले डेढ़ दशकों में दर्जनों ब्लॉगस और फेसबुक जैसे मंच सामने आए। इन्होंने हिन्दी कविता को नए पाठक और नए कवि दिए। अनुनाद, जानकी पुल, सिताब दियारा, पहली बार, तत्सम, बिजूका, समालोचन आदि ब्लॉगस और सदानीरा, कविता कोश जैसी वेबसाइट्स ने हिन्दी कविता को प्रचारित करने का कार्य किया। इस बीच 'स्वर एकादश' (स. राज्यबर्धन), ‘कंटीले तार की तरह’ (स. संजय कुंदन), शतदल (स. विजेंद्र), 'मुझे आई डी कार्ड दिलाओ' (स. कमल जीत चौधरी), 'दहशत में कविता' (स. सतीश विमल), 'युवा द्वादश' (स. निरंजन श्रोत्रिय), 'हिन्दी कविता: संभावना के स्वर' (स. नील कमल), तिमिर में ज्योति जैसे (स. अरुण होता), दूसरी हिन्दी (स.निर्मला गर्ग) जैसे साझे कविता संकलनों, और आलोचना, रेतपथ, यात्रा, माटी, समय के साखी, लमही आदि पत्रिकाओं के कविता विशेष अंकों, साहित्यिक वार्षिकियों के साथ-साथ हिन्दवी के 'इसक' जैसे चयन ने 21वीं सदी की कविता को अपने-अपने नज़रिए से पेश किया है। इनमें 21वीं सदी की कविता की लौ और कमियां देखी जा सकती है।
पीछे मुड़ कर देखें तो बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हमारे देश की ही नहीं, बल्कि विश्व राजनीति ने विभिन्न तरह से हमारे समाज को प्रभावित किया। तत्कालीन राजनीति ने हमारे धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक परिवेश को ऐसा तीखा मोड़ दिया कि भयानक दुर्घटनाओं का सिलसिला शुरू हो गया, जो फ़िलहाल रुकता नज़र नहीं आ रहा। 21वीं सदी की शुरुआत 2002 के गुजरात दंगों से हुई। धर्म का राजनीतिकरण और ध्रुवीकरण पहले भी होता रहा है, मगर अब यह पहले से भी घातक रूप में होने लगा है। पिछली सदी के कवियों के सामने भी बड़ी चुनौतियाँ थीं। आज़ादी के बाद मोहभंग, अकाल और भुखमरी, 1962, 1965 और 1971 के युद्ध, नक्सलवाड़ी किसान आन्दोलन, चौरासी के दंगे, पंजाब में खालिस्तानी आतंक, आपातकाल, जम्मू-कश्मीर में पनपा आतंकवाद, विस्थापन, बाबरी मस्जिद विध्वंस, भूमंडलीकरण, उदारीकरण और आवारा पूंजी के बीच दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों की स्थिति और समस्याओं पर हिन्दी कवियों ने लिखा। इनमें चौरासी के दंगों और पंजाब में फैले आतंक पर कम से कम लिखा गया, क्यों? इसके कारणों की पड़ताल होनी चाहिए।
दूसरी और दलित संवेदना और जम्मू-कश्मीर की समस्याओं को ले कर जो लिखा गया, उसे हिन्दी आलोचना में सही ढंग से रेखांकित नहीं किया गया। मेरा ख़याल है कि पिछले तीन दशकों से सीमांतों/ हाशियों/ हिन्दीतर क्षेत्र की हिन्दी कविता का अवदान अनुपम है। इसने भारतीय कविता के आंगन को बड़ा किया है। 21वीं सदी की कविता का प्रस्थान बिंदु इन्हीं क्षेत्रों में देखा जा सकता है। 1990 के बाद; हिमालयी-कविता विशेषकर जम्मू-कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ और इसके पैरों/ भारत-पाक सीमा रेखा के पास रहने वालों ने हिन्दी कविता को कुछ नई प्रवृत्तियॉं दीं। विस्थापन, सीमा रेखा के जीवन, आतंक और सैन्य बल के साए की भयावहता और प्रतिरोध इनमें से प्रमुख हैं। हिन्दी कविता को पहाड़, जंगल, रेत और समुद्र से सम्बन्ध रखने वाले कवियों ने मौलिकता दी है। यह सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं और इनकी सीमा भी है। इनमें से कुछ कवि पॉलिटिकली करेक्ट नहीं हैं, तो भी विभिन्न कारणों से उन्हें रेखांकित करने की आवश्यकता है।
2002 के गुजरात दंगों के बाद; 2008 पर नज़र टिक जाती है। मेरे प्रदेश जम्मू-कश्मीर में यह वह समय था, जो आज के भारत को समझने में सहायक हो सकता है। दक्षिणपंथी सियासत ने अमरनाथ भूमि-विवाद को दो खित्तों के पुराने संघर्ष को दो धर्मों की खुली लड़ाई में बदल दिया। जनता के एक बड़े हिस्से में एक दूसरे के प्रति असुरक्षा, डर और उन्माद पैदा किया गया। कश्मीरी पण्डितों के विस्थापन के बाद राजनीति ने जम्मू और कश्मीर के आम लोगों को परस्पर घृणा, पूर्वाग्रह और दूरियाँ दीं। पहले यहाँ प्रांतीय दुर्भावनाएं पैदा की गईं फिर धार्मिक कट्टरता।
2012 आते-आते ये वृत्तियाँ पूरे भारत में पनप गईं। खलनायकों को नायक और नायकों को खलनायक बताए जाने, और जननायकों को छीने जाने की चालें और तेज़ हो गईं। मीडिया और सोशल मीडिया पर; भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल लाल नेहरु और महात्मा गाँधी की भूमिका को सन्देह से भर दिया गया। इसमें फ्लॉप फिल्मी अभिनेताओं-अभिनेत्रियों, अवसरवादी कवियों - कलाकारों, खिलाड़ियों और पत्रकारों की सहायता ली गई। सोशल नेटवर्किंग पर देश को नया इतिहास पढ़ाने की मुहिम शुरू हुई। आम आदमी को मोबाइल सिम और एक साल तक के लिए इंटरनेट डेटा मुफ़्त उपलब्ध करवाया गया। अंतत: इसी डेटा के बल पर हमारा डेटा (मानसिकता) प्राप्त किया गया, इसी के आधार पर क्षेत्र विशेष के लोगों को उनकी मानसिकता अनुसार अच्छे-बुरे सपने बेचे गए। जिसके बाद आज तक लोगों को ऐसे सपने बेचे जा रहे हैं, जिनका अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और सुरक्षित भविष्य से कोई सम्बन्ध नहीं।
हिन्दी आलोचना ने हिन्दी कविता को आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, आधुनिक कविता और इसी के अंतर्गत भारतेंदु युग, द्विवेदी काल, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता, साठ उत्तरी कविता, अकविता, आठवें दशक की कविता आदि नामकरण दे कर; इसका मूल्यांकन किया। हमें इन आन्दोलनों की उन समान-प्रवृत्तियों को एक परम्परा के रूप में देखना चाहिए, जो करुणा, प्रेम, प्रतिरोध, सामूहिकता, मुक्ति जैसे उदात्त जीवन-मूल्यों को अभिव्यक्त करती आई है। यह वह परम्परा है जो आम आदमी की बात करते हुए; आम रास्तों को नहीं चुनती, जो कलावादी ढांचों में नहीं ढलती है। इस नज़र से देखने पर हमारे सामने कम कवि ऐसे बचते हैं, जो बचना नहीं चाहते हैं। यह कविताई अपने धर्म, जाति, प्रांत, राष्ट्र और लिंग से ऊपर उठकर आम आदमी और मानवता के हक़ में हमेशा खड़ी रही है। 21वीं सदी के तेईस सालों में इस परम्परा के वंशजों के सामने पहले से भी बड़ी चुनौतियाँ पेश आ रही हैं, यह आगे जाकर और बढ़ सकती हैं।
धर्म आज शासकों के अधीन हो गया है। संकुचित राष्ट्रवाद हमारे संविधान और इतिहास से ऊपर हो चला है। जनतांत्रिक मूल्य नष्ट किए जा रहे हैं। स्त्री-संसार को संकुचित किया जा रहा है। उत्तर कोरोना काल ने सब ऑनलाइन बना दिया है, इसने बच्चों का बचपन छीन लिया है। नए भारत में ज़्यादातर बच्चे सीधे जवान हो रहे हैं। टेलेंट हंट के नाम पर बहुत छोटे-छोटे बच्चों को बरता जा रहा है। समाज को मध्यकालीन सामंतीय दृष्टि से स्थापित किए जाने के उपक्रम हो रहे हैं। कविता, कला, गीत-संगीत, सपनों और 'बड़े' की परिभाषाएँ बदली जा रही हैं। आज उसे बड़ा आदमी माना जाता है, जो अमीर और ताकतवर हो, और बड़ा कवि उसे माना जाता है, जो पुरस्कृत हो, जो संपादक हो, जो निर्णयाक मण्डलों में हो या जिसे लिट-फेस्टिवल्स में बुलाया जाए। मगर सत्य यह है कि ज़्यादातर पुरस्कार अपना महत्व और उपयोगिता खो चुके हैं, और लिट फेस्ट कोई दिशा देने के बजाए ग्लैमर, रूमान और सतही की स्थापना कर रहे हैं।
भारतीयता की पहचान अनेकता में एकता, विविधता, वसुधैव कुटुम्बकम, विश्व बंधुत्व में रही है। हिन्दी के प्रखर चिंतक कवि मुक्तिबोध ने लिखा था---
'चाहे जिस देश, प्रांत, पुर का हो
जन - जन का चेहरा एक
एशिया की यूरोप की अमरीका की
गलियों की धूप एक...'
इस सदी में भी कुछ ऐसे कवि सामने आए हैं, जिनकी चिंताएँ और सरोकार वैश्विक हैं। वे जानते हैं कि धरती सबकी माँ है। हिन्दी के यह सचेत कवि अन्याय, युद्ध, शोषण, फासीवादी ताकतों का विरोध करते हैं। मंगलेश डबराल जी के भावों में, वे नए युग में शत्रु को पहचानते हैं। ऐसे चंद प्रतिबद्ध कवि; सत्ता-प्रायोजित पुरस्कारों, लिटरेचर फ़ेस्टिवल्स, साहित्यिक यात्राओं और मीडियोकरों की निशानदेही करते हैं और अपने लेखन में इनका विरोध भी करते हैं। उन्हें मालूम है कि किस प्रकार ऐसे आयोजन आम आदमी की आवाज़ बनने वाली कविता के पैनेपन को कुंद कर रहे हैं। आज हमारी सांस्कृतिक विरासत और भूगौलिक समृद्धि को नष्ट किया जा रहा है। हमें एक ही रंग और रौ में बदलने की भरपूर कोशिश जारी है। हिन्दी में हज़ारों कवि लिख रहे हैं, मगर ऐसे कम हैं जो यह बात समझना चाहते हैं कि विपक्षमुक्त का अर्थ होता है---लोकतंत्र-मुक्त। एक दृष्टि, एक लक्ष्य, एक राष्ट्र की बात करने वाले दरअस्ल इस महादेश की आत्मा को मारना चाहते हैं, जो अनेक राष्ट्रों, भाषाओं, संस्कृतियों और दृष्टियों का एक सुन्दर समूह है।
21वीं सदी के पहले दशक से ही धार्मिक कट्टरपंथी ताकतें ऐसा दुष्प्रचार कर रही थीं कि जम्मू को आने वाले दिनों में समुदाय विशेष से खतरा है। उनका कहना था कि जम्मू , साम्बा, कठुआ, उधमपुर बहुसंख्यक समुदाय से घिरने लगा है। ऐसा कहने वालों ने यह नहीं बताया कि अगर राज्य में अल्पसंख्यकों को खतरा है तो देश में अल्पसंख्यंक कैसे सुरक्षित हैं। इधर हिन्दी कविता में कुछ ऐसी कविताएं सामने आईं हैं जो हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों और इस पर होने वाली राजनीति को दर्शाती हैं। ऐसी कविताएं जम्मू-कश्मीर के कुछ कवियों ने भी लिखी हैं। दूसरी और कुछ ऐसे स्वर भी हैं, जो राजतंत्र के समय के मुस्लिम-आक्रांताओं और शासकों के अत्याचारों की माफी; आज़ाद भारत के मुस्लिम नागरिकों से मँगवाना चाहते हैं। ऐसी मानसिकता वालों को विभाजन में हुए कत्लेआम के भुक्तभोगी-- पूर्वी और पश्चिमी पंजाब से सीखना चाहिए। दोनों ने हृदयविदारक पीड़ा को अपनी सांझी विरासत, कला और साहित्य का मरहम लगाकर पश्चाताप किया है। वे एक दूसरे के प्रति स्नेह-सम्मान से भरे रहते हैं, इस बात को आप दोनों ओर के पंजाबी कलाकारों-किसानों के यू ट्यूब चैनल्स पर आई टिप्पणियों से पुष्ट कर सकते हैं। इसके विपरीत अन्य प्रांतों में आज़ादी के बाद विश्वासबहाली तो क्या होती, उल्टा विभाजन के दंगों का उत्तरोत्तर जम कर राजनीतिकरण किया गया।
लोग रोज़गार और शिक्षा पाने के लिए दुर्गम स्थानों से अनुकूल इलाकों में आते रहे हैं। इस आने पर; किसी को किसी से घिरता हुआ महसूस करवाया जाता रहा है। वास्तव में घिरने की यह मानसिकता राजनीति के गिरने का प्रमाण है। इधर देखते-देखते साम्बा जैसा सुन्दर क्षेत्र, इसकी छोटी सी नदी बसंतर और मेरा गाँव-अंचल इंडस्ट्री द्वारा घिर गया। इस देश की अधिकतर नदियाँ, तालाब, खेत, गाँव, चरागाहें और जंगल तथाकथित विकास से घिरते जा रहे हैं। दुख:द आश्चर्य है कि इससे किसी को कोई खतरा नहीं है।
हिन्दी कविता के भक्ति काल और छायावाद में प्रकृति की अनुपम छटा दिखाई देती है। दोनों कालों में प्रकृति का दोहन नहीं हो रहा था, फिर भी कवियों ने प्रकृति से अगाध प्रेम दर्शाया है। दरअस्ल यह अभिव्यक्ति तत्कालीन समाज के प्रकृति-प्यार को दर्शाती है। दुःखद आश्चर्य है कि इस समय; जब मानव जाति के सामने सबसे बड़ा खतरा: प्रकृति का विनाश और ए.आई. है। ऐसे में आदिवासी क्षेत्रों से आने वाली कविता के सिवाय अन्य जगहों पर जल, जंगल और ज़मीन की चिंताएँ प्राथमिकता में नहीं हैं। ए.आई. के खतरों पर तो कुछ खास कहा ही नहीं जा रहा। इक्कसवीं सदी के पहले खण्ड में हिन्दी कविता इस मायने में आगे बढ़ी है कि इसमें बहुत संख्या में ऐसे कवि शामिल हुए हैं, जो हिन्दी की नौकरी नहीं करते। ये कवि आई आई टी, कम्प्यूटर, विज्ञान, प्रबन्धन, इंजीनियरिंग आदि क्षेत्रों से सम्बन्ध रखते हैं। इन कवियों से यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि वे विज्ञान व तकनीक के दुरुपयोगों से सचेत करने वाली कविताएँ लिखें। आज घर, रेस्तरां, मॉल, सिनेमा से ले कर सड़कों तक; नकली हरियाली और मशीनी सौन्दर्यबोध है, और निम्न मध्यवर्ग के बैग में भी पानी की बोतल और फ्लैट की किस्तें अपना स्थायी स्थान बना चुकी हैं। पर्यावरण सरंक्षण मात्र फोटो खिंचाने, प्रेस विज्ञप्ति लिखने और भाषण देने तक सीमित हो गया है। आवारा पूंजी की नज़र हमारे प्राकृतिक संसाधनों, विशेषकर हिमालय पर है। पिछली सदी में आदिवासी क्षेत्रों के संसाधनों को जीभर कर लूटा गया। अब विश्व की फासीवादी, साम्राज्यवादी और पूंजीपति ताकतों की नज़र हमारे हिमालय और मानव संसाधन पर टिकी है। ऐसी सत्ताएँ हथियार बेचने के लिए युद्ध करवा रही हैं। छद्म ही इनका वास्तविक रूप है। यह ताकतें; अपने मोहरों के माध्यम से जन मानस में एक काल्पनिक शत्रु का भय और डर पैदा करने में सफल हो गई हैं। पंजाबी शायर साबिर अली के भावों में कहूँ तो आज ग़ुलामों के ग़ुलाम हम पर राज कर रहे हैं। हम झूठे अतीत गौरव में डूबे हैं, और सनातन की एक टहनी से कुल्हाड़ी बना कर इसी पेड़ को काटने वालों के साथ खड़े हैं।
पिछले डेढ़ दशकों से हमारे समाज में नकारात्मक एकता बढ़ी है, यानी अलग-अलग जातियों, वर्गों के लोग इस बात पर एकमत हैं कि धर्म/ खित्ते/ जाति विशेष के लोग हमारे लिए खतरा हैं। ऐसी नकारात्मक एकता; अधिकतर हिन्दी कवियों में भी देखी जा सकती है। वे इस पर सहमत हैं कि राजनीति और साहित्य में वाम रास्ता ग़लत है। दूसरी ओर समतावादी चेतना से जुड़े कवि असहमति और बहस के नाम पर प्राय: एक दूसरे से लड़ते रहते हैं। वे लेफ्ट, अल्ट्रा लेफ्ट, लिबरल, रेशनल, समाजवादी धड़ों में बंटे एक दूसरे को नीचा दिखाने में कसर नहीं छोड़ते। वे उन युवा कवियों का हाथ नहीं थाम रहे, जिनकी किताबों में अगाध प्रेम, प्रतिरोध और सामूहिक सपनों की दहक और उड़ान दिख रही है। वक्तव्य के शुरू में जिस वंशज परम्परा की बात की थी, उसे पहचानकर प्रतिष्ठित करना चाहिए। यह कार्य पिछली सदी के प्रगतिशील कवियों, आलोचकों और शिक्षकों का दायित्व है। वरना आज अधिकतर प्रकाशक, संपादक, आलोचक, साहित्यिक संस्थाएँ, शिक्षा संस्थान, हिन्दी शिक्षक, पाठ्यक्रम, पाठक, श्रोता और स्वयं कवि भी प्रगतिशील हिन्दी कविता के खिलाफ खड़े दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में जिनकी मुट्ठी हवा में लहरा रही है, उनके सामने कठिन चुनौतियाँ और बड़ी जिम्मेवारियाँ हैं। पीछे इन पर काफी कुछ कह चुका हूँ। अंत में निम्नलिखित बिन्दु सामने हैं:
1- कवियों को समझना चाहिए कि स्वामी बदलने से व्यवस्था नहीं बदलती। व्यवस्था बदलाव के लिए जनमानस को बदलने की आवश्यकता है। ये लम्बे रास्ते हैं, बहुत लम्बे। हमें राष्ट्रभक्ति और देशभक्ति, राजद्रोह और देशद्रोह, संविधान और धर्म, धर्म और विज्ञान, एकांत और अकेलापन, झुण्ड और समूह, राजनेता और जननेता, शिक्षा और डिग्री, भाग्य और कर्म, क्रांति और विद्रोह जैसे विषयों पर खुल कर लिखना-बोलना होगा। आम आदमी से स्नेह भरा संवाद बनाना होगा, लेकिन आमने-सामने।
2- पहले आम आदमी के पास सिर्फ रोटी कपड़ा और मकान के सवाल थे। अब सत्ता ने उसके सामने इतने सवाल रख दिए हैं कि हम कवियों को उनसे सवाल नहीं पूछने चाहिए। बल्कि सत्ता से सवाल पूछते हुए जन को इनके सही उत्तरों तक ले जाना होगा।
3- आज जीवन का बड़ा अंश ग़ुलामी को आज़ादी समझ रहा है। सत्ता ने तकनीक व संचार की सहायता से हमारी सेंसस पर अपना ध्वज फहरा दिया है। एक वर्चुअल दुनिया बनाए जाने के उपक्रम हो रहे हैं। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से जो मशीनी मानव बनेगा, वह धरती का मालिक बन सकता है। ऐसी आंशका भी व्यक्त की जा सकती है कि हमारी भावनाओं की सुन्दर दुनिया ऐसे ब्लैक होल में जा सकती है, जहाँ कविता-कला की रोशनी बुझ जाएगी।
4- अब सारे संस्थान; विशेषकर शिक्षा, कला और संस्कृति के इदारे; सत्ता के कब्जे में हैं। यह घातक है कि लोग इतिहास और साहित्य उसी को मानने लगे हैं, जो उनके फोन/ लैपटॉप पर दिख जाए। कभी चन्द्रकांत देवताले जी ने 'यमराज की दिशा' नामक कविता लिखी थी, आज हर तरफ दक्षिण दिशा है, एक मृत्यु से पहले अनेक मृत्यु हैं।
5- पिछली सदी में नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन ने हिन्दी कविता को नई ऊर्जा, ताकत, सार्थकता, और ताप दिया , मगर इधर के किसान आन्दोलन ने कवियों को कटघरे में खड़ा कर दिया। वे खेत, किसान और पूंजी सम्बन्धों की शिनाख़्त करने वाली कविताएँ कम ही लिख पा रहे हैं।
6- फैसला ऑन दी स्पॉट के फिल्मी तर्ज पर अपराधियों को सड़क बीच गोली मार देने, किसी नागरिक की लिंचींग करने को न्यायसंगत मान लेने की मानसिकता, धर्म को संविधान से ऊपर समझना, साम्प्रदायिकता के अलावा व्यक्ति पूजा की बढ़ती वृत्ति भी एक चुनौती है।
7- हिन्दी कविता वन लाइनर और वाह-आह सूक्तियों में बदलती जा रही है। इस युग को पोस्टर काल नहीं बनने देना है।
8- हिन्दी कविता के सामने फासीवादी शक्तियां एक बड़ी चुनौती है। उससे बड़ी चुनौती है कि आज 'बिग ब्रो इज़ वॉचिंग यू' की भाषा भी जनभाषा हिन्दी ही है, और कवियों को इसी हिन्दी में उसे (बिग ब्रों) सबके सामने लाने का कार्य करना है।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क:
मोबाइल : 09419274403
मुझे याद नहीं आखिरी बार इतना मानीखेज आलेख मैने पढ़ा कब।कमलजीत की अपनी दृष्टि है चीजों को लेकर साहित्यिक बदलाओं को लेकर और कितना ही कुछ इसमें ऐसा है जो बहुत प्रासंगिक है ।कमलजीत का शुक्रिया
जवाब देंहटाएंबहुत मौजूं आलेख है, कमलजीत जी की दृष्टि वो सब देख रही है जिसे हमारे समाज ने अनदेखा किया हुआ है. शुक्रिया इस लेख के लिए.... अनुरोध
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